साहित्य में बड़ा होना

साहित्य में बड़ा होना
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मनुष्य प्रजाति को जीवन यापन की आज की स्थिति में पहुँचने में लाखों वर्ष लगे हैं। यहाँ प्रजाति की नहीं व्यक्ति की बात की बात करना चाहता हूँ। किसी व्यक्ति मनुष्य का बड़ा होना क्या होता है? बड़ा वैज्ञानिक, बड़ा विद्वान आदि होना क्या होता है? ये बड़े सवाल हैं। 
फिलहाल, साहित्य में बड़ा होना क्या होता है! बात हिंदी साहित्य के संदर्भ में कर रहा हूँ, वैसे यह लागू अन्य भाषा के साहित्य के संदर्भ में भी हो सकते हैं।
बड़ा होने और महान होने में भी अंतर है। बड़ा साहित्यकार वह होता है जिसकी रचना की मूल संवेदना का कारगर प्रभाव लोकचित्त में संस्थापित होने और लोक व्यवहार को मनुष्य जाति के जीवन यापन को अधिक समावेशी, अधिक स्वीकार्य और अधिक मनोरम, अधिक पर दुख कातर आदि बनाने में सक्षम हो। इस तरह से सक्षम साहित्यिक रचना लोक चित्त में इस तरह संस्थापित होने में सफल होने पर महान होने और कहलाने की स्थिति में पहुँचती है। रचनाकर विस्मृत हो जाता है। रचना विस्मृत हो जाती है। उस रचना की शैली (संरचना या फॉर्म से भिन्न) और संवेदना का प्रवाह और प्रयोग जीवन दुख का तात्रा बनकर मनुष्य जाति की जीवन यात्रा में शामिल रहता है। विस्मृत रचना या रचनाकर की मूल संवेदना का प्रवाह और प्रयोग जारी रहती है, यानी चेतन मस्तिष्क से निकलकर भी अचेतन, अवचेतन मस्तिष्क में उपस्थित और सक्रिय रहा करती है। भिन्न-भिन्न हित समूह इस प्रवाह को अपचालित करने की प्रक्रिया में भी लगे रहते हैं। कुछ अवधि के लिए कामयाब भी होते हैं। फिर कोई दूसरा साहित्यकार उस विस्मृत मूल संवेदना और शैली को भिन्न-भिन्न फॉर्म या संरचना में लोकचित्त में पुनर्संयोजित कहां तक पहुंचे ते हैं। इसे भारतीय संदर्भ में पुनर्नवा और पश्चिम के संदर्भ में संस्कृति चक्र की प्रक्रिया से भी समझा जा सकता है। सभ्यता में समन्वय, समावेश और संतुलन की प्रक्रिया चलती रहती है। 
महफिलबाजी से जो बड़ा, बड़ी या महान होने में लगे हुए हैं, संतुष्ट हैं वे प्रणम्य हैं। 

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