लेखक संगठन की भूमिका

लेखक संगठन की भूमिका

साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, - उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है। - प्रेमचंद

(1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में किये गये अध्यक्षीय भाषण से)

सत्य हिंदी के ताना-बाना पर डॉ मुकेश कुमार को लेखक संगठनों की भूमिका पर सार्थक परिचर्चा आयोजित करने की कोशिश के लिए धन्यवाद और आभार। रेखा अवस्थी, वैभव सिंह और राकेश बिहारी को परिचर्चा में शामिल किया गया। इस परिचर्चा में मंतव्यों के लिए जितनी जगह हो सकती थी उसका सदुपयोग हुआ।  इस विषय पर अधिक तैयारी के साथ बात करने की नहीं, करते रहने की जरूरत है। इस संदर्भ में कुछ अन्य बिंदुओं को चर्चा में शामिल किया जा सकता है।

वामपंथी दलों को छोड़ दें तो, किसी राजनीतिक दल के सदस्य बनने की कोई बुनियादी शर्त नहीं होती है। इन दलों का सदस्य बनते ही कोई नेता मंत्री नहीं बन जाता। लेखक संगठन का सदस्य बनने के लिए भी कोई शर्त नहीं होती है। कई तो सदस्य पहले बनते हैं, लेख भी पहले ही बन जा सकते हैं, लेखन बाद में शुरू करते हैं। इसके तात्कालिक और दीर्घकालिक  लाभ की संभावनाओं को हिंदी साहित्य के  होशियार छात्र अच्छी तरह समझते हैं। मन बनाकर पहला वाक्य लिखते ही ऐसा मोह दबोचता है कि वे बिना देर किये खुद को लेखक घोषित कर देते हैं। बाकी रही-सही कसर उनके जैसे ही क्लासमेट, चाहें तो सहपाठी लेखक पूरी कर देते हैं। संख्या बल का कमाल यहाँ भी होता है।  अहो रूपम, अहो ध्वनि का सिलसिला शुरू हो जाता है। हिंदी साहित्य का वेतन भोगी अध्यापक कुछ लिखे या न लिखे खुद को साहित्य का पद-सिद्ध आलोचक लेखक मानकर चलता है। विश्वविद्यालय परिसर इसकी समानांतर प्रक्रिया चलती रहती है। इस तरह घिसे हुए लेखक आलोचनात्मक प्रोत्साहन, अंग्रेजी में कहें तो क्रिटिकल एप्रिशियेसन, के नाम पर संख्या बल को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं। बाकी सोशल मीडिया तो है न! राजनीति में जो मेरे दल में नहीं है वह भ्रष्टाचारी है, हिंदी साहित्य में जो मेरे गुट में नहीं है,  वह साहित्यकार कैसा! उसका सामाजिक सरोकार ढकोसला के अतिरिक्त कुछ नहीं। आप चिल्लाते रहिए आबद्ध हूँ, संबद्ध हूँ, प्रतिबद्ध हूँ।

जिस विचारधारा की बात लेखक संगठन करते हैं, उसके असली ठेकेदार तो लेखन में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। उनकी दिलचस्पी इस बात तक सीमित रहती है कि वह उनके द्वारा घोषित राजनीतिक कार्यक्रमों में कितनी तत्परता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। समाज इसमें कहीं होता ही नहीं है। जिस तरह नागरिक, प्रजा कहना शायद अधिक सही हो, वोटर में लघुमित (रिड्यूस्ड) हो गया है, उसी तरह लेखक भी लघुमित हो गया है। कोई दल यह नहीं कहता कि आप विचारधारा से सहमत हों तभी हमें अपना वोट दें। जैसे भी हो बस वोट दे दें, आप का वोट मेरा स्वार्थ, आप का हित बाद में सधता रहेगा। हिंदी साहित्य में पाठकों की भूमिका या पक्ष पर क्या बात हो सकती है, इसकी जरूरत ही क्या है, जो है नहीं उस पर समय बर्बाद करना!

जब लेखन का ही कोई उद्देश्य नहीं रह गया तो संगठन के उद्देश्य की क्या बात! लेखन की भूमिका ही तय नहीं, तो लेखक संगठन की भूमिका! वेतन से, या किसी स्रोत से कुछ पैसा हाथ आया तो छपवा लीजिये, मुफ्त बाँट दीजिए। खुद को लेखक मनवाने के सुकर्म में लगे रहिए, राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय हो जाइए, क्या फर्क पड़ता है। पता चला घर के लोग ही आप को लेखक मानने के लिए तैयार नहीं हैं, मन या मान रखने के लिए भले ही आप पर केंद्रित किसी आयोजन में कभी-कभार उपस्थित हो जाएँ। चुपके से पैसा देकर, पचास खुशामद करके अपनी कृति छपवानेवाले रॉयल्टी वसूलने के आंदोलन के लट-लकार की पुकार पर कान धरेंगे! पागल हैं! मेरी बातों पर मत जाइए, लेखक संगठनों की भूमिका है। मैं लेखक नहीं। न गाड़ी खींचनेवाला बैल, न गाड़ी के आगे फुदकता हुआ दौड़नेवाला कुत्ता।  आप लेखक हैं, आप लेखक संगठन की भूमिका तलाशिए। देश भक्ति और राजनीति के आगे .... बस राम राम।

 

रंगभूमि से

1."शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकदमेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहाने ग़रीबों का गला घोंटा जाता है। शहर के आस-पास ग़रीबों की बस्तियाँ होती हैं। बनारस में पाँड़ेपुर ऐसी ही बस्ती है। वहाँ न शहरी दीपकों की ज्योति पहुँचती है, न शहरी छिड़काव के छींटे, न शहरी जल-स्रोतों का प्रवाह। 

लुप्त और गुप्त

लुप्त और गुप्त

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लुप्त और गुप्त के अर्थ में क्या अंतर है! मेरी समझ से लुप्त होने का अर्थ है, जो मिट गया, जिसका अस्तित्व खो गया और जिसे खोजा नहीं जा सकता हो। शक्तिशाली चतुर धारा या शक्ति वर्ग पहले अपने घुलाता-मिलाता है। घुल मिल जाने के बाद धीरे-धीरे उस के लुप्त होने या लुप्त करने की ऐतिहासिक परिस्थिति में डाल देता है। लुप्त का सामान्यतः फिर से इस्तेमाल नहीं हो सकता है। गुप्त होने का अर्थ खो जाना नहीं है बल्कि शक्तिशाली चतुर धारा या शक्ति वर्ग के द्वारा आम लोगों की नजर से छुपा लेना या पहुँच को प्रतिबंधित करना है। उचित समय पर गुप्त का इस्तेमाल हो सकता है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा, महायान संप्रदाय या यों कहिए कि भारतीय बौद्ध संप्रदायसन् ईस्वी के आरंभ से ही लोकमत की प्रधानता स्वीकार करता गयायहाँ तक कि अंत में जाकर लोकमत में घुल-मिलकर लुप्त हो गया। और तुलसीदास लिखते हैं, पाखंडवाद के कारण सद्-ग्रंथ गुप्त हो जाते हैं। कौन-से सद्ग्रंथ गुप्त हो गये या होते हैं, इसका संकेत तुलसीदास के यहाँ नहीं मिलता है। जो लुप्त हुआ उसका उल्लेख आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी करते हैं। देखा जाये तो गुप्त और लुप्त की ऐतिहासिक प्रक्रिया का कुछ पता यहाँ से चल सकता है। दुविधा की बात यह है कि क्या गुप्त होता है या और क्या लुप्त समझना मुश्किल है। आपकी समझ में आये तो बताइयेगा, जरूर।

देत लेत मन संक न धरई

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥

प्रीत और वैर प्राणियों की मूल वृत्ति है। प्रीत और वैर की अधिकता अंधा बना देती है। वैर वीर का विशेषण लगता है। प्रेत तो प्रीत का विशेषण लगता है। वीरता के साबित होने के लिए वैरी का होना जरूरी है। अभी तो बात मीत की। आजकल मित्र निर्वाह के उदाहरण कम ही मिलते हैं। जबर्दस्त उदाहरण तो कभी-कभी मिलते हैं, आप चाहें तो समकाल में भी ऐसे उदाहरण दिख सकते हैं बस दीद चाहिए, जो कि मुश्किल है। खैर, गोस्वामी तुलसीदास ने बड़ी स्पष्ट बात कही है। जिस के साथ लेने देने में कोई शंका न हो, अपने बल के अनुसार हमेशा हित करे, विपत्ति के समय मजबूती से साथ दे। यहाँ तक मतलब साफ है। वक्त और हालात मतलब बदल देते हैं। आज के वक्त और हालात में भी मतलब बदल गया दिखता है। लेने देने में शंका न हो का मतलब यह भी हो सकता है कि किसी का माल उठाकर मित्र को दे। मित्र के बल पर किसी का माल उठवा ले। ऐसा करने में कोई संकोच न करे।

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

वसुधैव कुटुम्बकम

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

पुरखों ने सपना सँजोया था, वसुधैव कुटुम्बकम का। आज हम ऐसे मुकाम पर पहुँच गये हैं, जहाँ वसुधैव कुटुम्बकम  तो दूर, कुटुम्ब ही बेसुध हो रहा है। एक दूसरे की सुधि लेने की बुद्धि कमजोर पड़ती दिख रही है। परिवार बिखरते दिख रहे हैं। व्यक्ति टूटते दिख रहे हैं। अंधकार घना तो है, पर उसकी कोख में प्रकाश भी पल रहा है। उस प्रकाश को हासिल करने के लिए, अंधकार से प्रकाश की तरफ बढ़ने के लिए उदार चरित की जरूरत है। उदार चरित वसुधैव कुटुम्ब की शर्त्त भी है। यह मेरा, वह तेरा का हिसाब लगानेवाली लघु चेतना से बाहर निकल कर मैं सब का हूँ, सब मेरा है। अपने पराये के बोध की प्रतीति और वस्तुस्थिति के पार औरों को हँसते हुए देखकर सुखी होने की मनःस्थिति को हासिल किया जा सकता है। औरों में खुद को तथा खुद में औरों को हासिल कर लेने का विन्यास बनना असंभव नहीं है। जियो और जीने दो, तो ठीक लेकिन जीने की शर्त्त जीने देना है तो इस तरह समझा जा सकता है कि पहले जीने दो और फिर जियो। अंतःकरण के आयतन को बढ़ाने की कोशिश करते हुए उदार चरित के साथ मस्तक उठाकर जियो, भय चित्त के साथ जियो। बाधा! बाधा अपने अंदर का कायर है। अपने चित्त के अंदर आसन जमाये बैठा यह कायर बहुत भयभीत है। चित्त के भय मुक्त होने के लिए अपने चित्त के अंदर बैठे इस कायर को निकालना होगा, तभी कुटुम्ब भी बचेंगे, वसुधा भी बचेगी। कर पाओगे परफूल! मुश्किल है। खैर तुम नहीं तो कोई और, अभी नहीं तो कभी और यह संभव हो सकता है। 


तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ

कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ।।
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मिथ को समझना। समझकर उस के विश्लेषण, इंटरप्रटेशन (तात्पर्यन) से अपने समय को समझना और उसकी समस्याओं के कोई हल निकालना कठिन है, पर असंभव नहीं। मुझे यह सदैव महत्त्वपूर्ण लगा है कि तुलसीदास की मानें तो रघुराई ने मुनि से कहा, निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई। मेरे एक मित्र ने सवाल उठाया कि शस्त्र सुसज्जित राम निर्भय होने का आश्वासन देते हैं, तो क्या शक्ति या शस्त्र ही निर्भय होने को आश्वासन दे सकता है! सवाल महत्त्वपूर्ण है, जवाब कई हो सकते हैं, कई तरह के हो सकते हैं। अधिकतर असंतोषजनक या असहमतिपरक! खैर।
शिव धनु को प्रभु राम ने तोड़ दिया। परशुराम की नाराजगी पर लक्ष्मण ने कहा कि बचपन में बहुत सारे धनुषों को तोड़ने की बात कह दी। प्रभु ने शिव धनु सहित बहुत सारे धनुषों को तोड़ा, लेकिन अपना धनुष छोड़ा नहीं। यहाँ, इतना उल्लेख भर कर देना प्रासंगिक हो सकता है कि राम और कृष्ण के युग्म को अविभाज्य मानकर चलने और उन्हें पारस्परिक प्रासंगिकता में समझना हमारी सांस्कृतिक जरूरत है, इस पर संभव हुआ तो फिर कभी।
मेरा एक लेख है। हिंसा पर टिकी सभ्यता। काफी पहले जनसत्ता में छपा था। उसके संदर्भों को याद कर रहा हूँ। मूल शब्द हिंसा है। हिंसा का निषेध अहिंसा है। हिंसा मौलिक वृत्ति है। जैसे नींद, भूख आदि। मौलिक वृत्ति को नियंत्रित तो किया जा सकता है, लेकिन उसका पूर्ण निषेध संभव नहीं है। अहिंसा सभ्यता की आकांक्षा है। इसलिए, इसे मौलिक विडंबना है कि पूर्ण अहिंसक होने की सभ्यता आकांक्षा पूरी नहीं हो पाई है। दुखद यह है कि इसे नियंत्रित करने में भी कई बार सभ्यता के उपादान विफल हो जाते हैं। उपाय! लघुतर हिंसा यदि वृहत्तर हिंसा को रोकने का उपादान मान लिया जाये तब, ‘तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ।।‘ जैसी उक्ति के मर्म को नये सिरे से समझने की कोशिश की जा सकती है। अभी तो, इतना ही।
Hare Ram Katyayan

जनतंत्रः प्रक्रिया और प्राण

जनतंत्रः प्रक्रिया और प्राण

प्रिंट नेशनल्जिम के दौर में अखबार का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। नये दौर में मीडिया की तरफ लोग बड़ी उम्मीद से देखते रहे हैं। अब तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया से अधिक लोगों की निगाह सोशल मीडिया पर अधिक है। बड़े-बड़े पत्रकार और विद्वान विभिन्न प्रकार से सोशल मीडिया पर आते रहते हैं। ऐसे विद्वान भी दिख जाते हैं, जिन्हें अन्यथा देख पाना पहले संभव नहीं था। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि किसी भी समय किसी भी मुद्दे पर पूरी तरह निष्पक्ष कुछ भी नहीं होता। सवाल पक्षधरों के उद्देश्यों का है। सवाल यह है कि किसी भी पक्ष में झुके हुए रहने के पीछे का मुख्य इरादा क्या है, उसकी तार्किक वैधता की स्थिति क्या है, निष्कर्ष कितना वस्तुनिष्ठ, आत्मनिष्ठ, वास्तविक और कितना मनगढ़ंत है।  

शब्द भिन्न हो सकते हैं लेकिन यह लगभग, सभी लोग मानते हैं कि चुनाव जनतंत्र की प्रक्रिया है, प्राण नहीं है। सोशल मीडिया की बड़ी जगह चुनावी प्रक्रिया घेरती है, जनतंत्र के प्राण पर चर्चा के लिए बहुत कम जगह बचती है। सूचनाओं के विविध परिप्रेक्ष्यों को जोड़ना, समझना-समझाना, विश्लेषण करना, निष्कर्ष निकालना उचित है। सलाह-सुझाव देने से अधिक प्रवचन-उपदेश की तरफ बढ़ जाने के औचित्य पर सोचना चाहिए। चुनावी प्रक्रिया से कौन सत्ता पर कौन पक्ष काबिज होगा यह महत्त्वपूर्ण सवाल है, मुख्य सवाल है जनतंत्र के प्राण का क्या होगा!  


महंगाई की चर्चा

महंगाई की चर्चा

आज भारत की जनता महंगाई से परेशान है। भ्रष्टाचार और राजनीतिक दुरभिसंधियों से घिरे समय में महंगाई राजनीतिक मुद्दा बने या न बने औसत जिंदगी की बढ़ती हुई बदहाली के बुरे असर से इनकार नहीं किया जा सकता है। बदहाली से जूझते हुई आबादी को पहले अपनी लोकतांत्रिक सरकारों से सहारा की उम्मीद होती है। नाउम्मीदी उसे अपने-अपने भगवान तक ले जाती है। बदहाली में चीखने की ताकत भी अंततः नहीं बचती है। जिन्हें चीख नहीं सुनाई देती, उन्हें भला सिसकियाँ कैसे सुनाई देगी।

महंगाई सिर्फ कीमत में बढ़ोत्तरी का मामला नहीं होता है। दुनिया के विभिन्न देशों में वस्तुओं की कीमत की तुलना करते हुए इस निष्कर्ष पर किसी जल्दी में पहुँच जाना कि एक की तुलना में दूसरी जगह कीमत कम या अधिक है, थोड़ा भ्रम भी पैदा करता है। असल में कीमत का कम या अधिक होना उस देश की मुद्रा की दृढ़ता और लोगों की आय पर भी निर्भर करता है। ऐसा इसलिए कि मुद्रा की कमजोरी और घटती हुई आय से क्रय क्षमता में छीजन आ जाती है। महंगाई का होना या न होना औसत खरीददार की क्षमता पर निर्भर करता है। निश्चित रूप से महंगाई का संबंध क्रय क्षमता में छीजन से होता है। यह ध्यान में रहे तो समझा जा सकता है कि किसी वस्तु की कीमत प्रति व्यक्ति कम आयवाले क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक दुस्सह हुआ करती है। यह भी कि विभिन्न आय समूहों पर भी इसका असर विभिन्न तरीके से पड़ता है। महंगाई औसत क्रेता की पहुँच से वस्तुओं को बाहर कर देती है, जिससे उपभोग का अवसर खो बैठता है। इसलिए महंगाई का असर जीवन पर बहुस्तरीय होता है। लोगों की आय में तदनुरूपी बढ़त व्यय के संतुलन को किसी हद तक बरकरार रखती है। विशेष परिस्थिति में इसका विपरीत असर भी देखने में आ सकता है, इसलिए व्यय के साथ ही बचत के अवसरों को भी इसमें जोड़ लेना उचित है।    

बढ़ती हुई महंगाई अकाल की स्थिति पैदा करती है। प्रो. अमर्त्य सेन ने यह साबित किया है कि अकाल वस्तुओं की अनुपलब्धता से नहीं वस्तुओं के क्रय क्षमता से बाहर हो जाने से पैदा होता है। बाजार में वस्तुएँ भरी-पड़ी हों लेकिन वह औसत उपभोक्ता की पहुँच और उपभोग से बाहर हो जाये। वस्तु और उपभोग के अवसरों का पहुँच से बाहर होना लोकतंत्र और स्वतंत्रता के अर्थ को भी बदल देता है। वस्तु और उपभोग से वंचित आबादी सही मायने में लोकतंत्र और स्वतंत्रता से वंचित हो जाती है। क्या मान लिया जाये कि हमें सचमुच अपने समय में कोई सिसकी नहीं सुनाई दे रही है!प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

अस्पताल

कैंसर अस्पताल

कैंसर भयानक बीमारी है। किसी भी परिवार में इसकी आशंका से ही दिल दहल उठता है। वैसे संवेदनशील लोगों का दिल तो विश्व में इसके होने से ही दहला रहता है। आज तक इसका सही इलाज नहीं मिल पाया है। इस बीमारी का असली कारण बड़े डॉक्टर लोग जानते होंगे। आम आदमी की जानकारी तो इतनी ही होती है कि अनियंत्रित और असंतुलित वृद्धि से यह बीमारी होती है। यह असंतुलन किसी भी क्षेत्र में हो सकता है।

कैंसर अस्पताल का जिक्र आते ही मन कसैला हो जाता है। यह स्वाभाविक ही है। कैंसर लग जाने पर अस्पताल तो जाना ही होता है। रोगी के ठीक होने की उम्मीद बिल्कुल ही कम होती है। फिर भी थोड़ी-बहुत उम्मीद तो होती है। उम्मीद कभी खत्म नहीं होती है। ढेर सारे खर्च के बाद भी रोगी ठीक हो जाये, बड़ी बात। इस बड़ी बात की होनी को संभव करने के लिए लोग कैंसर अस्पताल का चक्कर लगाते हैं। इस या उस कारण से इसका या उसका चक्कर लगाते रहना तो नियति है। चक्कर लगानेवाले जानते हैं कि इसमें एक बात पक्की होती है, यह कि खर्च का बहुत बड़ा बोझ उसके माथे पड़नेवाला है। चक्कर एक बार शुरू हो जाये तो फिर उसके व्यूह से निकलना मुश्किल होता है।

मेरा परिवार पहले भी कैंसर की चपेट में आया है। इस बार तो दिल दहलने के साथ ही चिंता और घबराहट दोनों बहुत बढ़ गई। पहले जैसी ताकत और पहले का हौसला अपने अंदर अब कहाँ! परिवार के अन्य सदस्य जूझने के लिए तैयार थे। फिर भी मन तो मन है। मन नहीं माना। दूसरों को न भानेवाली जिद करके मैं भी साथ लग गया। अस्पताल की लॉबी में बैठने की व्यवस्था थी। व्यवस्था चाहे जितनी हो वह कम पड़ ही जाती है। समय और स्थान को घेरा तो जा सकता है कुछ हद तक, बढ़ाने-घटाने की अनुमति प्रकृति हमें बिल्कुल नहीं देती है। बैठने की जगह तलाशती हुई नजर कोने में स्थापित एक आवक्ष प्रतिमा पर टिक गई। पास जा करके देखा। प्रतिमा के नीचे लिखा था :-

JAMSETJI NUSSEERWANJI TATA

FOUNDER

3RD MARCH 1839 – 19TH MAY 1904

 

19 मई 1904! लेकिन यह अस्पताल तो बाद में बना है, तो इसके संस्थापक ये कैसे हो सकते हैं? उमड़-घुमड़ कर बात समझ में आई ऐसे लोग तो अमर होते हैं। अमरता क्या है! अमरता अपनी संततियों में खुद की यात्रा को जारी रखने की प्रक्रिया है। प्रतिमा पर कोई फूल-माला नहीं थी। नजर घुमाकर देखा तो किसी की नजर उस प्रतिमा पर किसी की नजर नहीं थी। अलबत्ता, नजरों में कुर्सी की तलाश जरूर थी। पहली नजर में प्रतिमा उदास लगी। गौर से देखने पर मुद्रा गंभीर लगी। आँख निस्तेज लगी। गौर से देखने पर दृष्टि सपनीली लगी। अंकित तारीखों से पता चला कुल जमा पैंसठ वर्ष का दैहिक जीवन। मैंने बोलती प्रतिमा की बात सुन रखी है। कभी किसी प्रतिमा की आवाज या वाणी सुनने के प्रति गंभीर नहीं रहा। इस प्रतिमा को देख कर लगा कि कुछ कहना चाहती है। इस बार जाने क्यों मेरा भी मन कुछ सुनने की हो रहा था। लेकिन कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। जवानी के दिनों सुने खिलाफी नारों की अनुगूँजें मन को घेरे रही। इस प्रतिमा को सुनने की बेचैनी महसूस कर रहा था। शायद यह उम्र का असर हो। शायद, समय के बदले हुए मिजाज का असर हो।  

चिंतित मुख मुद्रा में लोगों की आवाजाही जारी थी। मेरे परिवार के लोग भी इसी आवाजाही में शामिल थे। मैं इस आवाजाही से फिलहाल बरी था। 1857 इसकी मसें भीग रही होगी। पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। मन 1839 और 1904 के टाइम-स्केल पर दौड़ता रहा। सदी के आर-पार मन की आवाजाही तेज हो गई। पिछली सदी यानी आजादी हासिल करने की सदी। जारी सदी आजादी की उपलब्धियों को महसूसने की सदी। मन आजादी के संघर्ष का बयान करनेवाली किताबों के बीच से गुजर रहा था। अब किताबें चाहे जितनी निष्पक्षता से लिखी जायें, कुछ-न-कुछ इधर या उधर के झुकाव की गुंजाइश तो रह जाती ही है। खासकर जब भारत की आजादी के दर्द को बयान करने का मामला हो। यह इसलिए कि इस आजादी को पाने के लिए जितना खून बहा था, उससे कहीं ज्यादा इस आजादी के बाँट-बखरा में बहा था। यह बाँट-बखरा हिंदू और मुसलमान के बीच का था। आजादी का हासिल होना अधिकांश में युक्तियों से संभव हो रहा था। आजादी का विभाजन शक्तियों के खेल का नतीजा था। युक्ति की शक्ति का दौर पीछे चला गया था। सामने शक्ति की युक्ति का दौर था। अपनी विविधता, बहु-धार्मिकता पर गर्व करनेवली भारतीयता के अन्य समुदायों का इस बाँट-बखरा में क्या हुआ?   

पंजाब में सांप्रदायिक दंगों का भयानक दौर जारी था। हिंदू-मुसलमान-सिख खून के प्यासे गली-मुहल्ले घूम रहे थे। लोगों में अपनी पहचान जाहिर करने और छिपाने की होड़ लगी थी। अपनी पहचान को जाहिर करने या छिपाने की तरह-तरह की युक्तियाँ इस्तेमाल की जा रही थी। लोग अपने घर के बाहर हिंदू, सिख या मुसलमान का पट्टा लगा रहे थे। एक घर के बाहर बोर्ड लगा था, हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई तो भाई-भाई हैं, यह घर पारसी परिवार का है। प्रतिमा के पास बैठा था, जिसे अपने अमरत्व में इस अस्पताल का फाउंडर बताया गया है। यह प्रतिमा पारसी सज्जन का है। इन्होंने मंदिर, मस्जिद, गुरु द्वारा नहीं बनवाया। मुझे लगा प्रतिमा बोल उठी है। जो हमने  बनवाया उसमें सभी आते हैं। दुख से निजात पाने आते हैं। मैं आने-जानेवाले लोगों को पहचानने कि कोशिश करने लगा, पाया कि प्रतिमा सच कह रही है।

डाक्टर ने देख लिया है। दवा लाने के बाद केमो चालू होगा। इस बीच बारी-बारी से कुछ खा पी लेना होगा। प्रतिमा की आवाज के ऊपर यह मेरे बेटे की आवाज है। उसकी आवाज में उम्मीद है। इस उम्मीद ने मेरी मुरझाती हुई उम्मीद को सहारा दिया। दवा आ गई। हमने कुछ खा पी लिया। मेरा बेटा अपनी चाची को साथ लेकर केमो के लिए चला गया। भीड़ भी कुछ छँट गई। मैं फिर इंतजार में कि प्रतिमा के मन से कोई आवाज आये। कोई आवाज नहीं। शायद प्रतिमा का मन आराम कर रहा है। तभी एक आवाज आई अमरता में आराम नहीं। मन ने कहा आराम में कोई अमरता नहीं। प्रतिमा हँस पड़ी। इतना जानते हो! सभ्यता कैंसर ग्रस्त हो चुकी है। नहीं जानते! तन हो या वतन कैंसर ग्रस्त हो जाये तो इलाज मुश्किल होता है। तन का कैंसर ठीक हो भी जाये, वतन के कैंसर का क्या? कुछ सोचा है कभी! कुछ सोच पाता इसके पहले बगल में एक नौजवान जोड़ी आ कर बैठ गई। मैं उनका संवाद सुनने लगा।

-      तुम बहुत इमोशनल हो जाती हो।

-      तुम नहीं होते!

-      नहीं।

-      होना पड़ता है। उन्हें बल मिलता है। जीने का बल। किसी को उनके होने की कद्र है। इतना वे भी जान गये होंगे कि किसी के जीने मरने की कोई कद्र कहीं नहीं। फिर भी करना पड़ता है जानू। दुनिया इसी झूठ के बल पर चलती है।

केमो हो गया। आज का काम खतम। अब कैब देखते हैं।  यह मेरे बेटे की आवाज है। उसकी आँख में खुशी के कुछ कण चमक उठे। उसने अपना एप मेरी नजरों के सामने कर दिया। मैंने पढ़ा, टाटा-इंडिका, ह्वाइट कलर। बेटे ने समझाया कम भाड़ा पर ही ले जाने के लिए ड्राइवर राजी हो गया है। मरे मन में आया कह दूँ कि उसकी कोई मजबूरी होगी कम भाड़ा पर जाने की। हमारी क्या मजबूरी है कम भाड़ा पर जाने की। कुछ कहता इसके पहले मन के एक कोने से अपने एक मैनेजर की आवाज टपक गई। किसी की मजबूरी किसी की अपरट्युनिटी होती है। अपनी अपरट्युनिटी के लिए किसी की मजबूरी तलाशो, न हो तो मजबूरी पैदा करो। ससटेन करने का यही एक तरीका है। कैब आ चुका था। मेरे मन टाटा-इंडिका के टाटा पर लटका हुआ था।

रास्ते में चारों तरफ विकास की कहानियाँ बिखरी पड़ी थी। टाटा की बस, टाटा की कार, टाटा का ट्रक। हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई सभी के काम  रहा था। लगा पूरा हिंदुस्तान टाटा पर लदा हुआ है। मेरे असंतुलित होते मन को ड्राइवर की आवाज ने सम्हाला। वह कुछ कह रहा था। बहुत मुश्किल से सुनने में आ रहा था। हो यह भी सकता है कि कुछ और कह रहा हो वह, मैं कुछ और सुन रहा होऊँ। ऐसा तो होता ही है जीवन में। हम कहते कुछ और हैं, सामनेवाला सुनता कुछ और है। घर अदालत कोट कचहरी सभी जगह थोड़ा-बहुत ऐसा ही होता है। वह कह रहा था :-

-      इतना कम भाड़ा पर कोई उधर नहीं जाता। इतना तो आप भी जानते हैं। मेरा घर भी उसी साइड में है। मेरी मजबूरी कि घर से फोन आया। पापा को अटैक आया है। इस बार शायद ही बचें। लौटने की जल्दी मची है। आप लोग भी घर परिवारवाले हो। आगे जो भी मुनासिब लगे देख लेना।

मेरे मन में एक नैतिक मरोड़ उठी। मन किया सहानुभूति के दो बोल कहूँ। मगर नहीं। कैब बेटा ने किया था। पैसा वही देगा। सिर्फ बोल-भरोस दे सकता हूँ। बोल-भरोस का क्या मोल! उसके साथ बात-चीत में उलझना बेटा को बुरा भी लग सकता था। इसका बोझ मैं उठा नहीं सकता था। मेरा बोझ तो बेटा उठा रहा था। सुन तो बेटा भी रहा ही होगा, पर खामोश बना रहा।

घर पहुँचा तो छोटी-सी पोती ने पूछा। शायद उसकी मॉम ने पुछवाया हो।

-      दादा जी कैसा रहा सफर!

-      कैंसर अस्पताल से लौटकर आया हूँ।

मैं जानता हूँ यह सच नहीं था। चारों ओर कैंसर फैला है। अपने मन को खुटरी पर टाँग कर हल्का हुआ। जानते हुए भी कि यह सच नहीं है, मैंने फिर दोहराया :-

-      कैंसर अस्पताल से लौटकर आया हूँ।

 

मुल्क के ईंधन बन जाने की त्रासद कथा

नैतिक निस्संगता और आंतरिक भुरभुरापन से

मुल्क के ईंधन बन जाने की त्रासद कथा


स्वयं प्रकाश जी हमारे समय के प्रसिद्ध एवं स्वंयसिद्ध हिंदी साहित्यकार हैं। उनके लेखन का महत्त्व कई दृष्टियों से है। उनका उपन्यास ईंधन, एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। 2004 में ईंधन का प्रथम संस्करण आया। हिंदी में प्रकाशन की प्रक्रिया और परिस्थितियों को देखते माना जा जा सकता है कि इसका लेखन पिछली सदी में संपन्न हुआ होगा। इसकी कथा वस्तु का आधार पिछली सदी के संदर्भों से बना होगा। यह सब अनुमान का विषय है। प्रकाशन के इतने वर्षों के बाद इसकी समीक्षा की क्या जरूरत है! इससे पाठकों की कौन-सी जरूरत पूरी हो सकती है! खासकर जब हम दशकों में सोचने-विचारने के अभ्यस्त हो गये हैं। प्रत्येक पीढ़ी दस साल में बदल जाती है। यह पीढ़ी बदलाव निरंतर होता रहता है। तकनीकी विकास की तीव्रता का तो हाल यह है कि, आज सामने आई तकनीक कल पुरानी हो जाती है, अभी की चीज अभी-की-अभी पुरानी हो जाती है। युग परिवर्तन का जो लक्षण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संकेतित किया, बात उससे बहुत आगे बढ़ चुकी है। वास्तविक विकल्प भले ही उतने नहीं हों, आभासी विकल्पों की भरमार-सी लग गई है। उपलब्ध वास्तविक विकल्पों और आकांक्षित आभासी विकल्पों के स्वरूप तथा मिजाज से भी नई-नई मनोवृत्तियों, अभिरुचियों, रोजी-रोजगार, काम-संतुष्टि के अवसर और मनोरंजन के तौर-तरीकों, खेल, कला-संस्कृतियों, सिनेमा, साहित्य  की विलक्षण अभिव्यक्तियों की सूक्ष्मता में भी भारी बदलाव आया है। आर्थिक गतिविधियों, सामाजिक संदर्भों, स्वीकरण और निरसन की प्राथमिकताओं के मिजाज साथ ही पठन-पाठन की पद्धतियों में भी बहुत अंतर आया है। वेश-भूषा, साज-सज्जा के विन्यास को सहज ही लक्षित किया जा सकता है। चालाकियों, धुर्त्तताओं और मूर्खताओं में भी अंतर आया है। ईंधन की स्निग्धताओं और रोहितों के सारे प्रसंग आज बदल गये हैं। तो फिर इसके प्रकाशन के इतने वर्षों के बाद इसकी समीक्षा की क्या जरूरत है! सामान्य, सरल शब्दों में कहें तो आज इसकी समीक्षा का कोई खास औचित्य नहीं है। जहाँ, समीक्षा की जरूरत नहीं है, वहीं आलोचना की बहुत अधिक जरूरत है। कायदे से यहाँ समीक्षा और आलोचना के तात्त्विक अंतर को स्पष्ट किया जाना जरूरी है। हालाँकि इस अंतर को स्पष्ट करने के लिए यहाँ बहुत अवकाश नहीं है। इस पर बहुत सारी बातें पहले भी होती रही है। शास्त्रीय विवेचन के उलझाव-सुलझाव का प्रयास न भी किया जाये तो भी इतना टाँक रखना जरूरी है कि समीक्षा मूलतः समीक्ष्य कृति के रचनाकाल और रचनाशीलता को देखते हुए तथा तत्कालीन धूल-धुआँ से निकालकर रचना के विविध पक्षीय महत्व को आँकने का काम करती है। आलोचना का मूल दायित्व सभ्यता विकास के साथ संवाद कर सकने और उसकी दिशाओं तथा दशाओं को समझने में रचना के उपयोगी हने के महत्व को देखने व आँकने का प्रयास करना है। कहना न होगा कि समीक्षा रचना प्रकाशन के साथ-ही-साथ किया जाना जरूरी होता है ताकि वह पाठक, सर्वजन या तत्कालीन नागरिक जमात की नजरों से ओझल न रह जाये। आलोचना का काम रचना के पूरे परिप्रेक्ष्य के, कम-से-कम एक स्तर पर, थिर हो जाने के बाद ही शुरू होता है। आलोचना का मौलिक काम पाठकों के परिप्रेक्ष्य को सही करते हुए, सभ्यता विकास के बहुविध अध्ययन के परिप्रेक्ष्य से जोड़कर ज्ञान और रस की बहुआयामिता में परखना और संयोजित करना। समकालीनता का दबाव या कह लें धूल-धुआँ का असर समीक्षकों पर कुछ ज्यादा पड़ता है। असर तो आलोचकों पर भी पड़ता है, लेकिन इन से बचने का कुछ अधिक अवसर आलोचक को सुलभ होता है। हालाँकि यह समाज का और इसलिए साहित्य का भी, अनालोचन काल है फिर भी यहाँ, स्वयं प्रकाश के उपन्यास ईँधन को आलोचना की नजर से देखने की जरूरी कोशिश की गई है। फिर कहें यह समय अनालोच्य है। दृष्टि की निकृष्टता कहती है तत्काल समीक्षा के रूप में विज्ञापन, रचना के प्रचार का जितना महत्व है उसकी तुलना में आलोचना तुच्छ ही समझी जा सकती है; साँप के गुजर जाने या रस्सी घसीट लिये जाने के बाद उसकी लकीर की निशानदेही की तरह। यह समझना चाहिए की लकीर की दशा-दिशा के अध्ययन और विश्लेषण के महत्व को न समझा जायेगा तो पुरातात्विक अध्ययन का ही क्या महत्त्व रह जायेगा। स्निग्धताओं और रोहितों के सारे प्रसंग आज भले ही बदल भी गये हों तो क्या! बेटू का सवाल बदला नहीं है, हाँ बदली है सवाल की तीव्रता, सवाल की भयावहता और सवाल का दायरा इसलिए जरूरी है ईंधन की आलोचना।

रोहित ने स्निग्धा को बहुत सारा कुछ सिखाया।

और इस बात के लिए स्निग्धा ने रोहित को कभी माफ नहीं किया।

स्निग्धा और रोहित के माध्यम से जो जीवन दर्शन सामने आता है, वह पिछली सदी में जितना जीवंत था उससे जीवंत इस सदी के चौथे दशक में भी प्रयोज्य तथा प्रचलित है। दी गई, जीवन स्थिति में हर किसी को जीना होता है। जीवन यापन की पद्धतियों और शर्तों के अनुसार ही जीवन का सलीका विकसित होता है और फिर उसी तर्ज पर जीवन दर्शन भी आकार पाता है। रोहित ने ऐसा क्या कुछ स्निग्धा को सिखाया जिस बात के लिए उसने कभी उसको माफ नहीं किया! कोई कुछ भी सिखाये तो वह गुरु का दर्जा हासिल कर लेता है और इसके लिए सीखनेवाला कृतज्ञता बोध से भर जाता है। यहाँ परिस्थिति विपरीत है तो इसके अंदर जाना होगा। यह अंदर की बात है। जानना होगा कि रोहित स्निग्धा को क्या सिखा रहा था! वह सिखा रहा था निम्न-वर्गीय घरेलू काम जो महिलाएँ घर में पारंपरिक तौर पर करती आई हैं, और जिन घरेलू काम को करने में पुरुषों की दिलचस्पी कम होती है, जानकारी भी कम होती है। यहाँ, उलटी स्थिति है। रोहित अपनी पारंपरिक भूमिका में लौटने की कोशिश करता है, इसके लिए जरूरी है कि स्निग्धा को भी अपनी पारंपरिक भूमिका में लौटना होगा। जाहिर है, स्निग्धा को यह पसंद नहीं आया होगा और रोहित ने ठीक भी ही महसूस किया होगा कि स्निग्धा ने इसके लिए उसे कभी माफ नहीं किया। आज, इस समय घरेलू कार्य के बदले संदर्भों पर गौर करें तो कई बदलाव नजर आयेंगे। शहरी घरों में रसोई की बनावट और रसोई में व्यवहार में लाये जानेवाले उपकरणों में भी बदलाव आया है। खान-पान में भी अंतर आया है। अंतर पहले भी था, वर्गगत अंतर। स्निग्धा और रोहित की जीवन शैली में वर्गगत अंतर भी है, जो पसंद-नापसंद आदि में दिखता था। यहाँ का खाना स्निग्धा की पसंद का नहीं  था। क्या खाना था? यह किस तरह का खाना? स्निग्धा वैसे भी रसोई या घरेलू काम से कभी जुड़ी नहीं रही। रोहित उसे सबकुछ धैर्यपूर्वक सिखाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन स्निग्धा के मन में चल क्या रहा था! यह कि क्या यही सब सीखने की तमन्ना लेकर वह इस घर में आई थी? क्या कोई भी लड़की शादी के बाद मां-बाप का घर छोड़कर यही सब सीखने ससुराल आती है? इस तरह कदम-कदम पर जलील होना, पल-पल दोषी ठहराया जाना। घड़ी घड़ी, छोटी छोटी चीजों के लिए तरसना और एक तरह का अदृश्य पर निरंतर हिंसा और रक्तपात झेलना! उसे अपने पापा की याद आती है। पापा का घर ही क्या बुरा था?  क्यों क्यों लड़कियों अपने मायके में याद करके रोती हैं बुढ़ापे तक। स्निग्धा को अब बाप के राज का मतलब समझ में आ रहा था। स्निग्धा हमेशा कुढ़ती रहती थी कि क्या-क्या करना पड़ेगा उसे रोहित के घर को अपना घर बनाने के लिए। बाप का घर और उस घर को भूलने में कितने बरस लगेंगे। उसे घर की चिंता है। लेकिन पापा के घर को भूल जाने के साहस का अभाव उस में है। उसका मन यह सोचकर सिहर जाता है कि जीवन भर ऐसे ही फटीचर परिस्थितियों में बदहवास की तरह रहना होगा। उसे चिंता है कि क्या घर के  इसी माहौल में अपने बच्चे को जन्म देगी? इसी माहौल में उसके बच्चे शिक्षा प्राप्त करेंगे! स्निग्धा को रोहित के घर के माहौल की चिंता सताती है, घर के बहर के माहौल की कोई खबर ही नहीं है। वह निराश होकर रोहित के बारे में सोचती है कि एक बार ताकत लगाकर रोहित अपने वर्ग से ऊपर क्यों नहीं उठ जाता! लेकिन उसमें इस आत्मविश्वास का अभाव है कि वह रोहित में ऊपर उठने की इच्छा कभी वह जगा पायेगी। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगी कि ऐसे नहीं चलेगा समस्याओं का समाधान उसे ही करना होगा। समाधान करना होगा लेकिन उसे तो यह भी पता नहीं कि रोहित की तनख्वाह कितनी है! गौर से देखें तो यही वह दौर था जब रोहित के घर के माहौल में बदलाव की ही नहीं, विश्व-व्यवस्था में भी बदलाव की बयार आँधी बनने की तैयारी में थी। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (उनिभू) सभी के मन में बेहतर जीवन-स्तर की नयी-नयी संभावनाओं के लोभ और स्वप्न के आयातित पौधे को रोप-सींच रहा था। ऐसे में स्निग्धा की तरह सभी गृहणी मोर्चा सम्हालने के लिए तत्पर हो रही थी। अपने-अपने रोहितों के बारे में सोच रही थी कि एक बार ताकत लगाकर उनका रोहित अपने वर्ग से ऊपर क्यों नहीं उठ जाता!

भारत नये बदलाव के स्वागत की आंतरिक और अवचेतन आकांक्षा से लबाब था। हर किसी को संभावनाओं के चमकीले दाने दिख रहे थे, पसरे हुए आशंकित जाल की रस्सी और रस्सी की गाँठ नहीं दिख रही थी। भारत की स्थिति पर गौर करने से यह बात बिल्कुल साफ दिख सकती थी कि भारत विविधताओं, बहुलताओं से समृद्ध ही नहीं बल्कि विभिन्न स्तर एवं प्रकार की विषमताओं से ग्रस्त एवं अंदर से विखंडित भी रहा है। इसका अंतर्मन स्पर्श-कातर गाँठों और हमेशा टीसती रहनेवाली रसौलियाँ से भी पीड़ित रहा है। इसकी भुरभुरी सामाजिक संरचनाओं और उसकी परंपराओं में विषमताओं, गाँठों और रसौलियों की सक्रियताओं में कोई कमी नहीं हो पाई थी। आजादी के आंदोलन के दौरान आकांक्षित मूल्यबोध और ज्ञानोदय एवं आधुनिकता की आयातित नैतिकता जीवनबोध का जीवंत हिस्सा नहीं बन पाई थी। औद्योगिक क्रांति के साथ दुनिया में जब राष्ट्रवाद आकार पा रहा था तब भी भारत में राष्ट्रवाद उस रूप में गठित नहीं हो पा रहा था। भारत में हम और अन्य के इतने सारे ऐतिहासिक, आर्थिक, क्षेत्रीय, धार्मिक, जातिवादी, आनुवंशिक आदि के संदर्भ थे कि राष्ट्रवाद का विकास असंभव था। जानकारों ने माना कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा है और राष्ट्रवाद से अधिक जरूरी एवं उपयोगी है, मानवदाद। विडंबना यह कि दुनिया में जब राष्ट्रवाद का दबदबा था तब भारत विश्व-मानववाद की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन जब दुनिया में बहुराष्ट्रवाद या अधिराष्ट्रवाद (ट्रांसनेशनलिज्म) का उभार आया तो इसके साथ भारत में राष्ट्रवाद, धर्म-आधारित राष्ट्रवाद, बहु-सूत्रीय नहीं एक-सूत्रीय राष्ट्रवाद का ज्वार उठ रहा था। विडंबना यह भी कि यह राष्ट्रवाद राष्ट्रवासियों में हम और अन्य के दलदल से बाहर निकलकर एक होने की गुहार नहीं लगाता है। इस बार जो राष्ट्रवाद का ज्वार उठा उसके अंदर धर्म-आधारित हम और अन्य की भावना को पहले की अपेक्षा अधिक तीव्र और तीखा बनाने के दर्प और उन्माद के साथ आगे बढ़ने के नाम पर पीछे ले जाने का प्रपंच साफ दिख रहा था। अयं बन्धुरयं औरनेति गणना करनेवाली लघुचेतना का प्रभाव विस्तृत हो रहा था। वसुधैव कुटुंबकम के लिए आवश्यक उदार चरित पर लघुचेतना का ग्रहण लग गया था। हालाँकि, अयं बन्धुरयं नेति गणना लघु चेतसाम। उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम। संसद के प्रवेश कक्ष में यथावत अंकित था, फिर भी बन्धुरयं की गणना सत्ता की मूल प्रेरणा बन गई; अ-पारदर्शी प्रभुओं के नेतृत्व में पारदर्शिता और स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को नष्ट करनेवाला क्रोनी कैपिटलिज्म (साथ-गाँठवाला सत्ता-सहचर पूँजीवाद) जोर पकड़ रहा था। जन समर्थित जनतंत्र को पूँजी-प्रायोजित जनतंत्र अवहेलित और विस्थापित करने लगा था। धर्म के बारे में महाभारतीय संशय की कोई अब गुंजाइश नहीं बची थी। यह सब अद्भुत था, अपूर्व था। इन्हीं अद्भुत, अपूर्व परिस्थितियों में रोहित अपने विकास की संभावनाओं की तलाश कर रहा था। इस तलाश में जो हासिल हो रहा था उसे पकड़ने टिकाये रखने की कोशिश में स्निग्धा का साथ छूटते जाने, बेटू के हाथ से निकलते चले जाने, यानी अगली पीढ़ी और आवाम के ईंधन में बदलते जाने की आशंकाओं का अ-दृश्य घटाटोप आकार पा रहा था।

धम्म औरधर्म के अंतर पर फिर कभी बात की जा सकती है, लेकिन कबीर! कबीर के पास जाना जरूरी है। कबीर जब धर्म की बात करते थे, तब क्या कहते थे, स्वयं प्रकाश के इस उपन्यास को जानने की दृष्टि से कदाचित प्रासंगिक है, कि क्यों आवाम ईंधन में बदल रहा था। कुछेक विद्वान लोगों ने कबीर साहित्य  में धर्म शब्द के इस्तेमाल की गिनती भी की और वे निराश हुए। उन्हें कहीं भी कबीर के साहित्य में धर्म शब्द का सीधा उल्लेख नहीं मिला। सच तो यह है कि भक्ति धर्म का विस्तार नहीं विकल्प बनकर उपस्थित हुई थी। यहाँ यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि भक्ति के बोध में सूफी तत्व समाहित है। बहरहाल, कबीर के साहित्य में धर्म शब्द को तलाशना और उसकी व्याख्या करना अपने आप में बौद्धिक धोखे की ओर बढ़ना है। साहित्य में धर्म की खोज करना शरीर में उसके आत्मा की खोज करने जैसा हो सकता है। हाँ, देखना यह जरूरी होगा कि किसी साहित्य में स्वतः समाविष्ट धर्म का स्वरूप और चरित किस तरह लोक-हितैषी, या फिर लोक-विरोधी है। साहित्य में स्वतः समाविष्ट धर्म की अवधारणा में किसी मतिभ्रम की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। साहित्य में सच और सपना नीर-क्षीर के मिश्रण की तरह होता है। सपना माने झूठ? नहीं। वैसे, यशपाल को याद करें तो झूठ साहित्य में सच का विशेषण बनकर आता है, याद है न झूठा सच! सपना में जो होता है उसका सपना के बाहर में कोई तार्किक अस्तित्व नहीं होता है। पुरुषोत्तम अग्रवाल  ने प्रेम की अकथ कहानी के प्रसंग में कबीर से भारतीय आधुनिकता की शुरुआत को ठीक ही लक्षित किया है। भारत में आधुनिकता की शुरुआत को कबीर से जोड़ा जा सकता है। मैंने कई जगह भारतीय पुनर्जागरण का आरंभ विद्यापति से माने जाने का प्रस्ताव किया है। आधुनिकता पीठिका के रूप में पुनर्जागरण का होना, ऐतिहासिक समझ और तार्किक संगति से समर्थित माना जाना चाहिए। बहरहाल, भारतीय आधुनिकता और भारतीय पुनर्जागरण का रूप-तत्व ग्रामाभिमुखी था। यूरोपीय आधुनिकता और पुनर्जागरण का रूप-तत्व नगर-केंद्रित था। यूरोपीय आधुनिकता एवं पुनर्जागरण से भारतीय आधुनिकता एवं पुनर्जागरण के भिन्न होने को नैसर्गिक और सहज माना जाना चाहिए। यूरोप की आधुनिकता में ईसाई-मूल्य श्रृँखला की दार्शनिक बुनियाद, बौद्धिक विवेक का आग्रह और ज्ञानोदयी आकांक्षा प्रेरिका शक्ति के रूप में सक्रिय थी। भारतीय आधुनिकता की बुनियाद में आडंबर मुक्त भक्ति-तत्व की आध्यात्मिक आकांक्षा, निर्विशिष्ट सामाजिक-समता का आग्रह, निर्वैर जीवन-व्यवहार और सबसे ऊपर मानुस के होने का बोध सक्रिय था। यूरोपीय आधुनिकता और भारतीय आधुनिकता अर्थात आधुनिकता के इन दोनो संस्करणों के अपने क्रम और विक्रम हैं। इन्हें एक दूसरे की कसौटी के आधार पर कमतर या बेहतर मानने में अतुल्यों के बीच तुल्य-दोष है। यूरोपीय आधुनिकता और भारतीय आधुनिकता अर्थात आधुनिकता के इन दोनो संस्करणों का आकाश तो लगभग एक ही था, लेकिन जमीन बहुत ही भिन्न थी। भारतीय आधुनिकता की जमीन प्रत्यक्षतः दो कारणों से कठिन थी। एक कारण की ज़ड तो भारत के बहुलात्मक गठन की पारंपरिकता में थी और दूसरे की जड़ औपनिवेशिक विडंबनाओं में थी। यहाँ संकेत करना प्रासंगिक है कि वैकल्पिक आधुनिकताओं पर हुए अध्ययनों एवं निष्कर्षों को अलग से देखा जाना जरूरी हो सकता है।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन की बुनियादी बातों को याद कर लेना अप्रासंगिक न होगा। भारत के स्वाधीनता आंदोलन को अन-उपनिवेशन, ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश से बाहर निकलने की प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। आर्थिक, राजनीतिक, वैधानिक अन-उपनिवेशन का आग्रह तो प्रबल था ही, सांस्कृतिक और बौद्धिक अन-उपनिवेशन का आग्रह भी कम प्रबल नहीं था। सांस्कृतिक और बौद्धिक अन-उपनिवेशन की प्रक्रिया में भारतीय आधुनिकताबोध और यूरोपीय आधुनिकताबोध का अंतर्विरोध था। स्वाधीनता आंदोलन में तीव्रता के साथ ही आर्थिक, राजनीतिक, वैधानिक अन-उपनिवेशन का आग्रह मुखर और प्रबल होता गया जबकि सांस्कृतिक और बौद्धिक अन-उपनिवेशन का आग्रह निःशब्द और कमजोर पड़ता गया। स्वाधीनता आंदोलन की तीव्रता के दौर में भी सपनों में लुकझुक करती आदर्श राज्य-व्यवस्था के रूप में ब्रिटेन ही था, विडंबना ही है कि उपनिवेशित के अन-उपनिवेशन की आकांक्षा में उपनिवेशक ही आदर्श था। महात्मा गाँधी के ग्राम-स्वराज्य/ ग्राम-स्वराज के अनुसरण से अधिक आकर्षण ब्रिटिश-राज्य/ ब्रिटिश-राज के अनुकरण में था। इसका एक बड़ा कारण अन-उपनिवेशन की प्रेरणा का गुणसूत्र उपनिवेशक से जुड़ा था। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वाम-प्रगतिशीलता के वर्चस्व के कारण भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक अन-उपनिवेशन की प्रक्रिया उपनिवेशक की सांस्कृतिक और बौद्धिक परियोजना की अधीनस्थ बनकर रह गई। भारत में आंतरिक उपनिवेश भी कोई कम भयावह नहीं था। इस उपनिवेश की बेड़ियों को उतार फेकने की आकांक्षा भक्ति काल की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना में थी। बाबा साहब आंतरिक उपनिवेश की कड़ियों को बाह्य-उपनिवेशक की राजनीतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक परियोजना के बल पर उतार फेकने के प्रति आश्वस्त थे। साफ-साफ कहना जरूरी है कि भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक अन-उपनिवेशन की प्रक्रिया में उपनिवेशक की सांस्कृतिक और बौद्धिक परियोजना की अधीनस्थता से बाहर निकलने की कोशिशें न सिर्फ जारी रही बल्कि निरंतर तीव्र एवं विकृत होती गई। इस तीव्रता में संस्कृति को धर्म ने विस्थापित कर दिया।

आधुनिकता के भारतीय और यूरोपीय संस्करणों के संघर्ष में धर्म के जुड़ने से राजनीतिक प्रक्रियाओं का अगला दौर सामने आया। कई कारणों से इसके  सकारात्मक और अग्रगामी कारक छूटते चले गये और कतिपय नकारात्मक और पश्चगामी कारक प्रभावशाली होते चले गये। इसका कारण यह भी है कि धर्म पीछे से अपना प्रमाण प्राप्त करता है, सभ्यता आगे से अपनी प्राण-                                                                                                                                          शक्ति प्राप्त करती है। कहना ही होगा कि कम-से-कम भारत के संदर्भ में उत्तर आधुनिकता या तो इतर आधुनिकता या फिर आधुनिकता पूर्व के रूप में प्रकट होकर राजनीति के लिए ईंधन जुटाने में अपनी भूमिका अदा करने लगी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास अनामदास का पोथा में अंगुलि-निर्देश की चर्चा की है। कोई अंगुलि-निर्देश करे तो उस दिशा के नफा-नुकसान को समझते हुए आगे बढ़ना सयानो का काम होता है, न कि अंगुली पकड़कर कर लटक जाना। साहित्य तो अंगुलि-निर्देश ही कर सकता है। स्वयं प्रकाश के इस उपन्यास को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। समझा जा सकता है, लेकिन साहित्य का पाठक प्राथमिक तौर पर साहिय के पास समझ या ज्ञान के लिए नहीं, रस और आनंद के लिए आता है, पात्रों से जुड़कर खुद को निर्विशिष्ट रूप में खोने-पाने के लिए आता है, इसके लिए रोहित तथा स्निग्धा के जीवन-प्रसंग में जाना होगा।

रोहित और स्निग्धा की जीवन शैली में काफी अंतर है। इस अंतर को ध्यान से देखें तो इस में आदमी और आदमी का अंतर दिखता है। स्निग्धा जहां पूरी तरह से आधुनिकता की जीवन शैली यानी कि यूरोपीय जीवन पद्धति पर यकीन करती थी, यूरोपीय जीवन पद्धति ही उसे आकृष्ट करती थी। वहीं रोहित इस बात को बिल्कुल ही सही नहीं मानता था। रोहित भारतीय शैली में अपनी जीवन पद्धति को सुगठित करना चाहता था। रोहित और स्निग्धा के मामले में यह गौर करने लायक बात है कि इन मुद्दों पर उन में पारस्परिक भिन्नता थी और यह भिन्नता उनके मन को मथती रहती थी। अचानक बने संबंध के बावजूद दोनों की जीवन गति बिल्कुल भिन्न में दिशाओं में जा रही थी। भिन्न-भिन्न दिशाओं में कुछ दूर जाकर भी दोनों अपनी संबंध भूमि पर लौट आते थे। रोहित कहता कि अंगुलियों से, हाथ से खाने में क्या बुराई है! अपना हाथ खाना खाने से पहले हम तीन बार साबुन से धो सकते हैं, जबकि काँटा जाने किस किस के मुंह में घुसकर आया होता है। काँटा कभी अंगुलियों जितना साफ हो ही नहीं सकता। अंगुलियाँ भोजन को छूते ही उसके तापमान की सूचना आपको दे देती है। देखना कल को पश्चिम के लोग भी हाथ से खाना खाने के महत्व को समझेंगे। रोहित भिन्न धरातल पर जिंदगी जी रहा था। रोहित को लगता था कि उसे सभ्य बनाए जाने की कोशिश की जा रही है। पालतू बनाया जा रहा है। भद्र समाज के अनुकूल ढालने की कोशिश की जा रही है। सफलता की गगनचुंबी दिशा में प्रक्षेपित किया जा रहा है। रोहित और स्निग्धा में सफलता की कामना के औचित्य पर कोई विवाद नहीं था। जीवन लक्ष्य के बारे में और जीने के अर्थ के बारे में कोई संदेह नहीं था। सब कुछ स्पष्ट था। रोहित की आत्मा रहन-सहन के वैश्विक रूप से मान्यता प्राप्त तरीके को एक मात्र सही तरीका मानने को तैयार नहीं थी। इस मसले पर बहस करता था। शांति से और विस्तार से अपने विचार व्यक्त कर सकता था, लेकिन उसका विचार सुनता कौन? बहस तो व्यक्ति से की जा सकती है! बहस ऑब्जेक्ट्स से नहीं की जा सकती। एक ऐसा माहौल बन गया था कि हर कोई, दूसरे के लिए ऑब्जेक्ट्स बनता जा रहा था। विडंबना यह कि संवाद साधनों की बढ़ती प्रचूरता के साथ ही संवादहीनता का माहौल अधिक गहराता जा रहा था। लोग अपनी-अपनी वास्विक कंटीली जीवन स्थिति से पलायन करके अपने-अपने सपनीले एवं सुकुमार आभासी धरातल पर मनसा संचरण के नये उलझावों में फँसते जा रहे थे। ऐसे में संवाद! संवाद की संभावनाएँ तिरोहित होती जा राही थी। तिरोहित संभावाओं के बावजूद रोहित इन तमाम मसलों पर स्निग्धा से बात करना चाहता था, लेकिन दोनों के धरातल पर अलग-अलग तरह के मसले थे। दोनों का जीवन एक धरातल पर आ ही नहीं पा रहा था। यहां तक कि उनके सोने के लिए भी एक समान धरातल नहीं था। न सोने का धरातल एक था, न सपनों का धरातल एक था। माहौल ऐसा कि सपना में कोई अपना शामिल नहीं हो पा रहा था।

स्निग्धा को धीरे-धीरे रोहित से चीढ़ सी होने लगी थी। उसके काम करने के तरीके से, यहां तक कि उसके खर्राटे से। उसके हर प्रकार की, पूरी की पूरी जीवन शैली से स्निग्धा को चिंता हो रही थी। स्निग्धा अपने को एडजस्ट नहीं कर पा रही थी। रोहित के टेस्ट को लेकर भी उसके मन में काफी दिक्कत थी। कोई गरीब है इसमें उसका कोई कसूर नहीं हो सकता है, लेकिन गरीबी को ग्लोरीफाई क्यों किया जाए! गरीबी है तो एक अभिशाप उससे नफरत की जानी चाहिए। उसे मिटाने के लिए परिश्रम किया जाना चाहिए। रोहित को लगता है कि जिंदगी एक संघर्ष है। असल में रोहित जिस जिंदगी को जीना चाहता था वह जिंदगी एक भिन्न प्रकार की जिंदगी थी, जो अपने चरित में पारंपरिक भारतीय ग्रामीण जिंदगी थी। स्निग्धा की समस्या थी कि शादी के काफी दिनों बाद तक उसे यह पता नहीं था कि रोहित को कितनी तनखा मिलती है। कैश मिलती है या बैंक में चली जाती है! उसका खाता किस बैंक में है? क्या नंबर है? अकेले का खाता है जॉइंट अकाउंट है? नॉमिनी की जगह उसने किसी का नाम लिखवाया भी है या नहीं? यदि हां तो किसका? रोहित उसे नहीं बताता था। इसके दो ही कारण हो सकते थे या तो उसकी तनख्वाह इतनी कम थी कि उसे बताने में भी शर्म आती थी या उसके अनुमान से इतनी ज्यादा कि सोचता होगा बता देगा तो सारा पैसा खर्च कर देगी। इन सब बातों पर स्निग्धा का मन लटका रहता था। वह हमेशा नए जमाने की बात करती थी।

स्निग्धा अपने जीवन में पहली नौकरी पर जब जाती है तो उसे कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। स्कूल की स्थिति यह रहती है कि उसमें न तो कोई ढंग का बाथरूम होता है और ना किसी प्रकार का वास्तविक वातावरण होता है। स्कूल का पूरा इकोसिस्टोम जैसे डिस्टर्ब रहता है। हद तो तब होती है जब तनख्वाह की बारी आती है। ढाई हजार पर साइन कराए जाते हैं, एक हजार दिए जाते हैं। अड़ जाने पर ढाई हजार देकर नौकरी समाप्त कर दी जाती है। स्निग्धा के मन में जो सवाल उठता है, ईमानदारी से एक सामान्य जीवन जीने के लिए हम कहां जाएं! यह इस सभ्यता का सबसे बड़ा सवाल है कि ईमानदारी से एक सामान्य जीवन के लिए कोई कहां जाए?

 रोहित और स्निग्धा में मंदिर भगवान देवी देवताओं को लेकर भी बहस होती है। रोहित के पास अपने धर्म होते हैं। स्निग्धा के पास अपने। रोहित इस बात को ऐसे लगता है कि कॉमन सेंस रखने के लिए धर्म का होना जरूरी थोड़े ही है! हजारों लोग हैं जो देवी देवताओं को नहीं मानते मंदिर नहीं जाते।

 स्निग्धा के पापा सोचते हैं, आदमी के पास पैसा नहीं होता है, तो वह पैसे के पीछे पड़ जाता है। पैसा कमाने के पीछे सब कुछ भूल जाता है बीवी बच्चे घर परिवार को, हँसना खेलना सब, यहां तक कि खुद को भी। जब इस तरह सब कुछ खोकर खूब पैसा कमा लिया जाता है तो समझ में ही नहीं आता इस पैसे का और अधिक पैसा बनाने के अलावा क्या उपयोग किया जा सकता है!

रोहित को पूरी तरह बदल दिया, कायाकल्प कर दिया मुंबई ने। रोहित को वह सपना देखना सिखा दिया मुंबई ने जिसे वह अब तक नीची नजर से देखता था। छ महीने के अंदर ही मुंबई के जीवन में ऐसे रंग गया जैसे पानी में मछली, खासकर महिलाओं के बारे में तो उसकी सोच ही बदल गई। रोहित अपने को परंपरा पोषित परिस्थिति पुत्र भी मानता था। अर्थात, आदमी कमा कर लाता है और औरत उड़ाती है। आदमी खटता है और औरत खिलाती है। आदमी जुटाता है और औरत बनाती है। आदमी पाता है औरत पालती है। आदमी चलाता है औरत चलती है। इसी तरह की होती है दुनिया। रोहित ने महिला के साथ काम नहीं किया था। कामकाजी स्त्रियाँ डॉक्टर, नर्स, अध्यापिकाएँ, धोबन, मेहतरानी, मालन आदि पहले भी देखी थी। लेकिन, पहली बार एक संपूर्ण-सहज-स्वाभाविक मानवीय ईकाई के रूप में अब देखी। जिन से बात-चीत, हँसी-मजाक किया जा सकता था लेकिन जो हर समय उसकी चेतना पर लदी नहीं रहती। जैसे और वैसे वे भी। मुंबई के गरीब भी रोहित के शहर के गरीबों की तुलना में अमीर नहीं तो काफी कम गरीब व्यक्ति थे। रोहित को लगता था मुंबई में अर्थशास्त्र अपने सबसे मुखर रूप में गतिशील था। उसकी हर परत, उसका हर खेल, उसका हर जलवा मुंबई में सरे आम नुमाया था। मुंबई में ऐसे लोग भी थे जो एक वक्त में हजार रुपया का खाना खाते थे, बीस हजार की पोशाक पहनते थे, पचास हजार की घड़ी बाँधते थे, पाँच लाख की कार में बैठते थे, करोड़ों का धंधा करके अरबों का ख्वाब देखते थे। तो ऐसे भी थे जो नौ हजार में गुजर-बसर करते थे – जैसे कि खुद रोहित। लेकिन मुंबई ने उसे सपना देखना सिखला दिया। 

एक महत्वपूर्ण संदर्भ स्निग्धा के गर्भवती होने से जुड़ा हुआ है। इस बच्चे का क्या किया जाए? स्निग्धा इस समय में बच्चा नहीं चाहती थी। और इसके लिए वह न तो अपने पति से सलाह कर सकती थी और न पिता से। इन परिस्थितियों में, धीरे-धीरे तुषार को उसने अपना राजदार बनाना शुरू कर दिया। तुषार जो रिश्तों की गहराई में लगभग मौन था, लेकिन वह स्निग्धा के पिता का भी राजदार था और स्निग्धा का भी। बेटू से भी उसका रिश्ता बहुत करीबी था, उसके गर्भ में आने से लेकर उसके भस्म हो जाने के बाद तक। स्निग्धा, उसके पापा और बेटू के बीच तुषार उनके रिश्तों का चौथा आयाम था। बेटू के गर्भ में आने से बहुत ही दुविधा में थी स्निग्धा। गर्भावस्था का तीसरा महीना था जब रोहित आया। रोहित बदला नहीं था, लेकिन रोहित के प्रति लोगों का व्यवहार जरूर बदल गया था। यह बदलाव उसने पापा के व्यवहार में भी देखी। रोहित नया अनुभव कमा कर आया था। दुनिया में कुछ भी हो सकता है। जब एक टाइपिस्ट एक दिन मंत्री बन सकता है। कार्यालय में झाड़ू लगाने वाला और चाय पिलाने वाला एक दिन पार्टी का अध्यक्ष बन सकता है। सिनेमा के पोस्टर बनाने वाला एक दिन क्या-से-क्या बन सकता है। कुछ भी हो सकता है। विडंबना यह कि गर्भ में उपस्थित बेटू उसके अनुभव का हिस्सा नहीं बन पा रहा था।

रोहित तो इस बात सेआश्वस्त था कि धीरे-धीरे बेटू समझ गया कि बाप खेलने की या टाइमपास करने की चीज नहीं होता है। वह हर समय माँ से चिपका रहने लगा। जब उधर से भी झिड़कियाँ मिलने लगी। तो चार साल का होते-होते अकेले-अकेले हंसने, अकेले रोने, अकेले होने, अकेले अपने-आप से बातें करने अकेले सोने की आदत उस के अंदर विकसित हो गई। स्निग्धा और रोहित को लगा  था कि बेटू आत्मनिर्भर हो रहा है, और बच्चों को आत्मनिर्भर तो होना ही चाहिए। धीरेधीरे स्निग्धा भी समझ गई कि पति गपशप करने की चीज या दिल की बात बताने की, पछूने की, या साथ हंसने-रोने की, घमूने फिरने की, साथ-साथ सपने देखने की, सोचने और योजना बनाने की या अपना सब कुछ बांटने की चीज नहीं होता है। उसके शहर के पति होते होंगे! क्या महानगर का पति! महानगर के पति का कुछ और चरित्र है, कुछ और अपेक्षाएँ, कुछ और कर्तव्य, यह सब समझने और स्वीकार करने में स्निग्धा को बहुत समय लगा।

रोहित को भी महससू हने लगा कि रोमांस उनके घर को, उनकी जिंदगियों को छोड़कर न जाने कहाँ चला गया था! यहां हर चीज समय पर रूटीन के साथ बंधी थी। जिस समय आप रोमांटिक मूड में हों, उस समय साथ हों और प्यार करने लगें यह सभंव नहीं था। जब समय हो, साथ हो तभी फटाफट मूड बनाकर रोमांटिक हो जाना, यही अब सभंव था। अपनी भावनाओं को, मन को मानसिकता को, मूड को इस तरह बिजली के झटके की तरह चालू बदं करना आसान नहीं था। लेकिन, दूसरा कोई उपाय भी नहीं था। महानगर के लाखों पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका यही कर रहे थे। इन तमाम परिस्थितियों का असर यह हुआ कि उनके संबंध बदलने लगे। अब पति -पत्नी की जगह सहयात्री की तरह हो गए थे। इसी तरह जिंदगी चल रही थी।

देश की बदलती उठती गिरती अर्थव्यवस्था के बीच राजनीतिक विकास की स्थिति इस तरह हो गई थी कि एक मध्यवर्ग सामने आ गया था। कदरोलकर की नजर जितनी पैनी थी उसकी नजर वह उतना ही धूर्त्त भी था। उसकी पैनी नजर में उच्च मध्यवर्ग के चरित्र में उपभोक्तावाद, शानदार जीवन की लालसा विदेश यात्रा का प्रलोभन और श्रम से छुटकारा पाने की प्यास का असर था। कदरोलकर की धूर्त्त नजर में में इस देश के लिए सांप्रदायिकता से ज्यादा बड़ा कैंसर हो गया था नौकरशाही का दखल। लेकिन नौकरशाही के खिलाफ कोई नहीं बोलता। कदरोलकर की नजर में सांप्रदायिकता के खिलाफ बोलना फैशन में है। शायद इसलिए भी आपको लगता है कि  आप उसेफाइट कर सकते हैं। लेकिन नौकरशाही! उसका ख्याल आते ही आपको लगता है कि उसके बगैर देश कैसे चल सकता है! वह कहता है रोहित अगर हम कुछ नहीं बनेंगे तो भी इसकी बदौलत, कुछ भी होंगे तो इसी नौकरशाही की बदौलत। कदरोलकर सांप्रदायिकता के खतरे को कम आँकता है और क्रोनी कैपटलिज्म पर अधिक भरोसा जताता है।

वही बेटू जिसे आत्मनिर्भर बनता हुआ देखकर रोहित के मन में संतोष जन्मा था अब जवान हो रहा था। उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व निर्मित हो गया था। उसने अपने व्यवहार से बता दिया था कि मन, प्राण, बुद्धि और चेतना से वह एक सपूंर्ण इकाई है। वह अपने मां-बाप का अपेंडिक्स नहीं है। अब स्निग्धा और रोहित को किस हद तक अपने मामलों में शरीक करना है इसका फैसला भी बिटूटू खुद ही करेगा। दुर्भाग्य से आरामदायक आर्थिक स्थिति ने इसे और जल्दी सभंव बना दिया। आरामदायक आर्थिक स्थिति का दुर्भाग्य से जुड़ना बेटू और बेटू की पीढ़ी की त्रासद विडंबना के रूप में प्रकट हो रही थी। असल में बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों के भीतर बेटू का विकास हो रहा था। सांप्रदायिकता के या धार्मिक स्थल के सवाल का वह कायल होता जा रहा था। इस प्रकार बेटू का विकास एक भिन्न प्रकार से हो रहा था। आधनिुनिकता की किसी भी परियोजना के बिल्कुल विपरीत उसका विकास हो रहा था।

बेटू अपने कई विषयों में फेल हो गया। फेल होने के पीछे उसने उन कारकों को रेखांकित किया, जो तर्क गढ़ा वे भी उन्हीं परिस्थितियों की मानसिक ऊपज थी। उसका विकास एक नए राष्ट्र के निर्माण की तरफ कदम बढ़ाने का संकेत दे रहा था। यही वह पीढ़ी थी, जिसका बड़ा हिस्सा, भारत को एक बदले हुए मिजाज में ले जाने पर आमादा राजनीतिक अग्निकुंड की समिधा बन रही थी। समिधा! समिधा नहीं, ईंधन। एक नए राष्ट्र का विकास ! विकास हमारे सामने है, और उस विकास को हम देख भी रहे हैं। जिन परिस्थितियों में बेटू का देहांत हुआ वह बहुत ही भयानक तो है ही, उन परिस्थितियों को बनाने में उसकी भी भूमिका गौर करने लायक है। प्रतीक में देखें तो बेटू अपनी पीढ़ी का प्रतीक लगता है। ऐसा लगता है कि बदलती हुई स्थिति में समाज ने अपने बेटू को सही व्यक्तित्व नहीं दिया। उनका व्यक्तित्व उस इस तरह से निर्मित हुआ कि वे उन परिस्थितियों में ईंधन बनते चले गए। ईंधन, किसी को जलाने के पहले खुद जल जाना जिसकी दुर्निवार नियति और परिणति होती है। इसके लिए दोषी कौन, कितना कम, कितना ज्यादा, वक्त हिसाब करेगा।

वक्त जब हिसाब करेगा तब करेगा, फिलहाल रोहित सोचता है, पापा तो मन-ही-मन उसे ही दोष दे रहे होंगे। वह तो यही समझ रहे होंगे कि मैं ने इन हथियारों से अपने और स्निग्धा के बेटे की हत्या की है। पापा कभी नहीं समझ पाएंगे कि हमारी दुनिया एक विशाल दैत्याकार धमन भट्ठी बन चुकी है और हम तीनों अपने जैसे हजारों-लाखों लोगों की तरह उसमें ईंधन की तरह झोंक दिये गये हैं। बेटू छोटा था भस्म हो गया। हमारे पूरी तरह भस्म होने में अभी कुछ और समय लगेगा। रोहित का ऐसा सोचना कितना सही है, कितना विलाप इसे पाठक को तय करने दिया जाए। गुजारिश इतनी-सी कि तय करने के पहले एक बार समाज में जिंदा प्रेत की तरह उलटे-पाँव चलते-फिरते, हँसते-रोते रोहितों, स्निग्धाओं और बेटुओं को पुरनजर देख लिया जाए।

नोटः पाठकों से विशेष अनुरोध

1.  इसे विडबंना को भी समझा जाना चाहिए की जिस एम-क्लास टीचर को बेटू घृणा की दृष्टि से देखता था उसी एम-क्लास का सदस्य उसे बचाने के लिए आगे बढ़ा था और खुद जलकर जख्मी हो गया और अब अस्पताल में अपना इलाज करवा रहा था। अस्पताल के अर्थ का अनुमान पाठक खुद लगा सकते हैं।

2.  नयी आर्थिक नीति उनिभू के साथ 1990-91 में शुरू हुई। इस उपन्यास का प्रकाशन 2004 में हुआ, लगभग तेरह साल बाद। तेरह बरह की उम्र में बेटू ईंधन की तरह इस्तेमाल हो गया। पाठक इसका अर्थ अपने स्तर पर हासिल करें।

3.  बेटू 6 दिसंबर को भस्म हुआ। भारत के इतिहास में 6 दिसंबर के महत्त्व को ध्यान में रख कर पाठक बेटू के उस दिन भस्म होने की घटना का निहितार्थ खोजें।

4.  एक दिन जब बेटू उठकर खड़ा हुआ। रोने लगा। रोहित से चीखकर बोला आप उनका पक्ष लेंगे ही। आप तो उन्हें अच्छा कहेंगे ही। आप मीट खाते हैं। आप मंदिर नहीं जाते। मैं जानता हूँ आप कम्युनिस्ट हैं। आइ हेट यू! आइ हेट यू! रोहित उस घटना को कैसे भूल गया, उसे तत्काल कुछ करना चाहिए था कुछ किया क्यों नहीं? पाठक इस चूक का पलितार्थ स्थिर करें।

5.  स्निग्धा जिस स्कूल में पढ़ाने गई थी उसका इकोसिस्टम डिस्टर्ब था, जिसे सुधारने की उसने कोशिश की थी। लेकिन यह पता चलने पर कि बेटू के स्कूल में बड़ी कक्षाओं के कुछ लड़के बच्चों को भड़का रहे हैं; बड़े लड़कों को स्कूल के ही एक-दो अध्यापक और उनका दल भड़का रहा है, पाठक बतायें रोहित को क्या करना चाहिए था जो उसने नहीं किया।

6.  किन परिस्थितियों में आदमी जितना कमाता है, उससे अधिक गँवा देता है? पाठक उन परिस्थितियों का एक सुंदर-सा नाम दें


उपन्यासः ईंधन

उपन्यासकार : स्वयं प्रकाशप्रकाशक : वाणी प्रकाशन, 200

कीमत : तीन सौ पच्चीस

वंश युद्ध

वंश युद्ध
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पिता का आखिरी दौर! 
शुरू होती है पुत्रों के बीच खींचतान 
पिता की खाली जगह भरने की होड़। 
पिता की जगह जब सिकुड़ने लगती है
पुत्र उस जगह को भरने के लिए बेताब होता है! 
इस तरह शुरू होता है वंश युद्ध! 
प्रकट होते हैं शकुनि कृष्ण और भी सारे
होती है चर्चा नीति न्याय की और भी बहुत कुछ 
मगर वंश युद्ध होता ही है, 
विनाश के पहले रुकता नहीं है वंश युद्ध 
ऐसे ही हुआ था महाभारत
उदाहरण इतिहास के भी पन्नों पर हैं!

पिता अंधत्व का शिकार होता है 
होता ही है अंधत्व का शिकार 
होता ही है वंश युद्ध! 
छोटा-बड़ा जैसा भी हो
मगर होता है अनवरत वंश युद्ध!