खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन
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जब कभी
अत्याचार की घटनाओं की खबरों से
टूटता है मन, परत-दर-परत
खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन
जीने के लिए बेहद जरूरी
और न्यूनतम जो खुशियाँ
आँख की कोर में सहेजकर रखता हूँ
जैसे पोखरिया सहेज कर रखती है जीरा
तपत नोर में
मछलियों की तरह
तड़फड़ाती है खुशियाँ
तड़पती है खुशियाँ
पोखरिया सिकुड़कर
कराही में तबदील हो गई जैसे
और तुम्हारी मुसकान उग्र भट्ठी में
मन तड़पता है कि
क्यों नहीं मुसलमान हुआ
क्यों नहीं दलित हुआ
औरत ही क्यों नहीं हुआ
आदि, आदि इत्यादि
कम-से-कम
अत्याचारियों के समूह में
गिने जाने से खुद को बचा ले जाता
अंधेरे के सच और उजाले के झूठ में फँसकर
मन ही बौड़म बना है, मालिक
अत्याचार पीड़ित को मेरा मन इंसान नहीं मानता
अत्याचार पीड़ित का मन मुझे इंसान नहीं मानता
आग में घिरे गऊ-गृह के बीच
खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन
1 टिप्पणी:
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