बनारस शहर नहीं, समास है


केदार नाथ सिंह की कविता बनारस

कविता में सामान्य मनुष्य, स्थान का उल्लेख तो होता ही रहता है। किसी विशिष्ट या खास व्यक्ति या शहर आदि पर कविता कम ही देखने को मिलती है। सामान्यतः, कविता सामान्य पर होती है। खास पर कविता लिखना तोड़ा मुश्किल काम है। अभी केदारनाथ सिंह की कविता माँझी का पुल पर कुछ काम किया है। वह भी तो एक खास पुल ही है। अब जबकि उनकी कविता बनारस पर काम करने बैठा हूँ, मन में फिर एक सवाल है कि आखिर किस तरह से उन्होंने इस कविता को हासिल किया होगा! पाठक ठीक उसी तरह से इस कविता को कैसे हासिल करे! केदारनाथ सिंह की कविता में यह एक खास बात है कि वे ठीक उस तरह से पर अतिरिक्त जोर देते हैं और इस तरह से कविता में कुछ खास ऐसा जोड़ देते हैं जिस से उनकी पूरी कविता का अर्थ-लय बदल जाता है। सिर्फ अर्थ-लय ही क्यों संवेदना का धरातल भी बदल जाता है।
बनारस के संदर्भ हिंदी साहित्य में कई तरह से आया है, लेकिन इस शहर में कैसे आता है वसंत यह तो सिर्फ यह कविता बताती है। इस शहर में वसंत के आने के बाद क्या होता है, यह भी केदारनाथ सिंह की कविता की नजर से ही समझा जा सकता है।
इस शहर में वसंत

अचानक आता है

और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
यानी शहर की खाँटी देसी बनारसी वाचालता बढ़ जाती है। शहर पुराना है, मगर बूढ़ा नहीं है। वसंत आता है तो उस शहर का मिजाज भी अपने वसंती रंग का जीर्णोद्धार कर लेता है। जो गुजर गया है वह भी जैसे अभी गुजरा नहीं है, वसंत के आगमन का स्वागत अपनी खपचियों से करता जाता है। खपचियाँ फेंकते हुए किसी का इस तरह गुजर जाना दशाश्वशमेध घाट के पहले पत्थर को नहीं, आखिरी पत्थर को मुलायम बना जाता है। न जाने कितने शव के जाने का साक्षी बना यह दशाश्वशमेध घाट अपने आखिरी पत्थर को मुलायम बनाता आ रहा है लेकिन न मेध रुकता है, न इस का आखिरी पत्थर कभी आखिरी हो पाता है। इस कारुणिक दृश्य से नम हुए पूर्वजों, बंदरों की आँख की नमी केदारनाथ सिंह की कविता की आँख की नमी से अदृश्य रह पाती है। भीखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन भी किसी चमक से भर जाता है। गुजरा हुआ भी किसी-न-किसी के लिए एक आश्वासन छोड़ जाता है, इस तरह से। जो शहर में आता है भीखारियों के कटोरों में उतरता है, वह वसंत कुछ इस तरह कि गुजरने से शहर खाली होता है जितना, उतना ही भरता रहता है भीखारियों का कटोरा चमक से। इस तरह से खाली कटोरियों में वसंत का उतरना देखती है, केदारनाथ सिंह की कविता।
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है खपचियाँ
आदमी दशाश्वशमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़



धीमापन इस शहर का स्वाभाविक छंद है। कोई लाख कहे, और कहनेवाला कोई कवि ही क्यों न हो, लेकिन यह सच है इस शहर में  भी बदलाव होता तो है, परंतु होता है, धीरे-धीरे। अचानक और अचंभा की तरह नहीं होता है, होता है बदलाव शाश्वत की तरह धीमे-धीमे। यह धीमापन ही है जिसने बचाया था बनारस में उस पुरानेपन को और उसे भी जो पुराना होने पर भी बूढ़ा होने से बचाता रहता है सदैव। यह धीमापन का ही छंद है जो उसे अछिंजल-सा पवित्र अस्तित्व को आधार देता है। और शायद इसीलिए अपने आधे-अधूरे अस्तित्व में भी यह शहर जल में भी है मंत्र में भी है, फूल में भी है, शव में भी है, नींद में भी है और शंख में भी है। सूर्य जो किसी को भी लक्षित करने का बुनियादी आधार देता है, वही सूरज इस शहर में खुद अलक्षित होकर अपना अर्घ्य ग्रहण करता है। यह शहर गंगा में अपनी एक टाँग पर खड़ा है। खड़ा है कुछ इस तरह कि दूसरे टाँग से है बेखबर। परंपरा में जीता है यह शहर और प्रगति के लिए उठाये गये दूसरे कदम की उसे कोई खबर ही नहीं है। बनारस में इतने पास-पास रहते आये हैं परंपरा और प्रगति, दोनों बिना संवाद के। शहर कि मानें तो प्रगति एक दिन परंपरा बन जाती है, लेकिन परंपरा कभी प्रगति नहीं बनती। परंपरा बहती है, जिधर जमीन अनुकूल हो, ढलान हो; प्रगति चलती है जिधर जमीन अनुकूल न भी हो मगर जिधर समय की उठान हो।
आज की स्थिति में देखें तो, आधा बनारस इस कविता में है, आधा नहीं भी है। बनारस बदल रहा है। अच्छा है या है बुरा इसकी परवाह किये बिना बनारस बदला है, बदल रहा है। और थोड़ी-सी तेजी से ही बदल रहा है। जितनी तेजी से बदल रहा है उतनी ही तेजी से इसका स्वाभाविक छंद भी बदल रहा है। बनारस में आरती का आलोक तेज हुआ है तो तेज़ भी हुआ है, तीखा हुआ है। श्रीकांत वर्मा को याद कर लें तो यह सच है कि वह जो बनारस था जिसे हम मगध की तरह खोते जा रहे हैं वह बनारस बचा रह जायेगा केदारनाथ सिंह की इस कविता में। बचा रह जायेगा वह बनारस इस कविता में ठीक उसी तरह से जैसे बचा रह गया था बाघ कुम्हार की आँख में जैसा कि वह था टूटने के पहले, खुद केदारनाथ सिंह की कविता बाघ में। यह भरोसा इस कविता के मन में है।
इन दिनों की बदलाव की बयार नहीं, आँधी चल रही है। हमारे रिश्ते बदल रहे हैं, सरोकार बदल रहे हैं, संबंध चाहे व्यक्ति से हों, समाज से हों या फिर राष्ट्र-राज्य या ईश्वर से ही क्यों न हों बदल रहे हैं, कुछ अधिक तेजी से ही बदल रहे हैं। इस बदलाव में सत्य तो है, शिवम और सुंदरम की बात तो भविष्य की मोतियाबिंदी आँख में है। ऐसे में केदारनाथ सिंह की कविता में भी जो भरोसा है वह तभी कामयाब हो सकता है जब उनकी कविता बसी-बची रहेगी हमारे मन में। इसलिए जरूरी है इस कविता को अपने मन में जगह देने की और भरोसा को बचाने की। इस कविता के लिए मन में जगह नहीं बनी रहे तो कुछ नहीं, बस भरोसा का एक रेशा और टूटेगा। भरोसा का रेशा जब टूटता है तो क्या होता है, बतायेगी राजेश जोशी की कविता जिसमें नट भरोसे की रस्सी पर चलता है। सिसक उठेगी अरुण कमल की कविता कि अरे यही तो था हर हाल में जो टूट गया! क्योंकि यही वह भरोसा था जयशंकर प्रसाद की आँख में हिमाद्रि तुंग श्रृँग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती की ललकार बना था। न बचेगा भरोसा तो भीगे नयनों से प्रबल प्रवाह देखना ही हमारी नियति बनकर रह जायेगी। पूछिये नजीर से इस तरह नहीं बचा पाये हम बनारस को तो, कैसे मनेगी होली! उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम सभी का समन्वय, संतुलन और समंजन का साक्षी यह बनारस ही तो है। हजारीप्रसाद द्विवेदी से पूछिये उन्हें पोथा देनेवाला अनामदास का असल नाम बनारस नहीं था तो क्या था! बनारस शहर नहीं समास है, भारतीय संस्कृति के सार का समास है बनारस। बनारस शहर नहीं, समास है। बनारस बदलकर भी बनारस ही रहेगा, जैसे देवदत्त अंततः देवदत्त ही रहता है अपने हर बदलाव के साथ। जैसे बचे रह गये हैं बाघ और बुद्ध दोनों अष्टाध्यायी और चर्यापद में। इस बचे रहने में केदारनाथ सिंह की कविता बनारस बची रहेगी, बसी रहेगी मन में।
  




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