लोकतांत्रिक सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल

लोकतांत्रिक सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल

प्रफुल्ल कोलख्यान

पिछले बीस-तीस साल में समय बहुत बदल गया है। न तो ऐसा अंधेरा सभ्यता ने पहले कभी देखा था और न ऐसा उजाला ही पहले कभी देखा था; न कभी देखी थी अंधेरा और उजाला की ऐसी जिगरी दोस्ती। जी, समय बदल गया है!

समय का मौलिक स्वभाव बहाव है। बहाव का मतलब गति है। गति के लिए दिशा अनिवार्य है। दिशाएं कई हैं और हो सकती हैं। जीवन व्यवहार में समय की गति की दिशा रैखिक होती है। भले ही समय सीमा मुक्त हो और धरती भी बहुत बड़ी हो; मनुष्य के पास समय सीमित ही होता है और धरती भी बहुत थोड़ी ही होती है। इसलिए जीवन व्यवहार में नाप-तौल का बड़ा महत्व होता है। आदमी ने समय के नाप-तौल को धरती की गति से और समय के महत्व को अपनी क्रियाशीलता से जोड़ दिया। क्रिया कोई भी हो समय में संपन्न होती है और समय में ही रहती है। समय की गति ही परिवर्तन का कारण होती है।

यथास्थिति परिवर्तन रोधी होती है और समय को बांधने का प्रयास करती है। समय के साथ-साथ सभ्यता में सत्ता के विभिन्न स्वरूप बनते-बदलते रहते हैं। सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी, भागीदारी के सवाल उठते रहते हैं। इन सवालों को सामाजिक समझदारी से हल न किये जाने से सामाजिक टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। चाहे जितनी भी सामाजिक समझदारी से सामाजिक सवालों को हल किया जाये सभी लोगों को संतुष्ट करना असंभव होता है। इसलिए छोटे-छोटे टकराव चलते रहते हैं, इसी तरह से सभ्यता आगे बढ़ती आई है। मुश्किल तब होती है जब ये छोटे-छोटे टकराव बड़े-बड़े सामाजिक हितों के टकराव में बदलकर सभ्यता के आगे बढ़ने का रास्ता अवरुद्ध कर देते हैं। इस समय हितों में टकराव की जो मति-गति है वह सभ्यता विकास के रास्ता को अवरुद्ध करने की तरफ तेजी से बढ़ रही है, यह चिंता की बात है। विषमता की खाई में सभ्यता किस असमंजस में है, कुछ भी कहना मुश्किल है, लेकिन कहना तो होगा ही।

सभ्यता के विकास में उत्पादन, मूल्य-वर्द्धन और सम्यक वितरण का महत्व है। मोटे  तौर पर सामाजिक हितों में टकराव से बचने के लिए सम्यक वितरण के तीन सूत्र हैं। योग्यता के अनुसार सभ्यता और समाज के हासिल में योग करना और व्यक्ति की जरूरत के अनुसार समाज के हासिल से व्यक्ति का प्राप्त करना सभ्यता विकास में सामाजिकता और सामूहिकता का पहला और मौलिक सूत्र है। दूसरा सूत्र है, योग्यता के अनुसार व्यक्ति का योग करना और किये गये योग के अनुसार समाज के हासिल से व्यक्ति का अपना-अपना हिस्सा प्राप्त कर लेना। तीसरा सूत्र है, व्यक्ति का योग्यता के अनुसार हासिल करना और अधिक-से-अधिक का व्यक्ति के अपने पास रखना बाकी बचे को समाज के हासिल में योग करना और फिर समाज के हासिल से शक्ति के अनुसार खींच लेना। इन सूत्रों पर आज फिर गहराई में जाकर कई तरह से गौर किया जाना चाहिए।    

पहले सूत्र के आधार पर घर परिवार चलता है। परिवार के सदस्य अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार करते हैं और परिवार के मुखिया जरूरत के अनुसार परिवार के अन्य सदस्यों में परिवार की आमदनी का सम्यक वितरण करते हैं। कमाकर लेनेवाला बेटा, पिता, पति, भाई यह नहीं कहता कि चूंकि मैं ने कमाकर लाया है, इसलिए ‘च्यवनप्राश मेरा, बाकी लोगों का घास!’ ‘च्यवनप्राश और घास’ के वितरण में जब तक व्यक्ति की ‘जरूरत के अनुसार’ का सूत्र जीवंत रहता है, तब तक परिवार में संबंध के सारे सूत्र जीवंत रहते हैं। सच पूछा जाये तो घर परिवार संयुक्त हो, एकल हो, बिना इस सूत्र के चल ही नहीं सकता है। सामाजिक समरसता और संसाधनिक वितरण में संतुलन की दृष्टि से यह सूत्र बहुत उपयोगी है। विकास के आरंभिक दौर में यही वह जीवंत सूत्र था जिस के अनुपालन से मनुष्य ‘सभ्य’ बनता गया। सभ्यता के विकास के साथ-साथ अर्जन, योग और वितरण का यह सूत्र उदास होता चला गया। धीरे-धीरे यह सूत्र क्यों उदास होता चला गया? कैसी भी व्यवस्था हो ‘व्यक्ति की योग्यता’ का संदर्भ हर जगह लागू होता है। समाज और व्यक्ति की योग्यता पर हर-बार गौर करना जरूरी है। योग्यता का मामला व्यक्ति, समाज और सभ्यता में तनाव का नाभिकीय बिंदु है।   

विवाद ‘योग्यता’ को ले कर शुरू हो गया। विवाद क्या है! विवाद का पहला द्वंद्व यह है कि योग्यता व्यक्तिगत होती है या सामाजिक होती है! योग्यता के बीज व्यक्ति में होता है। बीज के विकास का वातावरण सामाजिक होता है। इस निष्कर्ष तक पहुंचना और इसे मान लेना बहुत आसान नहीं साबित हुआ। इस निष्कर्ष को मानने में व्यक्ति स्वार्थ सब से बड़ी बाधा बना। धीरे-धीरे आबादी आंकड़े में बदलने लगी। गणित और गणना के बड़े-बड़े सूत्र काम में लगाये जाने लगे। हिसाब लगाकर बताया जाने लगा कि सब ‘हिसाब’ ठीक है। भीतर के लोगों को भीतर-भीतर से पता चल गया ‘हिसाब’ तो ठीक नहीं है! फिर क्या था!

‘हिसाब’ ठीक करने या अपने-अपनों के पक्ष में करने के लिए राजनीति सामने आई। वृहत्तर परिवार में टूट होने लगी। किसी तरह से बात संयुक्त परिवार पर आ कर टिकी।  फिर संयुक्त परिवार संकुचित परिवार में बदल गया। संयुक्त परिवार में दादा-दादी और उनके सभी बच्चे और बच्चों की पत्नी और बच्चे साथ-साथ रहते अपने-अपने हित साधते रहे, सुख-दुख में साथ निभाते रहे। कुछ दिनों तक संयुक्त परिवार चला और फिर संयुक्त परिवार संकुचित परिवार में बदलने लगा। संकुचित परिवार में पति-पत्नी और बच्चे साथ-साथ रहने लगे। बच्चे मां-बाप के प्यार के छांव में पलने लगे। फिर वह दिन भी आ गया जब संकुचित परिवार सूक्ष्म परिवार में बदल गया। अब, बच्चों के लिए मां और बाप का नहीं मां या बाप का ही प्यार उपलब्ध रह गया। अंततः बच्चों के लिए बोर्डिंग-स्कूल  और बूढ़ों के लिए वृद्धाश्रम ही उपयुक्त स्थल बचा।

जरा गौर से देखने से मोटे  तौर पर ही सही, कम-से-कम एक बात तुरत समझ में आ सकती है। विकास के सब से निचले पायदान पर टिकी आबादी के लिए वृहत्तर परिवार के रूप में जाति-समाज और संयुक्त परिवार जैसे-तैसे चरमराते हुए चल रहा है। उस से ऊपर के पायदान पर पहुंच गई आबादी जाति-समाज के साथ संकुचित परिवार रोते-बिसूरते चल रहा है। उस से भी ऊपर के पायदान पर पहुंच गई आबादी के लिए जाति-समाज सिर्फ स्मृति में बचा है और सूक्ष्म परिवार चल रहा है। ‘समाज शास्त्रियों’ की रुचि हो तो वे सभ्यता विकास में वर्ग-वर्ण-व्यवस्था के जीवन-स्तर के संदर्भ से जोड़कर देख सकते हैं। इस समय तो मेरी रुचि यहां सिर्फ यह संकेतित करने की है कि सभ्यता विकास के साथ-साथ व्यक्ति अकेला होता चला गया।

सामाजिक समझदारी और एकता में सब से बड़ा बाधक समाज-व्यवस्था के अनुसार शक्ति-प्राप्त व्यक्ति में ‘एक अकेले के भारी पड़ने’ की भ्रामक समझ। मोटी बात यह है कि समाज की योग्यता व्यक्ति की योग्यता के रूप में परिलक्षित होती है। यह मशीन-युग है। मशीन के उदाहरण से बात अधिक स्पष्ट हो सकती है। जो छोटे-छोटे पुर्जे बड़ी-बड़ी मशीनों में लग जाते हैं, उन्हीं पुर्जों से मशीन की ताकत बनती है। मशीन में लगे पुर्जे को ही अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलता है। मशीन में लगने का मौका ही पुर्जे को महत्वपूर्ण और ‘योग्य’ बनाता है। यहां समझा जा सकता है कि ‘योग्यता’ का वास्तविक संदर्भ ‘मौका’ मिलने से बनता है। योग्य बनने का ‘मौका’ समाज देता है, सरकार देती है।  जिन तत्वों से पुर्जा बनता है, उन तत्वों के बड़े अंश को पुर्जा बनने का ही मौका नहीं मिलता है, पुर्जा बन गये तो मशीन में लगने का मौका नहीं मिलता है। मशीन में पुर्जा के लगने का संदर्भ व्यक्ति के रोजगार में लगने की प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से यहां महत्वपूर्ण हो सकता है।

भारत में रोजगार का सामान्य परिदृश्य क्या है! यहां ऐसी प्रक्रिया बनाने में सरकार लग गई है कि पुर्जा बनने का मौका पुर्जी से मिलने लगा है। पुर्जी-नियुक्तियों को ‘लेटरल एंट्री’ के नाम से लागू किया गया है, किया जा रहा है। एक तरफ पेपरलीक को देखा जाये और दूसरी तरफ पुर्जी-नियुक्तियों, ‘लेटरल एंट्री’ को तो आंख फटी-की-फटी रह जायेगी! यह तो साफ-साफ दिखेगा कि पुर्जी-नियुक्तियां रोजगार में आरक्षण की स्पष्ट संवैधानिक व्यवस्था को तो ठग ही रही हैं, सामान्य संवर्ग के साधारण युवाओं को भी ठग रही है, सभी सामाजिक संवर्ग के आगे बढ़ने का रास्ता बाधित कर रही है। पुर्जी-नियुक्तियां सभी सामाजिक संवर्ग  की योग्यता को निर्योग्य बना देती है।

इतना ही नहीं, ध्यान देने की बात यह भी है कि पुर्जी-नियुक्तियों की जड़ में पक्षपात तो होता ही है, कहना जरूरी है कि यह पक्षपात विचारधारा के आधार पर होता है। पिछले दिनों सरकार की आधिकारिक घोषणा हुई जिस के अनुसार सरकार के कर्मचारी राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ में जा सकते हैं। जा सकते हैं तो आ भी सकते हैं। यह बहुत गड़बड़ मामला है। इंडिया अलायंस के ही नहीं बल्कि सरकार के सहयोगी घटक दल के नेताओं ने पुर्जी-नियुक्तियों की सरकारी नीति से असहमति जाहिर की है। विरोध! असहमत होना भिन्न बात है और विरोध या विद्रोह करना भिन्न बात है। बात किसी एक नीति की ही नहीं बल्कि समग्र राजनीतिक दृष्टि की है। राजनीतिक दृष्टि ही दुष्ट हो, तो सरकार की नीति में न्याय की गुंजाइश खोजने या उस पर बात करने का कोई मतलब ही नहीं बनता है। क्रीमी-लेयर और ‘उपयुक्त नहीं पाया गया – NFS’  के साथ-साथ ‘लेटरल एंट्री’ और ‘अग्निवीर’ को तुलनात्मक नजर से देखने पर कुछ ही नहीं ‘बहुत कुछ’ दिख सकता है। दिख सकता है कि किस तरह पुर्जा में ऊर्जा न आने देने के लिए पुर्जी का कैसा इस्तेमाल ‘लोकतांत्रिक सत्ता’ कर रही है!      

राजनीतिक दुष्टताओं को रोकने के पर्याप्त प्रावधान भारत के संविधान में है। मुश्किल तो यह है कि जिन के हाथ में संविधान और प्रावधान को लागू करने की शक्ति और जिन के माथे पर लागू करने की जवाबदेही है उन के दिमाग में न तो संविधान के प्रति सम्मान है, न प्रावधान की कोई परवाह है! उदाहरण के लिए अभी कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में 9 अगस्त 2024 को लेडी डॉक्टर के रेप और खून की भयावह घटना और घटना पर सामने आ रही राजनीतिक नेताओं की प्रतिक्रियाओं को देखा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सत्ता में है। अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस की ‘सुप्रीमो’ ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं। मानकर चला जा सकता है कि अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस इंडिया अलायंस में ही है। ममता बनर्जी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के मुख्य घटक दल भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ हैं। ममता बनर्जी मुख्यमंत्री तो हैं ही, वे राज्य के स्वास्थ्य और गृह मंत्रालयों काम भी खुद ही देखती हैं। आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना की जांच-पड़ताल को लेकर बने संदेह के घेरे में राज्य के दोनों मंत्रालय हैं। झूठ-सच का पता तो बाद में चलेगा या नहीं चलेगा यह तो बाद की बात है, फिलहाल ऐसी धारणा बन गई है कि सरकार ‘किसी को’ बचाने में लगी है।

नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का इस मामला में खामोशी ओढ़ना निहायत ही अ-नैतिक होता। स्वभावतः इंडिया अलायंस और प्रतिपक्ष की राजनीतिक विश्वसनीयता पर तरह-तरह के सवाल खड़े हो जाते। राहुल गांधी के ट्वीट (X) पर जिस प्रकार की प्रतिक्रियाएं तृणमूल कांग्रेस की तरफ से आई वह अ-प्रत्याशित तो नहीं कही जा सकती है। अभी जो राजनीतिक परिस्थिति है, उस में पारंपरिक राजनीतिक दृष्टि से भले ही तृणमूल कांग्रेस की प्रतिक्रियाएं अ-प्रत्याशित न हों, लेकिन नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी इंडिया अलायंस और कांग्रेस के माध्यम से जिस नई राजनीतिक शैली की शुरुआत के लिए सक्रिय हैं, उस दृष्टि से ये प्रतिक्रियाएं अ-प्रत्याशित और अशुभ जरूर हैं।

उधर, अमेरिका की शॉर्ट सेलिंग कंपनी हिंडनबर्ग की रपट में प्रमुख नियामक संस्थान भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) सेबी की अध्यक्ष माधवी पुरी बुच और उनके पति धवल बुच की  अदानी समूह से जुड़ी ऑफशोर कंपनियों में ‘हिस्सेदारी’ को लेकर कॉरपोरेट के इतिहास में इतने बड़े घोटाले बात कही गई है। सरकार पर अदानी के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया गया है। इस मुद्दे को मजबूती से उठाकर सरकार को सड़क से संसद तक घेरने की तैयारी में इंडिया अलायंस और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लगे हुए हैं। जांच-पड़ताल से जो भी बात निकले लेकिन धारणा तो यही है कि सरकार की मिलीभगत से ही लाखों-करोड़ों की बड़ी-बड़ी आर्थिक अनियमितताएं हो रही हैं। आर्थिक अनियमितताओं और राजनीतिक दुष्टताओं के कारण  देश में लोकतंत्र के रहते लोकतांत्रिक सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल सुरसा का मुंह बन गया है।

आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना राजनीतिक रूप से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अधिक इंडिया अलायंस को प्रभावित करनेवाली लग रही है। इंडिया अलायंस का क्या होगा? यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इंडिया अलायंस बना तो जनता के दबाव में, टिकेगा और सफल भी होगा तो जनता के दबाव से ही। ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी को लेकर सत्ता-पक्ष के ही नहीं प्रतिपक्ष के भी कई नेता राजनीतिक असहजता की गिरफ्त में दिखते रहे हैं।

राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक राहुल गांधी के बहुत नजदीक एक राजनीतिक चक्रव्यूह देख रहे हैं। राहुल गांधी, ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी क्या देख रहे हैं? राहुल गांधी देश के आम लोगों के कई-कई चक्रव्यूहों में फंसे होने और उन चक्रव्यूहों को भेदने का रास्ता देख रहे हैं। देख रहे हैं कि लोकतंत्र है! लोकतांत्रिक सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल का क्या जवाब है? जवाब कहां है! नेता प्रतिपक्ष इन सवालों को देख रहे हैं कि जवाब कैसे हासिल किये जा सकें।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं) 

           

 

उक्ति-संग्राम और मुक्ति-संग्राम के बीच प्रतिबद्धता और क्षमता का सवाल

उक्ति-संग्राम और मुक्ति-संग्राम के बीच प्रतिबद्धता और क्षमता का सवाल

प्रफुल्ल कोलख्यान

भारत में लोकतंत्र के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखनेवाले राजनीतिक नेताओं की जरूरत है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था कि इस समय ‘पहले भारतीय और बाद में कुछ’ की नहीं बल्कि ‘पहले भी भारतीय और बाद में भी भारतीय, सिर्फ भारतीय’ नागरिकों और नेताओं की जरूरत है। ‘पहले भारतीय और बाद में कुछ और’ में छिपी पवित्र भावना की खंडित निष्ठा हमें गहरी चुभन दे सकती है। क्या, चुभन महसूस हो रही है! तो फिर क्या किया सकता है!

भारत की प्रकृति की सुषमा की स्मृति को याद करना और शोषण के चिह्न को पहचानना बड़े भारत-बोध का हिस्सा है। सुषमा ऐसी कि विद्यापति के शब्दों में जनम-अवधि हम रूप निहारल, नयन न तिरपित भेल! शोषण ऐसा कि जन्म-जन्मांतर खट मरे ‘ऋण’ कबहुं न चुकता होए! सुषमा और शोषण साथ-साथ! इतना बड़ा देश, इतनी विविधता, इतनी दरिद्रता, बड़े लोगों के इतने संकुचित मन, इतनी आस्था, इतना विश्वास! आस्था-दर-आस्था, विश्वास-दर-विश्वास विखंडित लोकमन! शोषित जीवन! टूटे और उलझाव सूत्रों के बीच एकता के इतने मजबूत और अटूट प्राण-प्रवाही आंतरिक शिराएं! आजादी के आंदोलन से ताप में तप कर निकले नेताओं के सामने राष्ट्र निर्माण की बहुत बड़ी चुनौती थी।

उलझाव सूत्रों और प्राण-शिराओं के बीच उन्हें और उन के बीच फर्क को पहचानने और बचाने की चुनौती! तरीका एक ही था, उन सूत्रों और शिराओं पर अंगुली रखकर उनके स्पंदन के संवाद को संविधान और कानून की भाषा में संरक्षित करने की चुनौती! उलझाव सूत्रों और प्राण-शिराओं का एक ही उपकरण था स्पंदन! उलझाव सूत्रों पर अंगुली रखने से स्थानीय हल-चल होती थी और प्राण-शिराओं को छूते ही पूरा राष्ट्र कसमसा जाता है। उलझाव सूत्रों के सुलझने का इंतजार और प्राण-शिराओं को बचाने की चुनौती! भारत संघ की परिकल्पनाओं की राज्यवार व्यवस्था में उलझाव सूत्रों के सुलझने के इंतजार और केंद्रीय व्यवस्था में प्राण-शिराओं को बचाने के प्रयास की संवैधानिक व्यवस्था की चुनौती थी। कहना न होगा कि हमारे पुरखों ने इस चुनौती का मुकाबला किया। कहना चाहिए, ‘हिंदुस्तान-पाकिस्तान’ हो जाने के बाद भी सफलतापूर्वक मुकाबला के लिए कारगर संविधान का निर्माण किया, राष्ट्र-जीवन का आधार तैयार किया। हालांकि आजादी के आंदोलन के ताप से निकले कई नेताओं ने भारत को भर आंख देखा भी नहीं था, आज के अधिकतर नेताओं की तो बात ही क्या की जाये!

सच पूछा जाये तो आज यह किसी बड़े चमत्कार से कम नहीं लगता है। बहुत बड़े चमत्कार की तरह इसलिए लगता है कि आज हमारी व्यवस्थाएं न तो उलझाव सूत्रों के सुलझाव का इंतजार करने का धैर्य रख पा रही हैं और न प्राण-शिराओं को बचाने के दायित्व के महत्व को समझ पा रही हैं। समझ ही नहीं पा रही है कि उलझाव सूत्रों के सुलझाव के इंतजार का धैर्य खो देने से एकता की प्राण-शिराओं की रक्षा करना मुश्किल हो जायेगा!

पलटकर देखा जाये तो सांगठनिक रूप से भारतीय जनता पार्टी जिस वैचारिक संगठन की उत्तरजीवी है, उस वैचारिक संगठन का भारत की आजादी के आंदोलन से दूर-दूर तक कोई लगाव नहीं था। कई मामलों में वह ब्रिटिश हुकूमत के जारी रहने के प्रति न सिर्फ सहानुभूतिशील था बल्कि सक्रिय भी था। यह इतिहास की विडंबना ही है कि ‘भारत देश’ के ‘भारत राष्ट्र’ बनने की प्रक्रिया के जो न भागीदार थे, न जानकार वे आज बढ़-चढ़कर ‘राष्ट्र-भक्ति’ का ‘पाउच, प्रमाण और ताबीज’ भारत के लोगों को बेचने-बांटने-देने के सब से बड़े ‘व्यवसायी’ हैं! जिन्होंने भारत को अचरज उल्लास और हर्ष से भर आंख देखा भी नहीं कोई उन से लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता और प्रतिस्पर्धा की उम्मीद में बिछी हुई देश की आंख पथरा चुकी है।

हमारे पुरखों ने राष्ट्रीय समृद्धि से अधिक राष्ट्र-वासियों ने समृद्धि से अधिक सुमति, सहमेल और एकता की कमाना की थी। हमारे कर्मठ पुरखों ने अपने सांस्कृतिक बोध से समझ लिया था कि ‘स्वर्ण-हिरण’ के पीछे भागने का अंजाम आखिर क्या होता है। लेकिन यहां तक आते-आते हमारी व्यवस्था के संचालक ‘राष्ट्रीय समृद्धि’ के नाम पर नितांत अपने वास्ते ‘स्वर्ण-हिरण’ हासिल करने के लिए ‘मित्र-निभाव’ में लिप्त होते चले गये और समता का अपहरण हो गया। समता के बिना न राम, न आराम! मनुष्य की सभ्यता का समृद्धि से कोई विरोध नहीं है, बल्कि सचाई यह है कि मनुष्य की सभ्यता के सारे संघर्ष समृद्धि के लिए होता है। यहां एक पेच है कि मनुष्य का संघर्ष समृद्धि के लिए तो होता ही है लेकिन सिर्फ समृद्धि के लिए नहीं होता है। बल्कि समृद्धि के साथ-साथ और समानांतर संघर्ष स्वाधीनता और शांति के लिए भी होता है।

1990 के बाद ‘समृद्धि’ का जो नागरिक सपना और राजनीतिक माया-जाल फैलाया गया उस की शर्त है, समृद्धि और स्वाधीनता में से किसी एक ही का चुनाव करना होगा। व्यवस्था आम लोगों के लिए ‘स्वाधीनता-हीन समृद्धि’ विशिष्ट लोगों के लिए ‘समृद्धि की स्वाधीनता’ को व्यवस्था का अंतर्निहित अनिवार्य मूल्य बना दिया गया। जाहिर है कि समृद्ध लोगों की स्वाधीनता और वंचित लोगों की स्वाधीनता के चरित्र की गुणवत्ता में व्यावहारिक फर्क पैदा हो गया। ऐसी अर्थ-नीति जो अ-नियंत्रित विषमताओं को बढ़ावा देती है, रोक नहीं पाती है वह स्वाधीनता की अखंडता के खंडित होने देने की भी जवाबदेह होती है। खंडित स्वाधीनता विषमताओं को स्थाई बना देती है। आरक्षण विरोध, निर्धन विरोध का नीति-निर्धारण नई अर्थ-नीति से निकली है, रह-रहकर निकलती रहती है। भारत के संविधान में आरक्षण के बिल्कुल सुस्पष्ट और सुपरिभाषित प्रावधान हैं। अब इन प्रावधानों के प्रति भरपूर ‘मतदाता-जागरूकता’ भी हो गई है।  वोट की राजनीति से चलनेवाली लोकतांत्रिक व्यवस्था इस मतदाता-जागरूकता की अवहेलना का जोखिम किसी हाल में नहीं उठा सकती है।  

पिछले दिनों एक गलत धारणा फैल गई है कि बहुमत हो तो पार्टी अपने ‘हिसाब’ से सरकार चलाने के लिए ‘स्वतंत्र’ है। गलत इसलिए कि बहुमत चाहे जितना बड़ा हो, सरकार मनमानेपन से नहीं चल सकती है। सरकार के गठन के पहले संविधान की शपथ ली जाती है। सीधे बहुमत की शपथ लेने का प्रावधान नहीं है, तो इसका कुछ-न-कुछ मतलब भी जरूर है। हां, लोकतंत्र में बहुमत का महत्व होता है और वह महत्व संविधान के अंतर्गत ही होता है। लेकिन हासिल बहुमत को ‘स्थाई बहुमत’ मानकर मनमानेपन ढंग से सरकार चलाने की कोशिश ही नहीं की बल्कि विपक्ष-मुक्त करने के इरादा से चलाने की कोशिश की गई।

इस दृष्टि से देखा जाये तो घरेलू मामलों में देश के लोगों का शोषण करने, क्रोनी कैपिटलिज्म लागू करनेवाली, खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार करनेवाली, इलेक्ट्रॉल बांड बटोरनेवाली और मनमर्जी से चलनेवाली मजबूत सरकार से अच्छी, मजबूर सरकार होती है। जहां तक विदेशी शक्तियों से व्यवहार की बात है तो उन मामलों में पूरा देश एक साथ, एकजुट रहता है। माननीय कांशीराम ने इसी नजरिये से मजबूर सरकार को बेहतर बताया था। सरकार की संकल्पना में यदि सेवा-प्रधानता है तो सरकार की मजबूती की नहीं, नागरिकों की मजबूती की ही कामना की जा सकती है, की जानी चाहिए। ध्यान देने की बात है कि माननीय कांशीराम जिस सामाजिक संवर्ग  के हित में राजनीति से जुड़े थे, उन्होंने वर्चस्वशाली सामाजिक समूह की ‘मजबूती’ का बहुत खामियाजा भोगा है, आज भी भोग रहा है। साफ-साफ और बिना हकलाये कहा जा सकता है कि सिद्धांततः ‘लोकतंत्र’ अपनी जगह साबूत, लेकिन वास्तव में ग्रामीण इलाकों में वर्चस्वशालियों की ‘सामाजिक सरकार’ वैसे ही चलती है, जैसे कमोबेश शहरी इलाकों में ‘न्याय-पुरुषों’ की ‘सरकारें’ चलती हैं।

समझना जरूरी है कि बुलडोजर-न्याय की जय-जय करनेवाली राजनीति के समर्थक ‘मजबूत’ सरकार के लिए क्यों परेशान रहते हैं। व्याख्या और विश्लेषण के कई प्रस्थान-बिंदु हो सकते हैं, अर्थात व्याख्या और विश्लेषण कई तरह से संभव है। एक प्रस्थान-बिंदु यह है कि लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई ‘मजबूत’ सरकार और सामाजिक परंपराओं से प्राप्त वर्चस्वशाली ‘सामाजिक सरकार’ में जन-शोषण करने के लिए आसान सांठ-गांठ और दुष्ट मिलीभगत की संभावना बन जाती है। समझ में आने लायक बात है कि क्यों वर्चस्व पीड़ितों के सामाजिक-समूह के हित-पोषक देश के आंतरिक मामलों में राजनीतिक व्यावहारिकता की दृष्टि से ‘मजबूर सरकार’ को बेहतर मानते हैं। यहां यह भी साफ-साफ दिख जायेगा कि क्यों वर्चस्व पीड़कों के पोषक राजनीतिक और सामाजिक-खित्ता ‘मजबूत सरकार’ की पैरवी करते हैं। मजबूत निर्वाचित सरकार को अ-निर्वाचित शक्तियों के प्रभाव और कब्जा की राज-दशा (Deep State) बनाने में अधिक सहूलियत होती है। ‘अ-निर्वाचित शक्ति’ कमजोर सरकार में शक्ति की बहु-केंद्रीयता के चलते अपना गोड़ ठीक से जमा नहीं पाती है। ‘अ-निर्वाचित शक्ति’ सत्ता प्रमुख के अलावा किसी के प्रति सम्मानजनक रुख नहीं रखती है। जवाबदेह तो खैर वह किसी के प्रति होती ही नहीं है, सत्ता प्रमुख के प्रति भी नहीं। जब तक स्वार्थ सधता रहा, तब तक ठीक नहीं तो मजमा समेटे चल दिये किसी अन्य ठौर!

सांध्य-कालीन टीवी परिचर्चा में उपस्थित और सक्रिय राजनीतिक प्रवक्ताओं और विश्लेषकों की बात अपनी जगह। असल में अधिकतर प्रवक्ताओं का राजनीतिक दलों के साथ न तो कोई विचारधात्मक लगाव होता है न उन दलों के प्रति कोई राजनीतिक निष्ठा होती है। ये प्रवक्ता लोग तो अदालतों में वकीलों की तरह चैनलों पर वचन प्रवीण पेशेवर होते हैं। जैसे कोई वकील अपने मुवक्किल की हकीकत को जानते हुए भी अदालत में मुवक्किलों के हित के खिलाफ नहीं बोल सकता है, वैसे ही वचन प्रवीण प्रवक्ता अपने राजनीतिक दल के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकता है। अन्य पेशों की तरह प्रवक्तागिरी भी एक पेशा है। प्रवक्ताओं का काम ‘उन के अनुकूल’ माहौल बनाना है, उचित-अनुचित पर विचार करना नहीं।

प्रवक्ताओं को राजनीतिक विचारक मानना भूल है। प्रवक्ता विचारक नहीं, ‘उक्ति-संग्राम’ के सिपाही होते हैं। कहना न होगा कि सिपाही और बलिदानी में फर्क होता है। ‘मुक्ति-संग्राम के बलिदानी’ और ‘उक्ति-संग्राम के सिपाही’ में फर्क को कभी नहीं भुलाया जाना चाहिए। ‘उक्ति-संग्राम’ प्रतिदान मिलने की संभावनाओं से चलता है जबकि ‘मुक्ति-संग्राम’ बलिदान करने की उत्कंठा और क्षमता से चलता है। लोकतंत्र की राजनीतिक प्रक्रिया जनता के ‘मुक्ति-संग्राम’ की प्रक्रिया होती है। भारत के लोकतंत्र के संकट का एक पहलू राजनीति की मुख्य धारा के ‘उक्ति-संग्राम’ में बनते-बदलते जाने से भी जुड़ा है।   

लोकतंत्र हित-निरपेक्ष तटस्थों का कारोबार नहीं होता है। लोकतंत्र हित-सापेक्ष पक्षकारों का कर्मठ पर्व होता है। लोकतंत्र हित-सापेक्ष पक्षकारों और व्यापक जनता के हित-साधन का आधार होता है। जन-हित की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध मुक्ति-संग्रामी ही लोकतांत्रिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य को सही कर सकते हैं। भारत के लोकतंत्र की विडंबना है कि इस की राजनीतिक प्रक्रियाएं दुश्चक्र के भंवर में पड़ती चली गई है। नतीजा यह है कि जहां प्रतिबद्धता है, वहां क्षमता नहीं है; जहां क्षमता है, वहां प्रतिबद्धता नहीं है। लोकतंत्र में सभी शक्तियों का एक मात्र स्रोत जागरूक जन-शक्ति होती है। लोकतांत्रिक राजनीति में जनता की जागरूक भागीदारी से प्रतिबद्धता और क्षमता में संतुलन आने की उम्मीद की जानी चाहिए। भरोसा कुछ किया जा सकता है तो ‘मुक्ति-संग्रामी’ पर, ‘उक्ति-संग्रामी’ से लोकतंत्र की रक्षा के उपायों पर नागरिक समाज को सोचना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति सम्मान रखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सार्थक इस्तेमाल के प्रति भी सावधान रहना होगा।    जाहिर है कि इस समय भारत के लोकतंत्र को जन-हित के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखनेवाले राजनीतिक नेताओं की क्षमता बहाली पर नजर रखने की जरूरत है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं) 

सुरक्षा और सियासत की सियह-रात में लोकतंत्र का रौशनदान

सुरक्षा और सियासत की सियह-रात में लोकतंत्र का रौशनदान 

प्रफुल्ल कोलख्यान

हिफाजत और हिरासत में क्या फर्क है! हिरासत में हिफाजत करना हिरासत में लेनेवाली शक्ति का दायित्व होता है। व्यक्ति की हिरासती क्षति लोकतंत्र का कलंक होती है। यहां तक तो बात सीधी और सरल है। लेकिन इसे थोड़ा-बहुत हिला-डुलाकर देखना जरूरी है। सवाल यह है कि हिफाजत के नाम पर व्यक्ति कि गतिविधि की करीबी नजरदारी का इंतजाम करने की शासकीय नीयत हो सकती है क्या?

सामान्य रूप से मन में ऐसा सवाल उठना सही नहीं है। लेकिन जब परिस्थिति, राजनीतिक परिस्थिति सामान्य न हो तो ऐसा सवाल उठना ही स्वाभाविक है। खबर है कि शरद पवार की सुरक्षा के लिए बड़ा इंतजाम किया जा रहा है। शरद पवार की सुरक्षा के लिए सतर्क प्रशासन की सतर्कता और सावधानी निश्चित ही प्रशंसनीय है। ऐसा माना जा सकता है कि प्रशासन के पास कोई परम गोपनीय सतर्कता सूचना रही होगी। जाहिर है कि प्रशासन के सतर्कतामूलक चौकस सुरक्षा इंतजाम की नीयत पर संदेह या शंका करना उचित नहीं है।

प्रशासन की नीयत पर संदेह इसलिए होता है कि मामला राजनीतिक व्यक्ति से जुड़ा है। शरद पवार न केवल राजनीतिक व्यक्ति हैं, बल्कि सरकार के विपक्ष में सक्रिय राजनीति से जुड़े बड़े और महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं।

सामान्य लोकतांत्रिक संरचना में सरकार और प्रतिपक्ष नागरिक व्यवस्था के दो पहलू होते हैं। ये पहलू एक दूसरे को आईना दिखाने के खेल में लगे रहते हैं। कभी-कभी एक दूसरे को चौंधिया भी दिया करते हैं। आईना देखने-दिखाने का काम अंधेरे में नहीं हो सकता है। कहने का आशय यह है कि लोकतांत्रिक राजनीति चलती रहे, इस के लिए राजनीति में रोशनी की हिफाजत करने का दायित्व सरकार और विपक्ष दोनों का होता है। लोकतंत्र की रोशनी में आम नागरिकों के जीवन का कारोबार चलता रहता है। रोशनी की हिफाजत के इसी दायित्व से बंधे होने के कारण सरकार और विपक्ष सामान्य राजनीतिक परिस्थिति में एक दूसरे के दुश्मन नहीं हो जाते हैं।

विपक्ष मुक्त भारत के ‘संकल्प’ के साथ सत्ता में सक्रिय राजनीतिक पार्टी ने लोकतंत्र की राजनीतिक परिस्थिति को अ-सामान्य बना दिया है। न सिर्फ विपक्ष के प्रति बल्कि अ-सहमत नागरिकों के प्रति भी सरकार दुश्मनी का व्यवहार करने पर आमादा रहने लगी है। नागरिकों के एक हिस्से को दूसरे हिस्से से लड़ाने-भिड़ाने की चतुराई में लगी रही है। आंदोलनों से निपटने में तो इस चतुराई से सरकार ने कुछ अधिक ही काम लेना शुरू कर दिया है। नतीजा देश में ‘नागरिक युद्ध’ का माहौल बनने लगा है। सामान्य रूप से कोई कल्पना  भी नहीं कर सकता है कि कोई जन-प्रतिनिधि ‘गोली मारो’ का नारा भी जुलूस में लगवा सकता है। सड़क पर निकले जुलूस में ही क्यों, भरी संसद में सत्ताधारी दल के सांसद विपक्ष के सांसदों के लिए बेरोक-टोक ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते दिखे हैं सामान्यतः जिस की कल्पना भी लोकतंत्र में नहीं की जा सकती है। कई बार, अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े जन-प्रतिनिधि को सीधे संबोधित करते हुए ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया गया है कि किसी भी सभ्य आदमी का सिर शर्म से झुक जाये। अल्पसंख्यक समुदाय के साधारण नागरिकों के खिलाफ बहुसंख्यक समुदाय के लोगों को लड़ाने-भिड़ाने के लिए उत्तेजना और उन्माद का स्थाई माहौल बनाकर वोटों के ध्रुवीकरण और ‘स्थाई बहुमत’ हासिल करने की ऐसी राजनीति शुरू की गई है कि लोकतांत्रिक राजनीति की रोशनी ही गुल होने की हालत में पहुंच गई है। सियासत कि सियह-रात में कौन किस को आईना दिखायेगा!

‘स्थाई बहुमत’ के जुगाड़ के लिए जन-समूह में काल्पनिक वृतांत फैलाकर नागरिक समाज के ही एक हिस्से को ‘स्थाई दुश्मन’ के रूप में पेश किये जाने की आम शासकीय प्रवृत्ति विकसित कर ली गई है। यह सच है कि नागरिक समाज के विभिन्न जन-समूह में हित-भिन्नता का होना बहुत साधारण और स्वाभाविक बात है। शासक का तो मौलिक कर्तव्य होता है कि हित-भिन्नता के कारण पैदा होनेवाले अ-संतुलन को समाप्त नहीं भी तो, नियंत्रित कर पारस्परिक भरोसा और कम-से-कम कामचलाऊ संतुलन बहाल करे। लेकिन सत्ताधारी दल और उस के राजनीतिक कार्यकर्ताओं की दिलचस्पी समुदायों की हित-भिन्नताओं को पारस्परिक टकराव बढ़ाने में ही दिखती रही है। हित-भिन्नताओं में टकराव की ही बात क्या!

ऐसा लगता है कि विपक्ष के नेताओं, असहमत नागरिकों, विभिन्न क्षेत्र के व्यवसायियों आदि को ‘खामोश करने’ इलेक्ट्रॉल बांड से धन बटोरने, विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक वातावरण को तहस-नहस करने, पेपरलीक के मामलों को दबाने, रोजी-रोजगार के अवसरों को समाप्त करने, रह-रहकर हर बात में हिंदू-मुसलमान, ‘हिंदुस्तान-पाकिस्तान’ के मुद्दे भड़काने को राजनीतिक आयुध बनाकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं को हांकने के अलावा सत्ताधारी दल के नेताओं के पास कोई काम ही नहीं बचा है। एक तरफ यह सब निर्बाध चलता रहा तो दूसरी तरफ प्रभु अवतारी हो गये!

अपने घर में आग लगाकर आग की परीक्षा लेना कहां की बुद्धिमत्ता है! जून 2022 में ‘अग्निवीर’ जवानों की भर्ती के लिए ‘अग्निपथ योजना’ शुरू की गई। सेना में जवानों की भर्ती के लिए ‘अग्निपथ योजना’ किस की बुद्धिमत्ता से निकली थी! कुछ भी कहना मुश्किल है। परदे के पीछे किसी मुनाफा प्रेमी कॉरपोरेट-गुरु की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है।

सेना से संबंधित कोई भी मामला किसी भी देश की सुरक्षा, देश के सम्मान और समर्पण की उच्चतर भावना और संवेदनशीलता से जुड़ा होता है। सेना में भर्ती को महज ‘रोजगार’ की दृष्टि से देखना कितना खतरनाक हो सकता है, इस का ठीक-ठीक अनुमान लगाना भी मुश्किल है। जाहिर है कि ‘अग्निपथ योजना’ की चोट से भारत-भावना का तिल-मिलाना स्वाभाविक है। इस तिलमिलाहट की तरंग को सरकार और सत्ताधारी पार्टी के लोग तब तक महसूस ही नहीं कर पाये जब तक 2024 के आम चुनाव का परिणाम प्रत्यक्ष नहीं हो गया।

आम चुनाव के परिणाम प्रकट होने के ठीक पहले तक ‘वास्तविक’ चुनावी सर्वेक्षणों के काल्पनिक नतीजों से मुदित रहे। नेता प्रतिपक्ष सड़क से संसद तक अन्य मुद्दों के साथ-साथ ‘अग्निपथ योजना’ पर सवाल उठाते रहे हैं। अब, जबकि नरेंद्र मोदी घटक दलों के समर्थन से ही सही तीसरी बार प्रधानमंत्री बन गये हैं, देश उम्मीद करता है कि वे और उन की सरकार ‘अग्निपथ योजना’ पर फिर से विचार करने से नहीं हिचकेगी। हालांकि अपनी ‘सांस्कृतिक जिद’ के चलते वे देश की उम्मीदों पर खरे उतरने की कोशिश करते हुए बहुत नहीं दिखे हैं।

ऐसा ही मामला जातिवार जनगणना और आर्थिक सर्वेक्षण का है। कई कारणों से जातिवार जनगणना और आर्थिक सर्वेक्षण सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने की योजना बनाने और लोकतांत्रिक भागीदारी की सफलता की दृष्टि से भी अति-महत्वपूर्ण और संवेदनशील मामला है। इस मुद्दे को भी ‘न्याय योद्धा’ सड़क से संसद तक बहुत ही शिद्दत से लगातार उठाते रहे हैं। लेकिन सरकार लगातार इस मुद्दे पर कन्नी काटती रही है। पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को राहुल गांधी की आवाज में दम दिखता है।

देश के लोकतंत्र-पसंद लोगों के साथ-साथ इन समुदायों से जुड़े लोगों को राहुल गांधी की आवाज के प्रति आकर्षण और भरोसा महसूस होने लगा है। राहुल गांधी की आवाज में बदलती-बनती ‘नई कांग्रेस’ की सूचना को देश के लोगों ने महत्व दिया। ठोस नतीजा इंडिया अलायंस की चुनावी सफलता में पढ़ी जा सकती है। अल्पसंख्यक समुदाय के कई बड़े नेताओं और समुदाय के लोगों के लिए विश्वसनीय और प्रभावशाली नेताओं के होते हुए भी अल्पसंख्यक समुदाय के नागरिकों का भरोसा ‘नई कांग्रेस’ में लौटने लगा। ध्यान रहे मल्लिकार्जुन खड़गे इस बदलती-बनती नई कांग्रेस के अध्यक्ष हैं और इस के अर्थ बहुआयामी है।

बहुजन समाज पार्टी के ‘सुप्रीमो’ बहन मायावती ने राहुल गांधी के सामने कांग्रेस से जुड़ी पिछली घटनाओं का हवाला देकर सवाल उठा रही हैं और गिनती गिना रही हैं कि कांग्रेस कितनी ‘दलित-विरोधी’ पार्टी रही है। वे राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की नई राजनीति को शायद ठीक से समझे बिना, ‘अपनी राजनीति’ को ‘सुरक्षित’ कर रही हैं। बहुजन समाज को कांग्रेस के ‘आकर्षण’ से बचने का संदेश दे रही हैं। साफ-साफ कहा जाये तो कांग्रेस की ‘फांस’ से बचने का आह्वान कर रही हैं। राहुल गांधी की आवाज को अनसुनी करने की ‘राजनीतिक सलाह’ दे रही हैं। बहुजन समाज पार्टी के ‘सुप्रीमो’ बहन मायावती की ‘अपनी राजनीति’ में बहुजन समाज को ‘अपनी राजनीति’ कितनी सुरक्षित दिखेगी, यह तो भविष्य ही बता पायेगा।

असल में अब भारत की लोकतांत्रिक राजनीति को सिर्फ राजनीतिक नेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। भारत के लोकतंत्र में असंगत और विचित्र स्थिति बन गई है। ऐसा लगता है कि नेताओं के राजनीतिक हित और आम जनता के नागरिक हित को लगभग एक दूसरे के विरुद्ध ‘युद्ध के मैदान’ में खड़ा कर दिया गया है। विभिन्न तरह के राजनीतिक चक्रव्यूहों और लोकतांत्रिक व्यूहों में फंसे नागरिक समाज को सावधानी से लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भरोसा करना ही होगा। जी, भरोसा क्षरण के इस युग में भरोसा को बचाने की अधिकतम कोशिश भी नागरिक समाज का प्रमुख दायित्व है। नागरिक समाज के इस प्रमुख दायित्व के महत्व को राजनीतिक कार्यकर्ता समझें या न समझें, सामाजिक कार्यकर्ताओं को जरूर समझना होगा।   

यह तथ्य है कि सबूत के निशान जमीन पर ही दर्ज होता है। आसमान में नहीं बनते कदमों के निशान, पानी में भी नहीं टिकते किसी की आवा-जाही के निशान। पुरानी राजनीति की आसमानी उड़ान और जलविहार के मोह से बाहर निकलते हुए नई राजनीति की जमीन की संभावनाओं को पहचानना होगा। ‘नई राजनीति’ में सामाजिक और आर्थिक न्याय के नायकों को नैसर्गिक न्याय की भावनाओं के निरसन के किसी भी कुचक्र को तोड़ना ही होगा। नैसर्गिक न्याय के सुनिश्चित रहने में ही इसी में आम नागरिकों और देश की सुरक्षा की संभावना का सदावास होता है। नेताओं को सुरक्षा देना जरूरी तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं! सियासत की सियह-रात में जन-सुरक्षा और लोकतंत्र का नया रौशनदान ‘नई राजनीति’ से खुलेगा क्या! भारत के लोगों को भरोसा है, जी भरोसा के क्षरण की सियह-रात में भी भरोसा है।   

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं) 

 

सवाल न्याय का है तो नूह की नौका में विचार और विवेक को बचाने का भी है

सवाल न्याय का है तो नूह की नौका में विचार और विवेक को बचाने का भी है

प्रफुल्ल कोलख्यान

सभ्यता की शुरुआत से ही अनवरत आवाज गूंजती रही है, ‘न्याय चाहिए, न्याय चाहिए’!  कानून का राज बहाल रहने की स्थिति में जब नीति-नैतिकता सिर उठाती है, तो इस आवाज की अनुगूंज धीमी हो जाती है। कानून का राज न रहे तो नीति-नैतिकता की बात निरर्थक जुमलेबाजी से अधिक कुछ नहीं होती है। दुनिया के ‘एक ध्रुवीय’ होने के कोलाहल और कलह के बीच नये सिरे से मनुष्य की नैतिक-विच्छिन्नता का वातावरण बनने लगा।  नई अर्थ-नीति के लागू होने के साथ ही नव-नैतिकता का नया आयाम खुलने लगा था। इस आयाम में सम्यक रोजगार के अभाव में होनेवाली नैतिक-विच्छिन्नता से उत्पन्न परिस्थिति का प्रभाव प्रमुखता से शामिल था। सम्यक रोजगार का अभाव समाज व्यवस्था में अन्याय के असंख्य और अगणित विषाणु घुस जाते हैं। इस समय सम्यक रोजगार के अभाव की आंधी चल रही है। सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन असंभव हो जाने की परिस्थिति में नैतिक-विच्छिन्नता की आंधी का मुकाबला कभी संभव नहीं हो सकता है। नैतिक-संलग्नता के अलावा अन्याय को रोकने और कानून के राज को सुनिश्चित करने का कोई अन्य मानवीय उपाय नहीं है।

नैतिक-संलग्नता की जीवंतता के लिए जरूरी है सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन की संभावनाओं सम्यक रोजगार के समुचित अवसर को जीवंत और भरोसेमंद बनाये रखना। यह काम चुनावी रस्म और रीति से सीमित ‘लोकतंत्र’ से संभव नहीं होता है। यह ठीक है कि अपराध के बीज मनुष्य के मन में जन्म-जात होते हैं। इसलिए आपाद-मस्तक अपराध मुक्त समाज व्यवस्था असंभव है। इतना मान लेने के बाद यह सवाल उठाया ही जा सकता है कि मनुष्य के मन में उपस्थित अपराध के मानसिक बीज के सामाजिक विषवृक्ष बनने की जमीन, खाद-पानी समाज व्यवस्था से ही मिलते हैं। निश्चित ही अपराधी को देश के कानून के अनुसार दंडित किया ही जाना चाहिए। लेकिन याद यह भी रखना चाहिए कि अपराधी को दंडित करने से समाज व्यवस्था में अपराध और अपराध की प्रवृत्ति में कमी नहीं आती है, खासकर तब जबकि खुद कानून का राज गहरे संदेह के घेरे में हो। नागरिक समाज विश्वास कर सकता है कि हाल के अपराधियों के पहले अपराध के समय की आर्थिक पृष्ठ-भूमि और रोजगार की स्थिति की खोजबीन से अधिकतर मामलों में ‘कुछ’ सामान्य चौंकाऊ तथ्य सामने आ सकते हैं। अन्याय और अपराध एक ही सिक्का का दूसरा पहलू होता है। यह हो नहीं सकता है कि सिक्का के किसी एक पहलू के रहते, दूसरे पहलू को अनुपस्थित कर दिया जाये। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कानून के राज का परिप्रेक्ष्य तिरछा होता जा रहा है, जल-जमीन-जंगल-जीवन आक्रांताओं से घिरता जा रहा है और चारो  तरफ बेलगाम अन्याय का माहौल गाढ़ा होता जा रहा है। ‘जीत का जश्न’ माननेवालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जंगल छिन जाने से जंगल के पशु हिंसक हो जाते हैं उसी तरह कानून का राज छिन जाने और समाज में मनमर्जी का अ-न्यायी राज चलाने से समाज में हिंसा-प्रतिहिंसा और अ-नैतिकता का वातावरण बन जाता है। जिस को ‘मशाल’ से करना असंभव कर दिया गया है, उसे ‘मोमबत्ती’ से संभव कर लेने की नागर मासूमियत को सलाम करने के अलावा क्या किया जा सकता है! न माने कोई, मगर यह सच है कि फूंक मारने से न भूत भागता है न दर्द दूर होता है।  

चारो तरफ से ‘न्याय चाहिए, न्याय चाहिए’ की गुहार सुनाई दे रही है। याद रखना जरूरी है कि यह ‘गुहार’ है, ‘शोर’ नहीं! यह भी याद रखना जरूरी है कि हमारे समय में ‘गुहार’ को ‘शोर’ से ढक लेने की शासकीय नीति और प्रवृत्ति भी बहुत सक्रिय है। यह ठीक है कि सभी को समान रूप से संतुष्ट करनेवाली न्याय-निष्ठ समाज व्यवस्था दुनिया में कहीं भी संभव नहीं हो पाई है। भविष्य में कभी संभव हो पायेगी या नहीं, कुछ भी कहना मुश्किल है। लेकिन पूर्ण न्याय-निष्ठ समाज व्यवस्था का सपना मनुष्य की अनंत यात्रा का अनमोल रतन है। इस विश्वास के साथ इतना जरूर कहा जा सकता है कि न्याय-निष्ठ समाज व्यवस्था का संतुलन हासिल करने के लिए मनुष्य का संघर्ष हमेशा जारी रहेगा।

आंदोलन होते हैं, क्रांतियां होती है न्याय के परिप्रेक्ष्य को सही करने की कोशिशें होती रहती हैं। कुछ देर के लिए लगता है कि सवाल का हल मिल गया। शांति का वातावरण तैयार हो गया है। यह सब कुछ दिनों के लिए ही होता है। अधिक-से-अधिक एक पीढ़ी, दो पीढ़ी, तीन पीढ़ी बस! इस के बाद फिर संघर्ष, फिर कोलाहल, फिर कलह! बस कुछ दिनों के लिए शांति! भारतीय संस्कृति स्वतः स्पष्ट संदेश है, “मनुज बलि नहीं होत है, होत समय बलवान! भिल्लन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बाण!” जिस मुल्क के बादशाह को ‘एक मुश्त-ए-ग़ुबार’ में बलते हुए लोगों ने देखा हो उस मुल्क के लोकतांत्रिक ‘सिंहासन’ पर विराजने का मौका शासक के मन में उस के ईश्वर होने का भ्रम पैदा कर दे तो उस मुल्क के लिए इस से बड़े दुख का मौका और क्या हो सकता है।   

‘बुलडोजर न्याय’ अतिक्रमण और प्रति-अतिक्रमण दोनों का ही प्रतीक है। ‘बुलडोजर न्याय’ का प्रतीकार्थ बहुत ही डरावना है। वर्चस्व में अतिक्रमण की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। जीवन के भिन्न इलाकों और संदर्भों में अतिक्रमण की प्रक्रिया चलती रहती है। अतिक्रमण से अन्याय का गहरा रिश्ता होता है। लोकतांत्रिक शासन में अतिक्रमण का उत्साह लोकतंत्र को तहस-नहस कर देता है। इतिहास गवाह है, पूरे नागरिक समाज में तो नहीं, लेकिन कुछ लोगों में अन्याय से लड़ने का जज्बा जरूर पैदा हो जाता है। इतिहास गवाह है, हमेशा कुछ लोग अन्याय से लड़ने के लिए अपने एकांत और शांत जीवन के कोने से उठकर मोर्चा संभालने आ जाते हैं। अन्याय से लड़ने के लिए जैसे कुछ लोग आते रहे हैं, वैसे आगे भी आते रहेंगे। जाहिर है कि अतिक्रमण और प्रति-अतिक्रमण के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया भी जारी रहती है।

कभी-कभी संक्रमण का दौर बहुत तीखा और लंबा होता है। हर तीसरी-चौथी पीढ़ी को संक्रमण की तीखी और लंबी प्रक्रिया की पीड़ा झेलनी पड़ती है। मोटे तौर पर डॉ मनमोहन सिंह के दूसरे शासन-काल में संक्रमण के दौर के लक्षण दिखने लग गये थे। संक्रमण के दौर में ‘काबा और कलीसा’, पुराने और नये का द्वंद्व तेज हो जाता है, कभी-कभी उग्र भी। संक्रमण की प्रक्रिया को ठीक से समझना बहुत आसान नहीं होता है। लोकतांत्रिक सत्ता, इस में पक्ष और प्रति-पक्ष दोनों शामिल रहते हैं, की समझ और राजनीतिक व्यावहारिकता में संक्रमण की पीड़ा के लक्षण सही संदर्भ में नहीं झलकते हैं तो संक्रमण की पीड़ा अधिक लंबी और तीखी हो जाती है।

डॉ मनमोहन सिंह के शासन के उस दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसी मुहिम चली कि लगा व्यवस्था को पूरी तरह से न्याय-निष्ठ बनाने की दिशा में कुछ लोगों ने संघर्ष का मोर्चा संभाल लिया है। महात्मा गांधी नीति और शैली से दूर-दूर रहनेवालों की मति-गति में ऐसा बदलाव कि आनन-फानन में एक ‘नये गांधी’ की तलाश पूरी कर ली गई। ‘नये गांधी’ की भूमिका में किसन बाबूराव हजारे यानी अण्णा हजारे  गये। अब अण्णा हजारे के आंदोलन का दौर था। इस आंदोलन के वास्तुकारों में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, किरण वेदी, आशुतोष आदि प्रमुख थे। परदे के पीछे राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और समर्थक शक्तियों की सक्रिय भूमिका थी। इसी दौर में एक नये राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ। वैसे यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था, लेकिन इतिहास ने साबित किया कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं कांग्रेस के खिलाफ था। इस नजरिये से देखा जाये तो यह आंदोलन सफल हुआ। कांग्रेस की सरकार चली गई। आज किसन बाबूराव हजारे कहां हैं! क्या पता! जबरदस्त चुनावी जीत के बाद इन में से कुछ प्रमुख लोग पार्टी से बाहर निकल गये या निकाल दिये गये। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी को जनता का अपराजेय समर्थन मिला। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री पद पर बने रहकर अरविंद केजरीवाल अब भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरकर हिरासत में हैं। कुछ दिन पहले आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह और मनीष सिसोदिया जमानत पर हिरासत से निकले हैं। सत्येंद्र जैन तो बहुत दिन से हिरासत में हैं। कांग्रेस के विरुद्ध ‘इंडिया अगेनस्ट करपशन’ का दौर कब का समाप्त हो गया और अब कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया अलायंस का दौर है। ‘इंडिया अगेनस्ट करपशन’ से बाहर अब आम आदमी पार्टी इंडिया अलायंस के आस-पास है। अण्णा हजारे को अच्छा तो नहीं लग रहा होगा, लेकिन यह ऐतिहासिक सच है कि अरविंद केजरीवाल सहित उन के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सारे ‘सिपाही’ कांग्रेस के प्रति परहेज से मुक्त हैं।

इस संक्रमण के प्रारंभिक दौर में सत्ता परिवर्तन हो गया। कांग्रेस की सत्ता गई। कानून के राज का अर्थ पूरी तरह से बदल गया। अच्छे-अच्छे लोग ‘अच्छे दिन’ की धुन का पीछा करते हुए 2014 से 2024 तक पहुंच गये। ‘अच्छे दिन’ हाथ नहीं आया सो नहीं आया! ऊपर से ‘बुरे दिन’ के फिर से लौट आने का बेसब्र इंतजार शुरू हो गया। संक्रमण की प्रक्रिया में अतिक्रमण की प्रवृत्ति ने कोहराम मचा दिया।  बुलडोजर ‘शासकीय न्याय’ का प्रतीक बन गया प्रतीत होने लगा। कानून के राज के बदले हुए अर्थ में कानून ‘अपना काम’ छोड़कर ‘उन का काम’ करने लगा। इस काम में संविधान रोड़ा अटका देता था। इस संविधान के बारे में वर्तमान शासक दल से जुड़े पुराने लोगों की धारणा थी कि उस में कुछ भी भारतीय नहीं है। अब शासकीय उत्साह के साथ संविधान में परिवर्तन का नहीं बल्कि अंदर-ही अंदर संविधान के परिवर्तन का मनोरथ आकार लेने लगा। अंदर-ही-अंदर पल रहे मनोरथ की ध्वनियां लीक होकर बाहर आने लगी जो ‘चार सौ पार’ की मुनादी की संगत में फिट हो गई। ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ करनेवाले ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी के राजनीतिक कान खड़े हो गये। फिर क्या था, इंडिया अलायंस और राहुल गांधी ने संविधान परिवर्तन के मनोरथ के मुकाबला में आरक्षण विरोध की मंशा को जोड़कर सामाजिक और आर्थिक अन्याय को जारी रखने के सत्ताधारी दल के इरादा को भी नत्थी कर दिया। नतीजा, ‘चार सौ पार’ की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की दहाड़ दूर-दृष्टि संपन्न पक्के इरादा की ‘पॉलिटिकल इंजीनियरिंग’ के प्रभाव में ‘दो सौ चालीस’ में सिमट कर रह गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार के समर्थन से सरकार गठित हो जाने के बाद ऐसा लग रहा है कि राजनीतिक जमीन पर न्याय का सवाल, कम-से-कम कुछ देर के लिए स्थगित-सा हो गया है! ऐसा लग जरूर रहा है, मगर ऐसा है नहीं शायद। किसी भी इरादा से बहुत जल्द जनगणना और जातिवार जनगणना की कवायद शुरू हो सकती है। किसी भी इरादा से कहना इसलिए जरूरी है कि जनगणना और जातिवार जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल अलग-अलग और भिन्न-भिन्न इरादा से किया जा सकता है। इन भिन्न-भिन्न इरादों में न्याय शामिल होगा तो अन्याय के लिए भी जगह निकालने के इरादे से इनकार नहीं किया जा सकता है, यह बात साफ-साफ समझ में आती है।

इस अतिक्रमण-संक्रमण के दौर में न्याय के सवाल का बहुत दिनों तक स्थगित रह पाना मुमकिन नहीं दिखता है। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि पूर्ण न्याय-निष्ठ व्यवस्था को हासिल करने की तरफ बढ़ने के लिए जन-आक्रोश में किसी बड़े जन-आंदोलन के लक्षण दिख रहे हैं। एक अन्य बात की ओर भी ध्यान देना जरूरी है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में ‘सब के लिए न्याय’ सुनिश्चित करने की लड़ाई की तैयारी नहीं है। बल्कि लड़ाई तो ‘अपने लिए’ न्याय में हिस्सेदारी की है। दोहराव के जोखिम पर भी कहना जरूरी है कि लड़ाई की तैयारी पूर्ण न्याय-निष्ठ व्यवस्था के लिए तो नहीं ही है, ‘अन्यों’ को अन्याय से बचाने के लिए भी नहीं है। एक उदाहरण क्रीमी-लेयर पर माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला देखा जा सकता है। यह सच है कि क्रीमी-लेयर में आनेवाला उस वंचना के व्यूह से पूरी तरह से बाहर नहीं आया है, जिस वंचना से बचाव के लिए आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है। लेकिन यह भी सच है कि क्रीमी-लेयर कुछ लोगों के जीवन में उस दंश का असर उल्लेखनीय ढंग से कम जरूर हुआ है, जिस दंश से बचाना आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था का लक्ष्य रहा है।

क्रीमी-लेयर के कुछ लोग अपने समुदाय या अपने समान-समुदाय के पीछे रह गये लोगों के पक्ष में आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था का लाभ उठाना छोड़ देते हैं तो इस से आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था में अधिक धार आ सकती है। सच पूछा जाये तो यह मामला इतना सरल भी नहीं है। असल में क्रीमी-लेयर बहुत पतला है। क्रीमी-लेयर के लोगों को ‘सवर्ण समूह’ में सम्मानजनक स्थान सुनिश्चित नहीं किया जा सका है। उन की सामाजिक स्थिति सचमुच ध्यान देने लायक है। एक बात यह भी समझना जरूरी है कि भारत में जाति ही समाज है, लेकिन समाज जाति नहीं है।  इसी अर्थ में भारत का जीवंत समाज खंडित (fragmented) स्वरूप में उपलब्ध होता है। समझ में आने लायक बात यह है कि क्रीमी-लेयर के लोग अपनी मौलिक सामाजिक जमीन से कट गये हैं और नई जमीन पर उनका गोड़ ठीक से जम नहीं पाया है।

सच यह भी है कि अपनी ‘जागरूकता’ में वे इतने आगे हैं कि अपने ही समुदाय पर वर्चस्व जमाने की प्रवृत्ति पर लगाम कसने की मानसिकता विकसित करने में कोई रुचि नहीं लेते हैं। एक और बहुत खतरनाक प्रवृत्ति भी क्रीमी-लेयर के जागरूक लोगों में दिखती है, वे समुदाय के बाहर के लोगों का इन मुद्दों पर मुंह खोलना पसंद नहीं करते और कभी-कभी विरोध भी करते हैं। अन्याय के खिलाफ छोटी-छोटी लड़ाइयां ऊपर से जरूर न्याय की नहीं न्याय में हिस्सेदारी कि दिखती हो, लेकिन यह अंततः वे अन्याय के खिलाफ बड़ी लड़ाई की मजबूत पृष्ठ-भूमि भी बनाती हैं। न्याय की बड़ी लड़ाई के दो लक्षण महत्वपूर्ण हैं, पहला ‘अपने हों या पराये, सब के लिए हो न्याय’ और दूसरा, ‘न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है’। ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी के लिए न्याय की बड़ी लड़ाई की असली और गंभीर  चुनौती है।

दक्षिणा में अंगूठा काट लेनेवाली मानसिकता की दिलचस्पी अपने पराये, सब के लिए न्याय सुनिश्चित करने में या न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देने में नहीं होती है। प्रसंगवश, एकलव्य का अंगूठा द्रोणाचार्य ने इसलिए नहीं काट लिया था कि महाभारत की लड़ाई में कौरवों के विरुद्ध अर्जुन का कोई प्रति-द्वंद्वी न हो! बल्कि एकलव्य का अंगूठा इसलिए काट लिया होगा कि द्रुपद से प्रतिशोध लेने की लड़ाई में वचनबद्ध अर्जुन के खिलाफ एकलव्य जैसे धनुर्धर का इस्तेमाल किये जाने की आशंका को समाप्त किया जा सके। बड़ी-बड़ी लड़ाइयों के बीच और समानांतर छोटी-छोटी लड़ाइयां भी चलती रहती है।

‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी और इंडिया अलायंस के सामने अपने पराये, सब के लिए न्याय सुनिश्चित करने की राह में न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना शामिल है। वोट की राजनीति से ऊपर उठकर ही इस चुनौती का मुकाबला किया जा सकता है। संसद में बहुमत के नाम पर बहुसंख्यकवाद के खतरे को देश झेल चुका है। सब के लिए न्याय सुनिश्चित करने की दूर-दृष्टि से ‘बहुवोट के लालच’ में पड़ने के खतरे से लोकतांत्रिक राजनीति को बचाना भी बड़ी राजनीतिक चुनौती है। ध्यान रहे, सामाजिक संकट के समाधान का प्रस्ताव सड़क से संसद को जाये तो शुभ; संसद का संकट समाज में पसरने लगे तो अ-शुभ! प्रसिद्ध समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि अगर सड़कें खामोश हो जायें तो संसद आवारा हो जाएगी। डॉ राममनोहर लोहिया ने ठीक ही कहा था, लेकिन उन्हें क्या पता था कि भारत के लोकतंत्र में एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब सड़क की खामोशी को संसद की आवारगी तोड़ने लगेगी। आवारगी! विचारहीनता ही आवारगी की जननी है। संसद में विचारहीनता की जो स्थिति है, वह सड़क पर भी पसर जाती है। जन-आक्रोश में लंबे समय की विचारहीनता अंततः सड़क को भी आवारा बना देती है। तोड़-फोड़ क्या किया जाये? ‘नूह की नौका’ में विचार को बचाया जाये, विवेक को बचा लिया जाये। जी, सवाल न्याय का है तो नूह की नौका में विचार और विवेक को बचाने का भी है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)     

बहुत दुखी और पराजित महसूस कर रहा हूँ

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इस देश की ही बात कहता हूँ। दुनिया की बात, क्या कहूँ! मेरा यह मत बनता जा रहा है कि इस देश से सांप्रदायिकता को निर्मूल करना असंभव है। अभी, दो दिन पहले एक प्रखर बौद्धिक, संवेदनशील मनुष्य और समतामूलक समाज के स्वप्नदर्शी अपने अग्रज मित्र से बात हो रही थी। बातचीत के प्रवाह में उन्होंने एक बात कही, वह बात संकेतपूर्ण है। मित्र का नाम बड़ा है, लेकिन यहाँ बताना उचित नहीं है। नाम बताने की पहली बाधा यह है कि यह नितांत व्यक्तिगत बातचीत फोन पर हो रही थी और दूसरा यह डर है कि नाम बताने से इस बात की संवेदना व्यक्ति के आस पास सिमटकर रह जायेगी। उन्होंने कहा, ‘और चाहे जो हो, ब्राह्मणों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’। यह एक ऐसी बात है, जो पूरी तरह से सांप्रदायिक मनोभाव के हमारे सर्वाधिक विवेक-संपन्न मन भी में चिर-स्थाई रूप से समाये रहने की पुष्टि करती है। उनके जैसे विवेक-संपन्न और प्रबुद्ध मित्र के भी मन में इस तरह के मनोभाव के टिके रहने की मुझे उम्मीद नहीं थी। फिर क्या फर्क रहता है जब कोई गैर-मुस्लिम कहे, ‘और चाहे जो हो, मुस्लमानों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-हिंदु कहे, ‘और चाहे जो हो, हिंदुओं पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-बिहारी कहे, ‘और चाहे जो हो, बिहारियों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-दलित कहे, ‘और चाहे जो हो, दलितों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ आदि, इसी तरह से लिंग-क्षेत्र आदि के संदर्भ भी समझे जा सकते हैं। इसे जितना बढ़ाया जाये स्थिति उतनी ही भयावह प्रतीत होगी। यहाँ, कहने का मकसद सिर्फ यह है कि हमारे सामने बहुत बड़ी चुनौती है। एक गहरे अर्थ में खुद को फिर से पहचानने की जरूरत है। इस पर बहस करना यहाँ मेरा मकसद नहीं, यहाँ तो सिर्फ मन का मरोड़ आपके सामने रखने का मकसद है दोस्तो! कहीं ऐसा तो नहीं कि जन्मना ब्राह्मण जाति के होने के कारण मुझे यह बात कुछ अधिक बड़ी लग रही हो? ऐसा हो सकता है, यह असंभव नहीं है। क्या सचमुच, इस देश से सांप्रदायिकता को निर्मूल करना असंभव है?

क्या करे कोई

इस गूंगी मुस्कान का क्या करे कोई
और कटी जुबान का क्या करे कोई

लटपटाते बयान का क्या करे कोई
मचलते हिंदुस्तान का क्या करे कोई

ढहते हुए मकान का क्या करे कोई
जी गुर्राते संविधान का क्या करे कोई

दिल-ए-नाबदान का क्या करे कोई
प्रफुल्ल कोलख्यान का क्या करे कोई

सागर से संवाद

सागर से संवाद 

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सागर ने कहा --- 

सुनो मैं तुम्हारे पहले ही नहीं 

बीज पूर्वजों से अधिक पुराना हूँ 

तुम्हारे सबसे छोटे शिशु से 

भी छोटा हूँ! 

युवाओं से कहीं अधिक युवा हूँ। 

 

तुमने नदियों को गंदा किया है

मेरा मन अभी भी साफ है। 

मेरे खारापन पर मत जाओ

दुनिया में जहां भी नमक है

लवण है, लावण्य है

वहां मैं ही तो मुसकुराता हूँ। 

और हां जो भी मिठास है

मैं ही तो समाया रहता हूं।

खुशी हो गम हो वहाँ मैं हूँ 

दोनों के लिए मेरे 

पास एक ही भाषा है! 

आंसू में नमक हो 

या मुस्कान में मिठास मैं ही हूँ। 

मैं ही हूँ शिखर का 

सब से गहरा धरती का संवाद। 

मैं अकसर नींद में भी आता हूँ 

और सपने में भी! 

मेरा स्वभाव है

न बहुत पास न बहुत दूर

बस होता हूँ 

धमनियों की तरह शरीर में 

धरती के भी सभ्यता के भी।

मैं रगों में दौड़ता लहू हूं

पसीना हूँ और उसका खारापन भी। 

जानता है चांद 

पता सौरमंडल को भी है। 

मैं काल का अटूट संवाद हूँ। 

समय का आखिरी छोर! 

सभ्यता की धरती की ऊंचाई का 

मैं ही माप हूं। गहराई का भी। 

मैं समुद्र हूँ। 

यही मेरा रहस्य है कि मैं रहस्य हूँ। 

मैं अटूट संवाद में हूँ 

हवा के साथ ही, हवा के पहले भी 

हवा के बाद भी! 

मैं बस संवाद हूँ। 

अच्छा लगा 

समुद्र का समुदाय से संवाद! 

लोकतंत्र से खेल में खून, खतरा और कानून का ककहरा

लोकतंत्र से खेल में खून, खतरा और कानून का ककहरा

हिमाचल प्रदेश सत्तारूढ़ कांग्रेस ने 15 भाजपा के विपक्षी विधायकों को निलंबित कर बजट पास करवा लिया है। प्राथमिक तौर पर माना जा सकता है कि सुखविंदर सिंह सुक्खू की सरकार पर से खतरा टल गया है। हमारे देश की राजनीति में इस तरह की घटनाएं बहुत बढ़ गई है। सरकारें और राजनीतिक दल तो जीत जाती है, लोकतंत्र हार जाता है। निश्चित रूप से आज के नैतिकता विमुख राजनीतिक परिदृश्य में यह एक नैतिक सवाल उठता है। नैतिक सवाल उठना ही चाहिए। विचारधारा के लिए संघर्ष हो या किसी अन्याय के विरुद्ध, एक खतरा हमेशा बना रहता है। खतरा यह कि जीतनेवाला जीतकर कुछ-न-कुछ तो वैसा ही हो जाता है, जैसा होने के खिलाफ वह अपनी जीत दर्ज करवाने की खुशी में जश्न मनाता है।

यही वह खतरा है — हारनेवाला असल में जीत जाता है और जीतनेवाला असल में हार जाता है। विडंबना है कि इस तरह न्याय और अन्याय या उचित-अनुचित की लड़ाई में अन्याय और अनुचित ही जीतता है। इतिहास के अनुभवों का निष्कर्ष तो यही निकलता है कि नीति विहीनता और अनैतिकता जीत की ‘आभा’ को कम नहीं करती है। पहलू बदल जाता है, सिक्का तो वही रह जाता है। लोकतंत्र की लड़ाई पहलू बदलने की नहीं, सिक्का बदलने की लड़ाई है। नीति विहीनता और अनैतिकता के बाहर निकलने की लड़ाई है।

फिलहाल, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार जीती क्या, कहना चाहिए बच गई है। यह संतोष की बात है क्योंकि वह अभी-अभी राज्य सभा के चुनाव में नीति विहीनता और अनैतिकता के कारण हार गई थी, इस लिए सरकार का बचना फिलहाल संतोष की बात है।

डेढ़ सौ के करीब सांसदों को सदन से बाहर निकाले जाने का नजारा अभी इतिहास के खाते में दर्ज नहीं हुआ है, वर्तमान की आंख का कांटा बना हुआ है। व्यावहारिक समझ कहती है, नैतिकता या न्याय-निष्ठता को उसकी पूर्णता में नहीं सापेक्षता में ही देखा जा सकता है। बाजार से गुजरते हुए आदमी कभी-न-कभी खरीददार हो ही जाता है, दुनिया में रहते हुए दुनिया का तलबगार भी होना ही होता है। मनुष्य के मन में पूर्णता के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है, इस आकर्षण में छिपे छलावा से बचना जरूरी होता है। लोकतंत्र में आम नागरिक राजनीतिक दलों की हार-जीत के जल-थल प्रभाव से खुद को अलग-थलग नहीं रख सकता है।

महात्मा गांधी होते तो इस प्रसंग पर क्या सोचते! मारनेवालों ने महात्मा गांधी को मार दिया, लेकिन अपने विचारों में, कर्म और चिंतन की प्रेरणा के रूप में जिंदा हैं और रहेंगे। महात्मा गांधी को यंत्रों का विरोधी माना जाता है। कुछ हद तक वे यंत्र विरोधी थे भी। लेकिन, कारखानों के मामले में वे इस हद तक अपने को समाजवादी भी मानते थे कि बड़े कारखानों का मालिक व्यक्ति को नहीं, राष्ट्र को होना चाहिए और उसे सिर्फ मुनाफा के लिए नहीं होना चाहिए। लोगों की भलाई के लिए होना चाहिए। कारखानों को लोभ से जुदा और प्रेम से जुड़ा होना चाहिए। महात्मा गांधी बाग-बगीचों को ही नहीं कारखानों को भी प्रेम से जोड़कर देखते थे। महात्मा गांधी कारखानों को कायम करने का उद्देश्य जन-हित को मानते थे। महात्मा गांधी के सामने सोवियत का उदाहरण रहा होगा, उन्होंने अपने को किसी हद तक पूंजीवादी नहीं कहा, समाजवादी कहा तो इसका मतलब साफ है।

महात्मा गांधी का यंत्र विरोध यांत्रिक नहीं, नैतिक था, व्यावहारिक था। यहां से यह सीखा जा सकता है कि अनैतिकता के विरोध की नैतिकता को यांत्रिकता से बचाने की जरूरत है। ध्यान रहे, साधन-साध्य की शुचिता के मुद्दे पर भी गांधी नीति में कोई यांत्रिकता नहीं थी, इसे किसी हठधर्मी सैद्धांतिक मिजाज से व्याख्यायित करना भूल होगी। आज के राजनीतिक प्रसंग में भी पूर्ण-नैतिकता की किसी हठधर्मी सैद्धांतिक मिजाज से काम नहीं चलेगा — किसी भी तरह की पूर्णता के छलावा से बाहर रहना ही उचित है।

सामने 2024 का आम चुनाव है। सामने तो, पिछली जीत का दंभ और अगली जीत की हवस का भयानक परिदृश्य भी है। अपने कहे को स्व-प्रमाणित मानकर चलना लोकतंत्र में सरकार के निकृष्ट व्यवहार के अलावा और क्या हो सकता है। किसान आंदोलन के दौरान शहीद आंदोलनकारी शुभकरण सिंह की हत्या की जांच तक करवाने की सामान्य संवेदनशीलता तक इस सरकार में नहीं दिखी है!

जिस आंदोलन  में शुभकरण शहीद हो गया, उस आंदोलन  की मांगें जायज है, नाजायज है यह अलग मसला है, लेकिन जिंदा रहने का हक शुभकरण को था, इससे कोई इनकार कर सकता है क्या? यह सरकार कर सकती है। एक क्षण के लिए मान लिया जा सकता है कि सरकार के न चाहते हुए यह दुर्भाग्यजनक घटना गई, लेकिन उसके बाद का रवैया! पूर्व राज्यपाल, सत्यपाल मलिक ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि प्रधानमंत्री के सामने जब उन्होंने पिछले किसान आंदोलन में सैकड़ों किसानों की शहादत के मामले की चर्चा करनी चाही तो जवाब आया — क्या वे लोग मेरे लिए मरे! ऐसा जवाब देनेवालों से किस संवेदनशीलता की उम्मीद की जाये? संसदीय लोकतंत्र में सरकार के किसी निर्णय का सामूहिक उत्तरदायित्व मंत्री परिषद का होता है। भारत के संविधान के 75(3) की याद, पता नहीं मंत्री परिषद  के सदस्यों का है या नहीं  The Council of Ministers shall be collectively responsible to the House of the People — शाह आयोग के सामने व्यक्तिगत आरोप के जवाब में इंदिरा गांधी की तरफ से यही कहा गया था न! कल को अगर कोई जांच होगी, तो ‘राज भोगने की विवशता’ में खामोश मंत्री संवैधानिक रूप से अपनी सामूहिक जिम्मेवारी से बच नहीं पायेंगे। तब सिर्फ मैथिली शरण गुप्त के जयद्रथ-वध की पंक्ति ही याद नहीं आयेगी — ले डूबता है, नाव को मझधार में; तब दिनकर की भी कविता की याद आयेगी कि ‘समर शेष है’ और समय तटस्थ रहनेवालों का भी अपराध लिखता है। विडंबना है कि ऐसी किसी जांच की नौबत न आये, इस लिए खामोश हैं। यह खामोशी आपराधिक है। उस देश में लोकतंत्र का क्या हो सकता है, जिस देश के मंत्री ही अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति इतने मंदोत्साह और लापरवाह हों। यह नहीं भूलना चाहिए कि जो नेत्र-जल सफलता की सीढ़ी चढ़ते समय आनंददायक होता है, सीढ़ी से उतरते समय वही नेत्र-जल तेजाबी हो जाता है।

राहुल गांधी की संसद सदस्यता को खत्म करने के लिए क्या-क्या न किया गया। चुनाव के समय ‘अपलम, चपलम की चपलाई’ के साथ छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के ‘आंगन आनेवाली’ एजेंसियों की ‘उत्तम कार्रवाइयों’ की याद तो होगी ही न!  कहां गया महादेव एप्प, अब चुप्प! झारखंड का मुख्यमंत्री रखते हुए हेमंत सोरेन जेल भेजे जा चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को आठ बार सम्मन भेजा जा चुका है। अखिलेश यादव को सबीआई (Central Bureau of Investigation) ने वर्ष ‘एकादशी’ पर ‘आदर’ के साथ आमंत्रित किया है। लोग कहते हैं, अवैध खनन के मामले में ‘सत्यान्वेषण’ के लिए अवैध पुरातात्विक खनन हो रहा है।  बार-बार के बुलावे से परेशान तेजस्वी यादव ने तो ‘बिन पानी साबुन बिना’ निर्मल बनने के लिए अपने आंगन में ही ‘विभागी सत्यान्वेषियों’ की कुटिया बनवा देने की बात कह दी थी। एकनाथ शिंदे, अजीत पवार, शुभेंदु अधिकारी, हिमंत विश्व शर्मा जैसे कई लोग ‘पॉवर लोक’ में स्वच्छंद और सानंद विहार कर रहे हैं।

मकसद भ्रष्टाचार को समाप्त करना हो, भ्रष्टाचारियों के ऊपर कार्रवाई करना हो तो निश्चित ही इस से अधिक लोकतांत्रिक काम दूसरा क्या हो सकता है ? कुछ नहीं। साफ-साफ दिखता है कि मकसद भ्रष्टाचार को समाप्त करना नहीं है। ठीक चुनाव के समय विभाग अपनी ‘शीत-निष्क्रियता’ से बाहर क्यों निकलते हैं! कहते हैं कि असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर साइकिया के हारने के बाद जब छात्रों के हॉस्टल से निकलकर सीधे सचिवालय पहुंचने की नौबत आ जाने पर अधिकतर वरिष्ठ अधिकारी गुवाहाटी से पहली उड़ान पकड़ने के फिराक में लग गये थे। बदले की कार्रवाई न होने के निश्चित आश्वासन पर डरते-डरते अधिकारी वापस आये थे। इस अनुभव से भी कुछ सीखा जा सकता है।

पाप में शामिल बाल-बच्चेदार अधिकारी भी सत्ता बदल से बहुत डरे हुए होते हैं, और जी जान से सत्ता बदलाव के विरोध में सक्रिय रहते हैं। ध्यान रहे लोकतंत्र बदलाव को स्वीकारता है, बदला लेने की प्रवृत्ति को धिक्कारता है। इतिहास से सीखें तो जनता पार्टी की सरकार ने बदलाव को बदला लेने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहा था, उस सरकार की कई गलतियों में से एक प्रमुख गलती यह भी साबित हुई थी। 

दुखद है कि बाल-बच्चेदार लोगों ने महात्मा गांधी की इस बात को नजरंदाज कर दिया कि सच्चे अर्थ में निष्पाप रहने के लिए सुख और सुविधा के लालच को नियम-भंग नहीं करने देना चाहिए। लोभ को मर्यादा में रखना चाहिए। वे ऐसा न कर सके होंगे या अन्य कारणों न सिर्फ सेवा शर्तों का उल्लंघन कर बैठे होंगे और न निकल पाने की बुरी स्थिति में फंसते चले गये होंगे। विपक्षी गठबंधन को कम-से-कम ऐसे अधिकारियों के लिए, उनकी आत्म घोषणा (Self-Disclosure) के आधार पर, आम माफी के किसी-न-किसी रास्ते की घोषणा या इशारा करना चाहिए। कहते हैं हम्माम में सभी नंगे होते हैं। नेताओं के हम्माम में कोई दीवार नहीं होती है। उनका इधर-उधर होना आम लोगों को भी दिखता रहता है। कुर्सीबद्ध नौकरशाहों के हम्माम की दीवारें बहुत अपारदर्शी होती हैं, उनका इधर-उधर होना, निष्ठा बदलना किसी आम आदमी को नहीं दिखता है।   

भ्रष्टाचारी बिल्कुल आश्वस्त हैं। सरकार भ्रष्टाचारियों या भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं है, उनके अपने दल से बाहर रहने से खफा रहती है। संस्कृति और संस्कार की बड़ी-बड़ी बातें अपनी जगह ‘शीरीमानों’ के तो मुहं तक नहीं खुलते, जुबान हिलती तक नहीं। क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भारतीय जनता पार्टी को दुनिया के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी राजनीतिक दल में के रूप में विकसित होने की खुली छूट दे रखी है? कहाँ हवा में उड़ गया चाल-चरित्र-चेहरा से महिमा-मंडित संकल्प जो भय-भूख-भ्रष्टाचार से संघर्ष करने चला था! सुख और सुविधा की सीढ़ी का हत्था पकड़ते ही श्रीमान श्रीहीन हो गये! अचरज होता है, नियमित रूप से मातृ-वंदना करनेवालों की मातृ-भक्ति की अपराजेय खामोशी के उदाहरणों को देखकर।    

यह लोकतंत्र है। लोकतंत्र नर को नारा लगाते-लगाते नारायण होने का रास्ता देता है, नराधम हो जाने को बरदाश्त नहीं करता है। सागर में गोता लगाइये या शिखर पर चढ़कर सूरज को पकड़ लीजिये, लोकतंत्र सागर से शिखर तक आवाजाही की अपरंपार सुविधा देता है। लोकतंत्र जनविरोधी रुझानों की निरंतरता को एक हद के बाद कभी बरदाश्त नहीं करता है। तीन तेरह का तिकड़म ताल बहुत दिन तक साथ नहीं देता है।                

राजनीतिक लाभ बटोरने के लिए सामाजिक ही नहीं हर तरह के अन्याय और संसाधनिक असंतुलन को बढ़ाने और सामाजिक शांति को बिगाड़ने से, यह सरकार कभी परहेज नहीं करती है। लगता है इसके मिजाज में किसी भी लोकतांत्रिक मूल्य के लिए कोई सम्मान नहीं है। अराजकीय कारक और कारण (Non State Actor And Factor) पर कोई रोक नहीं लगाती है। अधिकार की बात करनेवालों के विरुद्ध तरह-तरह के हथकंडे आजमाती रहती है। जो सरकार रोजी-रोजगार का महत्व न समझे, उस से किसी भी प्रकार के न्याय की उम्मीद अपने को धोखा में रखना है। ‘धोखा बाजार’ किसी-न-किसी  दिन उठेगा जरूर। 

लोकलुभावन राजनीति के अनुरूप  बार-बार अपने को ‘तीसरे के रूप’ में पेश करते हुए अपने नाम की गारंटी देना क्या दर्शाता है? यह खतरनाक प्रवृत्ति है। अपनी बात को ‘किसी तीसरे की बात’ के रूप में पेश करने या दिखाने की प्रवृत्ति में आत्म-विच्छिन्नता का (Dissociative Identity Disorder — DID) व्यक्तित्वगत दोष (Illeism) होता है। इस दोष को उच्च स्तर की भाषण कला,  शब्द-निपुणता समझना भूल है। इस देश में संविधान की गारंटी नहीं बची है क्या! अगर हिफाजत हो तो, देश के नागरिकों के लिए संविधान की गारंटी ही काफी है। कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया कायम है। उम्मीद की जानी चाहिए, संवैधानिक गारंटी की हिफाजत होगी, अन्याय को चुनौती देने के लिए इस कठिन काल में न्याय यात्रा जारी है।  

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)