महंगाई की चर्चा
आज भारत की
जनता महंगाई से परेशान है। भ्रष्टाचार और राजनीतिक दुरभिसंधियों से घिरे समय में
महंगाई राजनीतिक मुद्दा बने या न बने औसत जिंदगी की बढ़ती हुई बदहाली के बुरे असर
से इनकार नहीं किया जा सकता है। बदहाली से जूझते हुई आबादी को पहले अपनी
लोकतांत्रिक सरकारों से सहारा की उम्मीद होती है। नाउम्मीदी उसे अपने-अपने भगवान
तक ले जाती है। बदहाली में चीखने की ताकत भी अंततः नहीं बचती है। जिन्हें चीख नहीं
सुनाई देती, उन्हें भला सिसकियाँ कैसे सुनाई देगी।
महंगाई सिर्फ
कीमत में बढ़ोत्तरी का मामला नहीं होता है। दुनिया के विभिन्न देशों में वस्तुओं
की कीमत की तुलना करते हुए इस निष्कर्ष पर किसी जल्दी में पहुँच जाना कि एक की
तुलना में दूसरी जगह कीमत कम या अधिक है, थोड़ा भ्रम भी पैदा करता है। असल में
कीमत का कम या अधिक होना उस देश की मुद्रा की दृढ़ता और लोगों की आय पर भी निर्भर
करता है। ऐसा इसलिए कि मुद्रा की कमजोरी और घटती हुई आय से क्रय क्षमता में छीजन आ
जाती है। महंगाई का होना या न होना औसत खरीददार की क्षमता पर निर्भर करता है।
निश्चित रूप से महंगाई का संबंध क्रय क्षमता में छीजन से होता है। यह ध्यान में
रहे तो समझा जा सकता है कि किसी वस्तु की कीमत प्रति व्यक्ति कम आयवाले क्षेत्र
में अपेक्षाकृत अधिक दुस्सह हुआ करती है। यह भी कि विभिन्न आय समूहों पर भी इसका
असर विभिन्न तरीके से पड़ता है। महंगाई औसत क्रेता की पहुँच से वस्तुओं को बाहर कर
देती है, जिससे उपभोग का अवसर खो बैठता है। इसलिए महंगाई का असर जीवन पर बहुस्तरीय
होता है। लोगों की आय में तदनुरूपी बढ़त व्यय के संतुलन को किसी हद तक बरकरार रखती
है। विशेष परिस्थिति में इसका विपरीत असर भी देखने में आ सकता है, इसलिए व्यय के
साथ ही बचत के अवसरों को भी इसमें जोड़ लेना उचित है।
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