आज्ञापालक प्रजा बनने से इनकार का हक 01 नवंबर 2023

आज्ञापालक प्रजा बनने से इनकार का हक

— प्रफुल्ल कोलख्यान

 

अच्छी बात किसे अच्छी नहीं लगती! सुहानी बातें तो सुहानी लगती है। 21वीं सदी का चौथा हिस्सा पार हो रहा है। 20वीं सदी के अंतिम दशकों से ही बहुत सारे सपने बुने जाने शुरू हो गये थे 21वीं सदी के हसीन सपने! उस समय भारत के अपेक्षाकृत युवा प्रधानमंत्री, राजीव गांधी कंप्यूटर क्रांति की परिकल्पना के साथ उत्साह में थे। देश का दुर्भाग्य, आतंकी हमले में देश ने उन्हें खो दिया। इस घटना ने देश को झकझोर कर रख दिया, सपने भी थरथराने लगे। हम जैसे कुछ लोग जो कंप्यूटर क्रांति के प्रभावों से आशंकित होने के कारण विरोध में थे, वे भी धीरे-धीरे कंप्यूटर के कायल होने लगे। आज जीवन के सभी क्षेत्र में कंप्यूटर और तकनीक की बेहद असरदार उपस्थिति है। एक सपना इस तरह साकार हुआ।

सपने अच्छे लगते हैं। आभासी और वास्तविक दुनिया कभी इतने पास-पास नहीं थे। सपने लुभाते हैं। हम लोभ में पड़ते हैं। लोकलुभावन राजनीति की शुरुआत हुई तो ‘अच्छे दिन आयेंगे’ के साथ सपनों में नये-नये उछाल आने लगे, सपनों के बड़े-छोटे गुब्बारे फिजा में उतराने लगे। दुनिया भर में लोकलुभावन राजनीति का अपना ढर्रा है। इतिहास के साथ इसका व्यवहार भिन्न चरित्र की गवाही देता है। इतिहास और अतीत की सभी घटनाओं को एक साथ न तो याद किया जा सकता है, न लोकलुभावन राजनीति का ऐसा इरादा होता है। मनपसंद कुछ-कुछ घटनाओं का चयन किया जाता है। इस चयन से मनचाहा निष्कर्ष निकाला जाता है। निष्कर्षों को मूल्यों में बदल दिया जाता है। इस तरह अतीत के मनचाहा निष्कर्षों के आधार गूँथी गई मूल्य-मालाओं में सपनीली चमक होती है। मनपसंद निष्कर्षों के आधार पर मनपसंद मूल्य-माला की चमक में आदमी अतीत की मनोहारी समृद्धि की कल्पित सम्मोहक दुनिया में मुग्ध मन खो जाता है। अगला चरण उस मोहक दुनिया के खो जाने के अफसोस का होता है। यह अफसोस जनोन्माद में बदलता जाता है। लोकलुभावन राजनीति का नेता इतिहास की चौहद्दियों से बाहर जाकर अतीत में हुए शासकों की मगढ़ंत शैतानियों किस्से को फैलाकर जनोन्माद की आँच बढ़ाता रहता है। उत्तेजना की चपेट में बहुत बड़ी आबादी पड़ जाती है। लोकतंत्र में राजनीतिक उत्तेजना ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा हथियार होता है। समझा जा सकता है कि इस प्रक्रिया में भूत के छल से उछलके सीधे भविष्य के स्वप्न में पहुँचाने की प्रविधि होती है। वर्तमान में घट रही घटनाओं की पारस्परिकताएँ विचार-दृष्टि से ओझल रह जाती हैं। ऐसा कैसे होता है!

लोकतंत्र तटस्थों का कारोबार नहीं है, तो यह पक्षकारों का उलटा रार भी नहीं है। ‘मैं नहीं माखन खायो’ और ‘मैं ने ही माखन खायो’ की तरह राजनीतिक चालाकी कभी कहती है, ‘हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा’ तो, कभी कहती है ‘रार नई ठानूंगा’! वोटबाजी के चक्कर ऐसा कि लोकतंत्र की छाती पर नित नये रार ठनते ही रहते हैं। मतदाता तटस्थ दिखता है, लेकिन होता नहीं है। मतदाताओं के सत्ता में आकांक्षित हिस्सेदारी का मतलब बेहतर जीवन-स्थिति, गरिमापूर्ण रोजी-रोजगार के अवसरों की उपलब्धता होता है।

लोकतंत्र का सारो दारोमदार मतदाताओं पर निर्भर करता है। मतदाता सूची की बनावट को देखें तो समझने की सुविधा के लिए मोटे तौर पर इसे उम्र के लिहाज से तीन वर्गों में बाँटकर देखा जा सकता है। एक वर्ग में 18-35 वर्ष की उम्र के मतदाताओं को रखें तो इसके वर्तमान का  अभी ठीक से सक्रिय होना बाकी रहता है। एक वर्ग में 60 वर्ष से अधिक उम्र के मतदाताओं को रखें तो इनका लौकिक वर्तमान निष्क्रिय हो चुका होता है और भविष्य इहलौकिक। 18-35 वर्ष की उम्र के मतदाताओं के पास सम्मोहक भविष्य का सपना होता है और 60 वर्ष से अधिक उम्र के मतदाताओं पास कल्पित अतीत की समृद्धि के खो जाने का अफसोस होता है। ये दोनों समूह अतीत और भविष्य में निर्बाध आवागमन के लिए सब से उपयुक्त यात्री होते हैं। वर्तमान की खौलती नदी को मनचाहे बार आर-पार करने के लिए काल्पनिक पुल 18-35 और 60 पार के मतदाताओं के लिए सहज उपलब्ध रहता है। इस काल्पनिक पुल को सरलता से उपलब्ध करवाने में लोकलुभावन राजनीति के अलावा कल्पना प्रसूत साहित्य, धर्म-कथाओं, नीति कथाओं, कलाओं, बौद्धिकों के भावुक व्यायाम आदि के कतिपय रूपों की सहयोगी उपयोगिता होती है। इनकी गढ़ी हुई विश्वसनीयता और विषाक्त हितैषिता के प्रचार-प्रसार और स्वीकार के लिए जन हित के मिशन से नहीं, स्वहित के कमीशन से प्रतिबद्ध संचार माध्यम तो होते ही है। साधन अमित, साधना थोड़े!

लोकलुभावन राजनीति की एक अन्य खासियत है। सत्ता की पीरामीडीय संरचना के उत्तुंग शिखर पर शिला की शीतल छाँह में एक ही नेता के लिए आसन होता है। बाकी करबद्ध अनुयायी! इस एक नेता में सामूहिक नेतृत्व या जनतांत्रिक निर्णय पद्धति को अप्रासंगिक बना देने की व्यक्तिवादी, सर्वसत्तावादी रुझान बहुत तेज होता है। असल में इस एक पूंजीभूत नेता का कारनामा अतीत की खोयी समृद्धिको भविष्य में हासिल करने की राजनीतिक उत्तेजना का हड़बोंग मचाकर अपने निकटतम साथियों को अनुयायी और बाकी को भक्त की तरह व्यवहार करने की बाध्यकर स्थिति में डाल खुद को भगवान बना डालता है सर्वशक्तिमान, ‘प्रजा-वत्सल’। अपनी हनक में लोकतंत्र के अधिकार संपन्न नागरिक के साथ आज्ञापालक प्रजा सरीखे व्यवहार को सहर्ष स्वीकार करने की उम्मीद करने लगता है। आम नागरिकों को उम्मीद किससे! लोकतंत्र की गति-मति किये गये अध्ययनों से एक संकेत यह मिलता है कि ‘हमारी संस्थाएँ हमारे लोकतंत्र को नहीं बचा पायेंगी। हमें खुद ही इसे बचाना होगा।’ यहीं हमारी नजर बहुत उम्मीद से नागरिक जमात (सीविल सोसाइटी) की तरफ जाती है। जाहिर है, लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक को आज्ञापालक प्रजा बनने से इनकार क हक को हासिल तो है, लेकिन सवाल इस हक की रक्षा का है

 

कोई टिप्पणी नहीं: