बेखबर नदियाँ रहती हैं, शायद!
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समुद्र ठहरा दिखता है
मगर आंतरिक गतिमयताओं और हलचलों
को तो वही जानता है न!
किस नदी की किस धारा के इंतजार में
ज्वार भाटा के आलिंगन में
पछाड़ खाता है
समुद्र जानता है
और जानता है थोड़ा थोड़ा चाँद भी!
समुद्र में न निर्माल्य विसर्जित होता है
न अस्थिकलश न राग न द्वेष
समुद्र में सिर्फ़ नदियों को
विसर्जित होने की अनुमति होती है।
ताकि नदियाँ बादल बनें
चाँद से खेलें मुक्त मनोभाव
और टूटकर बरस जायें धरती पर
धरती के नवसृजन
नव शृंगार का संदेश बनकर
धरती की पर्वतमाला पर
मेखला का वैभव बनकर!
यह कैसे होता है!
समुद्र को पता है।
पता चाँद को भी है।
बेखबर नदियाँ रहती हैं, शायद!
गति और गीत के नाद में!
खोई और मचलती हुई!
सृष्टि ऐसे ही चलती है
मेरी जान, ऐसे ही।
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