इस अकाल बेला में मुक्तिबोध
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इतनी बार मुझसे पूछा गया मुक्तिबोध
स्पर्श कातर स्वप्न की सीढ़ियों पर
हर गली हर चौराहे पर
हर उस जगह पर
जहां होते थे दो-चार जन
मुझे दिख जाने लगा था
कोई न कोई मुक्तिबोध
तैरती संवेदनाओं की छाया में!
आंख में अंखुआती दूब को देखकर
स्वप्न में तलाशने लगा था मुक्तिबोध
तलाशने नहीं ,
पाने लग गया था
पाने लग गया था मुक्तिबोध
सपना तो सपना होता है
सपनों की सीन बदलते क्या देर लगती है!
पीठ पर खाली जीन लिये लंगड़े घोड़े
अस्तबल की ओर लौट रहे थे
उन्हें मालूम तो रहा होगा
लंगड़े घोड़ों के लिए
कोई जगह नहीं होती है अस्तबल में
बल के अस्त हो जाने पर
अस्तबल मकतल में बदल जाता है
अपने स्वार्थ की संवेदना में जडीभूत मुक्तिबोध की भीड़ में
कैसे बच सकता है कोई मुक्तिबोध
इस अकाल बेला में मुक्तिबोध!
2 टिप्पणियां:
बहुत खूब
अस्तबल की ओर लौटते लंगड़े घोड़े और अस्तबल में उनके न समाने की वजह...
समाज या परिवार में अनुपयोगी होने पर जो बीतती है...
वही एक दशा!
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