ऊँचा कद, ऊँचा पद


ऊँचा कद, ऊँचा पद

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ऐसा अवसर देखने में कम ही आता है जब इतिहास में किसी व्यक्ति का कद भी ऊँचा हो और पद भी ऊँचा हो। आज भौतिक विकास का जो ढाँचा हमारे समय प्रचलन में है, उसमें क्षैतिजीय विकास पर नहीं बल्कि लंबवत विकास पर ही जोर है। ऐसे में ऊँचाई का अपना महत्व है। इस ऊँचाई के हासिल में होने में कद और पद दोनों की बड़ी भूमिका होती है। अधिकतर मामलों में व्यक्ति अपने पद के आधार पर ऊँचाई को हासिल करते हैं। पद की ऊँचाई कद की ऊँचाई के अभाव में व्यक्ति को गरूर के ऐसे भँवर में डाल देती है कि उससे उसका व्यक्तित्व का वास्तविक सम्मान भयानक छीजन का शिकार हो कर इतिहास के कचरा घर में खो जाता है। इतिहास बहुत क्रूर होता है, निर्मम भी। संवेदनशील लोग, उनकी विचारधारा कुछ भी हो, अपने एकांत में इस बात को बहुत गहराई से समझते हैं। चलिए, आप को अटल बिहारी वाजपेयी की कविताई के एक अंश की याद दिलाता हूँ।

धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कलि न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़
हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।

हे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले लगा न सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
(अटल बिहारी वाजपेयी की कविता का एक अंश, साभार)

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