बुद्धि भ्रंश
Intellect Deficit
यह
मान लेने में गुरेज करने की कोई वजह नहीं है कि हम बुद्धि
भ्रंश के भयानक दौर से गुजर रहे हैं। नहीं क्या? इस बुद्धि भ्रंश या इंटिलेक्ट डेफिसीट को
गंभीरता से समझने की कोशिश करनी चाहिए। बुद्धि या इंटलेक्ट क्या होती है, पहले तो
यही समझना होगा। intellect
deficit और intellect disability के अंतर को भी ध्यान में रखना होगा। डिसएबिलीटी या विकलांगता सामान्यतः, व्यक्तिगत और स्थाई किस्म की होती है जब कि प्रभावी डेफिसीट सामूहिक और अस्थाई किस्म की होती है। मोटे तौर पर
डिसएबिलीटी व्यक्ति के अपने आंतरिक असामंजस्य या संकट से
उत्पन्न होती है तथा उससे अधिकतर मामलों में प्राथमिक स्तर पर केवल व्यक्ति ही दुष्प्रभावित होता है जब कि डेफिसीट
समाज के अपने आंतरिक असामंजस्य या संकट से उत्पन्न होती है और प्राथमिक स्तर पर व्यापक समााज दुष्पप्रभावित होता है। समाज के इस संकट में
फँस जाने के कारण समाज सर्वनाश के मुहाने पर पहुँच जाता है। इतना इशारा काफी है।
इंटिलेक्ट
वह क्षमता है जिससे विचारों और तरकीबों को विश्लेषित किया जाता है, निष्कर्ष
निकाले जाते हैं और उसे माना जाता है, निष्कर्ष की स्वीकृति का मानसिक माहौल बना
रहता है। इसे कैसे समझा जाये!
हिंदी साहित्य से कुछ
उदाहरण ले सकते हैं। हिंदी के कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता हमें बताती है, जब
नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। इस विवेक पर ध्यान देना जरूरी है। एक
इशारा और करना जरूरी लग रहा है। यूरोपीय नवजागरण जिसे ज्ञानोदय का युग या the
age of enlightenment कहा जाता है। इस इनलाइटमेंट के पीछे विवेक
सक्रिय था बुद्धिवाद के तर्क की जगह इसे विवेकवाद के संदर्भ से समझा जा सकता है और
इसमें दार्शनिक कांट (Immanuel
Kant 1724–1804)
आदि हमारी मदद कर
सकते हैं। लेकिन हमें रामचरितमानस लिखनेवाले तुलसीदास की याद आ रही है, उनकी कविता
में उल्लेख है कि बिन सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिन सुलभ न सोई । यानी विवेक
गहरा संबंध सत्संग से होता है। राम कृपा को हम पक्षपात रहित या पक्ष निरपेक्ष
बुद्धिवाद के समाज-मानसिक उत्पाद के तौर पर देख सकते हैं। बहरहाल, सवाल यह है कि क्या हम बुद्धि भ्रंश या intellect
deficit के
भयानक दौर से गुजर रहे हैं। हम यह समझने मानने को तैयार ही नहीं हैं कि लंबे समय
में हमारे हित में क्या है, अहित में क्या है। बुद्धि भ्रंश या intellect deficit के चलते हमारा विवेक मर नहीं भी गया
हो तो निकृष्टतम सामाजिक निष्क्रियता का शिकार हो गया है। इस पर सोचने की जरूरत है कि लंबे समय में बनी इस इस फाँस से कैसे बाहर निकला जा सकता है।
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