करोना का कहर जारी है। पूरी दुनिया इससे अपने-अपने तरीके से बचाव में लगी हुई है। हमारी सरकारें भी यथासंभव सूझबूझ से निपट रही है। एक बात जो साफ-साफ नजर आ रही है वह यह कि नजरिया हमारा चाहे जो हो, कुछ मामलों में, खासकर असंगठित आबादी और दिहाड़ी मजदूरों के बारे में, स्पष्ट नीति निरुपण की तत्काल जरूरत है।
करोना की सीख हमारे राज्यों की आंतरिक सीमाएं इतनी निष्प्रभावी नहीं हैं, जितनी वे अपनी सुप्तावस्था में अब तक लगती रही हैं।
निवासीयता के साथ ही रिहाइशीयता का सवाल भी महत्वपूर्ण हो गया है। निवासीयता पर रिहाइशीयता भारी है। निवासीयता भले भारतीय हो, रिहाइशीयता अपने-अपने राज्यों, जिलों और पंचायतों की है।
रोजी-रोटी की तलाश में अपने राज्य, जिला और पंचायत से बाहर जानेवालों का संबंधित ब्यौरा, यथाप्रसंग, राज्य, जिला, पंचायत के पास प्रामाणिक तौर पर रखा जाना जरूरी किया जाना चाहिए। राज्य से बाहर अपने मानव संसाधन के नियोजन से मुनाफा की एक निश्चित राशि को राज्यों के खजाने में जमा किया जाना चाहिए। इस राशि का इस्तेमाल राज्य से बाहर नियोजित मानव संसाधन की सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए किये जाने का प्रावधान किया जाना चाहिए।
दिहाड़ी मजदूर को हम निकृष्टतम अर्थ में प्रवासी या बाहरी मान चुके हैं तो उसकी रिहाइशीयता के संदर्भ को अधिक जीवंत और प्रभावी बनाया जाना जरूरी है। संबंधित श्रम कानूनों को श्रमिक अधिकार, मानवाधिकार और नागरिक अधिकार के परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित किया जाना चाहिए।
विपत्ति कभी भी और किसी भी रूप नाम से आ सकती है, हमें अपने संदर्भों को समय रहते पुनर्गठित करने के लिए तत्पर होना चाहिए। एक नागरिक की यह सहज चिंता है और इसका सिर्फ सामाजिक परिप्रेक्ष्य है।
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