नमस्ते जीवन!

प्राकृतिक संयोग की दास्तान और
जीवन की रूढ़ पारिस्थितिकी
साथ-साथ चलती रहती है! 
कभी-कभी इस कदर भी कि
शक्ति के मातृरूप में संस्थित होने का दिन 
मातृभूमि पर मातृहीन होने का दिन बन जाए! 

होता है कुछ इस कदर भी कि 
संवेदनशील होने की आकांक्षा का 
समापन संवेदन शून्यता में जाता है! 

मन समझे तो अच्छा! 
मन सम्हले तो अच्छा! 
जीवन में सृजन भी अच्छा! 
जीवन में विसर्जन भी अच्छा! 
रही बात दिन की
सभी दिन समान होते हैं! 
बात दीगर कि 
सब दिन होत न एक समान! 

अब! 
आगे की सुधि लेना ही जीवन है! 
नमस्ते जीवन! 

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