वे कुछ दिन थे
अच्छे या जैसे भी थे
थे मगर इस लायक कि बचे रह गये
बचे रह गये यादों में
जब कभी आघात लगता है
मन उन्हीं यादों के दरमियान होता है
चलती है हवा जैसा कि स्वभाव है
हरा भरा कर देती है
कहा था बहुत व्याकुल होकर
कान्हा ने राधा से
हालांकि सामने थी रुक्मिणी
ऐसा दादी ने कहा था
कहा था कान्हा ने
सर्ब सुवर्ण की बनि द्वारिका, गोकुल कि छवि नाहीं
ऐसी बात
सिर्फ राधा से ही कही जा सकती है
भले ही माध्यम रुक्मिणी हो
जब कहती है रुक्मिणी कि
जब इतना प्यारा था गोकुल
तो फिर डगरे क्यों कन्हैया!
कहे भले रुक्मिणी
मगर असल में उलाहना देती है राधा
उलाहना राधा का हक है
रुक्मिणी माध्यम
अब दादी रही नहीं
इस तरह
कहने सुनने का रिवाज भी नहीं रहा
वे कुछ थे जो यादों के दरमियान हैं!
आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
वे दिन जो अब यादों में बचे रहे
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