लोकतंत्र के चित्त में चौसर की बिसात बिछ गई है! हम
एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं!
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पूरे देश में
अभाव और अकाल का कोलाहल है। आंदोलन है।
हाहाकार है। मोटरी-गठरी संभालते हुए, जनता बेजार है। एक बार नहीं, बार-बार दुहराया
जा रहा है – अब की बार, चार सौ पार! दुहराव की शैली नीलामी की बोली जैसी लगती है। अब
की बार, चार सौ पार! कोई तो पूछे – हे सरकार, लोकतंत्र है या, है व्यापार! भारत के
लोकतंत्र को ठेले पर लादकर ‘चौसरिया बाजार’ में घुमाया जा रहा है। भारत के
लोकतंत्र में संस्कृति और संविधान की शब्दावली को बाजार की शब्दावली ने धर-दबोचा
है।
राजनीतिक दलों में गारंटी की राजनीति चल रही है। सवाल यह है कि आम
नागरिकों के लिए इन गारंटियों का मोल क्या है? गारंटी बाजार की शब्दावली है। किसी
कंपनी का उत्पाद बेचने के इरादे से उपभोक्ताओं को भरोसे में लेने के लिए गारंटी दी
जाती है। गारंटी में सबसे आकर्षक प्रस्ताव होता है, गुणवत्ता से संबंधित असंतोष को
दूर करने के लिए हर संभव उपाय किये जाने का। इस हर संभव उपाय में अदल-बदल का भी
प्रावधान होता है। कहने की जरूरत नहीं है कि, गारंटी के प्रस्ताव को व्यवहार में लाना मुश्किल होता
है, बहुत मुश्किल होता है। जिन गरीबों के पैर में गारंटी की बिवाई फटती है, वे
जानते हैं गारंटी की उत्पीड़कताओं को। बार-बार दुहराई जा रही राजनीतिक या चुनावी गारंटी
का क्या मतलब है? असंतुष्ट नागरिकों के पास गारंटी को भुनाने के लिए क्या विकल्प बचता
है? इस संबंध में कोई संवैधानिक या कानूनी प्रावधान है? नहीं है तो यह झूठ के
पुलिंदा के अलावा और क्या हो सकता है? नीयत में ही खोट हो तो, हर बात पर कोर्ट का
चक्कर लगाना बहुत महँगा और मुश्किल होता है।
ग्रामीण इलाका में रहनेवाले नागरिकों में से अधिकतर लोग किसी-न-किसी तरह से दान-अनुदान और अनुकंपा के सहारे घिसटते
रहने पर मजबूर हैं। उनका सशक्तिकरण तो दूर, उन्हें तो बे-चारा बना दिया गया है। उन्हें
तो अपने अधिकारों की ताकत का पता है, न
धिक्कारों के असर का पता है। हाँ, मताधिकार का पता है, मताधिकार की ताकत के बारे
में ठीक-ठीक पता नहीं है। पता हो भी तो वे
बेचारे क्या कर सकते हैं! ठोक-ठाक तो कर नहीं सकते। बस माई-बाप बने अपने नेताओं की
तरफदारी ओर टुकुर-टुकुर ताकने के अलावा क्या कर सकते हैं? बहुत हुआ तो इस नेता की
शिकायत लेकर, उस नेता के पास जा सकते हैं, इसके आगे उनकी कोई गति नहीं होती है।
पंचायत स्तर से लेकर ऊपर के स्तर तक एक ही कहानी का भिन्न-भिन्न पाठ चलता रहता है।
इसके आगे सोचने को भी बेमानी बनाकर रख दिया गया है। ऐसे में क्या करेगा कोई आपकी
गारंटी को लेकर!
भले ही बेमानी बनाकर रख दिया गया हो, लेकिन हताश या उदास होने की स्थिति
से उबरना ही होगा। आम चुनाव में ईवीएम (EVM) के इस्तेमाल का जो भी फैसला हो, लोकतंत्र में चुनाव
ही नाव है। कहने की जरूरत नहीं है कि संक्रमण की पीड़कता और उत्पीड़कता के बाहर लोकतंत्र
की सूखती हुई नदी बहार के आने के इंतजार में है। नाव पानी में चले तो शुभ, नाव में
पानी चले तो अशुभ! भारत के लोकतंत्र की विडंबना है कि एक नाव रेत पर पानी के
इंतजार में, गति पाने के लिए जूझ रही है, तो एक नाव अपने भीतर पानी के विपथित तेज
प्रवाह में डूब जाने के कगार पर है। रम भक्त कबीर के कहे को आराम से याद करते हुए
आगे बढ़ना चाहिए ——— ‘जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम। दोनों हाथ उलीचिए,
यही सयानो काम।’
फिलहाल यह कि गारंटी
मूलतः बाजार की शब्दावली है जिसका बेधड़क इस्तेमाल राजनीतिक दल कर रहे हैं। गारंटी
की राजनीति पर सचमुच भरोसा दिलाना हो तो गारंटी को हलफनामा के रूप में प्रस्तुत करने
के प्रावधानों का प्रस्ताव किया जाना चाहिए। हमारे यहाँ तो चुनाव घोषणापत्र में
लिखित वायदों (मेनिफेस्टो या संकल्पों) को
नागरिकों के प्राप्तव्यपत्र (Citizen’s Charter) का या वैधानिक दर्जा हासिल नहीं है। न इस में अधिकार-पृच्छा
(Quo Warranto) का कोई प्रसंग है
न परमादेश (Mandamus) का। ऐसे में गारंटी का मोल, माहौलबंदी के लिए
हवावाजी के अलावा क्या हो सकता है! कुछ भी नहीं। बाद में बिना किसी लोक-लाज के बेझिझक
के ‘जुमला’ कह दिये जाने पर कोई क्या कर सकता है! याद कीजिए, पिछली बार कही हुई
चुनावी बातों को जब जुमला बताकर हवा में उड़ा दिया गया तो ठगा-सा मतदाता झिझकते
हुए कंधा-कमर झुकाकर पीछे हट जाने के अलावा क्या कर पाया! गारंटी की राजनीतिक
पैंतरेबाजी से नेता को तो सत्ता मिल जाती है, जनता को लोकतंत्र नहीं मिलता है। हाँ,
कुछ लोगों को लोकतंत्र मिलता है, मिलता ही नहीं है, ‘टू मच’ मिल जाता है। आत्म-संयम
और सह-अस्तित्व लोकतंत्र के बेबदल (Inconvertible) और अकाट्य मूल्य हैं। दोनों तहस-नहस हो गये हैं।
चुनावों में
गारंटी बाँटनेवाला कोई राजनीतिक दल चुनाव घोषणापत्र में लिखित वायदों (मेनिफेस्टो या संकल्पों) को नागरिकों के प्राप्तव्यपत्र
(Citizen’s Charter) का दर्जा
दिलाने या उसके साथ परमादेश (Mandamus) के प्रसंग को जोड़ने की पहल करेगा! इसकी उम्मीद की जा सकती है क्या!
जयप्रकाश नारायण जैसे महत्वपूर्ण और आदरणीय समाजवादी नेता जन प्रतिनिधि को वापस
बुलाने का अधिकार (राइट टू रिकॉल) की बात करते थे। गारंटी की राजनीति में खराब
गुणवत्तावाले जन प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार (राइट टू रिकॉल) को शामिल किया
जा सकता है क्या! आज वापस बुलाने के अधिकार (राइट टू रिकॉल) को राजनीतिक प्रसंगों के संदर्भों का लगभग क्या, पूरा-पूरी भुला ही
दिया गया है।
बाजार में
लेन-देन होता है। बाजार के दो परिभाषित पक्ष होते हैं। ‘लेनेवाला और देनेवाला’। लेनेवाला
भी देता है और देनेवाला भी लेता है। कौन किस को क्या देकर, क्या लेता है, यह है
बाजार का रहस्य, माया! बात राजनीतिक बाजार की करें तो, जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के
लिए आनंद और सुविधा हासिल करना नागरिक का लक्ष्य होता है। प्रभाव विस्तार के लिए समर्थन
और सहयोग हासिल करना नेता का लक्ष्य होता है। नागरिक लोकतंत्र चाहता है। नेता सत्ता
चाहता है। लोकतंत्र और सत्ता की रस्साकशी चलती रहती है। इस रस्साकशी में कहीं
रस्सा ही न टूट जाये इसके लिए लोकतंत्र के चारो स्तंभ विधायिका-कार्यपालिका-न्याय
पालिका और मीडिया का प्रबंधन चौकस रहता है। इधर हुआ यह है कि लोकतंत्र के दो स्तंभ विधायिका-कार्यपालिका
संविधान में निहित शक्ति पृथक्करण (Separation of Power) की मूल
भावनाओं का पूर्ण निरादर करते हुए गडमड हो गये हैं, सरकार पर संसद की कोई पकड़ बची
नहीं है। स्थिति पलट गई है। सरकार संसद के प्रति जवाबदेह रहने के बजाये, संसद ही
सरकार के प्रति जवाबदेह होकर रह गई है। मीडिया का हाल यह है कि जब वह दूसरों के
बारे में कुछ बताता है, तो वह अपनी ही पोल खोलने लगता है। यह मीडिया की उलटबाँसी
नहीं है। उलटबाँसी का तो भारत की संस्कृति में बड़ा मोल रहा है।
विपक्ष कमजोर हो
या हो ही नहीं तो क्या सरकार कुछ भी करने पर आमादा बनी रहेगी। ‘हुजूर’ की इच्छा का
सम्मान करते हुए जनता सचमुच देश को कांग्रेस मुक्त कर देती, लेकिन इस में दो
प्रमुख बाधाएँ हैं। पहली, ‘हुजूर’ खुद
कांग्रेस युक्त नहीं भी तो, ‘कांग्रेसी’ युक्त जरूर हुए जा रहे हैं। दूसरी यह कि उनके बड़े-से-बड़े कद्दावर साथी सदस्यों
में जनहित के किसी भी मुद्दे पर मुहँ खोलने का साहस नहीं है। वे जनता के प्रतिनिधि
न होकर आत्म-हीन और विवेक-विहीन अनुयायी होकर रह गये हैं। हुजूर की इच्छा का
सम्मान करके जनता का जो हाल हुआ है, वह जनता ही जानती है। मन की बात सुनते-सुनते
उसका तो मन ही खो गया है। हाल यह है कि जबरा मारे भी और रोने भी न दे।
मन-ही-मन बिसूरते रहिए।
बाजार के बारे
में पहले कहा जाता था बाजार में माँग बढ़ने से आपूर्ति बढ़ती है, अब आपूर्ति बढ़ने
से भी माँग बढ़ती है। राजनीतिक बाजार पर वर्चस्व को बनाये या बढ़ाये रखने के लिए एक
तरीका जमाखोरी का अपनाया जाता है। कानून जमाखोरी है भी और नहीं भी है, जमाखोरी की
कथा अनंत है। बाजार का मंत्र एक है, बाजार की माया अनेक है। लोकतंत्र में राजनीतिक
जमाखोरी लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं होता, राजनीतिक लोगों के लाभ की बात और है। जनता
का पक्ष शुभ है, नेता का पक्ष लाभ है। लाभ-आग्रही नेता जनता के शुभ को खंडित कर
उसे लाभार्थी में बदल देती है।
राजनीतिक नेताओं
के चाल-चरित्र-चेहरा को हिमाद्रि-तुंग-श्रृंग से निकसी प्रबुद्ध-शुद्ध गांगेय
नैतिकता के उत्कृष्ट आलोक की स्वयं-प्रभा-समुज्ज्वलता में समझने का यह अवसर नहीं
है। बल्कि, ब्रांड वैल्यु से उदीप्त इंद्रमाया के विभ्रमी आलोक में उनके स्वागत के
भव्य-दिव्य आयोजनों से उत्पन्न
मति-विभ्रम से अपने बचाव का यह अवसर है। अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा
या राजनीतिक आँधी में एकांत स्वार्थ के नाश से कोई कैसे बचेगा, यह पूछें जयशंकर
प्रसाद या पूछ ले कामायनी ही तो हम क्या कहेंगे! हम भले कंठ-रोध से ग्रस्त हों, फैज
कह देंगे, अब कहाँ रस्म घर लुटाने की!
कहने-सुनने में
अच्छा नहीं लगता, लेकिन जब हालात इतने खराब हैं कि देश की राजनीति बाजार की
शब्दावली में बात कर रही है, तो रास्ता क्या
बचता है, ‘महाजनो येन गतः स पंथाः’। इस पंथ के अंतर्निहित पक्ष को समझने की
सुविधा के लिए राजनीति को वोटबाजार और लोकतंत्र को उत्पाद कहना बेहतर होगा।
विभिन्न राजनीतिक दलों के पास लोकतंत्र के अपने-अपने ब्रांड हैं। अधिकतर नागरिक
राजनीतिक बाजार में ग्राहक की नहीं, याचक की ही हैसियत रखते हैं। क्षमता के अभाव
में जो हक से ग्रहण ही नहीं कर सकते, वे कहाँ के ग्राहक! वे तो याचक हैं, याचक,
जिन्हें बतर्ज विद्यार्थी, लाभार्थी कहा जाता है! यह कहना कुछ ज्यादती नहीं होगी
कि लोकतंत्र ‘वोटकैचर’ का है, ‘वोटर’ का नहीं। लोकतंत्र नागरिकों का नहीं,
राजनेताओं का होकर रह गया है! राजनीतिक दल के नेता बखूबी जानते हैं, ये याचक, ना-हक
गारंटी का क्या करेंगे! बाजार सेठ जी का है। लोकतंत्र नेता जी का है। दोनों में
साँठ-गाँठ है। नगरी-नगरी, दुआरे-दुआरे ढूंढते रहिए, टूटे चश्मे को या फिर गाते
रहिए, उठ जाग मुसाफिर गठरी संभाल आदि!
गारंटी की राजनीति को थोड़ी गहराई से समझना जरूरी है। आखिर,
राजनीतिक दल बाजार की शब्दावली में क्यों बात करने लगे हैं? न ठेका खराब, न ठेला
खराब। धर्मवीर भारती बताते, कैसे लोकतंत्र सच में हिमालय से बहुत बड़ा है।
त्रिलोचन की मानें तो, अटके-भटके मंगल-मंत्र जपते हुए भी, ताप के ताए दिन में
दरकते दोनों हैं, लोकतंत्र हो या हिमालय। रोजगार के विलुप्त होते अवसर और उग्रतर
होती महँगाई के इस भयानक दौर में बाजार के तिलस्म को समझने, खोलने की, नाकाम ही
सही, कोशिशें करनी ही पड़ती है। हम बार-बार कबीर को याद करते हैं। मुश्किल यह है
कि कबीर बाजार में अपना घर जलाने के जोखिम के साथ जलती लुकाठी लिए खड़े थे और हम
खाली झोला लिए खड़े हैं!
ऐसा लगता भारत के
लोकतंत्र के चित्त में ही चौसर बिछ गया है। बाजी चली जा रही है। जीत-हार का खेल चल रहा है। खेल जिस में जीत
मिथ्या और हार! हार सच! आदमी युद्ध और संघर्ष, जीत-हार, द्वंद्व और दुविधा से कभी
बाहर निकल ही नहीं पाता है। द्वंद्व और दुविधा से बाहर हासिल होनेवाली सुख और
सुविधा बहुत थोड़े समय में ही , पुनः किसी द्वंद्व और दुविधा में फँस जाती है।
द्वंद्व और दुविधा चित्त का स्थाई भाव है, इसकी स्थिति बनी रहती है। सुख और सुविधा
संचारी भाव है, इसकी गति में कोई रोक नहीं लगती है।
खेल जारी है। नतीजा का इंतजार कीजिए और तब तक साभार
पढ़िये, मोतीहारी में जून 1903
में पैदा हुए जॉर्ज ऑरवेल (असली नाम एरिक ऑर्थर ब्लेयर) के व्यंजनापूर्ण
उपन्यास, ‘एनिमल फार्म’ (1945) का एक अंश –
“मनुष्य एकमात्र जीव है, जो
उत्पादन के बिना खपत करता है। वह दूध नहीं देता, वह अंडे नहीं देता, वह हल खींचने
के लिए बहुत कमजोर है, वह खरगोश
को पकड़ने के लिए पर्याप्त तेजी से नहीं दौड़ सकता। फिर भी, वह
सभी जानवरों का स्वामी है। वह उन्हें काम पर लगाता है और उसके बाद उन्हें कम-से-कम न्यूनतम खाना देता है, जो
उन्हें जिंदा रखे और शेष वह खुद के लिए रखता है। हमारा श्रम मिट्टी को जोतता है, हमारा गोबर इसे उपजाऊ करता है और फिर भी हम में से कोई भी ऐसा
नहीं है, जिसके पास हमारी त्वचा से अधिक कुछ
है। गायों को मैं देखता हूँ कि पिछले साल के दौरान आपने कितने हजारों गैलन दूध
दिया है, और आपके बछड़ों के साथ क्या हुआ है, जिन्हें आपका दूध मिलना चाहिए था? इसकी हर एक बूँद हमारे
दुश्मनों के गले से नीचे उतरती है और आप
मुरगियाँ?”
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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