शंभुनाथ की आलोचना दृष्टि

पुनर्निर्माण के लिए आशा से संवाद 

डॉ. शंभुनाथ
i. डॉ. शंभुनाथ लंबे समय से साहित्य में सक्रिय हैं और अभी लंबे समय तक उन्हें सक्रिय रहना है। इस समय हिंदी समाज और साहित्य को उनके बेहतर रचनात्मक अवदान की प्रतीक्षा है। समग्र अभी आया नहीं है, स्वाभाविक है कि कुछ भी समग्रत: कहना न तो उचित है, न ही प्रासंगिक। इस समय वे अपनी रचनात्मकता के अध-बीच में हैं। यही वह समय है जब उनके रचनात्मक व्यक्तित्व का, उनके रचनात्मक दृष्टिकोण और विवेक का, उनके कार्यों का मध्यावलोकन किया जाना आवश्यक है। कुछ बुनियादी मुद्दों पर गौर करने से किसी के रचनात्मक व्यक्तित्व को समझा जा सकता है, जैसे अतीत के प्रति उसका क्या दृष्टिकोण है। वर्तमान का विश्लेषण वह कैसे करता है। भविष्य के लिए वह किस प्रकार का संदेश सँजोता है। उसकी विश्वदृष्टि और आत्म दृष्टि में कितनी संगति है। अपने समय में उपलब्ध संवेदना और ज्ञान के संसार से उसका कितना परिचय है, परिचय की कितनी उत्सुकता है; उनमें से कितने को ग्रहण करता है और अपनी ओर से उसमें क्या जोड़ता है। उसके ज्ञान-प्रसार और भाव-प्रसार का आनुपातिक अंतस्संबंध कैसा है। बुनियादी दृष्टिकोण को बचाये रखते हुए अपने पूर्वग्रह को अतिक्रमित करने में वह आत्म-संघर्ष और रचनात्मक संघर्ष की प्रक्रियाओं से किस तरह जुड़ता है। युवा और कनिष्ठों से उसका रागात्मक और रचनात्मक संबंध भी रचनाकार व्यक्तित्व को समझने में मदद करता है। उसका मूल संदेश क्या है और समाज में अपने संदेश को ले जाने के लिए किन उपकरणों का सहारा लेता है।

 ii. पहले डॉ. शंभुनाथ के रचनात्मक कार्यों की संक्षिप्त सूचना : साहित्य और जनसंघर्ष (1980), तीसरा यथार्थ (1984), मिथक और आधुनिक कविता (1985), प्रेमचंद का पुनर्मूल्यांकन (1988), रामचंद्र शुक्ल और बौद्धिक उपनिवेशवाद की चुनौती (1988), दूसरे नवजागरण की ओर (1993), धर्म का दुखांत (2000), संस्कृति की उत्तरकथा (2000), दुस्समय में साहित्य (2002), हिंदी नवजागरण और संस्कृति (2004) उनकी आलाचना पुस्तकें हैं, इसके साथ ही मिथक और भाषा (1980), भारतेंदु और भारतीय नवजागरण (1986), राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन और प्रसाद (1989), जातिवाद और रंगभेद (1990), गणेश शंकर विद्यार्थी और हिंदी पत्रकारिता (1991), राहुल सांकृत्यायन : अंतर्विरोधों में लय (1993), हिंदी नवजागरण और बंगीय विरासत (दो खंडों में, 1993), आधुनिकता की पुनर्व्याख्या (2002), सामाजिक क्रांति के दस्तावेज (दो खंडों में, 2004) इत्यादि उनकी संपादित पुस्तकें हैं। इसके अतिरिक्त संस्कृति कर्मी के रूप में भी उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

 iii. सभ्यता के आत्मचरित में मानवीय-मूल्यों के लिए अपेक्षित अवसर बनाने की गहरी नागरिक बेचैनी और गहन आलोचनात्मक संघर्ष के साथ शंभुनाथ की आलोचना इस दुस्समय में आशा से संवाद करती है। उनके आलेखों में कबीर के समय से लेकर आज तक के सृजन-संदर्भों की टोह लेते हुए समकालीन चुनौतियों को पहचानने के साथ ही उससे जूझने की कोशिश है। इन चुनौतियों की गुत्थियों को खोलने के क्रम में शंभुनाथ उसके साथ आलोचनात्मक संबंध विकसित करते हैं। वे संस्कृतिहीन आधुनिकता और आधुनिकताहीन संस्कृति के दबाव से समाज के झुंड में बदलते जाने को रेखांकित करते हैं। उनकी चिंता है कि क्या आक्रमणकारी पश्चिमी सभ्यता और कट्टरतावादियों की झुंड-राजनीति से अपने `व्यक्ति', `विवेक' और `अंत:करण' को खो जाने से बचा लेना संभव होगा?

iv. औपनिवेशकता (आंतरिक और बाह्य) से मुक्ति के लिए भारतीय समाज के आंतरिक और बाह्य संघर्ष की परंपरा है। कठिनाई यह रही है कि आंतरिक और बाह्य औपनिवेशिक शक्तियों के बीच, कई बार जान-बूझकर और कई बार स्वार्थ के साझेपन के दबाव में, तो सहकारी संबंध बन जाता है लेकिन इनके खिलाफ संघर्ष करनेवाली आंतरिक और बाह्य शक्तियों और परंपराओं के बीच संवाद का अवसर कम होता जाता है। समतामूलक समाज का सपना देखनेवाले साहित्य के लिए यह जरूरी है कि आंतरिक और बाह्य उपनिवेश के खिलाफ संघर्ष करनेवाली आंतरिक और बाह्य शक्तियों और परंपराओं के बीच संवाद का अधिकतम अवसर बनाने के लिए रचनात्मक संघर्ष करे। आज दलित आवाज हिंदी साहित्य में एक जरूरी आवज है, इसे समाज में ले जाना जरूरी है। इस जरूरी काम में मददगार परंपराओं के बारे में नई समझ विकसित करने की जरूरत है। आंतरिक उपनिवेश से मुक्ति के संघर्ष में वे कबीर के साहित्य को दलित आत्मपहचान के संघर्ष का एक मुख्य वैचारिक स्रोत मानते हैं। उनके अनुसार दलित साहित्य अधिक समृद्ध हो सकता है यदि कबीर की प्रेरणा से `आत्मपहचान' और `अपृथकता' के `विरुद्धों के युग्म' को समझा जाए। वे यह भी मानते हैं कि तुलसीदास ने अपने ब्राह्मण संस्कारों की सीमा में कबीर की ही तरह भक्ति को तत्युगीन ह्रासशील सामंती व्यवस्था के विरोध में प्रतिष्ठित किया। क्योंकि तुलसी की एक आँख में समाज का यथार्थ था, दूसरी आँख में उसका स्वप्न। कबीर की दलित दृष्टि को समग्रतापरक मानते हुए वे कबीर के सांसकृतिक महाविद्रोह को एक व्यक्तिगत उपलब्धि मानने से अधिक उस युग में घटित हो रहे विस्तृत जागरण का चिह्न मानते हैं। कबीर की सोच में दलितों का सदियों से दबा आक्रोश और लोक संस्कृति की शक्ति को रेखांकित करते हैं। कबीर में दलित आत्मपहचान की अवधारणा को खास तरह की वैयक्तिकता के मानवीय एहसास की ओर ले जानेवाली मानते हैं और इसे पृथकतावाद से मुक्त मानते हैं। पृथकतावाद से मुक्त मानना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि आत्मपहचान की पश्चिमी अवधारणा में पृथकता के बोध पर जोर होता है, जबकि कबीर की आत्मपहचान का संबंध वे अपृथकता से जोड़ते हैं।

v. बाह्य उपनिवेश से मुक्ति के सवाल पर भारतेंदु को ठीक से समझने का प्रयास करते हैं। भारतेंदु की अँधेर नगरी में राजा को सूली पर चढ़ाये जाने की व्याख्या वे 19वीं सदी के भारत में औपनिवेशिकता से मुक्ति के लिए एक वृहत्तर संघर्ष के आह्वान के रूप में करते हैं। वर्ग समाज में वास करता है। सामाजिक जमीन को समझे बिना वर्ग के आधार को समझना, कम-से-कम भारतीय संदर्भ में, और उसे अपनी किन्हीं कार्रवाइयों का हिस्सा बनाना निरर्थक ही साबित हुआ है। आदर्श और यथार्थ के संबंध को सामाजिक जमीन और वर्गीय आधार के संबंध के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। प्रेमचंद युग के आदर्शवाद को मध्यवर्ग के नेतृत्व में चले राष्ट्रीयता आंदोलन और यथार्थवाद को कृषक-मजदूर वर्ग के जीवन संघर्ष से जोड़ते हुए शंभुनाथ बताते हैं कि मध्यवर्ग के पात्रों के संदर्भ में `हृदय परिवर्तन' की पद्धति के और निम्नवर्गीय पात्रों के संदर्भ में `त्रासदी की पद्धति' के इस्तेमाल को उसके अंतर्विरोधों से नहीं बल्कि भारतीय समाज को समग्रता में देखने के प्रयत्न से जोड़कर देखना जरूरी है। इस तरह शंभुनाथ आदर्शवाद और यथार्थवाद की सामाजिक जमीन के साथ उसके वर्गीय आधार को महत्त्व देते हैं। इस तरह वे न सिर्फ प्रेमचंद साहित्य को समझने की नई दृष्टि का प्रस्ताव देते हैं बल्कि इस दृष्टि से प्रेमचंद युग के साथ ही हमारे अपने समय के बहुस्तरीय भारतीय यथार्थ को भी देखने का एक वैकल्पिक नजरिया देते हैं।

vi. आलोचना को एक स्तर पर छँटाई का काम तो करना ही पड़ता है। हिंदी आलोचना में छँटाई के साथ ही बीनाई की सामान्य प्रवृत्ति रही है, यह अक्सर `या' का प्रस्ताव लेकर आती है। शंभुनाथ बीनाई की प्रवृत्ति से संघर्ष करते हुए बुनाई के महत्त्व को सामने लाने के लिए आलोचनात्मक संघर्ष करते हैं और हिंदी आलोचना की `या' प्रवृत्ति के बदले `और' का प्रस्ताव करते हैं। उदाहरण के लिए वे `प्रेमचंद या प्रसाद' की नहीं `प्रेमचंद और प्रसाद' की बात करते हें। अकारण नहीं है कि शंभुनाथ भारतीय संस्कृति में निहित विरुद्धों के सामंजस्य को `विरुद्धों के युग्म' रूप में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। `सर्वसमावेशी' कहकर बुनाई की जगह बीनाई के प्रस्ताव को उड़ाने की कोशिश करना संस्कृति की बुनियादी प्रवृत्ति के विरुद्ध जाना है। शंभुनाथ प्रेमचंद साहित्य के महत्त्व को तो जानते ही हैं, छायावाद के महत्त्व को भी खूब पहचानते हैं। शंभुनाथ बताते हैं कि `शैव दर्शन' `कामायनी' की प्राचीन प्रेरणा है,`कामायनी' का दर्शन नहीं। `कामायनी' में मनुष्यता को प्रदत्त केंद्रीयता के हवाले से उसके `दर्शन' को नवजागरण की मानववादी और बुद्धिवादी धाराओं के प्रभाव के परिप्रेक्ष्य में अन्वेषित किये जाने पर बल देते हैं। शंभुनाथ जोर देकर कहते हैं कि युरोपीय जनतांत्रिक क्रांति और रूस की समाजवादी क्रांति प्रसाद के भारत में समरसता के भाववादी ढाँचे में अभिव्यक्ति पाती है तो इतिहास की इस प्रक्रिया को सिर्फ प्रसाद की सीमा मानना उचित नहीं होगा। मनुष्य, मनुष्य से जातीयता, जातीयता से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व भावना की ओर अग्रशील प्रवृत्ति को सामने रखते हुए शंभुनाथ छायावाद के `समग्र सांस्कृतिक अभिप्राय' को नवजागरण के आलोक में पकड़ने का प्रस्ताव करते हैं। शंभुनाथ पंत को सर्वाधिक प्रखरता से पुनरुत्थानवाद का विरोध करनेवाला कवि मानते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी, राहुल सांकृत्यायन, सियारामशरण गुप्त और रामवृक्ष बेनीपुरी के साहित्यिक महत्त्व को अलग कोण से देखते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्य को छायावाद के बाहर राष्ट्रीय धारा में रखने को भ्रामक मानते हैं। शंभुनाथ कहते हैं, आज हम `डी-जनरेशन' के दौर से गुजर रहे हैं और पुराने युग का नवजागरण-प्रेरित राष्ट्रीय आदर्शवाद क्षत-विक्षत एवं विकृत हो चुका है।

vii. शंभुनाथ राहुल सांकृत्यायन के महत्त्व को नवजागरण और वामपंथी आंदोलन के सेतु के रूप में पहचानते हैं। वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि विवेकानंद की वैचारिक पृष्ठभूमि वेदांत पोषित आत्मवाद है जबकि राहुल की वैचारिक पृष्ठभूमि बौद्ध धर्म पोषित अनात्मवाद है। दोनों अलग-अलग परंपराओं से आकर भी बुद्धिवाद, राष्ट्रीय जागरण और लोकतंत्र जैसे नवजागरण के समान लक्ष्यों से प्रतिबद्ध हैं। विवेकानंद का परिप्रेक्ष्य लेते हुए राहुल सांकृत्यायन के संदर्भ में की गई शंभुनाथ की टिप्पणी बहुत अर्थपूर्ण है और हमारी आज की कतिपय समस्याओं को समझने की दृष्टि देती है। नवजागरण के इन महान लक्ष्यों से प्रतिबद्ध होने के कारण ही विवेकानंद और राहुल सांकृत्यायन देश की धर्मनिरपेक्ष ताकतों की प्रेरणा बने। राहुल के संदर्भ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम, वामपंथी आंदोलन और आधुनिक वैज्ञानिक विकास में हिस्सा लेते हुए भी उनका संबंध नवजागरण से बना हुआ था। वह पिछड़े हुए समाज में अधूरे और कच्चे नवजागरण से चिंतित थे, क्योंकि इसका सीधा असर भावी विकास और क्रांतिकारी चेतना पर पड़नेवाला था। आधुनिक भारत के लोकतांत्रिक और वामपंथी नेताओं ने नवजागरण के बचे हुए कार्यभार की उपेक्षा की। इसी का नतीजा है कि विकास और क्रांतिकारी चेतना के शिखर पर संप्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रीयतावाद, तथा दूसरी वैचारिक संकीर्णताओं का इतना बड़ा तांडव मचा हुआ है।

viii. बहुलतावादी भारतीय समाज में `मिश्रित अंतर्दृष्टि' को `मिश्रित समाज' में `विरुद्धों की एकता' के सांस्कृतिक प्रतिफलन के रूप में देखते हुए शंभुनाथ आलोचनात्मक और पुनर्निमाणत्मक `मिश्रित अंतर्दृष्टि' को एक विकल्प के रूप में देखते हैं। आधुनिकता के महाख्यान को मुक्तिबोध के जरिए स्पष्ट करते हैं। `जातीय', `मानवीय' और `क्रांतिकारी' के बीच दीवार खड़ी करने को वे पूँजीवाद की साजिश मानते हैं। इस साजिश को समझने और भेदने में नागार्जुन को जातीय, मानवीय और क्रांतिकारी कवि के रूप में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे बताते हैं कि रामविलास शर्मा ने मुक्ति के ऐसे महाख्यानों को पहचाना, जो उत्तर-उपनिवेशवाद की दिशा स्पष्ट करते हैं। सूचना और तकनीकी क्रांति किसके द्वारा संचालित होगी बाजारवाद के द्वारा या किसी उच्चतर आलोचनात्मक, नैतिक और साहित्यिक-सौंदर्यशास्त्रीय बोध द्वारा, बीसवीं सदी के अनुत्तरित सवालों में इसे प्रमुख मानते हैं। वे याद दिलाते हैं कि मनुष्य की आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि, विकासशील नैतिकताबोध, जनतांत्रिक चेतना और पाश्विक भावजगत के मानवीयकरण की प्रवृत्ति बीसवीं सदी की आधुनिकता की ऐसी देन हैं, जिनके इक्कीसवीं सदी में खो जाने पर सभ्यता विकलांग हो जायेगी।

ix. प्रेमचंद की कहानियों और भारत में यथार्थवाद के विकास को संगामी प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। उनकी मान्यता है कि भारत में राष्ट्रवाद का विकास बुद्धिवादी, राष्ट्रीय, आधुनिक और जनवादी राहों से हुआ है। इसलिए ये सभी तत्त्व प्रेमचंद के कथा साहित्य में मिलते हैं। प्रेमचंद साहित्य को लेकर आलोचना की खंडित दृष्टि का संकेत करते हुए शंभुनाथ कहते हैं कि यह एक विडंबना ही है कि आलोचकों के एक वर्ग को आदर्शवादी मानवतावाद की प्रेरणाओं के कारण `पंच परमेश्वर', `बड़े घर की बेटी', `अलग्योझा', `सुजान भगत', जैसी कहानियाँ पसंद आई तो एक दूसरे वर्ग को यथार्थवादी तेवर की वजह से `शतरंज के खिलाड़ी', `दूध का दाम', `पूस की रात', `सद्गति', `कफन' जैसी कहानियाँ। दलित चरित्रों की सृष्टि के कारण प्रेमचंद को ब्राह्मण-विरोधी और घृणा का प्रचारक बताये जाने का संदर्भ लेते हुए शंभुनाथ ने ध्यान दिलाया है कि प्रेमचंद की `राष्ट्रीयता की पहली शर्त्त वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है। `दूध का दाम' के उल्लेख से शंभुनाथ लिखते हैं, कि प्रेमचंद ने दलितों की हीन अवस्था का ही नहीं बल्कि उनकी बेचैनी और प्रतिरोध को भी अपनी रचनात्मकता हिस्सा बनाया है। स्त्री विमर्श के एक बड़े हिस्से में वैश्वीकरण केप्रति स्वागत का भाव है। शंभुनाथ इसे संगत नहीं मानते हैं। उत्तर-आधुनिक स्त्री विमर्श को नहीं बल्कि नवजागरण के सुधारों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे स्त्रियों के वर्ग अस्तित्व को भी विचारणीय मानते हैं। इसके साथ ही वे उच्च और मध्यवर्गीय स्त्रियों की जिंदगी में दासता के पुराने और नए दोनों रूप मौजूद पाते हैं। `स्वतंत्रता' और `सुरक्षा' दोनों एक साथ चाहने को वे विडंबनापूर्ण मानते हैं। प्रेमचंद के एक आरंभिक उपन्यास `वरदान' के एक दृश्य की चर्चा करते हुए कहते हैं कि किस तरह उसमें एक मध्यवर्गीय स्त्री विरजन अपने घरेलू कैदखाने की खिड़की से अल्लसुबह काम पर जा रही स्वच्छंद मजदूर औरतों को देखती है -- ``स्त्रियाँ अनाज का खेत काटने जा रही थीं। झाँक कर देखा तो दस-बारह स्त्रियों का एक गोल था। सबके हाथों में हँसिया, कंधों पर गठियाँ बाँधने की रस्सी और सिर पर भुने हुए मटर की छबड़ी थी। ये इस समय जाती थीं, कहीं बारह बजे लौटेंगी। आपस में गाती चुहलें करती चली जाती थीं।'' इस वर्ग की स्त्रियों का स्त्री विमर्श वही नहीं होगा, जो बौद्धिक महत्त्वाकांक्षाओं, वाग्विलास और किटी पार्टी तक सीमित संपन्न महिलाओं का स्त्री विमर्श है।' वे इसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं कि प्रेमचंद परिवार और विवाह के परंपरागत अजनतांत्रिक रूप के विरोधी थे, न कि उनके लिए परिवार और विवाह ही अप्रासंगिक थे। प्रेमचंद का संदर्भ भी है कि, ``जो विद्या पढ़कर पुरुष रोटी कमाता है और इसीलिए स्त्री को अपनी लौंडी समझता है, वही विद्या स्त्रियाँ भी सीखना चाहती हैं !'' (विविध प्रसंग-3)। प्रेमचंद को वे `दो बराबरों की अंतर्निर्भरता' के पक्षधर के रूप में देखते हैं। और इसे भारतीय नवजागरण का निष्कर्ष मानते हैं।

x. कहना न होगा कि शंभुनाथ `समग्र सांस्कृतिक अभिप्राय' को नवजागरण के आलोक में पकड़ने का प्रस्ताव करते हैं। धर्म, राष्ट्रीयता, स्व-चेतना, विश्वदृष्टि, साहित्य और भाषा दृष्टि के संदर्भ में शंभुनाथ नवजागरण के कई सूत्रों को आज के संदर्भ में भी अर्थपूर्ण मानते हैं। बहुलतावादी भारतीय समाज में `मिश्रित अंतर्दृष्टि' को `मिश्रित समाज' में `विरुद्धों की एकता' के सांस्कृतिक प्रतिफलन के रूप में देखते हुए शंभुनाथ आलोचनात्मक और पुनर्निमाणत्मक `मिश्रित अंतर्दृष्टि' को एक विकल्प के रूप में देखते हैं। शंभुनाथ बताते हैं, `मुक्तिबोध का महत्त्व इसलिए भी बना रहेगा कि इस कवि ने अपने देश और उसके उन करोड़ों लोगों से बेइंतहा प्यार किया, जिन्होंने समाज के शोषणमुक्त भविष्य की रचना के लिए अपना जीवन एक कठिन संघर्ष में बदल दिया था। यह विडंबना ही है कि जिसने लोगों को जानने में अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, उसे लोगों ने मरने के बाद भी नहीं जाना।' शंभुनाथ बताते हैं, `बड़ा मुश्किल होता जा रहा है कि किसी व्यक्ति में अब `स्थानीय' या `जातीय' के साथ-साथ `मानवीय' और `क्रांतिकारी' बोध भी हो। इस सदी के उत्तरार्ध की सबसे बड़ी पूँजीवादी साजिश `जातीय', `मानवीय' और `क्रांतिकारी' के बीच दीवारें खड़ी कर देना है। `कामायनी' के दर्शन को कभी सिर्फ `दार्शनिकता के ऊपरी आभास'(रामचंद्र शुक्ल), कभी `रहस्यवादी जीवन दर्शन' (नंददुलारे वाजपेयी) और कभी `रहस्यात्मक आनंदवाद' (गजानन माधव मुक्तिबोध) से जोड़कर देखने को नाकाफी मानते हुए शंभुनाथ बताते हैं कि `शैव दर्शन' `कामायनी' की प्राचीन प्रेरणा है,`कामायनी' का दर्शन नहीं। `दर्शन' तो `रहस्य' का अनावरण है। इसलिए, `दर्शन' और `रहस्य' के सह-अस्तित्व को आत्मव्याघाती मानते हुए शंभुनाथ `कामायनी' में मनुष्यता को प्रदत्त केंद्रीयता के हवाले से उसके दर्शन को नवजागरण की मानववादी और बुद्धिवादी धाराओं के प्रभाव के परिप्रेक्ष्य अन्वेषित किये जाने पर बल देते हैं। `कामायनी' के दर्शन में जयशंकर प्रसाद के कुछ वैयक्तिक और धार्मिक पूर्वग्रह के होने को स्वीकार करते हुए भी `कामायनी' को उसकी समग्रता में सामंतवाद, पूँजीवाद और सम्राज्यवाद के विरोध का महाकाव्य मानते हैं। छायावाद को व्यक्तिनिष्ठ मामला मानते हुए भी उसमें व्यक्ति से मनुष्य, मनुष्य से जातीयता, जातीयता से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व भावना की ओर अग्रशील प्रवृत्ति को सामने रखते हुए शंभुनाथ प्रस्तावित करते हैं कि `यदि छायावाद को उसके सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना हो तो लाक्षणिकता, चित्रमयी अभिव्यंजना, उन्मुक्त छंद, रहस्यवाद, प्रकृति का मानवीकरण, सूक्ष्म सौंदर्यान्वेषण, इतिवृतात्मकता से विद्रोह जैसी बातों का अतिक्रमण कर उसके समग्र सांस्कृतिक अभिप्राय को पकड़ना होगा।' इस परिदृश्य में नागार्जुन के महत्त्व को रेखांकित करते हुए मैथिली संस्कृति में रचे-बसे नागार्जुन को व्यापक जातीय, मानवीय क्रांतिकारी कवि के रूप में, इस सदी के उत्तरार्ध के हिंदी के सबसे बड़े कवि के रूप में पहचानने का प्रयास करते हैं। अपने समय के हर वर्चस्ववाद से टकरानेवाले नागार्जुन को सच्चे अर्थों में जनकवि मानते हुए शंभुनाथ कहते हैं, `यदि बीसवीं सदी के प्रथम चार दशकों के भारत को जानना हो तो प्रेमचंद को पढ़ना होगा और उत्तरार्ध के भारत को जानना हो तो नागार्जुन को।'

xi. शंभुनाथ बताते हैं, रामविलास शर्मा ने भले ही लोकजागरण, पूँजीवादी विकास, हिंदी जातीय गठन और हिंदी नवजागरण का बढ़-चढ़ कर वर्णन किया हो, पर भूलना नहीं होगा कि वे पुनरुत्थानवादी दंभ के संकीर्ण प्रसंगों में नहीं गए। उनकी हिंदी जाति की अवधारणा एक बंद और अंधी अवधारणा नहीं है, उसमें पर्याप्त `स्पेस' है। उन्होंने जो बड़ी बौद्धिक परियोजनाएँ हाथ में लीं, उनके आधार पर कोई चाहे तो उन्हें मार्क्सवाद से प्रेरित आधुनिकता का सबसे बड़ा भारतीय महावृत्तांतकार कह सकता है। आगे वे यह भी कहते हैं कि रामविलास शर्मा का परंपरा-विवेक कहीं-कहीं अतिरंजनाओं के बावजूद भाषा, संस्कृति और साहित्य को देखने की नई दृष्टि देता है। वे यह मानते हैं कि रामविलास शर्मा ने परंपरा का सचेत मूल्यांकन करते हुए साम्राज्यवाद, सामंतवाद और पूँजीवाद से कड़ा वैचारिक संघर्ष किया और उन्होंने विभिन्न युगों के मनुष्य जीवन के मुख्य संकट को पहचाना और यह दिखाने की कोशिश की कि समाज ने कैसे उनका सामना किया। विभिन्न युगों के मनुष्य जीवन के मुख्य संकट को पहचानने और समाज के द्वारा उनका सामना करने की पद्धति एवं हौसले को संवेदनात्मक स्तर पर प्रत्यक्ष करने को शंभुनाथ साहित्य के दो केंद्रीय लक्ष्य के रूप में स्थापित करते हैं। वे रामविलास शर्मा को हाशिए पर फेंके जा रहे मनुष्य के संदर्भ में अजेय और विकासशील सर्वहारा मानवतावाद का एक जीता जागता कभी अंत न होनेवाला इतिहास प्रस्तुत करनेवाला मानते हुए उन्हें मुक्ति के महाख्यानों को पहचाननेवाला और उत्तर-उपनिवेशवाद की दिशा स्पष्ट करनेवाला मानते हैं। विखंडन और विपर्यय के दौर से गुजर रहे हिंदी समाज के संदर्भ में रामविलास शर्मा के काम का महत्त्व वे बड़ी गंभीरता से रेखांकित करते हैं। समाज में व्याप्त परा-आलोचनात्मक माहौल और मसखरों से भरे हुए वातावरण में रामविलास शर्मा के आलोचना कार्य को वे एक बड़ी उपलब्धि के रूप में स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि रामविलास शर्मा का चिंतन जैसे-जैसे विकसित और बहुविस्तारात्मक होता गया, वे अकेले होते गये। अपनी विचारधारा में ही उनके अप्रासंगिक होते जाने की विडंबना को याद करते हुए कहते हैं कि उनके चाहनेवालों की संख्या बहुत बड़ी होने के बावजूद, उनको जानने मानने ओर उनके विचारों को राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवहार में उतारनेवाले लोगों के कम होना त्रासद है। रामविलास शर्मा को शंभुनाथ समय से काफी आगे के विचारक के रूप में याद करते हैं। वे विशवास से कहते हैं कि रामविलास शर्मा के लेखन में भविष्य के मार्क्सवाद का परिप्रेक्ष्य हैं। इक्कीसवीं सदी में, दस या बीस साल बाद, पिछली गलतियों से सीखकर जब भी हिंदी जाति की चेतना के द्वारा भारतीय जीवन की अखंडता और जनता के जनतंत्र के लिए बहुराष्ट्रीय साम्राज्यवाद, उदारीकरण और फासीवाद के उभारों के विरुद्ध कोई नया राष्ट्रीय जन-आंदोलन खड़ा होगा, रामविलास शर्मा का साहित्य उस समय का एक बड़ा प्रेरणास्रोत बनेगा। मार्क्सवाद के विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाली जातियों की सामाजिक चेतना में परिवर्तन लाने में सफलता को समाजों की राष्ट्रीय परंपराओं और विकासशील यथार्थों के साथ मार्क्स के विचारों की अर्थपूर्ण अंतर्क्रिया से जोड़ते हुए शंभुनाथ निष्कर्ष निकालते हैं कि मार्क्सवाद, जिस समाज के लोगों की आकांक्षाओं से जितना जुड़ सका, उसका स्थानीय परंपराओं और परिस्थितियों के अनुसार जितना रचनात्मक विनियोग हो सका, उस समाज में वह उतना सफल हुआ।

xii. मार्क्सवाद के रचनात्मक विनियोग के नजरिये से विचारधारात्मक संघर्ष के संदर्भ में वे इस बात को लक्षित करते हैं कि रामविलास शर्मा के भीतर से भारत का संपूर्ण इतिहास ही नहीं, हिंदी समाज का ठेठ आदमी भी लड़ रहा था। रामविलास शर्मा के द्वारा मार्क्सवादी विचारधारा के कट्टरतावादी विनियोग की जगह रचनात्मक विनियोग को वे अधिक संगत बताते हैं। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में `सर्वहारा की तानाशाही' की धारणा को `सर्वहारा के जनतंत्र' के द्वारा बदले जाने को वे महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इस संदर्भ में वे राष्ट्रीय जागरण की प्रासंगकिता स्पष्ट करते हुए हिंदी की एक नई भूमिका चिह्नित करनेवाले आलोचक के रूप में याद करते हैं। रामविलास शर्मा के काम को वे इसलिए भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं कि उन्होंने साहित्य के सिकुड़ते सामाजिक अर्थ का पुनराविष्कार किया, उसे छोटी परिधि से निकालकर बहुविस्तारात्मक बनाया। उनकी आलोचना-दृष्टि में विकासमानता और `इंटेग्रेटी' की ओर संकेत करते हुए बताते हैं कि रामविलास शर्मा का आलोचक मन नदी का द्वीप नहीं था, जिसका आकार हर नई लहर के से बदल जाए। वह खुद एक बहती नदी था, जो उतनी ही नहीं होती, जितनी एक घाट से दिखती है।

xiii. आधुनिकता की परियोजनाएँ अधूरी पड़ी हैं। नये बाजारवाद के साथ मिलकर पुराने धर्म का पाखंड और विभेदक तत्त्व जीवन में पहले से अधिक जगह घेरने लगा है। दलित और स्त्री सवाल अधिक तीखे होते जा रहे हैं। रोजगारहीन वृद्धि से जनमी हताशा यौवन के सहज उल्लास को बीच बाजार लूटकर उसे विध्वंसक उन्माद में बदल दे रही है। ऐसे में सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माण का काम एक पल की भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता है। अनुभव बताता है कि हमारे व्यापक प्रगतिशील-जनवादी सांस्कृतिक अभियान की पूरी सक्रिय सामाजिक स्वीकृति बन नहीं पाई। क्या इसके पीछे नवजागरण के सवालों के लिए हमारे सांस्कृतिक अभियान में समुचित जगह नहीं बन पाने को भी चिह्नित नहीं किया जा सकता है ? शंभुनाथ भारतीय आधुनिकता के पूरे सांस्कृतिक अभिप्राय को समझने के लिए अधूरे पड़े नवजागरण के बिखरे तर्कों को समेट कर उसे आधुनिकता की अधूरी परियोजना से जोड़ते हुए धर्मनिरपेक्ष जनतंत्रीय सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के सवाल हल करने के प्रयास के क्रम में अनिवार्य आलोचना दृष्टि का विकास करते हैं। शंभुनाथ की आलोचना न तो `त्रासदी का प्रसन्न वृतांत' है और न ही परंपरा में `पलीता' है बल्कि परंपरा और प्रगति का अनिवार्य अंतस्संयोजन है। सांस्कृतिक पुनर्निर्माण शंभुनाथ की आलोचना का बीज शब्द है। कहना न होगा कि जिसका पुनर्निर्माण करना होता है उसका पुनरआविष्कार भी करना ही होता है। सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की बेचैनी, दायित्व और चेतना को आँचल के दीप की तरह लेकर वे समाज से साहित्य में साहित्य से समाज में, यहाँ से वहाँ की निरंतर यात्रा करते रहते हैं।

xiv. अतीत को वे अखंड रूप में देखते हैं, वर्तमान का विश्लेषण वे अतीत के खंडन के लिए नहीं, बल्कि भविष्य को अधिक मानव-अनुकूल के लिए करते हैं, संदेश यह कि विरुद्धों के बहिष्करण (Divergence) में नहीं (Convergence) अभिसरण में दुख की दवा है। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में जब भारी असंतुलन ही स्वाभाविक लक्षण बनता जा रहा है शंभुनाथ की विश्वदृष्टि और आत्म दृष्टि में; ज्ञान-प्रसार और भाव-प्रसार में आत्म-सतुलन और संगति है। अपने समय में उपलब्ध संवेदना और ज्ञान के संसार से उनका गहरा परिचय है, इसे परिचय के नवीकरण की उत्सुकता भी कम नहीं है। अपने बुनियादी दृष्टिकोण को बचाने के लिए संघर्ष करते हैं लेकिन अपने किसी पूर्वग्रह को अतिक्रमित करने में भी वे हिचकते नहीं हैं। युवा और कनिष्ठों से उनका रचनात्मक संबंध मित्रवत है। शंभुनाथ के आलोचना कर्म का मकसद भारतीय समाज के सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के लिए रसद जुटाना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आनेवाले दिनों में शंभुनाथ के आलोचना कार्य को हिंदी साहित्य और समाज अधिक गंभीरता से स्वीकार करेगा। शंभुनाथ से सहमत हुआ जा सकता है, असहमत भी हुआ जा सकता है लेकिन उनके वैचारिक प्रस्तावों की अनदेखी नहीं की जा सकती है।

14 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

एक आलेख अमरनाथ शर्मा पर भी लिखें. इसी तर्ज पर. शंभुनाथ से सहमति ही सहमति है, असहमति तो कहीं दिखी नहीं. फिर इस तरह से लेख का अंत क्यों ?

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan ने कहा…

टिप्पणी के लिए आभार। अमरनाथ शर्मा पर भी लेख लिखा ही जाना चाहिए। मैं भी कोशिश करता हूँ। उन पर लिखनेवालों की कमी नही है। इस तरह के लेख अपनी असहमति या सहमति बताने के लिए नहीं लिखे जाते हैं। इस तरह के लेख लिखे जाते हैं, उस लेखक केकाम को समझने के लिए। समझने के बाद सहमति-असहमति की बात उठती है। आप जो भी हों शंभुनाथ से असहमति की आपको जोरदार तलाश क्यों है..!

बेनामी ने कहा…

आपसे बिल्कुल इसी तरह की प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी. सहाहारा के अखबार में जब आपने न एक नाथ पर लिखा था उसी दिन आपने यह यह प्रमाणित कर दिया था कि आप इस नाथ से असहमति का जोखिम उठाए बिना ही आलोचना के क्षेत्र को आलोकित करेंगे. कोलकाता शहर के इस 'गैंगस्टर प्रोफेसर' को जिस तरह से उनके गुर्गे (नौकरी पाने की उम्मीद में) उठाए हुए हैं उन्हें ही यह काम करने दें. आप एक पढे लिखे आदमी हैं आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप मौलिक स्थापनाओं के आधार पर किसी आलोचक का मूल्यांकन करेंगे. अगर रामविलास शर्मा के पीछे पीछे चलने से कोई आलोचक इतना महान हो जाता है तो धन्य है हिन्दी का आलोचना जगत. अरे हाँ, आप को मुझे खारिज करने के लिए यह मैंने- 'गैंगस्टर' शब्द जानबूझ कर दिया है. और यह जुमला मेरा जाना हुआ है कि सहमति और असहमति के लिए हर कोई स्वतंत्र है. शंभुनाथ में मेरी दिलचस्पी नहीं. वे भी एक तरह के रामरतन भटनागर हैं. एक ग्रुप को सक्रिय करके, बाहर के शक्तिशाली लोगों के साथ सम्पर्क रखके ये सज्जन हिन्दी का कितना अहित कर रहे हैं यह देखते हुए मैं उन्हें प्रतिक्रियावादी और अव्वल दर्जे का कैरियरिस्ट मानता हूँ. एक अन्य 'नाथ' का नाम इस लिए लिया था कि वे उन्हीं के रास्ते चलकर 'महानता' की ओर बढे हैं. इन्हीं महानुभावों का प्रताप है कि हिन्दी पढाने वालों में कोई कोई ही ऐसा दिखता है जो साहित्यिक समझ रखता हो. वैसे आपकी मर्जी आप चाहें तो अपने इसी लेख को और अधिक धो-पोंछ के उन्हें और महान बनाएँ और अपना ग्राफ और ऊपर ले जाएँ.

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan ने कहा…

अनाम सर / मैडम, टिप्पणी के लिए आभार। आपकी टिप्पणी का अधिकतर हिस्सा, लगभग सारा ही, शंभुनाथ जी की कार्य-शैली और विश्वविद्यालय की गतिविधियों से संबंधित है। आपकी टिप्पणी कितनी सही है, गलत है इसकी जवाबदेही आपकी है, लेकिन आप तो अनाम हैं! रही बात मेरे लेख की तो मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि शंभुनाथ जी की कार्य-शैली या विश्वविद्यालय की गतिविधियाँ मेरे आलेख का विषय नहीं है। मेरी कोशिश अपनी समझ से शंभुनाथ जी के काम कतिपय पक्ष को पाठकों के सामने लाने की है, मूल्यांकन की नहीं। कौन महानता की कौन-सी मंजिल तय कर रहा है और कैसे-कैसे तय कर रहा है, इसमें भी मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। मैं तो आपका नाम भी नहीं जानता, जानने की उत्सुकता चाहे जितनी भी हो मैं इस मामले में कोई अनुमान नहीं करना चाहता। मुझे आप कितना जानते हैं यह भी नहीं मालूम। यकीन मानिये अपना ग्राफ बढ़ाने की मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं है। अपना ग्राफ बढ़ाने की न तो मुझ में क्षमता है, न योग्यता, दृष्टि तो है ही नहीं। आप शायद न मानें लेकिन सचाई यही है कि ग्राफ बढ़ाने की मुझे कोई जरूरत भी नहीं है। अपना बढ़ा हुआ ग्राफ लेकर मैं क्या करूँगा! ग्राफ कैसे बढ़ता है और ग्राफ के बढ़ने से क्या लाभ होते हैं, यह सब आप बेहतर जानते होंगे। आप शंभुनाथ जी को क्या मानते हैं, यह आपका मामला है। शंभुनाथ जी की कार्य-शैली और विश्वविद्यालय की गतिविधियों पर आपकी टिप्पणी मेरे किसी काम की नहीं है और मुझे लगता है कि पाठकों के भी किसी काम की नहीं है। आप से विनम्र अनुरोध है कि इस आलेख की विषय-वस्तु की परिधि में रहकर टिप्पणी करने की कृपा करें, वह मेरे काम की हो सकती है। धन्यवाद..

mahesh mishra ने कहा…

आप का सहज भाव से दिया गया उत्तर आपकी ईमानदारी को साफ़-साफ़ कह पा रहा है। अनाम महोदय जो भी हों, आपको नीचे गिराने की कोशिश कर रहे हैं, पर वह उनके लिए संभव नहीं है। मुझे चिंता इस बात की है कि आपकी ऊर्जा को नाहक क्षति पहुंचा रहे हैं। आप कृपया ऐसे मतिहीनों के लिए अपना समय बर्बाद न करें। वैसे सच कहें आप अपने उत्तर में भी बहुत स्पष्ट हैं। आपसे मिलने की आकुलता है, दिल्ली आयें तो अवसर अवश्य दें। 09013966123

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan ने कहा…

सर, मनोबल बढ़ाने के लिए आभार। पाठक की राय से क्षति नहीं पहुँचेगी, यकीन रखें। दिल्ली आने का कार्यक्रम कभी बना तो आप से संपर्क करने की कोशिश करूँगा, फिर जैसी सुविधा होगी...। धन्यवाद।

बेनामी ने कहा…

महेश मिश्र जी, आपकी टिप्पणी में एक सहज भोलापन है जिसमें एक विद्वान के प्रति आदर भाव है. प्रफुल्ल जी को गिराने का मेरा कोई इरादा नहीं है. वे हिन्दी की पॉलिटिक्स के थोडे बाहर के आदमी हैं. अच्छा लिखते हैं और हिन्दी के एक खास तरह के लोगों में पॉपुलर भी. कोलकाता में जिन लोगों ने सारी नौकरियों और संस्थानों पर कब्जा जमा रखा है उन लोगों में से एक हिन्दी के आलोचक हैं. उस आलोचक के बारे में ये जिस तरह से लिख रहे हैं उससे मुझे लगा कि ये उस आदमी के प्रोफाइल को बढाने में मदद कर रहे हैं. यह घातक है. ऐसे आदमी जो लिखते हैं रामविलास शर्मा का अनुकरण करते हुए, लेकिन अपने इर्द गिर्द किसी भी सही आदमी को बर्दाश्त नहीं करते, क्या हमें इस तरह से स्वीकार करना चाहिए ? आप कहेंगे लिखे हुए पर ध्यान दीजिए ये व्यक्तिगत बातें हैं जिनसे प्रफुल्ल जी का कुछ लेना देना नहीं है. पर, मैं कहूँगा कि यह करके वे एक साहित्यिक माफिया कल्चर को ही मदद पहुँचा रहे हैं. यह किसी एक आदमी का भी मसला नहीं है. हिन्दी जगत में ऐसे लोग नये लोगों में उन लोगों को प्रमोट करते हैं जो कुपढ लोग हैं और जो हमेशा इनके इर्द गिर्द रहेंगे. हिन्दी में नये लोग आयेंगे कहाँ से सारी जगहों पर इस तरह के डॉन लोग कब्ज़ा किए हुए हैं और उनके गुर्गे उनके यशोगान में लगे हुए हैं. मैं ये सारी बातें आपको इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि आप दिल्ली में रहते हैं और वहाँ से यहाँ के नौजवानों का दर्द समझने लायक सूचनाएँ आप तक नहीं पहुँचती होंगी.

mahesh mishra ने कहा…

अनाम जी, मेरा भोलापन बेवकूफी कहना चाहते हैं आप. पर ऐसा नहीं है.

आपकी शम्भुनाथ जी या और किसी से किसी तरह की परेशानी को आपको बीच में नहीं लाना चाहिए. मेरा यह मानना कतई नहीं है कि व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व को हमेशा अलग करके देखने की कोशिश करनी चाहिए बल्कि मेरा मानना तो यह है कि ये दोनों अपृथकनीय हैं. किन्तु किसी के लिखे को यदि कोई परख रहा है तो आपकी टिप्पणी उसी पर केन्द्रित होनी चाहिए, न कि जिसको परख रहा है उससे लेखक के समीकरण को बिना युक्तियुक्त तर्क के.

बेनामी ने कहा…

महेश जी के तर्क को मैं स्वीकार करता हूँ और इस सिलसिले को यहाँ समाप्त करता हूँ. इस बात को कहना जरूरी है कि मैंने भोलेपन की बात किसी भी तरह से बेवकूफी या किसी नकारात्मक भाव से नहीं की थी. प्रफुल्ल जी इसी तरह की टिप्पणी करते रहें. मेरी शुभकामनाएँ.

jaan ने कहा…

anam saheb pahle apna nam or pahchan rakhiye fir bat kijiye ..........yun pardon me rahkar bat karne ki koi wazah nhi.......

mahesh mishra ने कहा…

धन्यवाद.

बेनामी ने कहा…

लगता है अनाम महोदय ईश्वर के भक्त है

बेनामी ने कहा…

वैसे मेरा नाम सरदार सिंह है, दिल्ली से

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan ने कहा…

अद्भुत ... बेनाम महोदय ने अपना नाम भी बेनाम रहकर ही खोला...!!