बहुत घुटन है
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बहुत घुटन महसूस कर रहा हूँ, इन दिनों। बात दिल्ली की है, लेकिन दिल्ली तक सीमित नहीं है। जीवन के व्यापक धरातल पर इसे देखने की कोशिश की जानी चाहिए। हम साहित्य से जुड़े लोग हैं। हमारे पास इनपुट तो बहुत सारे स्रोत से मिलते रहते हैं, लेकिन साहित्य में उसका समावेश या निवेश एक भिन्न तरह से होता है। मैं पत्रकारिता पर बात करने की स्थिति में नहीं हूँ, हैसियत भी नहीं है। इतना जरूर कहना चाहता हूँ कि पत्रकारिता को अपने स्रोत से जिस तरह का इनपुट मिलता है, उसे हू-ब-हू न भी तो प्रस्तुति की शैली और संपादन में थोड़े-से बदलाव के साथ पत्रकारिता उसे प्रस्तुत कर सकती है। साहित्य ऐसा नहीं कर सकता है। साहित्य सूचित करने तक सीमित नहीं रह सकता है, बल्कि संवेदित करने के दायित्व से बंधा होता है। भाषा के जानकार बताते हैं, सूचना शब्द सूई चुभोने से विकसित हुआ है और आज एक नितांत स्वायत्त अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है। लेकिन इसके मूलार्थ को एकदम से भूला ही न दिया जाये तो कहना चाहता हूँ कि सूई चुभोने का असर तो तभी हो सकता है न जब वह संवेदनशील या जीवंत जगह पर चुभोई जाये। संवेदनहीनता की पहचान है, सूचना में सूच्यता का न बच पाना। सूच्यता पर गौर करना होगा, शुचिता पर भी गौर किया जाना चाहिए। घुटन इसलिए महसूस होती है कि संवाद के माध्यम जितने विकसित और बढ़ते जा रहे हैं, व्यापक होते जा रहे हैं, संवाद के अवसर उतने ही कम होते जा रहे हैं। संवाद में असर, या कहें संवाद का असर उतना ही कम होता जा रहा है। विश्वास और भरोसा के अभाव में संवाद हो नहीं सकता और संवाद माध्यम, इसे मात्र पत्रकारिता से ही सीमीत कर न समझा जाये, विश्वास की रक्षा कर नहीं पा रहे हैं। विश्वास और भरोसा को सिर्फ और सिर्फ व्यवहार ही बहाल कर सकता है। हमारे नागरिक व्यवहार में क्या कुछ कमी रह गई है या रह जाती है इस पर जरूर गौर करना चाहिए कि विश्वास का कच्चा घागा कमजोर होता चाला जा रहा है। यह काम खुद ही कर सकते हैं, हमारे एवज में कोई अन्य इस काम को कर ही नहीं सकता है। साहित्य तो आज हास्यास्पद हो जाने की हद और शर्त्त तक हँसने-हँसाने तक सीमित होकर रह गया प्रतीत होता है। विदूषक में भी विद्वता तो होती है, लेकिन वह अपने विदूषण से अन्य का दोष दिखलाकर रुक जाता है, चुक जाता है। साहित्य सिर्फ विदूषण नहीं होता, न साहित्यकार विदूषक होता है। वह जय-पराजय, गुण-दोष के पार जाकर अपने श्रोता को आत्मावलोकन की स्थिति में ला खड़ा करता है। बाहर शोर बहुत है, आत्मावलोकन की जिस स्थिति तक श्रोता या पाठक को ले जाने की उम्मीद साहित्य से होती है, इस उम्मीद पर खुद बहु-प्रचारित, बहु-मान्यता प्राप्त या बहु-पुरस्कृत साहित्यकार भी कम ही खरा उतर पाते हैं। संकट यह भी है। साहित्य तो रोने और रुलाने तक विस्तृत होता है, हँसने-हँसाने तक उसका सीमित होते जाना साहित्य का दुखद प्रसंग है। इसलिए, घुटन का असर बढ़ता जा रहा है। भू-पर्यावरण के असंतुलन के कारण घुटन के बढ़ते हुए दायरे से कम घातक नहीं है, सभ्यता और संस्कृति के पर्यावरण में बढ़ते असंतुलन के कारण घुटन का यह बढ़ता हुआ दायरा। यह नागरिक जीवन-चर्या की बात है, इसे राजनीतिक दायरे में समेट कर देखना इस बात को अपटी खेत में मार देने के बराबर है।
अल्फाज थोड़े इधर-उधर हो सकते हैं, लेकिन भावार्थ नहीं, (Noor Mohammad Noor) नूर मुहम्मद नूर का एक शेर य़ाद आ रहा आज बहुत आपको भी सुनाता हूँः
बहुत घुटन है, मकीनो तुम्हारी बस्ती में
कोई राह निकालो, इक जरा सी हवा के लिए
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