मदद लो, मदद दो
पश्चिम बंगाल में, खास कर कोलकाता में समारोहपूर्वक रक्तदान का सामाजिक प्रचलन रहा है। कोलकाता में रहते हुए नियमित रक्तदान को मौका मिलता था। एक समय आया जब रक्तचाप और थॉयराइड की समस्या उभर कर स्वास्थ्य का साथी बन गई। डाक्टरों ने रक्तदान के अयोग्य घोषित कर दिया। मन बहुत दुखी हुआ। सीख मिली, सिर्फ चाहकर ही किसी की मदद नहीं की जा सकती है। मदद करने के लिए चाहत होने के साथ सक्षम होना भी जरूरी है।
नौकरी से आमदनी का स्रोत कुछ-न-कुछ तो आर्थिक क्षमता प्रदान करता ही था। अब रिटायर होने में एक महीना का समय भी भी नहीं है। हाँ, आखिरी वेतन मिलना बचा है। रिटायरमेंट के बाद जो मिलता है उसके बिलाते बहुत देर नहीं लगती है। ऊपर से बढ़ती हुई महगाई, घटती हुई क्रय-क्षमता, कठोर होती आर्थिक नीतियाँ, संवेदना-शून्यता का बढ़ता दायरा अपनी जगह। डर है कि जिंदगी कहीं बोझ न बन जाये! भरोसा है, ऐसा नहीं होगा। भरोसा वस्तुनिष्ठ परिप्रेक्ष्य में एक आत्म-निष्ठ बोध या एहसास होता है। बस इस एहसास से डर लगता है।
किसी के सीखने-समझने के लिए इस में कुछ नहीं है, बस समझा जाये कि कह रहा हूँ। शेष फिर कभी। और लक्ष्य! जी हाँ, लक्ष्य तो है! बस लक्ष्य के सदस्यों के लिेए यह शायद ही किसी काम का हो।
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