यह भावुकता की फांस से
बाहर निकलकर बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से सोचने और विवेक को आजमाने का क्षण है
भारत में जनवरी महान गणतंत्र,
महात्मा गांधी और नेताजी सुभाषचंद्र बोस का महीना है। भारत में ही नहीं पूरी
दुनिया में 30 जनवरी का दिन सभ्यता के पुनरावलोकन का दिन है। यह वह
तारीख है जिस दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या हुई थी। महात्मा गांधी का
सभ्यता विचार कुछ मामलों में अव्यावहारिक चाहे जितना हो, अवांछित तो
रत्ती भर नहीं है।
महात्मा गांधी की दृष्टि
आध्यात्मिक नैतिकता के उस आकाश पर टिकी थी जिस आकाश में उड़ने के लिए सभ्यता के
सपनों के पंख में अभी ताकत नहीं आई है। यह क्षण भावुक कर देने वाला है। यह भावुकता
की फांस से बाहर निकलकर बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से सोचने और विवेक को आजमाने का क्षण
है, यह आज से पहले के किसी काल-खंड से अधिक जरूरी है।
दो लोगों के बीच जीवन-बोध के
किसी भी प्रसंग में कोई मतभिन्नता न हो तो निश्चित ही उन में से कोई एक मानसिक
दासता में फंसा हुआ है। मतभिन्नता के बावजूद यदि दो लोग जीवन-बोध के उसी प्रसंग
में बिना किसी मन-भेद के एक मत नहीं होते हैं तो उन में से कोई एक निश्चित रूप से
या तो बेवकूफ है या फिर स्वार्थांध- धूर्त और ‘मतवाला’।
एकमत और सहमत में अंतर है। दो
या विभिन्न मत के लोगों का मिलकर एक मत को स्वीकार लेना एकमत होना होता है,
बिना किस भिन्न मत के किसी मत को स्वीकार लेना सहमत होना होता है। ‘स्वीकार’,
एकमत और सहमत दोनों का साझा पद है। लोकतंत्र एकमत के ‘स्वीकार’ की सब से
सम्यक व्यवस्था होने के कारण महत्त्वपूर्ण है।
महात्मा गांधी से अधिकतर लोग
सहमत होते थे, वे गांधीवादी के रूप में जाने जाते हैं। कुछ लोग गांधी
से एकमत होते थे, वे गांधी प्रशंसक और समर्थक माने जाते हैं। कुछ लोग
गांधी जी से न सहमत थे, न एक मत वे गांधी विरोधी कहे जाते हैं।
महात्मा गांधी से सहमत या
एकमत न होने वाले विरोधियों का अपना तर्क होता है। उनके तर्क का एक बहुत बड़ा भाग,
लगभग पूरा ही, धर्म और समुदाय के मामले से जुड़ा होता था। महात्मा गांधी के विरोधियों के पास क्या तर्क थे, जो उन्हें
गांधी हत्या के फैसले के अंजाम तक ले गया! सामान्यतः इस पर बहुत ध्यान देने की
जरूरत नहीं होनी चाहिए।
इस समय महात्मा गांधी की
हत्या करने वाले की ‘पूजा’ करने पर आमादा लोगों की संख्या बढ़ रही है, कहते
हैं उनके हाथ में संस्कृति की ढाल है। किस संस्कृति की! उनके हाथ में संस्कृति की
नहीं, राजनीति और सत्ता की ढाल है।
12 जनवरी 1948
को महात्मा गांधी ने वायदे के मुताबिक पाकिस्तान को 55 करोड़
रुपये देना रोके जाने के खिलाफ उपवास शुरू कर दिया था। इस खबर से नाथूराम विनायक
गोडसे को लगा कि महात्मा गांधी ‘जनतांत्रिक सरकार’ के कार्य में दखल दे रहे हैं,
इसलिए महात्मा गांधी की हत्या (उनकी शब्दावली में वध) सब से पहले करना जरूरी
हो गया क्योंकि महात्मा गांधी का जीवन उसे राष्ट्र के लिए ‘जीने-मरने’ जैसी
समस्याओं की तरह लगा।
इस सोच के साथ नाथूराम विनायक
गोडसे ने 30 जनवरी 1948 की शाम महात्मा गांधी की हत्या कर
दी। आजीवन सत्य और अहिंसा को अपना जीवन-मूल्य बनाये रखने वाले महात्मा गांधी को
जीवन की कीमत पर अपने जीवन-मूल्य की रक्षा करनी पड़ी। इसके पहले महात्मा गांधी ने
‘उपवास’ के माध्यम से कठोर ब्रिटिश हुकूमत से अपनी मांग मनवाई थी, तब
उसे ‘उपवास’ सरकार के काम-काज में ‘हस्तक्षेप’ नहीं लगा!
इस पर ध्यान दें कि अपनी मांग
मनवाने के लिए भूख हड़ताल या उपवास करना ‘जनतांत्रिक सरकार’ के कार्य में दखल मानकर ‘गांधी की हत्या’ कर दी गई। गांधी की हत्या से पूरा देश सन्न रह गया। दुखी और अनाथ!
महात्मा गांधी की हत्या पर दुनिया भर के लोगों की प्रतिक्रिया सामने आई, कुछ कि
चर्चा यहां जरूरी है—
प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन
जैसे कई लोग जो गांधी जी को पहले ही महत्त्वपूर्ण और महान मानते थे उनकी तो बात ही क्या जार्ज ऑरवेल जिसने कभी गांधी को दिखावटी इंसान कहा था, उसने भी महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी और संत माना। जार्ज बर्नाड शॉ ने कहा कि गांधी की हत्या बताती है कि ‘अच्छा होना कितना खतरनाक है’। जिन्ना ने कहा कि ‘हिंदू समाज को गहरी क्षति’ पहुंची है।
नाथूराम विनायक गोडसे ने
‘हिंदू हित और राष्ट्र के जीने-मरने’ का सवाल मानकर जिस गांधी की हत्या कर दी,
उस गांधी की हत्या को मोहम्मद अली जिन्ना ने ‘हिंदू समाज को गहरी क्षति’
पहुंचाने वाला माना। अंततः महात्मा गांधी को अच्छा मानकर जार्ज बर्नाड शॉ ने ‘अच्छा होने को खतरनाक’!
आज जब हम लोकतांत्रिक मूल्यों
पर खतरे की बात करते हैं तो क्यों करते हैं! इसलिए कि महात्मा गांधी की हत्या करने
वाले, नाथूराम विनायक गोडसे की ‘पूजा’ किये जाने के समर्थक लोग सत्ता
में हैं। इनकी वैचारिक पृष्ठभूमि बताती है कि अपनी मांग मनवाने के लिए भूख हड़ताल या उपवास करना जनता का ‘लोकतांत्रिक’ अधिकार नहीं, ‘जनतांत्रिक सरकार’ के कार्य में दखल देने का दुष्ट कार्य होता है।
संविधान ‘भूख हड़ताल या
उपवास’ को अमान्य नहीं करता है, तो वह संविधान खुद अमान्य किये जाने
के योग्य है! जो अदालत ‘भूख हड़ताल या उपवास’ को असंवैधानिक घोषित न करे वह अदालत अमान्य किये जाने योग्य है! इसी “सशक्त वैचारिक पृष्ठभूमि” के बल पर महीनों तक चले किसान आंदोलन से निपटा गया, जंतर मंतर
पर यौन दुर्व्यवहार के विरोध में बैठी ऑलंपिक विजेता पहलवानों के साथ सरकार पेश
आई!
ऐसे कई उदाहरण बिना ढूंढ़े ही
मिल जा सकते हैं। भयानक है लोकतंत्र में जीवन जीते हुए यह सोचना कि ‘भूख हड़ताल या उपवास’ ‘सरकार’ के कार्य में दखल देना या बाधा पहुंचाना होता है!
सत्ता और बलवानों की
आक्रामकता इस समय की मूल प्रवृत्ति बन गई है। आक्रामक विकास और भ्रामक जनतंत्र का
यह दौर है। इस दौर में भ्रष्टाचार और हिंसा का सबसे ज्यादा बोलबाला है। यह बिल्कुल
नई बात, पांच-दस साल की बात नहीं है।
नयी बात है, हिंसा
और भ्रष्टाचार का इतने बड़े पैमाने पर संगठित हो जाना। नकारात्मक प्रवृत्तियों के
इतने बड़े पैमाने पर संगठित होने का आक्रामक विकास से गहरा संबंध है। महात्मा
गांधी हमेशा इस तरह के विकास और प्रगति का विरोध करते थे, किसी ने एक
नहीं सुनी।
सभ्यता की शुरुआत में ही जीवन
को हिंसा-मुक्त करने की चुनौतियों की गंभीरता को विचारकों, दार्शनिकों,
आध्यात्मिक नैतिकता के आग्रही लोगों ने समझ लिया था।
हिंसा से मुक्ति के लिए ही
सभ्यता में तरह-तरह से संगठित होने का प्रयास हुआ। विडंबना यह है कि संगठित होने
के प्रयासों के भीतर भी हिंसा के लिए जगह बन गई। संगठित होने से शक्ति आती है और
विवेक के जरा सा भी ढीला पड़ने पर शक्ति हिंसक हो जाती है। लोग फिर हिंसा से
मुक्ति पाने के लिए संगठित होते हैं और फिर नए सिरे से हिंसा का खतरा पैदा हो जाता
है।
तकनीक और कृत्रिम बुद्धिमत्ता
के दौर की विवेकहीनता के चलते यह दुश्चक्र और भी भयानक हो गया है, इससे
पार पाना बहुत मुश्किल है। प्रति-हिंसा को दुर्निवार मानने वाला संगठित विचार भी
हिंसा को जायज नहीं मानता। इसके बावजूद, हिंसा-मुक्त समाज-व्यवस्था
हासिल करने का सपना विचार की नींद और नीम बेहोशी में डूबा रहता है।
विकास की रफ्तार को ही नहीं,
विकास की अवधारणा और घटना को भी धैर्य के साथ परखना जरूरी है। भोले हैं वे
लोग या फिर धूर्त, जो यह मानते और बताते हैं कि विकास के वातावरण में ‘सब
तकलीफें’ दूर हो जायेंगी। क्या यह पूरी तरह से भ्रामक नहीं है? आक्रामक
विकास का हिंसा और प्रतिहिंसा से गहरा संबंध आज स्वयंसिद्ध है।
ऐसे में, मानवीय
गरिमा! रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों को याद करें तो मानवीय गरिमा के लिए एक ऐसा
परिवेश जरूरी होता है जिसमें चित्त भय-शून्य हो और माथा ऊंचा रखने की सहूलियत हो।
‘सर्विलांस के एज’, सर्वविलासी और पैगासिसी’ दौर में चित्त के भय शून्य होने;
‘पांच किलो’ की खैरात से भूख के दुर्वह बोझ से लदे माथे के ऊंचा होने का तो
सवाल ही नहीं उठता है, ठाकुर मोशाय!
हिंसा दरअसल, प्रति-हिंसा
के वेश में ही अपनी वैधता हासिल करने की कोशिश करती है। हिंसा-मुक्ति के मामले में
एकमत होकर भी प्रति-हिंसा के सवाल पर काफी मतभेद हैं। नागार्जुन जैसे बड़े कवि
कहते हैं कि प्रति-हिंसा ही उनके कवि का स्थायी भाव है। ऐसा कहने के पीछे कवि की वेदना है, इसे उल्लास
की तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए।
जिस धुआं को नागार्जुन ने
भोजपुर की माटी में गहराता हुआ पाया था उसके पीछे की आग तक पहुंचना क्या निरापद या उचित है! धुआं में तो दम घुटता है!
महात्मा गांधी के मत में एक रास्ता है- सत्य अहिंसा उपवास आदि का रास्ता। लेकिन! लेकिन क्या? लेकिन यह कि
इस रास्ता को तो अब ‘दखल’ की कोटि में गिनने के लिए नया गणक तैयार हो गया है!
मानवीय गरिमा के साथ जीने का
स्वप्न देखने वाले संवेदनशील व्यक्ति के पास क्या विकल्प बचा रहता है! क्या वह
संवेदना शून्य होकर उस टोली में शामिल हो जाए जिसके बारे में मुक्तिबोध ने कहा था,
सब चुप! अब उस टोली में शामिल न होने का फैसला करने का सवाल नहीं है,
कुछ को छोड़कर अधिकतर शामिल होने की लाइन में लग गये हैं!
‘चुप चाप’ या ‘चाप से चुप’ कौन जाने!
अब चुप्पी, सामान्य
चुप्पी नहीं है। अब बोलना भी सामान्य बोलना नहीं है। चुप्पी आत्म-हिंसा की अंधी
घाटी में फंसा देती है, बोलना हिंसा के पक्ष में खड़ा कर देता है— खामोशी
आत्म-हिंसा का शिकार होना और बोलना हिंसक हो जाना है। अच्छा होना खतरनाक हो सकता
है, लेकिन हिंसा और अन्याय से मुक्ति के लिए महात्मा गांधी का ही
कठिन रास्ता बचता है न! चाहे कोई नया गणक बनाये या पुराना पंचांग दिखलाये!
संविधान अभिव्यक्ति की चाहे
जितनी गारंटी देता हो, आत्म-हिंसा की अंधी घाटी में फंसने से बचने और हिंसा के
पक्ष में खड़ा कर दिए जाने की स्थिति से अपने को
बचाते हुए बोलने का साहस तो खुद अर्जित करना पड़ता है।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने
सचेत किया था कि संवैधानिक नैतिकता एक स्वाभाविक भावना नहीं है। इसका क्रमिक विकास
किया जाता है। हमें यह सोचना चाहिए कि हमारे लोगों को अभी यह सीखना है। हिंदुस्तान
की जमीन पर लोकतंत्र अभी भी ऊपरी सतह पर है, जो अपने
आपमें अलोकतांत्रिक बात है। तो क्या करें! अब तक नहीं सीख पाये! कब तक सीख
पायेंगे!
एक और विडंबना यह कि सीखने के
इस साहस को अकेले-अकेले अर्जित किया नहीं जा सकता और संगठित होकर इस साहस को
अर्जित करने की कोशिश प्रथमतः प्रति-हिंसा तथा अंततः हिंसा के दल-दल में फंसा देती
है!
स्वभावतः, इस
दुष्चक्र में फंसे साधारण गृहस्थ के मन में सन्निहित प्राथमिक स्तर का नागरिक साहस
भी चुक जाता है। जब साहस ही चुक जाए तो कोई क्या सीखे, क्या बोले!
व्यक्ति हकलाते-हकलाते एक दिन निर्वाक हो जाता है; वह चाहे
जितने जोर से बोलता हुआ दिखे, दरअसल होता वह निर्वाक ही है।
दूसरी ओर हिंसा और प्रतिहिंसा
के वातावरण में नागरिक मन में सक्रिय गृहस्थ विवेक का विकलांग हो जाना अचरज की बात
नहीं है। इसकी भी भूमिका साहस को समाप्त करने में होती है। अशक्त विवेक और चुके
हुए साहस के समय में समाज और व्यक्ति की आवाज दृश्य बन कर रह जाती है, अंतत:
उसमें श्रव्य होने का कोई सामर्थ्य बच नहीं पाता है।
पूरी दुनिया में असहिष्णुता
और हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति के चरित्र में भी बदलाव हुआ है। कितने रंग और प्रकार
की हिंसा ने हमारे सामाजिक जीवन को आक्रांत कर रखा है, यह सोच कर
भी डर लगता है। अधिकतर मामलों में हिंसा के शिकार निर्दोष लोग ही होते हैं। कुछ
थोड़े-से संगठित लोगों का झुंड निरीह लोगों पर हमला बोल देता है। नाराजगी किसी से
हो, मारे वे जाते हैं जिनका सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं होता।
भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर
निकले राहुल गांधी बार-बार गांधी और गोडसे की विचारधारा की लड़ाई की बात कहते हैं।
यह बड़ी बात है लेकिन थोड़े शब्दों में भी इस लड़ाई के मतलब को समझा जा सकता है-
गांधी की विचार धारा में- अपनी मांग मनवाने के लिए हड़ताल और उपवास करना लोकतांत्रिक अधिकार है।
गोडसे की विचार धारा में-
अपनी मांग मनवाने के लिए हड़ताल और उपवास करना सरकार के काम-काज में दखल देना है। ‘हिंदू हित और राष्ट्र हित’ की चिंता करनेवालों के पास हड़ताल और उपवास करने वालों को सजा,
मौत तक की सजा देने का अधिकार है।
अब एक बात साफ है कि हुकूमत
करने वाले की दिलचस्पी आम नागरिकों में एकता के प्रसंग को कंटीला बनाने और भिन्नता को अधिक हिंसक बनाने में होती है। एक प्रसंग भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ से पढ़िये —
‘लीजा
ने आंखें ऊपर उठायीं ओर रिचर्ड के चेहरे की ओर देखने लगी।
‘‘क्या
गड़बड़ होगी? फिर जंग होगी?’’
‘‘नहीं,
मगर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनातनी बढ़ रही है, शायद फसाद
होंगे।’’
‘‘ये
लोग आपस में लड़ेंगे? लंदन में तो तुम कहते थे ये लोग तुम्हारे खिलाफ लड़ रहे
हैं।’’
‘‘हमारे
ख़िलाफ भी लड़ रहे हैं और आपस में भी लड़ रहे हैं।’’
‘‘कैसी
बातें कर रहे हो? क्या तुम फिर मजाक करने लगे?’’
‘‘धर्म
के नाम पर आपस में लड़ते हैं, देश के नाम पर हमारे साथ लड़ते हैं’’
रिचर्ड ने मुसकुराकर कहा।
‘‘बहुत
चालाक नहीं बनो, रिचर्ड। मैं सब जानती हूं। देश के नाम पर ये लोग
तुम्हारे साथ लड़ते हैं और धर्म के नाम पर तुम इन्हें आपस में लड़ाते हो। क्यों, ठीक है ना?
‘‘हम
नहीं लड़ाते, लीजा, ये लोग खुद लड़ते हैं।’’
‘‘तुम
इन्हें लड़ने से रोक भी तो सकते हो। आखिर हैं तो ये एक ही जाति के लोग।’’
रिचर्ड को अपनी पत्नी का
भोलापन प्यारा लगा। उसने झुककर लीजा का गाल चूम लिया। फिर बोला:
‘‘डार्लिंग,
हुकूमत करनेवाले यह नहीं देखते कि प्रजा में कौन-सी समानता पायी जाती है,
उनकी दिलचस्पी तो यह देखने में होती है कि वे किन-किन बातों में एक-दूसरे से अलग हैं।’’
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