ए भाई, आलोचक फालोचक की बात रहने दो। जीते जी मुक्तिबोध का कोई संकलन न आया। यह याद दिलाकर, कहना कि मेरा भी न आया, इसलिए मुक्तिबोध और मैं बराबर! यह तर्क सड़ गया है। यह कहना कि अमुक के इतने सारे संकलन छप गये हैं, मुराद यह कि वह जुगाड़ू है, किसी काम का नहीं! लिखना है तो लिखो, न कुछ और करना है तो सो करो, सिर्फ पुरस्कार तुरस्कार की बात नहीं। मालूम है, पाठ तो होते हैं कविता के इस अकाल बेला में भी, बेचारी की कोई सुनता नहीं, अधिकतर बार उसका कवि भी नहीं! कविता के मृत्यु प्रसंग की बात रहने दो भाई। अकाल बेला और मुक्ति प्रसंग के लिए मैं राजकमल चौधरी को याद कर लूंगा। मुद्दे की बात यह कि जो रोया नहीं अपनी कविताओं को पढ़कर, जी भर हँसा नहीं अपनी कविताओं पर, ये बातें उनके लिए नहीं हैं। ये बातें बिल्कुल बकबास है, अब हैं बकबास तो हैं। मैं मगध से बोल रहा हूँ, मगध विचार से नहीं प्रचार से परिभाषित होता रहा है, और कविता मगध से भिन्न नहीं, आगे खुद समझ लो भाई!
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