इस नजवाज समय में!
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कविता रोटी नहीं देती। रोटी को बाँट कर खाने की तमीज देती है। रोटी को झपटने का उकसावा कोई और ताकत देती है। तमीज और झपटमारी में टकराव होता रहता है। कविता इस झपटमारी उकसावा के विरुद्ध आत्म-संशय के व्यूह से बाहर निकलने का धीरज देती है। आजकल उकसावा बहुत है और आत्म-संशय के व्यूह से बाहर निकलने की कोशिश का धीरज बहुत कम। एक गुलाबी अंधेरा तारी है जो आत्म-संशय की रात को मनोरम बनाती है। इस गुलाबी अंधेरा के पार न सूरज निकल पा रहा न चाँद। दीया है तो सही, जिस पर भरोसा किया जा सकता है, संशय की रात में भी, अगर वह हमारी ही साँस की निकलती हवा से बुझ न जाये। ओह! ऐसा है यह नजवाज समय है!
आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
इस नजवाज समय में!
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4 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 13 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह !बेहतरीन 👌
सादर
बहुत सुंदर
आप सभी को धन्यवाद
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