राम मंदिर में
प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन में निमंत्रण और इनकार दोनों राजनीतिक है
विवादास्पद बन गया है 22
जनवरी 2024 को आयोजित राम मंदिर के उद्घाटन का कार्यक्रम। विवाद का
कारण इस कार्यक्रम के आयोजन के पीछे की मंशा है। इस आयोजन का मकसद धर्म के नाम पर
या धर्म की आड़ में अधर्म को छिपाने का है। क्या है धर्म और क्या है अन्याय!
विश्व-प्रसिद्ध रामभक्त कवि तुलसीदास ने तो रामचरितमानस में ही साफ-साफ लिखा है,
‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’ और ‘पर पीड़ा सम नहिं अधमाई’।
मतलब साफ है कि अपने राजनीतिक
समर्थकों और राजनीतिक हितों को साधने के लिए दूसरों के हित पर लगातार आघात करने और
पीड़ा पहुंचाने जैसे अपने अधम कृत्यों को छिपाकर चुनावी लाभ बटोरने के लिए किया
गया यह राजनीतिक आयोजन है। यह साफ है कि इस आयोजन का निमंत्रण राजनीतिक है तो इसका
अस्वीकार भी राजनीतिक है।
परम आदरणीय शंकराचार्यों ने
निमंत्रण को अस्वीकार किया। उनके पास अपने कारण हैं। जो कारण मीडिया में बताये जा
रहे हैं, उनमें मंदिर का अर्द्ध निर्मित होना, प्राण-प्रतिष्ठा
के लिए रामनवमी के दिन का ना चुना जाना, पूरे कार्यक्रम की कमान
राजनीतिक व्यक्तित्वों के हाथ में होना आदि।
परम आदरणीय शंकराचार्यों ने
धार्मिक कर्मकांडों की मान्यताओं के अनुरूप कार्यक्रम के न होने को मुद्दा बनाया
है। परम आदरणीय शंकराचार्यों में से एक की बातों में वर्णवाद का भी कर्कश स्वर था,
हालांकि मीडिया ने इस पर अपना फोकस नहीं रखा, अच्छा किया।
भारत में स्वतंत्रता आंदोलन
का मिजाज पूरी तरह से राजनीतिक था। इस राजनीतिक मिजाज में ही जातिवादी भेद-भाव,
वर्णवाद, ब्राह्मणवादी कर्मकांड से भी ज्यादा आजादी का एजेंडा
शामिल था। उस एजेंडे में, आम नागरिकों के लिए अपने धर्म और
उसकी मान्यताओं के प्रचार-प्रसार के अवसर का आश्वासन था। राज्य, सरल
शब्दों में, सीधे कहें तो लोकतांत्रिक सरकारों की नीतियों के किसी
धर्म की सापेक्षता में तय नहीं होने की प्रतिबद्धता का आश्वासन था।
सरकारी नीतियों का धार्मिक
सापेक्षता में तय न होना ही राज्य की धर्म निरपेक्षता है, इस
निरपेक्षता को विरोधिता की तरह न कहा गया, न पढ़ा गया। आम नागरिकों के
लिए अपने धर्म और उसकी मान्यताओं के प्रचार-प्रसार की छूट थी, लेकिन
वहीं तक जहां तक वे भेद-भाव से मुक्त हों, न्याय के संवैधानिक
सिद्धांतों और नैसर्गिक नैतिकता के स्थापित मानदंडों का पालन करते हों। भारत के
हिंदू धर्म की मान्यताओं में सामाजिक सुधार की जबर्दस्त जरूरत थी।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल से
जो धार्मिक सुधार की परियोजना शुरू हुई वह आज तक जारी है। भक्ति काल के संतों ने
‘जाति पाति पूछे ना कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’ और ‘जाति
न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो
तरवार का पड़ा रहन दो म्यान’ जैसी वाणी का उद्घोष कबीर ने किया।
इस उद्घोष में जातिवादी
अत्याचार और पुरोहितवादी कर्मकांडों के आडंबरों की जकड़न से मुक्ति की अकुलाहट और
छटपटाहट थी। रामानंद की चेतना से जुड़कर अवर्ण संत कवियों की निर्गुण भक्ति परंपरा
में जातिवाद को अमान्य घोषित करने का सामाजिक आह्वान जोर मार रहा था।
पूरे समाज में जबर्दस्त
आलोड़न था। दूसरी ओर उसी रामानंदी चेतना से जुड़े सवर्ण और सगुण भक्ति परंपरा के
कवियों में वर्णाश्रम को पोषित किये जाने का
प्रयास था, तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है, ‘सब
लोग बियोग बिसोक हुए, बरनाश्रम धर्म अचार गए’। इस गये हुए ‘बरनाश्रम’ को फिर
से लौटाने के लिए कबीरदास के ‘निर्गुण राम’ के सामने तुलसीदास के ‘सगुण राम’ को
खड़ा किया गया। फिर समाज में अपने-अपने राम का मुहावरा बन गया! तब लगभग जवाब में
कहा गया ‘अगुनहिं, सगुनहिं नहि कछु भेदा’!
निर्गुण और सगुण के बीच के
संघर्ष का प्रसार और प्रभाव आध्यात्म से आगे बढ़कर सामाजिक पक्ष तक फैलता रहा।
कबीरदास पहले हुए, पीछे तुलसीदास हुए। निर्गुण कबीर का पक्ष था। सगुण
तुलसीदास का पक्ष था। बाद में होने का लाभ तुलसीदास को मिला। सगुण पक्ष अधिक बलवान
होकर लौटा। सगुण के साथ मंदिर लौटा, पंडा-पुरोहित लौटा और तत्कालीन मुगल
शासकों का सहयोग पाकर एक ओर सवर्ण वर्चस्व लौटने लगा; दूसरी ओर
अवर्ण लोगों ने मुक्ति की आशा की नजर से शासकों की तरफ देखने को फालतू मानने लगे।
कबीर जैसा प्रखर व्यक्तित्व
फिर उनके बाद नहीं प्रकट हुआ। कबीर के नाम पर भी पंथ बन गया उसने कबीर वाणी को
जिलाये और बचाये तो रखा, लेकिन वह पंथ में सिमटकर रह गया।
प्रारंभ में सवर्ण भी तुलसीदास के पक्ष में नहीं थे। बाद में जब तुलसीदास के सगुण
भक्ति के माध्यम से सवर्ण वर्चस्व में प्राण लौटने लगा तब तुलसीदास को लेकर उनके
रुख में बदलाव आया। भक्ति काल का सामाजिक परिप्रेक्ष्य पीछे छूटता चला गया।
पुनर्जन्म और कर्मफल ‘सिद्धांतों के माया जाल’ में फंस जाने से न्यायबोध के कुंद
होते जाने की भी अपनी भूमिका रही है।
ब्रिटिश हुकूमत से आजादी का
आंदोलन शुरू हुआ तो यह पीछे छूटा हुआ सामाजिक परिप्रेक्ष्य फिर से जाग उठा।
प्रारंभ में तो कांग्रेस ने इस ओर बहुत ध्यान नहीं दिया। लेकिन धीरे-धीरे यह
सामाजिक परिप्रेक्ष्य बड़ा होने लगा। महात्मा गांधी ने इस सामाजिक प्रक्रिया को
समझना शुरू किया। हालांकि, शुरुआत में कांग्रेस पार्टी का रवैया
आना-कानी का ही रहा। हवा बदल रही थी। बदली हुई हवा में विभिन्न सुधारों का दौर
शुरू हुआ।
महात्मा ज्योतिबा फूले,
सावित्री बाई फूले और ई.वी. रामासामी पेरियार की उपस्थिति से भी नई हवा में
तेजी आ रही थी। यह सच है कि जिस तरह दक्षिण से रामानंदी चेतना उत्तर में आकर्षण का
केंद्र बनने कामयाब हुई उस तरह से ई.वी. रामासामी पेरियार की चेतना आकर्षण का
केंद्र नहीं बन पाई, प्रमुख कारण यह कि समाज के जिस अंश पर उसका प्रभाव पड़ना
था वह अंश सामाजिक और मानसिक रूप से तैयार नहीं था। परिस्थिति में जल-थल का बदलाव
(Sea Change) आया, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के राजनीतिक
प्रादुर्भाव से।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के
प्रादुर्भाव का असर, तब दिखने लगा जब महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर
के बीच इतिहास प्रसिद्ध संवाद या विवाद हुआ, तब तक
महात्मा गांधी को बाबासाहेब की सामाजिक पृष्ठभूमि का पता नहीं था। फिर भी, महात्मा
गांधी डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के तर्कों का महत्त्व समझ रहे थे।
महात्मा गांधी का अनुभव बताता
था कि एक साथ बाहरी-भीतरी दोनों तरह की औपनिवेशिक ताकत से एक साथ लड़ने में अपना
जोखिम था, वे धीमी चाल के सिद्धांत को अधिक माकूल मान रहे थे, जब
कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की सामाजिक पृष्ठभूमि, ज्ञान और
अनुभव में तेजी की मांग थी।
असल में, दोनों
की पहली मुलाकात 14 अगस्त 1931 को मुंबई (बंबई) के मणि भवन में जब
हुई तब तक महात्मा गांधी को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की सामाजिक पृष्ठभूमि का पता
नहीं था, वे उन्हें विद्वान ब्राह्मण मानते थे। एक बात तय है कि डॉ.
बाबासाहेब आंबेडकर की उपस्थिति से भारत की आजादी के आंदोलन और राजनीतिक परिदृश्य
में गुणात्मक अंतर आ गया था। भारत में सामाजिक वर्चस्व वाले लोगों ने डॉ.
बाबासाहेब आंबेडकर को सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।
1936 में जातपात
तोड़क मंडल के लाहौर में होनेवाले अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण के लिए लिखा गया लेख,
जिसे वहां पढ़ने नहीं दिया गया था, बाद में ‘एनहिलेशन ऑफ कास्ट’
के नाम से प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक इतनी तार्किक और प्रभावशाली है कि महात्मा
गांधी ने ‘हरिजन’ में लिखा कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर हिंदुत्व के लिए एक चुनौती
हैं!
हिंदुत्व के लिए चुनौती यानी
वर्णवादी जातपात की हिंदु सामाजिक संरचना के लिए चुनौती। वर्णवादी जातपात पर
आधारित विषमतापोषी सामाजिक संरचना को लेकर उनके बीच में कई महत्त्वपूर्ण असहमतियां
थी, राजनीतिक, रणनीतिक और वैचारिक भी।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की
सकर्मक उपस्थिति में भारत के संविधान में वे सारे प्रावधान हैं, जो
‘हिंदुत्व’, यानी वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत विषमतापोषी और विभाजनकारी
प्रवृत्ति को न सिर्फ सामाजिक रूप से निषिद्ध करते हैं बल्कि कानूनी रूप से
आपराधिक भी निर्धारित करते हैं। इसलिए, वर्चस्ववादी ‘हिंदुत्व’
संविधान को चुनौती देते रहते हैं, कहना होगा आज भी दे रहे हैं। इसे
समझना होगा, गहराई से इसकी बहुआयामिता को समझना होगा।
बहरहाल, निर्गुण
भक्ति की सामाजिक चेतना आजादी के पहले जो पिछड़ गयी थी, आजादी के
आंदोलन के दौरान उस ने तेजी से गति पकड़ ली, इतनी तेजी
से कि संवैधानिक रूप से स्थापित हो गई। भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर के सहारे उसी
‘हिंदुत्व’ की राजनीति को ताकत दे रही है जिसके लिए, महात्मा
गांधी के शब्दों में, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर चुनौती थे।
‘हिंदुत्व’ की राजनीति को
समर्थन देनेवाले कई ‘साधु संतों के व्यथित उद्गारों’ में इसकी झलक देखने को मिल
जाती है। सामाजिक उत्पीड़न के सवालों पर इनकी आत्मा क्या इन्हें जरा भी नहीं
कचोटती है, क्या इनका मन जरा भी द्रवित नहीं होता है! जरा भी नहीं!
राम मंदिर ‘आंदोलन’ से जुड़े
और जीवन समर्पित करनेवाले कई ‘अन्य’ कर दिये गये लोगों के भी ‘अगर-मगर’ सामने आ
रहे हैं। शंकराचार्यों ने तो पहले ही मना कर दिया है। अब कांग्रेस पार्टी के
अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और कांग्रेस संसदीय दल की नेता श्रीमती सोनिया गांधी
ने ने 22 जनवरी 2024 को होनेवाले राम मंदिर के कार्यक्रम
में उपस्थित होने के निमंत्रण को ‘सम्मानपूर्वक’ अस्वीकार कर दिया है।
साफ-साफ कहें तो इन ‘अगर-मगर’
करनेवाले लोगों और शंकराचार्यों का संदर्भ लिये बिना इस निमंत्रण को अस्वीकारने का
महत्त्व और प्रभाव ऐतिहासिक रूप से सकारात्मक होगा।
कांग्रेस ने सामने खड़े 2024
के आम चुनाव के संदर्भ में चुनावी नुकसान का जोखिम उठाया है, लेकिन
निस्संदेह यह देश में लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों को जोखिम में पड़ने से बचाने
की दृष्टि से जरूरी पहल है।
प्रतीक रूप से ही सही याद कर
लेना चाहिए कि आजादी के आंदोलन के दौरान सामाजिक न्याय के मसले पर डॉ. बाबासाहेब
आंबेडकर और महात्मा गांधी का जो महत्त्व था आज वही महत्त्व मल्लिकार्जुन खड़गे और
राहुल गांधी का है। संतोष और भरोसे की बात है कि इंडिया (I.N.D.A – इंडियन
नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) के लगभग सभी घटक दल इस मुद्दे पर साथ हैं।
प्रसंगवश, विराजनीतिकरण
विश्व-व्यवस्था में नया प्रसंग है। विराजनीतिकरण की प्रवृत्ति पर भी नजर रखनी
चाहिए। यह सभी जानते और मानते हैं कि 22 जनवरी 2024 को
आयोजित राम मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम अपने निहितार्थ
में पूरी तरह से राजनीतिक है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी बार-बार
कहने की कोशिश करती है कि यह राजनीतिक नहीं है।
उसी तरह सभी जानते और मानते
हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में 14 जनवरी 2024 से
शुरू होनेवाली कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ भी उसी राजनीति को नाकाम
करने की राजनीतिक पहल है, लेकिन बीच-बीच में कांग्रेस पार्टी
के नेता भी कह बैठते हैं कि यह यात्रा राजनीतिक नहीं है।
भारत में आज लोकतंत्र के संकट
का और सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अन्याय एवं नैतिक अवमूल्यन
आदि का स्रोत पूरी तरह से राजनीतिक ही है और इसका मुकाबला भी राजनीतिक ही होगा।
साफ-साफ समझना होगा कि 22 जनवरी 2024 को अयोध्या
में राम मंदिर में आयोजित प्राण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम राजनीतिक है और उसमें
शामिल होने का इनकार भी राजनीतिक है।
लोकतंत्र और संवैधानिक
मूल्यों को जोखिम में पड़ने से बचाने के लिए कांग्रेस ने सामने खड़े 2024 के
आम चुनाव के संदर्भ में चुनावी नुकसान का जोखिम उठाया है और कांग्रेस का साथ
इंडिया (I.N.D.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) ने भी दिया
है तो नागरिक जमात को इनकी सराहना करनी चाहिए। विपक्ष का यह इनकार सामाजिक रूप से
सराहनीय और ऐतिहासिक रूप से उल्लेखनीय है।
बिना हकलाये जोर देकर यह कहने
की जरूरत है कि हां जी, राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन का निमंत्रण और
इनकार दोनों राजनीतिक है। अब तय इस देश की जनता को करना है कि भारत ‘हिंदुत्व’ की
राजनीति का रास्ते पर लुढ़कता जाये या बहु-सांस्कृतिक सद्भाव और सहकारी भावना से
चलनेवाली सामाजवादी राजनीति के रास्ते पर चलने की कोशिश करता रहे।
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