एकला चलो रे

झारखंड के गिरीडीह शहर में लिखा गया गीत
— एकला चलो
(साभार : रवीन्द्रनाथ टैगोर) 
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तेरी गुहार पर कोई कान न धरे तो!
अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो रे।

अरे ओ अभागा
तुम से कोई बात न करे
सभी मुँह मोड़ लें
सभी भयभीत हों
तब तुम प्राण-पण से
मुँह खोलकर अकेले बोलो रे।  

दुर्गम पथ पर सभी लौट जायें
लौटकर कोई न आये
तब रास्ते के काँटों को
रक्तरंजित पाँव से
अकेले कुचलो रे!

यदि कहीं रौशनी न मिले
झंझावात बादल अँधेरी रात हो सामने
तो कड़कती बिजली की आग से
अपनी पसलियों को सूलगाकर
अकेले जलो, अकेले जलो रे!

कवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस लोक प्रसिद्ध ऐतिहासिक गीत को यथासंभव हिंदी के अनुरूप प्रस्तुत करने की कोशिश की है। प्रामाणिकता के लिए, कृपया, मूल पाठ देखें।
1905 में लिखा गया यह गीत बंग-भंग विरोधी आंदोलन के गीतों में से एक था। यह गीत झारखंड के गिरिडीह शहर में लिखा गया था। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस गीत की गूँज और अनुगूँज सुनाई पड़ती रही। अकेले पड़ जाने के जोखिम उठाने के साहस, स्वतंत्रता के संकल्प और संघर्ष की प्रेरणा से भरे इस गीत को उसी संदर्भ में देखा जाता है। संदर्भ से अनजान होने के कारण कई बार इसका महत्व और प्रभाव समझ में नहीं आता है। यह अकेलेपन या अकेले हो जाने का नहीं बल्कि संघर्षशीलता के साथ एकाकार हो जाने का गीत है। इसे आत्म संबोधन के रूप में भी देखा जा सकता है! 
(चित्र साभार)

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