डिजिटल आवारगी
डिजिटल दुनिया में लोग पहुँच रहे हैं। कुछ लोग पहुँच चुके हैं। पहुँच ही नहीं गये हैं, वहाँ बस भी गये हैं। वहाँ उन्हों ने अपने लिए मनोबांछित घर, सड़क, गली, वाहन, वाशरूम की डिजिटल सुविधा अर्जित कर ली है। इस के साथ ही डिजिटल आवारगी के लिए भी बहुत सारे अवसर वहाँ उपलब्ध हैं। कुछ लोग अपने हिसाब से कुछ गंभीर काम करना चाहते हैं, वे भी आवारगी के सुख से खुश होने के लोभ से अपने को बचा नहीं पा रहे हैं। क्या यह डिजिटल घर सुरक्षित है? सुरक्षित हो या नहीं, सुविधाजनक बहुत ही है। सुविधा का आकर्षण कई बार सुरक्षा मानकों की अवहेलना करवा बैठता है। डिजिटल आवारगी विशेषज्ञता का दंभ भर कर किसी को भी विशेषज्ञ की भंगिमा में कुछ भी कहने के लिए उकसाती रहती है। असल में, हाइपर एक्टिविटी हमें अटेंशन डेफिसिट में डाल देती है। इसके साथ साइबर लोफिंग या डिजिटल आवारगी की ओर मन और अधिक तेजी से लपकने लगता है। मन की गति से लोग जहाँ-तहाँ पहुँच जा रहे हैं। जरूरी नहीं कि वहीं पहुँचें, जहाँ वे पहुँचना चाहते थे। यह चाहना बहुत महत्त्वपूर्ण और यह इच्छा स्वातंत्र्य के सवाल से जुड़ा हुआ है। इतने तरह के प्रभावों से इस तरह आच्छादित रहता है मन कि इच्छा स्वातंत्र्य की हवा निकल जाती है। निकलते हैं कहीं और के लिए, पहुँच कहीं और जाते हैं। जहाँ पहुँचते हैं, वहीं रम जाते हैं। जहाँ जाने की इछ्छा लेकर निकलते हैं उस जगह को भूल जाते हैं, उस जगह जाने की अपनी इच्छा और इच्छा के कारणों के प्रति उदासीन हो जाते हैं। न सिर्फ उदासीन हो जाते हैं, बल्कि मानने लगते हैं कि जहाँ पहुँचे वहीं के लिए निकले थे। न इच्छा बचती है, न स्वतंत्रता।
लेखक कुछ और लिखने के लिए बैठता है और लिखने कुछ और ही लग जाता है। पाठक कुछ और पढ़ने के लिए सोचता है पढ़ने कुछ और ही लग जाता है। हालाँकि, अब पाठक तो बचे नहीं हैं, लेखक में उन्नत या अवनत हो गये हैं। अवनत! जी हाँ अवनत। क्योंकि मेरे लिए यह मानना कठिन है कि पाठक हमेशा लेखक से कमतर होता है। लिखना एक तरह का कौशल है तो पढ़ना भी एक तरह का कौशल है। न सिर्फ दोनों तरह की कुशलता में अंतर होता है, बल्कि दोनों तरह की कुशलता के लिए भिन्न तरह की दक्षता उपयोगी होती है। अच्छे पाठक का बुरे लेखक में अंतरण पाठक की अवनति ही है। हिंदी पर तो इसका बड़ा दुष्प्रभाव हुआ है। इस प्रक्रिया में हिंदी का पाठक भी काम से गया और लेखक भी काम से गया। नहीं क्या! उच्च कोटि के पाठक के अंदर भावनात्मक उमंग और बौद्धिक समझ का घनत्व किसी साधारण लेखक से कहीं ज्यादा होता है।
हिंदी लेककों के पास ऐसा कोई पाठक, पाठक समूह या कम्युनिटी सपोर्ट नहीं है जो उसके लेखन की प्रक्रिया दौरान लेखन की गुणवत्ता को बढ़ाने में कोई योगदान कर सके या करता हो। यह बात भी सही है कि हिंदी के लेखक में अपने पाठक के प्रति भी कोई खास सम्मान तो बना नहीं, अब तो पाठक काअस्तित्व ही संदेह के घेरे में है। संभव है, प्रोफेसर लोग अपने छात्रों से पाठक के अभाव की थोड़ी-बहुत क्षतिपूर्त्ति कर लेते होंगे। क्या हम अपनी इच्छा और स्वतंत्रता को समझने और इनकी परवरिश के लिए जरा भी उत्सुक हैं! या यों ही बहते जाना है!
मेरे ध्यान में है कि पंत जी की कविता को एक प्रोफेसर साहब न सिर्फ पढ़ते थे बल्कि उस पर बातचीत भी करते थे। मैंने महसूस जारी…
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