जे रोऊँ तौ बल
घटै, हसौं तौ राम
रिसाइ!
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आलोचना का काम
क्या है?
रचना के झूठ से
समाज के सच को खोज निकालना!
अमरनाथ गुप्ता, सुनील झा, शेषनाथ प्रसाद की
टिप्पणियाँ आई। इतनी टिप्पणी काफी है, मेरी पोस्ट पर। कुल मिलाकर यह कि इस बात को
खोले जाने की जरूरत है। प्रसंगवश एक बात कह दूँ कि सल में डर और श्रद्धा के संदर्भ
में महेश मिश्रा के प्रश्न पर रचनाओं के संदर्भ में सोचते हुए, यह बात सामने आई — डर और श्रद्धा के बीच के, बाबा नागार्जुन के शब्दों में तिकड़म, को कैसे
समझा जाये! इस क्रम में यह लगा कि सत्योपरांत के समय में रचना के
झूठ से, सच निकालना आलोचना का काम है।
क्या रचना खुद झूठ होती है या रचना में झूठ
होता है? मेरी भी मान्यता है कि रचना में झूठ होता है। झूठ होने से रचना त्याज्य
नहीं हो जाती है क्योंकि रचना के झूठ में समाज का सच होता है। साहित्य और कविता के
बारे में पहले भी बहुत कुछ रहा गया है, इसमें भ्रामक झूठ होता है, इसमें घातक झूठ
होता है, देश निकाला की तक की बात भी कही गई, खासकर पाश्चात्य ज्ञान परंपरा और
सिद्धांतिकी में। जिसका सत्यापन न हो सके उसे झूठ माना जाना चाहिए। ‘मीनिंग ऑफ मीनिंग’
ढेर सारे संदर्भ हैं, उन सारे संदर्भों तक इस समय न मेरी पहुँच है, न यहाँ इसके
लिए अवकाश है, बस कुछ बातें स्मृति में है, जिनका मैं इशारा कर सकता हूँ। एक
व्यक्तिगत सफाई कि मैं साहित्य का मूलतः पाठक हूँ, इसी चक्कर में पढ़ते-पढ़ते
लिखने लग गया, थोड़ी-बहुत सराहना मिली तो बस रम गया — अपने साहित्यकार या
कवि-आलोचक होने का भ्रम कुछ दिन के लिए रहा हो इससे इनकार नहीं कर सकता, लेकिन इस
समय तो बिल्कुल ही नहीं। अब तो बस नागरिक होने की ही चेतना बची है, वह भी कितने
दिन! कह नहीं सकता। रचना में झूठ होता है यह जानते हुए भी रचना
में रमा रहा, तो क्यों? किसी के पास इसके कई जवाब हो सकते हैं, या उन्हें इस बात
से कोई लेना-देना भी नहीं हो सकता है। खुद के लिए इसका जवाब तलाशना जरूरी है — जवाब यही है कि रचना के झूठ में समाज का सच होता है, जिसे खोज निकाला जा
सकता है, निकाला जाना चाहिए। कुछ उदाहरण मुनासिब होगा यहाँ :
भीष्म साहनी की कहानी का एक अंश —
‘चित्र अपने सामने पाकर बच्चा देर तक उसे ध्यान से देखता रहा, फिर तर्जनी उठाकर
चित्र पर रखते हुए ऊँची आवाज मे बोला : ‘पिता जी !’
और फिर तर्जनी को कौशल्या के चेहरे पर रखकर उसी तरह चिल्लाकर बोला :
‘माता
जी !’
मजिस्ट्रेट ने दूसरा चित्र बच्चे के सामने रख दिया।
बच्चे का चेहरा खिल उठा और वह चहककर बोला : ‘अब्बाजी ! अम्मी !’
शकूर के दिल में उल्लास की लहर-सी दौड़ गई।’
(पाली)
इस अंश में जो वर्णित है वह घटना हुई थी, कौन
कह सकता है! सत्यापन असंभव है। एक घटना के रूप में
यह सत्य नहीं है। झूठ है। इस झूठ में सच छिपा है। अगर इस झूठ में सच पाठ
के उपरांत पाठक न निकाले, या उस सच को निकालने में आलोचना मददगार न हो तो मानना
चाहिए कि आलोचना अपना काम नहीं कर पा रही है। अध्यापन से जुड़े लोग नाहक घुसपैठ न समझें
तो, इस अर्थ में मान सकते हैं कि साहित्य की आलोचना और साहित्य के अध्यापन में बहुत
थोड़ा का अंतर होता है — क्लास रूम और सामाजिक स्पक्ट्रम
(Spectrum)
का अंतर होता है। रचना को आस्वाद के पार जाकर आलोचना मदद न करे तो समझा जाना चाहिए
कि आलोचना अपना काम नहीं कर रही है! भीष्म साहनी की कहानियों पर ‘आलोचना’
के लिए एक लेख तैयार किया था, भीष्म साहनी से सीखते हुए, उस में लिखा था —— ‘एक कथाकार के रूप
में भीष्म साहनी वास्तविकता को गल्प में बदलने की कला जानते हैं और संभवत: यह जानते हैं कि पाठक
भी अंतत:, कई बार जान बूझकर और कई बार बिना जाने भी गल्प को वास्तविकता में बदलने की प्रक्रिया अपनाता
है।
रचना प्रक्रिया और पाठ प्रक्रिया के बीच ‘कोडिंग’ और ‘डिकोडिंग’ रचना-संघर्ष और
रचना-आस्वाद की सामाजिक प्रक्रिया है।’
कभी किसी ने किसी से पूछा था — बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे!
वैसी
कोई पंचायत हुई थी, या वैसा कोई पंच परमेश्वर हुआ था? सत्यापन संभव नहीं है। बिगाड़
के डर से ईमान की बात कहने या न कहने की चिरंतन रस्साकशी सामाजिक सच नहीं है? रचना
के झूठ से सच को खोज निकालना क्या आलोचना काम नहीं है! वह कौन थी? जो
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के पथ पर पत्थर तोड़ती दिखी थी निराला को! वह कौन थी, उस
सर्वनाम का कोई नाम था इसका सत्यापन क्या संभव है? नहीं है। यह झूठ है। इस झूठ के
भीतर जो सच छिपा है, उसे खोज निकालना आलोचना का काम है।
तभी कबीर को याद करता हूँ — साँच कहे तो मारन
धावे, झूठहि जग पतियाना। सच कहने पर किसी के मार-मार छूटने, झूठ को पतियाने या रोने
से बल घटने और हँसने से राम के रिसाने का जो डर कबीर के यहाँ है उसका सत्यापन संभव
नहीं है — ‘जे रोऊँ तौ बल घटै, हसौं तौ राम रिसाइ।’ लेकिन कबीर की दुविधा में समाज का जो सच छिपा
है, उसे तो खोज निकालना, आलोचना का ही काम है न!
फिर याद दिला दूँ, मैं श्रद्धा और तिकड़म के
संबंध को खोजने के क्रम में डर के अंदर श्रद्धा के होने और उसे सकुशल डर के परिसर
से बाहर निकालने में आलोचना की भूमिका की तलाश कर रहा था — इस बीच यह बात दिमाग
में आई कि रचना के झूठ से सच को खोज निकालना आलोचना का काम है। यह बात दिमाग में
इसलिए आई कि एक तरफ आज रचना के झूठ से समाज के सच निकालने में आलोचना नाकाम हो रही
है, तो दूसरी तरफ रचना के झूठ से रचना से भी बड़ा झूठ निकालकर समाज में फैलाया जा
रहा है, डर का आयतन बड़ा हो रहा है और श्रद्धा की व्याप्ति भी फैल रही है; तभी
तुलसीदास की पंक्ति साझा की याद आई — झूठइ
लेना झूठइ देना। सत्योपरांत रचना के झूठ से समाज के सच को खोज निकालने का प्रयास जारी है
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