भावुक सांद्रता नहीं
निष्कंप बुद्धिमत्ता ही कठिन समय में काम आती है
मनुष्य के जीवन में विभिन्न
त्यौहारों, उत्सवों, दिवसों को मनाये जाने का बहुत महत्व
है। साधारणतः लोग पूछ लेते हैं कि किसी तारीख विशेष को किसी ‘दिवस’ के रूप में
मानने का क्या मतलब है! क्या बाकी दिन उन मूल्यों की उपेक्षा की जाये! यदि उन
मूल्यों को हर दिन व्यवहार में लाना है तो फिर खास दिन क्यों? खास
दिन इसलिए कि उस दिन हम इस पर गौर करें कि हम इन मूल्यों की रक्षा के लिए बाकी दिन
क्या करते रहे हैं।
त्यौहारों, उत्सवों
के दिन और दिवसों के दिन के आयोजनों की रंगीनियों में भाग लेना मजा के लिए तो
अच्छा है। लेकिन वास्तविक रूप से उनको जीवनोपयी और जीवनोन्मुखी बनाये रखने के लिए
उन पर थोड़ा ठहरकर विचार करने का आनंद उठाना अधिक जरूरी है। कोई त्रुटि रह गयी हो
तो उससे बचने के लिए जो किया जा सकता है उसके लिए अपने आचरण पर नजर रखना जरूरी
होता है। एक सभ्य समाज के सदस्य और जीवंत राष्ट्र के आम नागरिकों के सम्यक और
संतुलनकारी व्यवहार के लिए ‘खुद पर नजरदारी’ बहुत जरूरी होती है।
भारत में जनवरी का महीना अपने
गणतंत्र को याद करने का महीना होता है। जनवरी का महीना हमें यह याद दिलाने की
कोशिश करता है कि हमारा व्यवहार गणतांत्रिक मूल्यों के कितना अनुरूप रहा है।
जाने-अजाने हम से कोई चूक तो नहीं हुई है? हमने किसी के अधिकारों का
रकवा छीनने का कोई कुप्रयास तो नहीं किया? या किसी को ऐसा कोई कुप्रयास
करते देखकर बिल्कुल कन्नी ही तो नहीं काट गये! ऐसे अवसरों पर आँच काट कर निकल लेने
की गैर-नागरिक प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है।
यह भी सोचने का अवसर देता है
कि क्या हमने किसी के मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं किया है? हमारे
समाज और राष्ट्र में निरंतर गैर-बराबरी बढ़ रही है। सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में ही
नहीं पारस्परिक व्यवहार और सम्मान जैसे गैर-आर्थिक मुद्दों पर भी गैर-बराबरी बढ़
रही है।
इसलिए यह सोचना जरूरी है कि
हमने अपने व्यवहार में मानवीय मूल्यों के व्यवहार की मर्यादा के अनुपालन के लिए
कुछ किया या अवसर मिलते ही (उ की मात्रा को विलोपित कर) अनपालन ही करते रहे और
‘मर्यादा पुरुषोत्तम का नाम’ जपते रहे हैं!
इतना ही नहीं है काफी! सोचना
यह भी चाहिए कि यह दिवस हमारे नसीब में किन संघर्षों से आया है? इसके
पीछे कौन-कौन से लोग रहे हैं? क्या था उनका बलिदान? यह
भी कि उन बलिदानियों का नाम लेकर कौन-कौन से लोग उनके मूल्यों के खिलाफ अधिक
सक्रिय हैं और हो रहे हैं। बलिदानियों के संघर्ष से हमारे नसीब में जो भी जितना भी
सकारात्मक आया है उसे बचाने के लिए, किसी के नकारात्मक इरादे और मंसूबों
को रोकने के लिए हम क्या कर सकते हैं- उस ‘गिलहरी’ की तरह जिसकी कहानी बीच-बीच में
हमें सुनाई जाती है।
जीवन में फैसले की घड़ियां तो
आती रहती हैं। फैसला तो करना ही पड़ता है। अक्सर सही सोचते हुए भी हम अकेले पर
जाने के डर से खामोशी ओढ़ लेते हैं। संविधान पुरुष डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने ऐसे
मौकों के लिए ही शायद कहा था- इससे मत भयभीत हों कि हमारा फैसला
दूसरों के फैसले से भिन्न होगा। लेकिन हम सब सावधान रहें कि हमारे निष्कर्ष
स्वतंत्र विचार और ईमानदार विश्वास के परिणाम होंगे।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का यह
कहना बहुत महत्त्वपूर्ण है। असल में निंदा, प्रशंसा या
विरोध, समर्थन में गजब की संक्रामकता होती है। किसी भी सभा में गौर
कीजिये तो किसी बात पर एक ताली बजती है तो उसके पीछे तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई
देने लगती है। कुछ ही मिनटों में, उस बात को खंडित करनेवाली उसकी
विरोधी बात पर भी कोई एक ताली बजती है तो उस पर भी उतनी ही तालियां बजने लग जाती
है। अद्भुत और अचंभित करनेवाला होता यह सब!
अद्भुत और अचंभा अज्ञान से
उपजता है। अज्ञान को दूर कर ऐसा होने के कारणों को जानना चाहिए। ऐसा
होने के कारण को टटोलने की हम कोशिश कर सकते हैं। इसका कारण
है कि उपस्थित लोगों में से अधिकतर किसी बात पर सोचने की स्थिति में नहीं होते हैं,
लेकिन उनकी समूह-चेतना किसी एक सोच के साथ हो लेना चाहती है। ऐसा इसलिए होता
है कि वे अकेला नहीं होना चाहते हैं। अकेला पड़ जाने का भय उन्हें, उनके
अजाने ही, उनकी चेतना को दो नावों पर लाद देता है! फिर वह ताकतवर नाव
उन्हें घसीट लेती है!
कुछ लोग जानबूझकर अपने छुपे
हुए उद्देश्यों को पूरा करने के लिए दो नावों की सवारी करते हैं। दो परस्पर विरोधी
बातों के एक साथ समर्थन का मतलब होता है, दो नावों की एक साथ सवारी। दो
नावों की सवारी के क्या खतरे हैं? दोनों नावों की दिशा एक हो, गति
एक हो, दोनों आस-पास तैर रही हों तब तक ठीक, लेकिन
विपरीत दिशा की दो नावों की सवारी तभी तक की जा सकती है जब तक दोनों नाव स्थिर
हों।
स्थिरता का मतलब गति शून्यता
होता है। दो नावों की दिशा एक होने पर भी उनकी सवारी तभी तक की जा सकती है जब तक
उनकी सापेक्षिक गति में अंतर शून्य हो या उन में न्यूनतम अंतर हो। दो नावों की
सवारी में खतरा भी कम नहीं रहा करता है। फिर भी लोग, दो नावों की
सवारी क्यों करते हैं?
इसलिए कि उन में अपने गंतव्य
को लेकर अनिश्चितता या दुविधा रहती है या फिर अपनी गति की सहनीयता और इच्छा को
लेकर कोई दुविधा हो। राजनीतिक क्षेत्र में यह प्रवृत्ति अक्सर देखने में आती है
जिसको साधने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाकर वे आगे बढ़ते हैं। कभी-कभी
कामयाब भी होते हैं।
दो नावों की सवारी की
प्रवृत्ति केवल राजनीति में सक्रिय लोगों तक ही सीमित रहती तो बात बिना किसी
रुकावट के समझ में आ जाती। क्योंकि राजनीति में सक्रिय लोगों के लिए अधिक-से-अधिक
लोगों के साथ और सहमति की जरूरत होती है। लेकिन यह प्रवृत्ति गैर-राजनीतिक लोगों
में भी बहुत तीव्र होती है।
असल में, मनुष्य
अपने अस्तित्व की सुरक्षा एवं सहमति पूर्ण संवाद, स्नेह के
लिए समाज, समुदाय और परिवार में रहता है। मनुष्य अकेले नहीं रह सकता है।
मनुष्य अस्थाई रूप से समूह में रहता है, स्थाई तौर पर अपने-अपने समाज
एवं समुदाय में रहता है। साथ रहने के लिए सभी मुद्दों पर किसी-न-किसी मात्रा में
सहमति या कामचलाऊ सहमति जरूरी होती है।
वैचारिक दृढ़ता, निष्ठा
और बुद्धिमत्ता के कारण कुछ लोग ऊपर से सहमति दिखलाते हुए लोगों के साथ तो रहते
हैं, लेकिन असल में भीतर से होते अकेले हैं, कभी-कभी
अघोषित रूप से कभी-कभी घोषित रूप से अकेले होते हैं।
मोटे तौर पर, अघोषित
रूप से अकेले रहनेवाले लोग राजनीतिज्ञों की श्रेणी में और घोषित रूप से अकेले रहने
का साहस दिखानेवाले लोग बुद्धिजिवियों की श्रेणी में आते हैं। व्यवहार कुशल लोग
दोनों श्रेणियों में चतुराई से भावुक आवाजाही करते रहते हैं। तुलसीदास कह गये हैं-
तुलसी या संसार में भाँति भांति के लोग, सबसे हिलमिल चलियो नदी नाव
संयोग।
वह समाज और समय सब से अधिक
कष्ट भोग रहा होता है जिस समाज और समय में बुद्धिजीवी अकेले पर जाने के खतरों को
सूँघकर आगे बढ़ने से सहम जाते हैं। अकेले पर जाने के डर से सुकरात, बुद्ध,
गैलेलियो, कॉपर्निक्स, गांधी, आंबेडकर
जैसे बहुत सारे लोग यदि सभ्यता के इतिहास में प्रकट ही नहीं होते तो हमारी सभ्यता
आज कहाँ होती! किसी समय की गुणवत्ता को परखने का जरिया यह भी हो सकता है कि उसके
बुद्धिजीवियों के साहस के प्रसंगों को गिन लिया जाये।
इस समय हमारे समय के
बुद्धिजीवियों की मनःस्थिति क्या है! हमारे समय के सामाजिक स्थान या पब्लिक स्फीयर
को घेरनेवाले अधिकतर बुद्धिजीवी साहस खो चुके हैं। यहां तक तो गनीमत है। दुखद और
अधिक चिंता की बात यह है कि अधिकतर बुद्धिजीवी सत्ताधारी विचार के प्रति सहमति के
शिकारी की भूमिका में लग गये हैं। वे सत्ता के गलियारे में सहमति के अहेरी की तरह
विचरते रहते हैं, पुरस्कृत होते रहते हैं।
समाज में विचारों के ऐसे
आखेटकों और विपणनकारियों को सम्मान तो नहीं मिलता है, हां नजर
आनेवाला थोड़ा-सा सामाजिक स्थान जरूर मिल जाता है। ये सार्वजनिक कार्यक्रमों में
मंचासीन देखे जाते हैं। बुद्धिजीवियों का बड़ा समूह सत्ता स्थापित सहमति उत्पादन
के कारखानों में मोटिया मजदूर की तरह खटते रहते हैं। इन्हें असंगठित रूप से
यत्र-तत्र और संगठित रूप से आइटी सेलों में सक्रिय देखा जा सकता है। अपनी भौतिक
जिंदगी में ऐसे बुद्धिजीवी बहुत दिखते हैं।
वास्तविक बुद्धिजीवी समाज में
होते तो हैं लेकिन कम ही दिखते हैं। जीवंत बुद्धिजीवी भौतिक जीवन में भी समय-सिद्ध
होते हैं और मरणोपरांत समय की गति के साथ अधिक चमकते जाते हैं। अपने समय की
गुणवत्ता का मूल्यांकन कैसे करें! बड़ी समस्या है।
यह सच है कि भारत एक राष्ट्र
से अधिक एकीकृत राष्ट्र है। लगता है कि भारत के खास संदर्भ में एक, एकीकृत
और एकत्रित के अंतर पर विचार करना जरूरी है। ऐतिहासिक रूप से सभ्यता और संस्कृति
की विभिन्न धाराएं भारत भूमि पर आती रहीं। एकत्रित होती रही।
एक-डेढ़ सदी पीछे तक कुछ
समझदारों की नजर यहीं रुक गई और उन्होंने मान लिया भारत किसी देश का नाम नहीं है,
बल्कि एक एकत्रित आबादी के रहने के ‘भूगोल या भू-खंड’ का नाम है। कुछ लोग जो
भारत की बनावट और बुनावट की संवेदनशील प्रक्रिया को भी देख पा रहे थे, वे
इसे एकत्रित आबादी के रहने के ‘भूगोल या भू-खंड’ के रूप में नहीं एक एकीकृत
राष्ट्र के रूप में भी देख पा रहे थे।
संवेदनशीलता और भावुकता में
अंतर होता है। संवेदनशीलता का बुद्धिमत्ता से कभी भी विच्छेद नहीं होता है।
संवेदनशीलता और बुद्धिमत्ता के क्रमशः विच्छिन्न होते जाने से भावुकता का जन्म
होता है। संवेदनशीलता से बुद्धिमत्ता के पूर्ण विच्छेद और निषेध से कोरी भावुकता या
गलदश्रु भावुकता का जन्म होता है।
‘एकीकृत भारत’ पूरी ऐतिहासिक
गतिमयता के साथ ‘एक भारत’ हो जाने के लिए आगे बढ़ने की शुरुआती दौर में था।
‘राष्ट्रवाद’ के किसी भी प्रसंग की तरफ आगे बढ़ने के लिए ‘एकीकृत भारत’ का ‘एक
भारत’ के रूप में जानना जरूरी था। ‘एकीकृत भारत’ के ‘एक भारत’ बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया
में अंतर्निहित अनिवार्य संवेदनशीलता के साथ निष्कंप बुद्धिमत्ता और कोरी भावुकता
दोनों एक साथ सक्रिय हो गई।
बुद्धिमत्ता संपन्न
संवेदनशीलता ‘एकीकृत भारत’ के ‘एक भारत’ बनने की दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश कर
रही थी ताकि वास्तविक राष्ट्रवाद की तरफ दृढ़ता से बढ़ा जा सके। संवेदनशीलता के
साथ निष्कंप बुद्धिमत्ता अधिक प्रभावी साबित हुई और इसी प्रभाव-प्रक्रिया में भारत
का संविधान बना। संविधान के रास्ते पर चलते हुए ‘एकीकृत भारत’ को ‘एक भारत’ बनाने
का ऐतिहासिक और संवैधानिक दायित्व हमारे राजनीतिक दलों पर रहा है।
संवेदनशीलता से बुद्धिमत्ता
के पूर्ण विच्छेद और निषेध से निकली कोरी भावुकता को इस संविधान से गहरी असहमति
रही है। कहा जा सकता है कि विरोध भी रहा है। धीरे-धीरे इसका प्रभाव और राजनीतिक
साहस भी बढ़ता गया। इसकी गति पीछे की ओर है। अर्थात, कोरी
भावुकता ‘एकीकृत भारत’ को ‘एक भारत’ बनने की तरफ बढ़ने से रोकने
और ‘एकत्रित भारत’ की तरफ ले जाने के लिए संविधान से मुंह मोड़ने की इच्छा से
लबालब भरी हुई दिखती है।
इतना ही नहीं ‘एकत्रित भारत’
के भीतर से ‘अपना भारत’ यानी ‘हिंदुत्व आधारित भारत’ को न सिर्फ अलग करने पर आमादा
है, बल्कि ‘हिंदुत्व आधारित भारत’ को भारत राष्ट्र मानने और ‘हिंदु
राष्ट्र’ बनाने में दिलचस्पी रखती है। इसे संविधान का विधि सम्मत दायित्व नहीं,
धर्म-शास्त्रों के विधि-निषेध की रीति-नीति अधिक आकृष्ट करती है।
भारत की जनता के सामने
मुश्किल है कि वह पलटकर संवेदनशीलता को बुद्धिमत्ता से विच्छिन्न किये जाने पर
कैसे रोक लगाये। इसकी संगामी प्रक्रिया है बुद्धिमत्ता विच्छिन्न कोरी भावुकता के
प्रभाव की चपेट में आने से बचे। भारत की जनता तय करे कि वह
‘एक भारत’ के राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ना चाहती है या ‘अकेलीकृत हिंदुत्व’ आधारित
राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ना चाहती है।
इसमें राज्य सत्ता की बड़ी
भूमिका होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतंत्र में सत्ता के बनने का आधार
चुनाव होता है। 2024 में होनेवाला आम चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक बात
जरूर गांठ बांध कर रख लेनी चाहिए कि कठिन समय में कोरी भावुक सांद्रता नहीं,
निष्कंप बुद्धिमत्ता ही काम आती है।
भारत की जनता 2024 के
आम चुनाव में क्या फैसला करती है या उसे क्या फैसला करने दिया जाता है, उसकी
प्रतीक्षा करनी होगी।
प्रतीक्षा करते हुए मैथिलीशरण
गुप्त की प्रसिद्ध कविता पुस्तक “भारत-भारती” की प्रस्तावना का एक अंश और उसका
मंगलाचरण पढ़ लें—
“कोई दो वर्ष हुए, मैंने
‘पूर्व दर्शन’ नाम की एक तुकबन्दी लिखी थी। उस समय चित्त में आया था कि हो सका तो
कभी इसे पल्लवित करने की चेष्टा भी करूँगा। इसके कुछ ही दिन बाद उक्त राजा की ऐसी
अभिरुचि देखकर मुझे हर्ष तो बहुत हुआ, पर साथ ही अपनी अयोग्यता के
विचार से संकोच भी कम न हुआ। तथापि यह सोचकर कि बिलकुल ही न होने की अपेक्षा कुछ
होना ही अच्छा है, मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया। श्री रामनवमी
सं. 1968 से आरम्भ करके भगवान् की कृपा से आज मैं इसे समाप्त कर सका हूं।
मंगलाचरण
मानस-भवन में आर्यजन
जिसकी उतारें आरती- भगवान्!
भारतवर्ष में गूँजे हमारी
भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह आरती
हे भगवते! सीतापते! सीतापते!!
गीतामते! गीतामते!!”
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