आलोचक का दायित्व है कि अपनी पहल पर साहित्य को पढ़ने की कोशिश करे और नये पुराने के बीच तारतम्य की तलाश करे। लिखना एक कला है और पढ़ना भी। लेख लिखने के बाद उस रचना विशेष के लेखन के कला दायित्व से मुक्त हो जाता है और पाठक उस रचना विशेष से आनंद (कभी-कभी मजा) से तृप्त हो जाता है। हर तृप्ति अपने असर में अतृप्ति की गुंजाइश और ललक छोड़ जाती है। आलोचना इस अतृप्ति को साथ लेकर तृप्ति की नई संभावनाओं की तलाश में सृजन के ज्ञात परिप्रेक्ष्य के समकक्ष रचना को समुपस्थित करता है। बातें और भी हैं, संक्षेप में यह कि रचना की आलोचना कार्य तो है भी किसी तरह, लेकिन अनुकंपा तो कभी नहीं, कभी नहीं। संदर्भ महत्वपूर्ण है, विस्तार से लिख सकूँ तो धन्य कोई और लिखे तो कृतकत्य!
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