मगध और कविता

मगध और कविता
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ए भाई, आलोचक फालोचक की बात रहने दो। जीते जी मुक्तिबोध का कोई संकलन न आया। यह याद दिलाकर, कहना कि मेरा भी न आया, इसलिए मुक्तिबोध और मैं बराबर! यह तर्क सड़ गया है। यह कहना कि अमुक के इतने सारे संकलन छप गये हैं, मुराद यह कि वह जुगाड़ू है, किसी काम का नहीं! लिखना है तो लिखो, न कुछ और करना है तो सो करो, सिर्फ पुरस्कार तुरस्कार की बात नहीं। मालूम है, पाठ तो होते हैं कविता के इस अकाल बेला में भी, बेचारी की कोई सुनता नहीं, अधिकतर बार उसका कवि भी नहीं!  कविता के मृत्यु प्रसंग की बात रहने दो भाई। अकाल बेला और मुक्ति प्रसंग के लिए मैं राजकमल चौधरी को याद कर लूंगा। मुद्दे की बात यह कि जो रोया नहीं अपनी कविताओं को पढ़कर, जी भर हँसा नहीं अपनी कविताओं पर, ये बातें उनके लिए  नहीं हैं। ये बातें बिल्कुल बकबास है, अब हैं बकबास तो हैं। मैं मगध  से बोल रहा हूँ, मगध विचार से नहीं प्रचार से परिभाषित होता रहा है, और कविता मगध से भिन्न नहीं, आगे खुद समझ लो भाई!
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इस पर गोविंद गुंजन की रायः (फेोसबुक पर) - 'बात तो सही है प्रफुल्ल जी, पर अंतिम पंक्ति में आप एक तरफ मगध को विचार की बजाय प्रचार से परिभाषित
बताते बताते कविता को भी मगध से अभिन्न कह गए, तो क्या कविता भी बस प्रचार प्रेरित लगती है आपको?'
मेरा निवेदन : सवाल छोटा है, जवाब लंबा हो सकता है।
अब आगे : -
निवेदन है कि मैं कुछ कहूँ उसके पहले श्रीकान्त वर्मा की दो कविताओं और आदि कवि बाल्मीकि के श्लोक का स्मरण कर लें।
कोसल में विचारों की कमी है / श्रीकान्त वर्मा (साभार, कविता कोश)
महाराज बधाई हो; महाराज की जय हो !
युद्ध नहीं हुआ –
लौट गये शत्रु ।
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएं
दस सहस्र अश्व
लगभग इतने ही हाथी ।
कोई कसर न थी ।
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता ।
न उनके पास अस्त्र थे
न अश्व
न हाथी
युद्ध हो भी कैसे सकता था !
निहत्थे थे वे ।
उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है !
जो भी हो
जय यह आपकी है ।
बधाई हो !
राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्ती हुए –
वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं
जैसे कि यह –
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है ।
मगध (कविता) / श्रीकांत वर्मा (साभार, कविता कोश)
सुनो भई घुड़सवार, मगध किधर है
मगध से
आया हूँ
मगध
मुझे जाना है
किधर मुड़ूँ
उत्तर के दक्षिण
या पूर्व के पश्चिम
में?
लो, वह दिखाई पड़ा मगध,
लो, वह अदृश्य -
कल ही तो मगध मैंने
छोड़ा था
कल ही तो कहा था
मगधवासियों ने
मगध मत छोड़ो
मैंने दिया था वचन -
सूर्योदय के पहले
लौट आऊँगा
न मगध है, न मगध
तुम भी तो मगध को ढूँढ़ रहे हो
बंधुओ,
यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गँवा
चुके हो।
(साभार, विचार संकलन)
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
(बाल्मीकि, रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक १५)
और अब साभार, भरतमुनिः-
‘न वेद व्यवहारोयं संश्राव्य: शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सावणार्णिकम।’            
              - भरतमुनि: नाट्यशास्त्र, 1.12
लौटते हैं, Govind Gunjan के सवाल पर --- तो क्या कविता भी बस प्रचार प्रेरित लगती है आपको?'
कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने को पराजित ने बताया था। पराजित की बात को कवि सुन सकता है। राजसूय यज्ञ के उपरांत बचे कोलाहल के बीच चक्रवर्त्ती सम्राट कहाँ सुन पाता है! कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने के मर्म को  समझ कर कवि मगध की तरफ मुड़ जाता है। मगध पहुँचकर निराशा तब और बढ़ जाती है जब पता चलता है, यह वह मगध था जो पूरी तरह गँवाया जा चुका था! कहना न होगा कि ‘कोसल’ और ‘मगध’ भारत की दो मूल सत्ता परंपरा रही है। आगे और इस दिशा में आज के सत्ता परिप्रेक्ष्य को विश्लेषित किया जा सकता है। मैं विश्लेषण करूँ यहाँ तो उस में उलझ-पुलझ कर रह जाने का डर है, और फिर प भी उतने नादान तो नहीं हो सकते हैं। एक बात का संकेत करूँ, भारत की दो मूल सत्ता परंपरा अर्थात, ‘कोसल’ और ‘मगध’ का संबंध हमारी संस्कृति के दो मेगा टेक्स्ट रामायण और महाभारत से बहुत ही घना है। इसे डिकोड किया जा सकता है।
पराजित की बात को सुन पाने में सक्षम काव्य परंपरा का स्मरण कर लेना जरूरी है। शस्त्रधारी सत्ता को बरजते हुए कवि की वाणी मुखरित हुई और इसी उद्यम में लगी रही, संदर्भ आदि कवि बाल्मीकि का लें। जिन “शूद्रजातिषु” को वेद सुनने तक का अधिकार न रह गया था, उनके लिए ही कवि ने पंचम वेद की संभावनाओं को तलाश लाया, संदर्भ भरतमुनि का लें। पराजित की बात को सुन पाने में सक्षम काव्य परंपरा में विचलन पैदा हुआ जब ‘कोसल’ हो या ‘मगध’ कवि सत्ता-शस्त्र की मनोनुकूलता में कवि अपने को ढालने लगा। जाहिर है अब पराजितों की बात उसे सुनाई देना बंद होता चला गया। विजेताओं की आकांक्षाएँ उसकी वाणी का वैबव बनने लगी। हाँ, आगे लोक और वेद के बहुस्तरीय और बहुक्रियात्मक अंतस्संघर्ष का मामला आया। संत कवियों की लंबी शृँखला का सूत्रपात हुआ। कबीर आये तो तुलसीदास भी आये। कबीर और तुलसीदास पराजित की बात को अपने-अपने संदर्भ से सुन पाने में सक्षम थे। अपने समय में मिले इनको जो सामाजिक व्यवहार या तिरस्कार मिला उसने इनके संदर्भों के व्यवधान और व्यवधान के अंतराल को बढ़ाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की। इनके संदर्भों के व्यवधान और व्यवधान के अंतराल के बीच से कविता की वह परंपरा आगे बढ़त पाने लगी जिसे हम कवि केशवदास की काव्यबोध-परंपरा में निहित तिरस्कार को पुरस्कार की संभावनाओं में बदलने की प्रक्रिया से जोड़कर कुछ हद तक ही सही, समझ तो सकते हैं।
आज कवि की हालत क्या है! तर्क वितर्क चाहे जितना कर लें। कवि अंततः नागरिक ही होता है। उसकी भी संसारी जरूरतें होती हैं। संत की आज की जमात में कबीर और तुलसीदास के लिए ही कोई जगह नहीं है। केशवदास की काव्यबोध-परंपरा में निहित पुरस्कार उसे अपनी चपेट में लेता है। कुछ ‘कवि’ केशवदास की काव्यबोध-परंपरा को खाला का घर समझकर नाचते-गाते खुशी के पारावार के साथ सिंहद्वार से प्रविष्ट कर जाते हैं, अधिकतर पिछले दरवाजे की सुराख में झाँकने के संघर्ष में शामिल रह जाते हैं। होंगे अपवाद भी जो कि अनिवार्यतः होते ही हैं। इस घर देखिये या उस घर, सफल प्रचार वस्तु की तरह स्वीकृत हो जाने में ही आज की बन रही कविता की सार्थकता बची हुई है। ऐसे में, कविता, जिसे कविता का ओहदा हासिल है, प्रचार प्रेरित न लगे तो क्या लगे?

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