पूर्वग्रह संचालित समाज:क्या हम एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं!

पूर्वग्रह संचालित समाज:
क्या हम एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं! 
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल जिसे जनता की चित्तवृत्ति कहते हैं वह असल में पूर्वग्रहों के समुच्चय या setसे बनती है। पूर्वग्रह धारणाओं (या perceptions) को बद्धमूल बनाती है और फिर धारणाएं भी पूर्वग्रह बनाती हैं, इनमें प्रतिक्रमिक (या vice-versa) कार्य-कारण (या causative) सापेक्षता संबंध (या relative connectivity) होता है। इसी तरह से प्रतिबद्धताओं और जड़ीभूत संवेदनाओं का के समुच्चय भी बनते-बदलते रहते हैं। तात्पर्य यह कि हर युग के अपने पूर्वग्रह, अपनी पूर्वमान्यताएँ (या postulates) विभिन्न अवसरों पर सक्रिय होती रहती हैं। ये सारी प्रक्रियाएँ और परिस्थितियाँ हमारे युग की भी है। ये सारी प्रक्रियाएँ प्राकृतिक क्रम में विकसित होती रहती हैं और समुदायों एवं समाजों पर वर्चस्व की आकांक्षाओं से संपीड़ित समूह भी इसमें सायास और बलपूर्वक शामिल होता है। इस प्राकृतिक-प्रक्रिया को दुष्चक्र से बाहर निकलने, संतुलित करने और सामाजिक सामंजस्य-समरसता बनाये रखने के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप की बौद्धिक जरूरत होती है। इस पूरे चक्र को समझना अपने समय को समझना है तथा इस ब्यूह में अपनी भूमिका को समझना खुद को समझना है। अपने को और अपने समय को समझना हमेशा बड़ी चुनौती होती है। इस चुनौती का मुकाबला पूर्ण सकारात्मकता के साथ करना कठिन तो होता है परंतु, असंभव नहीं। आज खुद से सवाल है, क्या हम एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं!

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