जिंदगी इन दिनों, जीवन के अंदर, जीवन के बाहर

इन दिनों जिंदगी के लिए 
नया ककहरा बन रहा है
अद्भुत है इसकी सिसकी 
इसकी बारह-खड़ी
 जितनी जोर से 
चीख निकलती है बाहर
उतनी ही खामोशी से
सन्नाटा पसर जाता है अंदर 
किसी संवाद में नहीं है 
बाहर भीतर 

जिनके हाथ में झंडे हैं, 
किसी भी रंग के
उनके पास कान नहीं हैं साबूत
जिनके पास कान हैं बचे हुए थोड़े भी
उनकी जुबान नहीं 
भाषा की चौहद्दी में 
भाषा जय जय में सिमटकर रह गई है
जीवन जय के वेष में 
क्षय की शंकाओं से ग्रस्त 

ऐसे में 
कविता कैसे 
पढ़ी-पढ़ाई जाती होगी
कक्षाओं के अंदर, 
बाहर पढ़ाये जाने का
रिवाज नहीं रहा!

कविता
न चीख में बची है 
न सन्नाटा में 

इस ककहरा को सीखने 
इस बारह-खड़ी को सीखने 
लायक बचा क्या है!
जीवन के अंदर 
जीवन के बाहर!

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