और भी मनोरथ हैं, सुंदर सुखद जाल के इतर: मतलब हाँ भी ना और ना भी हाँ!
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कल शाम तक सब कुछ ठीक था। चिड़ियों में बहस बहुत तीखी थी, स्वाभाविक से थोड़ी-सी अधिक तीखी। मुक्ति के मुहानों की तलाश पर बहस हो रही थी।
मुझे क्या करना था! मैं तो मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण आदि की गूँजों-अनुगूँजों से भरी सभ्यता-संस्कृति की इस धरा-धाम पर इन सबसे निरपेक्ष रहने में अपने भले की राह तलाश चुका हूँ और लगभग संतुष्ट हूँ। लगभग इसलिए कि पूर्ण कुछ नहीं सब लगभग है। यह लगभगाई दौर है।
मंत्र पुराना है, अर्थात मध्य-वर्ग : मज्झम निकाय! मतलब हाँ भी ना और ना भी हाँ।
सुबह का नजारा काफी उत्तेजनापूर्ण था। शाम को जो बहस जाल और जंजाल से मुक्ति के मुहानों की तलाश पर थी, सुबह तक वह जाल के कलात्मक सौंदर्य के बखान तक पहुँच चुकी है। एक-से-बढ़कर एक बखान! बखान कि कौन-सा जाल कितना मनोरम है और कौन-सा जाल किसके मनोरथ का हिस्सा है।
निष्कर्ष तक पहुँचने में अभी देर लगेगी। स्वीकार करूँ कि निष्कर्ष में मेरी दिचस्पी बढ़ती जा रही है। दिलचस्पी अपनी जगह, जरूरतें अपनी जगह। वैसे, और भी मनोरथ हैं, सुंदर सुखद जाल के चयन के इतर।
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