धर्म, समाज और राज्य


धर्म, समाज और राज्य 


जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।-पंच परमेश्वर: प्रेमचंद 
विचारों का मिलन राजनीतिक जनतंत्र की अंतर्वर्त्तिता में सामाजिक जनतंत्र को और वैधानिक नयाय की अंतर्वर्त्तिता में विवेक-सम्मत सामाजिक न्याय को व्यवहार का आधार देता है। खान-पान का व्यवहार और धर्म का नाता न रहने पर भी जुम्मन शेख और अलगू चौधरी के बीच साझे में होनेवाली खेती और साझा लेन-देन सामान्य खेती और सामान्य लेन-देन मात्र नहीं है। इस साझेपन का व्यापक सांस्कृतिक आयाम भी है। इस व्यापक सांस्कृतिक आयाम का आधार जीवनयापन की समाजार्थिकी से समर्थित और विकसित विचारों का साझापन है। विचारों के साझेपन में कमी आने से सामाजिक और सामुदायिक मित्रता का नैसर्गिक आधार खतरे में पड़ जाता है। जीवनयापन देहधरे का सब से बड़ा धर्म है। जीवनयापन सामाजिक साझेदारी प्रक्रिया के अंतर्गत संभव होता है। दिन-प्रतिदिन के जीवनयापन के संघर्ष में साझेदारी और सामंजस्य के लिए आलोचनात्मक सामाजिक विवेक की जररूत होती है। कहना न होगा कि हम साहित्य से जुड़े हुए लोग हैं और साहित्य के प्रयोजनों को लोगों के प्रयोजनों से जोड़े रखना हमारी चाहत है। साहित्य मूलत: सामाजिक स्वप्न के सतर्क अंतरंग का संगत विवेक विमर्श भी है। इस विवेक विमर्श का सहज उत्पाद विचार का संवेदना पक्ष है। दर्शन में विचार तर्क समर्थित ज्ञान के गर्भ में विकसित होता है। साहित्य में विचार, विवेक समर्थित संवेदना के गर्भ में विकसित होता है। जीवन में ज्ञान की बहुत बड़ी महिमा है। समाज इस ज्ञान का आदर करता है। समाज जिंदा रहता है संवेदना के बल पर। वह समाज आदर्श होता है जिसमें ज्ञान और संवेदना में कहियत भिन्न, न भिन्न का संबंध विकसित होता है। कहना न होगा कि हमारा समाज इस आदर्श को अभी हासिल नहीं कर पाया है, इसलिए कबीरदास ज्ञान की आँधी से तो सावधान करते हैं, ज्ञान का निषेध नहीं करते हैं। समाज में साझा विचार विवेक समर्थित संवेदना के साझापन से बनता है। शायद इसीलिए सतसंग की सामाजिक साझीदारी के बिना विवेक के सक्रिय होने की बात की ही नहीं जा सकती है, तलसीदास के शब्दों में कहें तोबिनु सतसंग विवेक न होई! सतसंग की सामाजिक साझेदारी के अभाव में विवेक बाँझ हो जाता है। विवेक के बाँझ होने से साझीदारी का संगत विचार पिष्प्राण हो जाता है और विचारहीनता के तर्कातीत उन्माद का दौर शुरू हो जाता है। विचारहीनता के तर्कातीत उन्माद के कठिन समय में  विचार और विचारों के साझापन की संवेदना को कैसे बचाये रखा जाये, यह हमारी केंद्रीय चिंता है।
जीवन में तर्कातीत की जगह और वजह को हम ठीक से नहीं समझेंगे तो उसके उन्माद में बदलने की प्रक्रिया को रोकने में भी कामयाब होना मुश्किल ही होगा। जीवन के गणित में हमेशा दो जोड़ दो चार ही नहीं होता है। जीवन-तर्क कई बार अदृश्य रह जाता है। जाहिर है, हर किसी को हर समय अपने जीवन का बना-बनाया तर्क हासिल नहीं होता है। हर किसी को अपने विभिन्न जीवन-प्रसंगों में जीवन-तर्क का उपार्जन करना पड़ता है। अकेले-अकेले जीवन के संसाधन उपार्जित नहीं किये जा सकते हैं। जीवन-तर्क का उपार्जन भी अकेले-अकेले संभव नहीं होता है। इसके लिए सामाजिक प्रयास की जरूरत होती है। जीवन के के लिए जरूरी संसाधन कई बार सामाजिक प्रयत्न के बावजूद हासिल होने से रह जाते हैं। सामाजिक प्रयास के बावजूद समाज विकास की विभिन्न अवस्थाओं में जीवन-तर्क का एक हिस्सा हासिल होने से रह जाता है। जीवन में एक ऐसा कोना बना रह जाता है जहाँ नीम अंधकार या पूर्ण अंधकार दुबका रह जाता है। इसका एहसास तब होता है जब जीवन के किसी कमजोर क्षण में यह अंधकार झपट्टा मारकर हमारी चेतना को लहुलुहान कर देता है। समाज विकास की अगली अवस्था तक स्थगित जीवन-तर्क से बने अंधकार जीवन के साथ चलते रहते हैं। जीवन के इसी दिमागी गुहा अंधकार में रहस्यावृत्त विश्वासऔर आस्थाका जन्म होता है। इस रहस्य के बने रहने के कारण विश्वासऔर आस्थाकी व्यवस्था रूढ़ होकर धर्म-संस्था हो जाती है। समाज विकास की एक खास अवस्था में, जीवन-तर्क के हासिल होने तक, अंधकार से लड़ने के लिए धर्म लोक आश्वस्तकारी मूल्य-समुच्चय बनाता है। इस में निहित आस्था के आयाम से निष्पन्न मूल्य-समुच्चय समाज और धर्म के बीच के संबंध का संस्थागत आधार बनता है। सानुगतिक समाज विकास की उच्चतर अवस्था में पहुँचने के बाद स्थगित जीवन-तर्क से बने रहस्य के खुल जाने के बावजूद, प्रभुवर्ग समाज और संस्थागत धर्म के संबंध की स्थैतिक जड़ता के बल पर दिमागी गुहा अंधकार को चिरकाल तक बनाये रखने का प्रयास जारी रखता है। प्रभुवर्ग जानता है कि समाज के ऊपर कठोर वर्चस्व बनाये रखने में संस्थागत धर्म का उपयोग कैसे किया जाता है! छल का बल लेकर संस्थागत धर्म की शास्त्रीयता का पुरोहितवादी रूप हमारे सामने आता है। विडंबना ही है कि राज्य की दासता को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारनेवाला धर्म का पुरोहितवादी मिजाज अपने अनुयायियों को मुक्ति का परचून बाँटता है। दासता में आनंद की खोज करनेवाला भला दूसरों को कैसे और कैसी मुक्ति का राह दिखायेगा! इस पुरोहितवादी धर्म के विरुद्ध संघर्ष करते हुए लोकधर्म का उदय होता है। भारत में यह संघर्ष भक्तिकाल में हुआ। नामवर सिंह ठीक ही कहते हैं, इस प्रकार मध्ययुग के भारतीय इतिहास का मुख्य अतंर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व है, न कि इस्लाम और हिंदु धर्म का संघर्ष।’  सूफी और संत इसलाम ओर हिंदु अपने-अपने धर्म की शास्त्रीयता’  के अंधत्व का विरोध अपने लोकधर्म के आलोक से कर रहे थे। कबीर तो दोनों ही धर्म की शास्त्रीयताके अंधत्व का विरोध एक साथ कर रहे थे। भक्ति काल का महत्त्व इस बात में है कि उसके संतों ने वाणी और कर्म दोनों स्तर पर सीकरीसे अपने संबंधका निषेध किया। उस जमाने में भी सीकरीसे संबंधरखनेवाले संत क्या कम रहे होंगे! अंधेरे में नहीं देख पाना अंधत्व का लक्षण नहीं है। लेकिन उजाला हो जाने के बावजूद देखने में अक्षम होना अपने अंधत्व का और देखने से कतराना दूसरे को अंधत्व का शिकार बनाने का लक्षण है। भक्तिकाल के संतों ने धर्म का नहीं धर्म के नाम पर सामाजिक अंधत्व को बनाये रखने की राजकीय परियोजनाओं का विरोध किया। आज जीवन में अंधकार के घेरा को योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाया जा रहा है। अंधकार का साझापन बढ़ रहा है। आलोक का साझापन कम हो रहा है। आज हमारे सामने संघर्ष का एक मुख्य सरोकार आलोकित विचारों के साझापन को कम करनेवाले और राजकीय दासत्व में पल रहे धर्म के पुरोहितवादी रुझान के द्वारा फैलाये तर्कातीत उन्माद के गर्भ से जनमे अंधत्व के प्रसार को बढ़ानेवाले कुत्सित विचार से है। इस संघर्ष को कैसे सार्थक ढंग से आगे बढ़ाया जाये?
आज हमारे सार्वजनिक जीवन में सीकरी संतोंके कारण धर्म के नाम पर भारी कोलाहल और कलह जारी है। विज्ञान के विकास के बावजूद पूरी दुनिया में धर्म को लेकर नये सिरे से समूहन और संघात का वातावरण बनता जा रहा है। धर्म के संदर्भ से जीवन में अधिक जगह घेरनेवाले नये द्वंद्व बने रहे हैं। तीखे आंतरिक विभाजनवाले भरतीय, खासकर हिंदी समाज, में इस द्वंद्व के अपने खतरनाक राजनीतिक आयाम हैं। इस आयाम के सांस्कृतिक संदर्भ को समझे बिना इसके राजनीतिक दुष्परिणाम से बचना मुश्किल है। यों तो पूरी दुनिया में सभ्यता और धर्म को समानार्थी बनाते हुए सभ्यताओं के संघर्ष के नाम पर धर्मों के संघर्ष की आशंका व्यक्त की जा रही है और उस संघर्ष का आह्वान भी किया जा रहा है। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में दो विरोधी प्रतीत होनेवाली वैश्विक प्रवृत्तियों के एक साथ सक्रिय होने को लोग लक्षित करते हैं। एक ओर विज्ञान और बाजार के द्वारा प्रदत्त भोग के समान अवसर के नाम पर पदानुक्रमीय सामुदायिक जनतंत्र की बात की जा रही है। दूसरी ओर धार्मिक अस्मिता के नाम पर समता विरोधी विश्व स्तरीय पुरोहितवादी भेदभावमूलक रुझान को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस तरह बाजारवाद और साम्राज्यवाद का बनता हुआ नवसंश्रय जनतंत्र और धर्म दोनों का रणनीतिगत आश्रय लेता है। अपनी रणनीति के अंतर्गत यह नवसंश्रय मानवीय सभ्यता की मूल आकांक्षा से जनतंत्र और धर्म दोनों के सकारात्मक पक्ष को विच्छिन्न कर देता है। सिकुड़ता हुआ लोक कल्याणकारी राज्य जनतंत्र और धर्म दोनों के सकारात्मक पक्ष की सभ्यता से विच्छिन्नता रोकने की इच्छा और शक्ति दोनो को गँवा बैठता है। विरोधी प्रतीत होनेवाली वैश्विक प्रवृत्तियाँ मिलकर विश्व-व्यवस्था को सभ्यता-संघात की दिशा में धकेल रही हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सैमुएल हंटि्टंगटन विश्व-व्यवस्था के समरस मानवीय सभ्यता की ओर बढ़ने के बदले विखंडित सभ्यता सचेतनता के कारण सभ्यता के विश्व-व्यापी संघात की बात करते हैं, तो हमारी चिंता और बढ़ जाती है। यह चिंता इसलिए भी बढ़ जाती है कि वे सभ्यताओं के नियामक ओर विधायक तत्त्वों के रूप में धर्मीय और नस्लीय संदर्भों की नृतात्त्विकता को यांत्रिक ढंग से महत्त्व देते हुए सभ्यता के संघात के नाम पर धार्मिक संघात की अनिवार्यता की आशंकाएँ व्यक्त करते हैं। आशंकाओं के अह्वान के आत्मघाती समय में साँस लेते हुए महसूस किया जा सकता है कि तेजी से अबांछित बदलाव के दौर से गुजर रही दुनिया में नवपुरोहितवाद का दखल बढ़ रहा है। यह नवपुरोहितवाद वर्ग के विलोप होने की बात करता है। यह सभ्यता के वर्ग-सत्य की जगह समुदाय-सत्य की बात प्रचारित करता है। वर्ग-सत्य का आधार आर्थिक होता है और समुदाय-सत्य का आधार धार्मिक होता है। वर्ग-सत्य वैज्ञानिक होता है और परिवर्त्तन की जनवादी चेतना के संघर्षशील राजनीतिक आशय से संपन्न होता है। सामुदायिक सत्य धार्मिक होता है और यथास्थिति के शरण में शांतिमय समर्पण की प्रवणता से संचालित होता है। नवपुरोहितवाद सभ्यता और संस्कृति के ऐतिहासिक विनिर्माण के जेनुइन आर्थिक आधार का निषेध करते हुए धार्मिक आधार का छद्म तैयार करता है। यहीं प्रचारित सामुदायिक जनतंत्र में आर्थिक संदर्भ के विचलन और धार्मिक संदर्भ के समर्थन के नवपूँजीवादी आग्रहों के निहितार्थ को सावधानी से पढ़ा जा सकता है। 
नवपूँजीवाद इस बात को बखूबी समझता है कि समता की आकांक्षा जनतंत्र की न सिर्फ प्रेरणा है बल्कि उसका प्राण भी है। इसलिए नवपूँजीवाद समता की मौलिक मानवीय आकांक्षा के आर्थिक संदर्भों को धार्मिक संदर्भों से विस्थापित कर देने की योजना पर दत्त-चित्त होकर काम कर रहा है। यही कारण है कि आज धर्म का एकांत नये सिरे से खंडित हो गया है। शांति जाप करता हुआ धर्म तुमुल कोलाहल कलह के बीच जा पहुँचा है। इस तुमुल कोलाहल कलह में हृदय की बात ही खोती जा रही है। दुनिया में बह रही यह हवा हमारे घर में तूफान है। सोच कर कैसा लगता है कि विज्ञान और विकास के इस युग में हमारी राष्ट्रीय ऊर्जा और मेधा का अधिकांश धर्मस्थलों और धर्म प्रतीकों की तथाकथित सुरक्षा पर खर्च हो रहा है। धर्म के महासागर में निम्न दबाव का विनाशकारी क्षेत्र बन गया है। हमारे जनतंत्र को इस निम्न दबाव क्षेत्र के चक्रवात से बार-बार गहरे झटके लग रहे हैं। भारतीय संविधान की मूल आकांक्षा के अनुसार राज्य धर्मनिरपेक्ष है और इसके नागरिकों को धर्म पालन की स्वतंत्रता है। राज्य के धर्मनिरपेक्ष  और समाज के धर्मप्राण होने से किसी प्रकार के द्वैध, अर्थात दो व्याघाती वैधता, का जन्म नहीं होता है। ऊपर से ऐसा दीखता भले हो लेकिन सही बात यह है कि राज्य और समाज में धर्म को लेकर टकराव के कारण अंतर्निहित नहीं हुए हैं। धर्म तो पूँजी का मोहरा है! फिर भी ऐसा प्रतीति कराने में देशी प्रभुवर्ग सफल होता जा रहा है कि भारतीय राज्य और समाज में धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक आकांक्षा के चलते हम टकराव की ओर बढ़ रहे हैं, यानी दवा में ही जहर है! इस प्रतीति को तोड़ सकनेवाले गहन सामाजिक, राजनीतिक और राजनीतिक यथार्थ के सामाजिक अन्वेषण पर गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है। 
भारतीय संस्कृति के तार को उलझाकर सामाजिक सरगम में कोलाहल का हलाहल घोलनेवाले सिद्ध महात्माऔर सिद्धांतकार’ ‘धर्मनिरपेक्ष राज्यऔर धर्मप्राण समाजके सहज सामंजस्य को उलटकर राज्य और नागरिक संबंधों की संवेदनशील जटिलताओं को चोटियाते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए नई-नई उलझनें पैदा करते हैं। धर्मनिरपेक्ष राज्यऔर धर्मप्राण समाजके सामंजस्य को ठीक से समझने और बरतने के लिए भारतीय समाज और राज्य के ऐतिहासिक विकासक्रम को बार-बार टटोलना होगा। यह काम सभ्यता ओर संस्कृति के नये वैश्विक संदर्भ को ध्यान में रखकार ही किया जा सकता है। क्योंकि इस वैश्विक संदर्भ में, जैसा कि श्यामाचरण दुबे समय और संस्कृति में कहते हैं, भारतीयता की खोज आज के संदर्भ में दो दृष्टियों से आवश्यक है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश में एक सांस्कृतिक अराजकता व्याप्त हो गई है। स्वदेश और स्वदेशी की भावनाएँ, अशक्त होती जा रही हैं। हम बेझिझक पश्चिम का अनुकरण कर अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं। यह प्रवृत्ति एक छोटे, पर प्रभावशाली, तबके तक सीमित है, पर उसका फैलाव हो रहा है। यदि इसे हमने बिना बाधा बढ़ने दिया तो हमें परंपराओं की संभव ऊर्जा से वंचित होना पड़ेगा और हमारी स्थिति बहुत कुछ त्रिशंकु जैसी हो जायेगी। दूसरा कारण और भी महत्त्वपूर्ण है। संस्कृति आज की दुनिया में एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उभर रही है, न्यस्त स्वार्थ, जिसका उपयोग खुलकर अपने उद्देश्यों के लिए कर रहे हैं। उन पर रोक लग सकती है, यदि हम निष्ठा और प्रतिबद्धता से भारतीयता की तलाश करें।’  धर्मनिरपेक्ष राज्य और धर्म पर आधारित भारतीय समाज के बीच के संबंधों की जटिलताओं को समझने के लिए इनके गठन की ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को समझना जरूरी है। इन जटिलताओं को बहुत संवेदनशील बना दिया गया है। इस पर किये जानेवाले संवाद में अतिरिक्त संवेदनशीलता और संतुलन की भी जरूरत है। किसी भी प्रकार के सरलीकरण और अधीर कथन से संवाद की प्रक्रिया क्षतिग्रस्त हो सकती है। सुमित सरकार का संदर्भ लें तो इतिहास बताता है, ‘वस्तुत: भारत में राष्ट्रवाद और हिंदू-मुसलमान संप्रदायवाद अनिवार्यत: आधुनिक संवृत्तियाँ हैं। गत शताब्दियों में निश्चय ही हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष के उदाहरण मिलते हैं, वैसे ही जैसे कि शिया और सुन्नियों के झगड़ों अथवा जाति संघर्षों के। किंतु 1880 के दशक से पूर्व सांप्रदायिक दंगे कदाचित ही हुए हों।’  कुछ लोग दुनिया में जनतंत्र के उदय को पूँजीवाद के उदय से जोड़कर देखने का प्रस्ताव करते हैं। ऊपर से यह ठीक दीखता भी है! इतिहास में ये एक साथ आते हैं। इनका सहवर्ती होना इनके सहअस्तित्व का प्रमाण नहीं है। औपनिवेशिक वातावरण में पूँजीवाद, राष्ट्रवाद, हिंदू-मुसलमान संप्रदायवाद उदीयमान भारतीय जनतंत्र के साथ लिपटकर आया। ध्यान देने की बात है कि पूँजीवाद अपने अस्तित्व के लिए जनतंत्र के ढाँचे को अपने सुरक्षाकवच के रूप में इस्तेमाल करता है। इस देश में काँग्रेस जैसी संस्था की स्थापना को प्रोत्साहित करने के पीछे सक्रिय औपनिवेशिक मनोभाव को याद किया जा सकता है। पूँजीवाद की दिक्कत यह है कि जनतंत्र का ढाँचा जहाँ उसे अपने अस्तित्व के लिए अनिवार्य सुरक्षाकवच लगता है वहीं जनतंत्र की अंतर्वस्तु उसे विष की तरह लगती है। पूँजीवाद की लाचारी यह है कि ढाँचा को अपनाने के साथ ही अंतर्वस्तु के लिए भी कुछ-न-कुछ जगह तो बन ही जाती है। पूँजीवाद जनतंत्र के ढाँचे का तो जम कर इस्तेमाल करता है किंतु उसकी अंतर्वस्तु से कन्नी काटने के लिए तरह-तरह के खुराफात करता रहता है। राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद ऐसे ही दो खुराफात हैं। कोई सहज ही लख सकता है कि जब पूँजीवाद, किसी बड़ी बाधा की अनुपस्थिति में, आगे की ओर निर्भय होकर बढ़ता है वह राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद की हवा चलाकर जनतंत्र की अंतर्वस्तु को क्षतिग्रस्त करता है। लोक-कल्याण और लोक-न्याय की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका से कन्नी काटनेवाला राज्य बहुत देर तक अपनी अंतर्वस्तु में जनतंत्रात्मक बना नहीं रह सकता है। जनतंत्र के अनुदार होते जाने के संदर्भ में फरीद जकारिया कहते हैं, ‘भारतीय जनतंत्र के भीतर झाँकने पर जटिल और परेशान करनेवाले यथार्थ से सामना होता है। हाल के दशकों में भारत अपने प्रशंसकों के मन में बनी छवि से बहुत कुछ बदल गया है। यह नहीं कि यह कम जनतांत्रिक हुआ है, बल्कि एक तरह से यह अधिक ही जनतांत्रिक हुआ है। लेकिन इस में सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, कानून के पालन और उदारता की कमी हुई है। और ये दोनों प्रवृत्तियाँ जनतांत्रिकता और अनुदारता प्रत्यक्षत: संबंधित हैं।’  इतिहास का अनुभव बताता है कि पूँजीवादी विकास के साथ जनतंत्र का ढाँचा तो बढ़ता जायेगा लेकिन उसकी अंतर्वस्तु छीजती जायेगी! इस छीजन का नतीजा है कि राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद के संकुचित घेरे के अंदर जनतंत्र अपनी सहिष्णुता खो देता है। राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद के संदर्भ में प्रेमचंद के विचार महत्त्वपूर्ण हैं। वे दोनों को मानवीय सभ्यता के लिए अभिशाप मानते थे।  इतिहास गवाह है कि राष्ट्रवाद के नाम पर दुनिया में भयानक ढंग से घृणा का प्रसार और रक्तपात हुआ है। युरोप में जन्मे राष्ट्रवाद को अंधता की गिरफ्त में आने में देर नहीं हुई। भारत में राष्ट्रवाद के उदय का सकारात्मक पहलू यह था कि यह राष्ट्र के बाहर की औपनिवेशिक-शक्ति की राजनीतिक गिरफ्त से मुक्ति की प्रेरणा बनकर आया था। भारत में राष्ट्रवाद के उदय का नकारात्मक पहलू यह था कि यह राष्ट्र के भीतर की औपनिवेशिक-शक्ति की सामाजिक गिरफ्त से मुक्ति के सवाल को, राष्ट्र के बाहर की औपनिवेशिक-शक्ति की राजनतिक गिरफ्त से मुक्ति की आकांक्षा के उन्माद से ढक देता था। ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद दोनों में भिन्न संदर्भ से ही सही लेकिन समता विरोधी होने के रुझान हैं। इस रुझान के कारण ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद का संश्रय बनता है। आज के दौर में यह संश्रय ओर मजबूत होकर प्रकट हो रहा है। यह प्रक्रिया स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में भी जारी थी। इसीलिए, डॉ. आंबेडकर ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद को शत्रु मानते थे। वे ब्राह्मणवाद को जाति-संघर्ष के माध्यम से और पूँजीवाद को वर्ग-संघर्ष के माध्यम से परास्त करने की रणनीति को महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनके विचार से इस देश के दो दुश्मनों से कामगारों को निपटना होगा। ये दो दुश्मन हैं, ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद ...। ब्राह्मणवाद से मेरा आशय स्वतंत्रता, समता और भाईचारा की भावनाओं के निषेध से है। यद्यपि ब्राह्मण इसके जनक हैं, लेकिन यह (निषेध वृत्ति) ब्राह्मणों तक ही सीमित न होकर सभी जातियों में घुसा हुआ है।(टाइम्स ऑफ इंडिया, 14 फरवरी 1938 की रिपोर्ट) । भारतीय सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में मार्क्सवाद के विनियोग की संभावनाओं पर नये परिप्रेक्ष्य में विचार किया जा सकता है। भारत में राष्ट्रवाद के सकारात्मक पहलू का आलोक ज्यों-ज्यों कम होता गया त्यों-त्यों इसके नकारात्मक पहलू का अंधकार बढ़ता गया। दुखद ही है कि राष्ट्रवाद के नाम पर संप्रदायवाद चलता है। भारत में हिंदुत्वादी राष्ट्रवाद धर्म को ही राष्ट्र मानता रहा है और द्विराष्ट्रीयता के नाम पर देशघातक विभाजन तक हो गया। सावधानी की जरूरत इसलिए है कि आज फिर एक बार राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद भारत में विभिन्न स्तर पर सक्रिय है। चिंता की बात यह है कि इस बार राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद, जो वस्तुत: एक ही विश्व-पूँजीवादी सिक्का के दो पहलू हैं, आज तकनीक और सूचना-संचारतंत्र और भूमंडलीकरण की बड़ी परियोजना से संपन्न हैं। 
वैविध्य और बहुलात्मक स्वभाव भारतीय संस्कृति के विधायक और नियामक तत्त्व हैं। भारतीय संस्कृति किसी भी नये जीवन-तत्त्व को आत्मसात करने में अत्यधिक दक्ष है। यह दक्षता वैविध्य और बहुलात्मक स्वभाव के बरताव से बनी ही है। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीरण के जनविरोधी रुझान से संघर्ष और संघात तो लगभग तय है। सभ्यता का विकास धार्मिक और नस्लीय आधार पर न होकर, आर्थिक आधार पर हुआ है। प्रेमचंद ने ध्यान दिलाया था, समाज का संगठन आदिकाल से आर्थिक भीत्ति पर होता आ रहा है। जब मनुष्य गुफाओं में रहता था, उस समय भी उसे जीविका के लिए छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बनानी पड़ती थीं। उनमें आपस में लड़ाइयाँ भी होती रहती थीं। तब से आज तक आर्थिक नीति ही संसार का संचालन करती चली आ रही है, और इस प्रश्न से आँखें बंद करके समाज का कोई दूसरा संगठन चल नहीं सकता।’  इसलिए सभ्यता में संघर्ष और संघात की कोई स्थिति बनती है तो वह आर्थिक आधार पर ही होगी। चतुर-सुजान लोग धार्मिक-सांप्रदायिक-नस्लीय-आंचलिक-भाषिक में से चाहे जिस किसी एक (या सभी) आधार पर लोगों को बाँटकर कुछ दिनों तक अपना उल्लू सीधा करते रहें लेकिन अंतत: वर्गीय आधार अपना काम जरूर करेगा। अच्छे जीवन-तत्त्वों के मिलने की भी संभावनाओं को नजर में बराबर बनाये रखना भी जरूरी होगा। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीरण के जनविरोधी रुझान के प्रति हमारा विरोध अंधा नहीं है। अंधराष्ट्रवादियों के द्वारा स्वदेशी के नाम पर वैश्वीकरण की प्रक्रिया के विरोध और हमारे विरोध में यही तो अंतर है। हमारा राष्ट्रवाद हमें आत्मगठित तो करता है लेकिन आत्मबद्ध नहीं करता है। अंधराष्ट्रवाद आत्मबद्ध बनाते हुए आत्मगठन को विघटन के कगार पर पहुँचा देता है। इसलिए हमारे राष्ट्रवाद में वैविध्य और बहुलात्मक स्वभाव के लिए भरपूर जगह है जबकि अंधराष्ट्रवाद एकात्मकता की बात में अधिक दिलचस्पी रखता है। अंधराष्ट्रवाद आत्म-श्रेष्ठता का बाना ओढ़कर विश्व गुरुआई का छद्म रचते हुए अपने अनुयायियों को दाता होने के मिथ्या दंभ से भर देता है। राष्ट्रवाद देने या लेने की ही नहीं लेने-देने की संस्कृति में विश्वास रखता है। अंधराष्ट्रवाद के सन्निपात से ग्रस्त भक्त कहीं भी और कभी भी आपको पूरा हिसाब बता देंगे कि किसी तरह विश्व में जो भी श्रेष्ठतर है, वह पूरे विश्व को उन्हीं का दान है। सच्चे राष्ट्रवादी का स्वर क्या होता है? रवींद्रनाथ के शब्दों को याद रखना होगा। उन्हें - बंदेमातरम - की याद है। यह याद क्यों याद नहीं है कि सब से ऊपर मनुष्य है, उससे ऊपर कुछ भी नहीं! हाँ कुछ भी नहीं! न राष्ट्र और न धर्म! अंधराष्ट्रीयता से ग्रस्त लोग सबसे पहले राष्ट्रीय अस्मिता को विश्व-पूँजी का उपनिवेश बनाने में लगे पाये जाते हैं। बहुत रियायत करें तो उन्हें उस तोते की तरह मान सकते हैं जो शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फँसना नहीं का जाप करते हुए आराम से जाल के अंदर मस्त रहते हैं। वैश्विक वास्तविकताओं से विमुख राष्ट्रवाद संकीर्णता की अंधी खायी में पतित होता है। सभ्यता और संस्कृति की गति हमेशा विश्वोन्मुखी रही है। यह उन्मुखता इतनी अनिवार्य रही है कि कई बार संस्कृतियाँ अपनी व्याप्ति को ही विश्व मानकर चलती है। राष्ट्रवाद निश्छल वैश्विक वातावरण के बनने तक ही काम का रहता है। उपनिवेशक के राष्ट्रवाद और उपनिवेशित के राष्ट्रवाद में अंतर होता है। उपनिवेशक के लिए राष्ट्रवाद शोषण का आधार मुहैय्या करता है तो उपनिवेशित के लिए यही राष्ट्रवाद शोषण से लड़ने का सामाजिक आधार भी मुहैय्या कराता है। आज का छलिया वैश्वीकरण व्यापार को तो वैश्विक बनाता है, लेकिन व्यवहार को स्थानिकता की ओर धकेल देता है; राष्ट्रीय संप्रभुताओं का अपहरण कर लेता है और राष्ट्रीय सामाजिकताओं को अंधराष्ट्रवाद के पाले में चले जाने को बाध्य करते हुए राष्ट्र को सामाजिक अंतर्कलह के मकतल में बदल देता है। भारत जैसे वैविध्यपूर्ण और बहुलात्मक महाजातीय राष्ट्र में अंधराष्ट्रवाद की प्रवृत्ति के सक्रिय होने से सामाजिक अंतर्कलह विस्फोटक हद तक पहुँच सकता है। इसलिए अंधराष्ट्रवाद के प्रति भारत के लोगों को विषेष रूप से सचेत रहना जरूरी है। हमारे सामने बार-बार यह प्रश्न उठता है कि समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व विरोधी देशी शोषकों का सुरक्षाकवच बननेवाला राष्ट्रवाद हमारे लिए अधिक प्रयोज्य है या इस सुरक्षाकवच को भेदकर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के पक्ष में काम करनेवाला विश्ववाद अधिक प्रयोज्य है? यह बहुत ही जटिल तथा क्षण-क्षण रूप और वस्तु बदलनेवाला सवाल है। इस सवाल का जवाब पाने के लिए सतर्क सामाजिक संतुलन की जरूरत पड़ती है। घर में दुश्मन भी हैं तो मित्र घर के बाहर भी हैं। क्या घर में लगी आग को हम बाहर के पानी से बुझाने के लिए इसलिए तैयार नहीं होंगे कि घर को आग तो, घर के चिराग से लगी है! जनतांत्रिक पूँजीवाद और सामाजिक जनतंत्र की जटिलताओं को समझने की कोशिश करनी होगी। बार-बार देखना होगा कि क्या राष्ट्रीय जनतंत्र की जगह सामुदायिक जनंतत्र को अधिक महत्त्व प्रदान करने का छल रचते हुए साम्राज्यवाद अंतत: जनतंत्र की अंतर्वस्तु और मानवीय सभ्यता को शोषण की गहरी घाटी की ओर तो नहीं हाँक रहा है? वस्तुत: मानवीय समता, मानवीय स्वतंत्रता और मानवीय बंधुत्व तो जनतंत्र का हीर है। इसका केंद्रीय तत्त्व मनुष्य है। पूँजीवाद की नाभिकीयता में मनुष्य की जगह मुनाफा है। मुनाफा के लिए समता, मुनाफा के लिए स्वतंत्रता और मुनाफा के लिए बंधुत्व पूँजीवाद का हीर है! मुनाफा और मनुष्यता में कैसा रिश्ता है! क्या मुनाफा और मनुष्य के बीच बढ़ते हुए संघात की अंतर्लिपि को सभ्यता संघात की भाषा के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए!
सभ्यता के विकास के प्रारंभ से शिक्षा का एक वैश्विक आयाम सर्वदा आकांक्षित रहा है। इसी आकांक्षा के कारण शिक्षा के शिखर संस्थानों को विश्वविद्यालय कहा जाता है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने शिक्षा के भारतीयकरणकी माँग पर 26 नवंबर 2002 राजधानी दिल्ली में एक रैली का आयोजन किया था। आज जब जीवन के अन्य प्रसंगों में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को विश्व-स्तरीय जनविरोध के बावजूद चलाने की कोशिश की जा रही है तब शिक्षा को वैश्विकताके उलट उसके भारतीयकरणकी माँग का मतलब क्या हो सकता है? राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत प्रतीत होनेवाली ऐसी माँग असल में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की ही मददगार होती है। विज्ञान और वाणिज्य की शिक्षा का भारतीयकरण क्या हो सकता है! सीधी बात यह है कि भारतीयकरणकी इस माँग का संदर्भ मानविकी से जुड़ता है। हम जानते हैं मानविकी, विशेषकर इतिहास, साहित्य आदि से संबंधित विषयों, को लेकर पिछले कुछ वर्षों से किस प्रकार का शैक्षणिक और सामाजिक वातावरण बनाने की कोशिश निरंतर की जा रही है। इस वातावरण में शिक्षा के भारतीयकरणकी माँग असल में शिक्षा के हिंदुत्वीकरणकी ही माँग है। इस माँग का एक सिरा मिशनरियों के स्कूलों और मदरसों के पाठ्यक्रम से भी जोड़ा जा सकता है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायलय की एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी है। मोटे तौर पर इस टिप्पणी का आशय यह है कि राज्य से अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थान को ही सरकार के अनुमोदन की जरूरत रह जाती है। जो अनुदान न दे उसके अनुमोदन की परवाह वैसे भी कौन करता है! जब शिक्षा के आधार पर राज्य हमें जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएँ देने की स्थिति में नहीं रहेगा तब उसके द्वारा किसी की शिक्षा को मान्य या अमान्य ही करने से क्या फर्क पड़ता है! यद्यपि रोजगार शिक्षा का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है तथापि शिक्षा का मकसद रोजगार उपार्जन में सक्षम बनाने के प्रयोजन से ही सीमित नहीं होता है। शिक्षा का मकसद जटिल जीवन-परिस्थितियों में बेहतर सामाजिक और नागरिक निर्णय लेने में सक्षम सामाजिक और नागरिक मन बनाने तक फैला होता है। औपनिवेशिक राज्य शिक्षा के मकसद को रोजगार उपार्जन में सक्षम बनाने तक सीमित रखता है। सक्षम सामाजिक और नागरिक मन से उसका आशय गुलामी में आनंद की अनुभूति कर सकनेवाले मन से होता है! जनतंत्रात्मक राज्य शिक्षा के मकसद  को जटिल परिस्थितियों में विवेकसम्मत निर्णय लेने में सक्षम सामाजिक और नागरिक मन बनाने तक फैलाने की कोशिश करता है। जिस समय में धर्म को राजनीतिक समूह में बदलने की प्राणघाती कुचेष्टा हो रही है उस समय में ऐसा सामजिक और नागरिक मन सिर्फ धर्मनिरपेक्ष शिक्षा ही बना सकती है। धर्म आधारित शिक्षा नहीं क्योंकि, ‘धार्मिक विश्वास सदा विज्ञान और विकास का दमन करते रहे हैं। याद रखिये, मानव समाज का जितना विकास हुआ है, वह सब धार्मिक विश्वासों की पराजय और पुराने विश्वासों के टूटने से हुआ है।’  इसलिए प्रेमचंद कहते हैं, ‘आध्यात्मिक मार्ग की परीक्षा हमने खूब कर ली। कई हजार वर्षों से हम यही परीक्षा करते चले आ रहे हैं। वह श्रेष्ठतम मार्ग था। उसने समाज के लिए ऊँचे से ऊँचे आदर्श की कल्पना की और उसे प्राप्त करने के लिए ऊँचे से ऊँचे सिद्धांत की सृष्टि की थी। उसने मनुष्य की स्वेच्छा पर विश्वास किया, लेकिन फल इसके सिवा कुछ न हुआ कि धर्मोपजीवियों की एक बहुत बड़ी संख्या पृथ्वी का भार हो गयी। समाज जहाँ था वहीं रह गया, नहीं, और पीछे हट गया। संसार में अनेक मतों और धर्मों और करोड़ों धर्मोपदेशकों के रहते हुए भी जितना वैमनस्य और हिंसा भाव है, उतना शायद पहले कभी नहीं था।’  विडंबना है कि आज भारत में समाज के कुछ प्रभावशाली तबका के लिए राष्ट्रीयकरणऔर भारतीयकरणकी माँग का निहितार्थ हिंदुत्वीकरणसे भिन्न नहीं है। इस हिंदुत्वीकरणका आशय अपने मूलार्थ में सवर्णहितके पोषण से सीमित है। भारतीयकरणके बहुजन ग्राह्य स्वरूप और उसके सवर्ण आशय एक नहीं  हैं। इतिहास में झाँकें तो राजनीतिक चेतना में धर्म को कथित राष्ट्रीयता के आवरण में छिपकर आता हुआ देखा जा सकता है। अधिकतर लोगों के मन में जीवन के सरोकारों के प्रति अनुराग और आदर निश्चय ही बचा हुआ है। इस आदर और अनुराग को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि इस तरह के भारतीयकरणऔर राष्ट्रीयकरणकी माँग पर गहरी आपत्ति होनी चाहिए।
राज्य और समाज की उत्पत्ति के जटिल सिद्धांतों में गये बिना भी कहा जा सकता है कि असली सत्ता जनता में निहित होती है। जनता समाज में रहती है। इसलिए असली सत्ता तो मूल रूप से समाज के पास ही होती है। राज्य समाज का संगठित ढाँचा है। समाज की सत्ता राज्य में अंतरित हो जाती है। राज्य का यह दायित्व है कि वह समाज से प्राप्त सत्ता का सही और सार्थक इस्तेमाल करते हुए समाज के हितों की रक्षा करे। सत्ता के समाज से राज्य में अंतरित हो जाने से समाज में एक प्रकार का खालीपन बनता है। इस खालीपन के दुष्प्रभाव से समाज को बचाने की सतत चेष्टा राज्य को करनी चाहिए। इसका एक तरीका है राज्य के द्वारा विभिन्न स्तरों पर सत्ता के विकेंद्रण के लिए छोटे-छोटे सत्ता-केंद्रों का निर्माण करना और उन्हें फिर सूत्रबद्ध करते हुए भागीदारीमूलक सामाजिक विकास में सहयोजी बनाना। पंचायती व्यवस्था इसका एक मॉडल है। इस प्रकार सत्ता-प्रवाह का चक्र पूरा होता है। यह काम सच्चे जनतंत्रात्मक राज्य में ही संभव हा सकता है। राज्य में जनतंत्र के प्रति व्यावहारिक सम्मान में कमी के कारण यह खालीपन भर नहीं पाता है। इस खालीपन से बचने के लिए समाज राज्य को अपनी सत्ता का सर्वाधिकार खुले मन से अंतरित नहीं करता है। सत्ता का सर्वाधिकार पूँजीवादी राज्य छोड़ना नहीं चाहता। वैसे भी, सत्ता इतनी आसानी से कहाँ छूटती है! समाज और राज्य में तनाव बढ़ता है। सत्ता की डोरी के एक छोर पर समाज और दूसरे छोर पर राज्य हमेशा पकड़ बनाये रहते हैं। एक रस्साकशी चलती रहती है। फलत: राज्य और समाज के संबंधों के अंतरावलंबन में एक प्रकार का तनाव सदैव बना रहता है। ऐसी स्थिति में, इस तनाव को टूट और सहनशीलता की सामान्य सीमा के आगे बढ़ने नहीं देने का दायित्व राज्य और समाज दोनों का है। इस दायित्व को पूरा करने में कारगर और प्रमाणिक आधार संविधान प्रदत्त करता है। संविधान इस बात की गारंटी करता है कि चूँकि जनतंत्र में संख्या का अपना महत्त्व होता है इसलिए संख्याबल की दृष्टि से अधिक शक्तिशाली समाज और कमजोर समाज के बीच राज्य किसी प्रकार का कोई भेदभाव न करे। समाज के बनाव का एक मुख्य आधार होता है। यह दुखद ही है कि ज्ञान-विज्ञान के आज के युग में भी सामाजिकता के लिए हमऔर अन्यके रूप में चिह्नित किये जाने के मुख्य आधार का अधिकांश धर्म ही बनाता है। अंधराष्ट्रीयता को बढ़ावा देने के लिए धर्म का ही नहीं सभी अवधारणाओं का सांप्रदायिक इस्तेमाल किया जाता है। धर्म या ऐसे किसी भी आधार पर बने समुदाय को सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक समुदाय में बदलने की परियोजना पर लगातार काम किया जाता है। इस पेंच को समझना होगा कि ऐसा क्यों होता है। यदि आर्थिक आधार पर सामाजिकता का बनाव होगा तो संसार के सारे धनवान अल्पसंख्यक हो जायेंगे। गरीब लोगों के दबाव से अमीर लोगों को बचाने के वास्ते यह जरूरी होता है कि हमऔर अन्यके रूप में चिह्नित किये जाने के लिए मुख्य आधार का बनाव आर्थिक संदर्भों से न बने। इसके लिए धर्म अधिक विश्वसनीय होता है। सामाजिकता के बनाव का मुख्य आधार धर्म बना रहे इसके लिए धनवानों की सत्ता सदैव सक्रिय रहती है। ऐसी सत्ता, एक हाथ से धार्मिक अल्पसंख्यकों को धार्मिक बहुसंख्यकों के किसी भी प्रकार के दबाव से बचाने का आश्वासन देती है और दूसरे हाथ से धार्मिक बहुसंख्यकों को धार्मिक अल्पसंख्यकों के मन में डर बैठाने के लिए उकसाती भी रहती है। इसमें राज्य सत्ता के द्वारा धर्मनिरपेक्षता का सबसे कुत्सित इस्तेमाल होता है। दुखद है कि भारतीय राज्य सत्ता भी धर्मनिरपेक्षता के इस कुत्सित इस्तेमाल से बच नहीं पाई। बल्कि ज्यों-ज्यों भारतीय राज्य में पूँजीवादी रुझानों के समावेश का आग्रह बढ़ता गया त्यों-त्यों धर्मनिरपेक्षता के कुत्सित इस्तेमाल की प्रवृत्ति भी बढ़ती और उजागर होती गई है। राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब है, धर्मनिरपेक्षता के प्रति राज्य का आग्रहशील होना। धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की व्यापक सामाजिक स्वीकृति के लिए सतत आप्राण चेष्टा करते रहना। लेकिन भारतीय राज्य में ऐसा हुआ नहीं। ऐसा नहीं हुआ क्योंकि, जिस जनतंत्र के बल पर यह होना था उस जनतंत्र  की प्रक्रिया चुनाव जीतने की आकांक्षा से ही सीमित होकर रह गई। नागार्जुन की कविता का संदर्भ लें, इस क्रांति-शांतिके नाटक से/ सच कह दूँ, मैं तो गया ऊब!/ ब्राह्मणशाही की दलदल में/ लो, बापू, फिर हम गए डूब।// इस प्रजातंत्र पर है सवार/ नव रूढ़िवाद, नव जातिवाद/ प्रभुओं के नव-नव गात्र ढले/ फैले ताजे दंगा-फसाद।/ निर्वाचन के हो-हल्ले में/ खो गया हाय बहरा विवेक/ आपाधापी में सबकी है ––/ कैसे भी जीतूँ, यही टेक!’  
जो हो, राज्य के सामाजिक दायित्वबोध में शिथिलता से बहुत सारी उलझनें पैदा हो जाती हैं। ये उलझनें तब और मारक हो जाती हैं, जब राज्य के एक अंश व्यवस्थापिका या सरकार में संवैधानिक मनोभावों के प्रति वास्तविक और आंतरिक आदर कम होने लगता है। संविधान व्यवस्थापिका को ताकत तो प्रदान करता है, लेकिन साथ में कुछ शर्तें भी लगाता है। व्यवस्थापिका को ये शर्तें पसंद नहीं आती हैं। इस स्थिति में राज्य के लिए संविधान उसका जीवित अवयव न होकर सिर्फ यांत्रिक अवयव बन जाता है। इस स्थिति में राज्य की मूल आकांक्षा और सरकार के करतब में अर्थात राज्य के सिद्धांत और आचरण में एक प्रकार की फाँक विकसित हो जाती है। यह फाँक अंतत: राज्य की आंतरिक संरचना को विखंडित कर देती है। ऐसे विखंडनों से होनेवाली क्षति की पूर्ति एक हद तक राज्य अपनी आंतरिक शक्ति से कर लिया करता है। लेकिन एक हद तक ही। उसके बाद राज्य एक प्रकार की रुग्नता की स्थिति में पहुँचकर खटिया पकड़ लेता है। इधर इस तरह की फाँक कुछ अधिक तेजी से विकसित हो रही है। इस फाँक में सारे जनतांत्रिक मूल्य धीरे-धीरे समाते जा रहे हैं। हमारा जनतंत्र धीरे-धीरे खटिया पकड़ने लगा है। यह अतिकथन या अग्रकथन नहीं है। इधर हमारे शासकों के अंतर्मन में जनतंत्र से प्राप्त शक्तियों के बल पर राजतंत्रीय आचरण के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा हुआ है। राज्य और नागरिक के संवैधानिक संबंध की आत्मीयता में भारी गिरावट आई है।  जन के लिए जनतंत्र कवच का काम करता है। कवच आघातों से रक्षा करता है, अगर हम कवच की रक्षा कर सकें। अभी कवच की रक्षा का ही सवाल प्रमुख है। जन के जीवन को सुरक्षित बनाने में जनतंत्र मददगार हो, यह एक बुनियादी और सामान्य नागरिक अभिलाषा है। आज हम जिस स्थिति से गुजर रहे हैं, वह असामान्य है। इस असामान्य स्थिति में जनतंत्र के समग्र के अक्षत बने रहने के लिए जन सक्रियता अनिवार्य है। जन सक्रियता कैसे हो? इस संदर्भ में, नागरिक जमात की हालिया गतिविधि और राज्य के द्वंद्व को भी पढ़ना चाहिए।
कुछ लोग इस बात पर दिली तौर पर यकीन करते हैं कि भारत एक धर्मप्राण देश है। धर्म इसके लिए सबसे बड़ा मूल्य रहा है। धर्मनिरपेक्षता अ-भारतीय अवधारणा है। यह सेकुलरिज्म का अनुवाद मात्र है, भारतीय अनुभव नहीं। यह बात सही नहीं है। सच यह है कि भारत जितना धर्मप्राण रहा है, उससे ज्यादा धर्मनिरपेक्ष रहा है। इतिहास बताता है, ‘असोक के बाद राज्य ने एक नये कार्य को आगे बढ़ाने का जिम्मा लिया  विभिन्न वर्गों में समन्वय स्थापित करना। अर्थशास्त्र ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी, और असलियत यही है कि समाज के वर्गों का उदय एक प्रकार से उन छिद्रों से हुआ है जो भारतीय राजतंत्र व्यापक पैमाने पर भूमि की सफाई, भूमि अधिवास तथा अत्यधिक नियंत्रित व्यापारवाले राजतंत्र में पैदा हो गए थे। समन्वय के इस कार्य के लिए विशेष अस्त्र था –  नए अर्थवाला सार्वभौमिक धम्म। नवोदित धर्म ने राजा और नागरिक के आपसी मेल-मिलाप के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। आज भले ही यह सर्वोत्तम उपाय न प्रतीत हो, पर उस समय वह तुरंत कारगर सिद्ध हुआ। बल्कि यहाँ तक कहा जा सकता है कि असोक के समय से भारत के राष्ट्रीय चरित्र पर धम्म की छाप लग गई। धम्म शब्द का अर्थ शीघ्र ही समदृष्टिसे बदलकर भिन्न हो गया, यानी धर्महो गया पर यह वह धर्म नहीं था जिसे स्वयं असोक ने खुले आम स्वीकार किया था। इसके बाद भारतीय संस्कृति के विकास की सबसे प्रमुख विशेषता यह रही कि इस पर किसी-न-किसी धर्म का भ्रामक बाह्य आवरण सदैव चढ़ा रहा।’  डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन् धर्मों की आधारभूत अंतर्दृष्टि पर विचार करते हुए कहते हैं कि अशोक ने अपने शासन-काल के दसवें (260 ई.पू.) वर्ष में बौद्ध धर्म को अंगीकार किया था और तब से जीवन के अंत तक वह बुद्ध का अनुयायी रहा। यह उसका व्यक्तिगत धर्म था और उसने प्रजा को इस धर्म में परिवर्तित करने का प्रयत्न नहीं किया।’  आगे (नीकम एवं मैककियोन के संदर्भ से) एडिक्ट्स आफ अशोक’ , शिलालेख - 12 में अशोक की घोषणा का वे उल्लेख करते हैं। इस उल्लेख के अनुसार, ‘सम्राट प्रियदर्शी इच्छा करते हैं कि सभी धर्मों के अनुयायी एक दूसरे के सिद्धांतों को जानें और उचित सिद्धांतों की उपलब्धि करें। जो इन विशिष्ट मतों से संबद्ध हैं, उनसे कह दिया जाना चाहिए कि सम्राट प्रियदर्शी उपहारों एवं उपाधियों को इतना महत्त्व नहीं देते, जितना उन गुणों की वृद्धि को देते हैं जो सभी धर्मों के आदमियों के लिए आवश्यक है।’  भारतीय समाज में हिंदू-मुस्लिम-संबंध पर चर्चा करते हुए रामधारी सिंह दिनकरभोपाल के राज-पुस्तकालय में मौजूद हुमायूँ के लिए बाबर के लिखे वसीयतनामे के हवाले से बताते हैं कि बाबर ने हुमायूँ को संबोधित करते हुए कहा कि हिंदुस्तान में अनेक धर्मों के लोग बसते हैं। भगवान को धन्यवाद दो कि उन्होंने तुम्हें इस देश का बादशाह बनाया है। तुम तअस्सुब से काम न लेना; निष्पक्ष होकर न्याय करना और सभी घर्मों की भावना का ख्याल करना।’  
सामाजिक धर्मनिरपेक्षता का भारतीय संदर्भ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। दुखद ही है कि भारतीय जनतंत्र के जन्म के समय से ही उसके अंदर धुरंधर लोग धर्मनिरपेक्षता के विलोम के लिए जगह बनाने में लगे हैं। राजतंत्र के सशक्त रूप में होने के बावजूद ईसा पूर्व सम्राट अशोक की यह आकांक्षा कि केवल ताल-मेल ही श्लाध्य है: समवाय एव साधु:हुमायूँ को बाबर की यह सीख कि निष्पक्ष होकर न्याय करना और सभी घर्मों की भावना का ख्याल करनाकितना महत्त्वपूर्ण और आश्वस्तिकर है! धर्मनिरपेक्ष विचार का इससे सुंदर उदाहरण और कहाँ मिल सकता है? अशोक के बौद्ध और बाबर के इसलामिक संदर्भ के अतिरिक्त हिंदु संदर्भ को देखना भी दिलचस्प हो सकता है। हिंदु जीवन में चार पुरुषार्थों अर्थात जीवन के चार महान लक्ष्यों की बड़ी चर्चा होती है। ये चार पुरुषार्थ या महान लक्ष्य हैंधर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनके पारस्परिक संबंध के बारे में बताया जाता है कि वही धर्म, धर्म है जो अर्थ के अर्जन में सहायक होता है; वही अर्थ, अर्थ है जो काम की संतुष्टि में सहायक होता है; वही काम, काम है जो मोक्ष लाभ करने में सहायक होता है। मोक्ष परम मूल्य है, सबसे बड़ा पुरुषार्थ। धर्म सबसे शुरुआती पुरुषार्थ है। भारत जब धर्मप्राण देश था तब उसके धर्म का प्राण किसी पूर्वपरिभाषित और सीमाबद्ध धर्म-संहिता में नहीं बसता था। चरैवेति, चरैवेति भारतीय जीवन के अन्य पक्षों के साथ-साथ इसके धर्म की गत्यात्मकता को भी प्रतिध्वनित करता है। जब विभिन्न धर्म अपने आज के रूप में नहीं थे तब भी धर्म को लेकर भारतीय मानस बहुत गतिशील था। यक्ष ने यह भी तो पूछा था धर्मराज से कि धर्म क्या है?  इस सवाल का जवाब उतना ही आसान होता जितनी आसानी से आज के धर्मधुरंधर इसका जवाब दे देते हैं, तब यह प्रश्न यक्ष-प्रश्न बनता ही क्यों? धर्म बहुत ही जटिल मामला है। इसे किसी एक ही ओर से समझने का दुराग्रह हमें खतरे में डालता है। मूल बात यह है कि एक घाट पर बँध कर धर्म गतिशील नहीं रह सकता है। गतिशीलता के बिना धर्म जीवित नहीं रह सकता है। धर्म अपने से निरपेक्ष रहकर ही गतिशील रह सकता है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता धर्म के प्राणवंत बने रहने की भी अनिवार्य शर्त है। इस तथ्य को अपने ऐतिहासिक विकासक्रम में भारतीय राज्य और समाज दोनों ने हासिल कर लिया था। न सिर्फ हासिल कर लिया था बल्कि अपने अस्तित्व के लिए इसे अपनी संवेदना का अंग बना भी लिया था। परवर्ती दिनों में इसमें जो भी फाँक आई है वह राजनीतिक कारणों से सत्ता के लिए धर्म के दुरुपयोग की प्रवृत्ति के कारण पैदा हुई है। ये अज्ञानी नहीं हैं। ये जानते हैं कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है। लेकिन सत्ता की आकांक्षा में इनकी स्थिति उस दुर्योधन की तरह है जो कृष्ण से कहता है :- जानामि धर्म न च मे प्रवृत्ति:। जानाम्यधर्म न च मे निवृत्ति:।
राजनीतिक कारणों से सत्ता के लिए धर्म के दुरुपयोग का भी अपना इतिहास रहा है। सच्चे साधु-संतों और साहित्यिकों ने इसे उसी ऐतिहासिक विकासक्रम में इस दुरुपयोग को समझा भी है और उसके प्रति सावधान भी किया है। इस सवधान करने का भी अपना इतिहास है। बहुत विस्तार में जाने की गुंजाइश यहाँ नहीं है, फिर भी प्रसंगवश कुछ की चर्चा तो की ही जा सकती है। इससे उनकी चिंता के मूल केंद्र और उस समय के सामाजिक संबंध में धार्मिक परिप्रेक्ष्य से बनाये जा रहे मारक तनाव का भी पता चलता है। ध्यान में रखने की बात यह है कि ये कवि अ-धार्मिक नहीं थे। आज के किसी भी स्वनामधन्य धार्मिकों से अधिक धार्मिक थे। लेकिन उनका अपना धर्म उनके निर्विशिष्ट मनुष्य बनने में कहीं से बाधक नहीं बन रहा था। बल्कि निज धर्म के ढाँचे की कोष्ठबद्धता से बाहर निकलकर उनके मनुष्यतर बनने की प्रेरणा बन रहा था। गोरखनाथ, नामदेव, कबीर, दादूदयाल, रज्जबजी आदि के संदर्भ से हम समझ सकते हैं कि सामाजिक एकता के संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष होकर किस प्रकार धार्मिक हुआ जा सकता है। धर्म मूलत: उस लोक का मामला माना जाता है। इन कवियों के यहाँ धर्म के ये संदर्भ पूर्णत: इसी लोक से संबंधित है। यह स्थिति उस राजतंत्र में थी जिस राजतंत्र में देश के शासन की बागडोर उन मुसलमान शासकों के हाथ में थी, जिन्हें आज कट्टर और क्रूर बताया जाता है। इस पूरे प्रकरण में एक बात की ओर ध्यान गये बिना नहीं रहता है कि उस समय भी सवर्ण कवियों की वाणी में और उदात्त चेतना चाहे जितनी हो लेकिन हिंदू मुसलमान संबंधों में मधुरता के लिए राम और रहीम के एक होने की बात या तो है ही नहीं या बिल्कुल अप्रभावी है। यह तथ्य तब और परेशान करता है जब हम आज के भारतीय राज्य में जनतंत्र की उपस्थिति में भी लक्षित करते हैं कि हिंदू मुसलमान के बीच कटुता पैदा करनेवालों में निर्णायक स्वर सवर्णों का ही दीखता है। यह महज संयोग नहीं है। इसके पीछे सामाजिक-आर्थिक संरचना के धर्मेतर प्रसंगों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है।  परीक्षा की जानी चाहिए कि धर्म पर आधारित भारतीय राजनीति की जिस संरचना से भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बहुत खतरा है, उस संरचना का कितना अंश सवर्ण मनोभावों से निर्मित हैं। 
भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्ष आकांक्षा को अवहेलित करते हुए हिंदू और मुसलमान के राजनीतिक और सामाजिक संबंधों में नाना प्रकार के अवरोध उत्पन्न करने की चेष्टा होती रही है। इस अवरोध से सामाजिक मन में रसौलियाँ भी बनती रही हैं। ये रसौलियाँ सबसे बड़े और भद्दे रूप में हिंदी समाज के मन में बनी हैं। इसलिए हिंदी समाज के बनाव पर भी विचार किया जाना चाहिए। हिंदी समाज सुदीर्घ संघर्ष, धर्म पर आधारित समाज में धर्मनिरपेक्ष चेतना के होने का प्रमाण है। देखा जाना चाहिए कि हिंदी समाज इन रसौलियों के बनने नहीं देने के लिए कितना लंबा संघर्ष करता रहा है। देखना यह भी चाहिए कि क्यों उसके लंबे संघर्ष क्यों सफल नहीं हो पाये हैं। क्या इस विफलता के मूल में भी चेतना और संघर्ष का संगठित न हो पाना ही नहीं है? शायद हाँ। लक्षित किया जा सकता है कि समाज मूल रूप से धर्म पर आधारित होने के बावजूद अपने आचरण में धर्मनिरपेक्ष रहा है जबकि राज्य धर्मनिरपेक्षता पर आधारित होने के बावजूद अपने आचरण में धार्मिक होता जा रहा है। राष्ट्रवाद, संप्रदायवाद और भूमंडलीकरण जैसी विरोधी प्रतीत होनेवाली अवधारणाओं का अद्भुत संश्रय बनाकर विश्वपूँजीवाद के दुनिया दखल अभियान के युग में हम पहुँच गये हैं। क्या यह अभियान इतना आसान होगा? इतिहास का अनुभव बताता है यह बहुत आसान अभियान नहीं होगा, मनुष्य की आँख को फोड़कर भी समता और स्वतंत्रता के स्वप्न को उससे छीना नहीं जा सकता है। स्वप्न है तो संगठन भी होगा। आज नहीं तो, कल संगठित स्वप्न संसार का सच होगा। इसके पीछे सक्रिय स्वार्थ के अवगुंठन को खोलना समाज और साहित्य की बड़ी चुनौती है।



धर्म, आतंक और समाज

धर्म, आतंक और समाज

`... जनता की राय को संगठित किये बिना आतंकवाद को नष्ट नहीं किया जा सकता। आतंकवाद का मूल कारण है बेकारी। अगर वह (सरकार) सच्चे हृदय चाहती है कि आतंकवाद नष्ट हो जाय, तो जितनी जल्दी हो सके उसे उनकी (युवकों की) बेकारी का इलाज करना चाहिए। आतंकवाद को दूर करने का यही सच्चा मार्ग है।' - प्रेमचंद

 धर्म, आतंक और समाज सभ्यता के आंतरिक आयाम हैं। इनके अंतस्संबंध को सभ्यता के भीतर से ही समझा जा सकता है। सभ्यता मानवीय निर्मिति है। मनुष्य के स्वभाव में गतिशीलता होती है। इसलिए सभ्यता में भी एक प्रकार की आत्म-गत्यात्मकता होती है। सभ्यता-विकास की मोटी रेखाओं को देखने से इस आत्म-गत्यात्मकता के परिपथ को समझा जा सकता है। सभ्यता की आत्म-गत्यात्मकता के परिपथ को मानवीय चरित के विभिन्न निर्मायक कारकों की अंतर्क्रियाओं से बल प्राप्त होता रहता है। इन अंतर्क्रियाओं में भय, प्रेम, आत्म-रक्षा, सुख, श्रेष्ठता, सामूहिकता, आधिकारिता, वर्चस्व, अर्थसंचरण, सहबद्धता, आत्म-प्रसार, आत्म-संकोचन, समूहन, भाषा जैसे कतिपय कारक एक साथ सक्रिय रहते हैं। ये कारक मनुष्य की वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों से संबंद्ध होते हैं। ये वैयक्तिक और सामाजिक प्रवृत्तियों को दर्शानेवाले और नियंत्रित करनेवाले कारक हैं। इन विभिन्न कारकों की अंतर्वस्तुओं को धारण करनेवाले ढाँचे भी विभिन्न होते हैं। सभ्यता की आत्म-गत्यात्मकता के प्रभावी संदर्भों से इन अंतर्वस्तुओं की आवाजाही भिन्न ढाँचों में भी जारी रहती है। आवाजाही की प्रक्रिया में इन कारकों की अंतर्वस्तुओं और ढाँचों का सम्मिश्रण होता रहता है। यह सम्मिश्रण भौतिक और रासायनिक दोनों ही प्रकार का होता है। अर्थात कई बार मिश्रित कारकों की पहचान सहज की जा सकती है, उन्हें फिर से अलगाया भी जा सकता है तो कई बार मिश्रित कारकों की न पहचान सहज रूप से की जा सकती है, न इन्हें फिर से अलगाया ही जा सकता है। कई बार यह भी होता है कि कुछ कारकों के ढाँचे तो जस के तस रह जाते हैं और उनकी अंतर्वस्तुएँ पूर्णत: या अंशत: किसी या किन्हीं अन्य कारकों के ढाँचों में अंतरित हो जाती हैं। जीवन का अनुभव बताता है, खाली जगहों को भरनेवाले आवारा कारक हमेशा ऐसे खाली ढाँचों की तलाश में भटकते रहते हैं। ऐसे आवारा कारक इन खाली ढाँचों में अपना रैन-बसेरा बना लेते हैं। संक्षेप में यह कि सभ्यता की आत्म-गत्यात्मकता के निर्मायक कारकों के ढाँचों और अंतर्वस्तुओं में अंतरण और मिश्रण की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। अंतरण और मिश्रण की इस प्रक्रिया में ही विभिन्न संस्कृतियाँ और विकृतियाँ विकसित होती रहती है। मिथ-कथाएँ बताती हैं कि शुभ और अ-शुभ दोनों का जन्मसूत्र एक ही होता है । इसी तरह, संस्कृति और विकृति का जन्मसूत्र भी एक ही होता है। यही कारण है कि कुछ लोग जिसे संस्कृति मानते हैं कुछ अन्य लोग उसे ही विकृति मानते हैं। संस्कृति और विकृति के निर्धारण के लिए सभ्यताओं के बीच विभिन्न स्तरों पर सामंजस्य,समन्वय और संघर्ष की सामाजिक प्रक्रिया चलती रहती है। सामंजस्य, समन्वय और संघर्ष के बीच स्वार्थ साधनेवाले समूह की लीलाएँ भी जारी रहती हैं। सभ्यता की विकास यात्रा में ये लीलाएँ विकृति और संस्कृति के सामाजिक अंर्तद्वंद्व के रूप में उपस्थित होती है। संप्रदायवाद और आतंकवाद जैसी विश्व व्यापी विकृतियों के जन्म और विकास को अंतरण और मिश्रण की इस प्रक्रिया के अंदर से ही समझा जा सकता है। धर्म के संप्रदायवाद में और दूसरों को अपने मनोनुकूल चलाने की सहज शासकीय आकांक्षा के आतंकवाद में लघुमित होने के पीछे सक्रिय आर्थिक संदर्भों को भी देखा जा सकता है। इन संदर्भों के कारण आज सामाजिक संबंध बहुत ही जटिल और चोटिल हो गये हैं। ऐसे जटिल और चोटिल सामाजिक संबंधों को समझने के लिए धर्म, आतंकवाद और समाज के अंतस्संबंध पर बार-बार विचार करते रहना जरूरी है। सांस्कृतिक कर्म सामाजिक मिश्रण की गतिशीलता को समाज में सहज और सुग्राह्य बनाता है। जबकि, राजनीतिक कर्म सामाजिक सम्मिश्रण की प्रगतिशीलता का सुचारू संचलन और नियंत्रण सुनिश्चित करता है। सामाजिक मिश्रण और प्रगतिशीलता के सरोकारों के इस संधि भाग पर संस्कृति और राजनीति का संबंध सुस्थिर होता है। सत्ता-राजनीति की मुख्य धारा सामाजिक संबंधों में आई जटिलताओं और चोटिलताओं को दूर करने से परहेज करती है।
सत्ता-राजनीति की दिलचस्पी इस मिश्रण की जटिलताओं से मनुष्य को दिगभ्रमित करने में ही अधिक होती है। उसकी दिलचस्पी मनुष्य के चोटिल मन को निरंतर चोटियाते हुए उसे हिंसक बनाने में होती है। ऐसा करते हुए सत्ता की राजनीति सभ्यता की आत्म-गत्यात्मकता को मानवीय धूरी से विपथित कर देने के षडयंत्र में शामिल हो जाती है। ऐसे में, सामाजिक रूप से सचेत और संगठित होकर सभ्यता के विपथन से होनेवाले दुष्परिणामों के आकलन और सकारात्मक प्रतिरोध के लिए शक्ति-संयोजन की चुनौती समाज के सामने हमेशा बनी रहती है। इस चुनौती का सामना राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर एक साथ करना होता है। जहाँ सत्ता की राजनीति समाज का साथ छोड़ देती है वहाँ भी जनता की संस्कृति समाज के साथ बनी रहने की कोशिश करती है। ऐसे कठिन समय में समाज के साथ संस्कृति के बनी रह पाने की दृढ़ता अंतत: राजनीति को भी अपने परिप्रेक्ष्य सही करने के लिए बाध्य करती है। यह सभ्यता के विपथन का समय है। जाहिर है, इस समय सभ्यता को विपथन से बचाने के लिए वैकल्पिक पथों के अन्वेषण का काम पूरी तरह सत्ता की राजनीति के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। इस कठिनतर काम को सांस्कृतिक रूप से पूरा करने की चुनौती हमारे सामने है। संस्कृति का औजार समाज को सचेत करने तक ही काम करता है। सचेत करने में समझ और संवेदना को चुनौती पर केंद्रित करने की जरूरत होती है। यह काम संस्कृति आदेशात्मक और उपदेशात्मक शैली से बचते हुए ही कर सकती है। यह बचाव ही `सत्ता की राजनीति' और `धर्म की राजनीति' से `संस्कृति की राजनीति' को अलग और विशिष्ट बनाता है। सत्ता की राजनीति आदेशात्मक होती है। धर्म की राजनीति उपदेशात्मक होती है। संस्कृति की राजनीति संवेदनात्मक होती है। हलांकि,`संस्कृति की राजनीति' भी कभी-कभी आदेशात्मकता और उपदेशात्मकता के ऋजु मार्ग पर चलने की कोशिश करने लगती है। इस कोशिश से कई प्रकार की विकृतियाँ जन्म लेती हैं। इन विकृतियों के कारण ही संस्कृति कर्मियों को राजनीति और धर्म का पिछलग्गू बनने में सुख मिलने लगता है। संस्कृति पर विकृति का वर्चस्व बढ़ता है। इस विकृति से बचने के लिए `संस्कृति की राजनीति', आदेशात्मकता और उपदेशात्मकता दोनों से बचते हुए, संवेदनात्मक आधार पर अपना काम करती है। `संस्कृति की राजनीति' का अभिगम बहुत सरल नहीं होता है। संस्कृति और राजनीति के बीच तीव्र आकर्षण और अनाकर्षण सदैव सक्रिय रहता है। संस्कृति और राजनीति में गलत मिलावट से संस्कृति राजनीति का उपनिवेश बनकर रह जाती है। इस उपनिवेशीकरण का नतीजा सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद के रूप में सामने आता है। राष्ट्र और उसके रहनिहारों के बीच समतामूलक संबंधों के प्रति नकार को रहनहिारों के नैसर्गिक एवं निश्छल देश प्रेम के भावनात्मक अंतर्लेप से आच्छादित कर बनाये गये छलकारी राष्ट्रबोध से सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद संस्कृति का परिसीमन करता है। यह परिसीमन संस्कृति को विकृति बनाता है। संस्कृति अपने मूल रूप में प्रकृति की तरह विश्वव्यापी होकर मनुष्य को निर्विशिष्ट रूप से एक माननेवाली होती है। इसी अर्थ में संस्कृति के उत्तम उपादान पूरी मनुष्य जाति की धरोहर बनते हैं। विकृति नाजायज आधार पर मनुष्य को बाँट देती है। एकात्मकता और बहुलात्मकता से भी विकृति और संस्कृति का भिन्न प्रकार का सरोकार बनता है। संस्कृति एकात्मक विश्व-मानववाद की नहीं बहुलात्मक विश्व-मानवाद की पैरवी करती है। विचार में गतिशीलता होती है और संस्कार में जड़ता। राजनीति विचार से अपना काम चलाती है। संस्कार को उतना महत्त्व नहीं देती है। कभी-कभी राजनीति की सत्ता-आकांक्षा बहुत चालाकी से संस्कार को ही विचार बना लेती है। धर्म संस्कार के आधार पर ही अपने उद्यम में लगा रहता है। विचार को महत्त्व नहीं प्रदान करता है। कभी-कभी जड़ता तोड़ने का आभास देने के लिए चतुराई से संस्कार को विचार बना लेने की ओर बढ़ता प्रतीत होता है। विचार और संस्कार के साथ यही सरोकार एक खास किस्म की राजनीति और एक खास किस्म के धर्म के परस्पर मिलने का आधार तैयार करता है। संसकृति नये-नये विचारों को संस्कार बनाने के लिए प्रयासरत रहती है। विचार और संस्कार से किसी न किसी स्तर पर `सत्ता की राजनीति' , `धर्म की राजनीति' और `संस्कृति की राजनीति' तीनों का संबंध बनता है। तीनों ही विचार और संस्कार को अपने-अपने सरोकार और प्रयोजन से बरतते रहते हैं। इस बरताव में ये तीनों टकराते भी रहते हैं। मनुष्य को निर्विशिष्ट रूप से संवेदनात्मक स्तर पर एक मानकर चलनेवाली संस्कृति की ताकत को सही संदर्भ में समझते हुए मनुष्य को अन्य आधारों पर बाँटकर अपना महत्त्व कायम रखनेवाली राजनीतिक-सत्ता और धर्म-सत्ता दोनों मनुष्य की संवेदना को क्षीण और स्थगित करने के काम को अपने-अपने ढंग से गति प्रदान करती रहती हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि क्षीण और स्थगित होती संवेदना के इस दुस्समय में मनुष्य की संवेदनात्मक एकता के आधार बनाने का काम कितना दुष्कर है। कोई काम दुष्कर चाहे जितना भी हो, जरूरी होने पर, उसे करना तो होता ही है !
धर्म क्या है? यह बहुत ही जटिल सवाल है। महाभारत का स्मरण करें। यक्ष ने जो कठिन सवाल पांडवों से किये थे उनका मूल आशय यही था कि `धर्म क्या है'। इस सवाल का कुछ हद तक कामचलाऊ जवाब सिर्फ धर्मराज युधिष्ठिर ही दे पाये थे। धर्मधुरंधरों के पास इस जटिल सवाल के बहुत सरल जवाब सहज ही उपलब्ध होते हैं। इस प्रश्न का उत्तर इतना ही आसान होता तो, यह यक्ष प्रश्न बनता ही क्यों ! फिर भी यह सच है कि धर्मधुरंधरों के नकली जवाब जनता को कुछ हद तक संतुष्ट भी तो कर ही लेते हैं ! तभी तो नकली जवाबों के आधार पर जनता उन धुरंधरों के – कुछ हद तक ही सही – साथ हो लेती है। ऐसा इसलिए होता है कि धर्म का मूल और नाभिकीय स्तर चाहे जितना जटिल हो, धर्म का तात्कालिक और बाहरी आडंबर अपनी संरचना में बहुत सरल होता है। अंदर से जटिल और बाहर से सरल संरचना को परिभाषाओं के माध्यम से नहीं समझा जा सकता है। धर्म को भी परिभाषाओं के माध्यम से नहीं समझा जा सकता है। धर्म के साथ शास्त्रार्थ नहीं करके ही उसके शास्त्रार्थ को जीता जा सकता है। धर्म की परिभाषाओं और उससे शास्त्रार्थ के चक्कर में सुलझन की जगह नई-नई उलझनें ही हाथ आती हैं। फिर धर्म को कैसे समझा जाए ? धर्म को उसके विचार समुच्चयों के सहयोजन और आचार के वास्तविक प्रयोजन एवं परिणतियों को एक दूसरे के ऐतिहासिक विकास के परिप्रेक्ष्य में रखकर समझा जा सकता है। धर्म के उद्भव के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को देखने से कुछ सामान्य लक्षण सामने आते हैं। ये लक्षण बताते हैं कि धर्म का उद्भव किसी आधिभौतिक या आध्यात्मिक कारणों से न होकर नितांत भौतिक और सामाजिक कारणों से हुआ है। इन भौतिक और सामाजिक कारणों को कई उपवर्गों में रखकर समझा जा सकता है। अपने अस्तित्व की रक्षा और विकास के लिए प्रकृति को साधना मनुष्य के लिए बहुत जरूरी था। प्रकृति को साधने के लिए उसमें समूहन की भावना आई। समूहन के लिए पार्थक्य और एकता दोनों की जरूरत होती है। पार्थक्य और एकता दोनों के लिए एक आधार की जरूरत होती है। पार्थक्य और एकता का आधार इकाईगत और समूहगत स्वार्थ का हितबोध बनाता है। इकाईगत और समूहगत स्वार्थ को पूरा करने के क्रम में सामाजिकता का संघटन होता है। स्वार्थ – चाहे वह इकाईगत हो या समूहगत – बहुत कँटीला होता है। वह अक्सर सामाजिकता को छील-छाँट देता है। इस छील-छाँट की पीड़ा को कम करने और स्वार्थ के महासमुद्र में जीवन को मनोरम बनाने के लिए संतोष के छोटे-छोटे द्वीप उगाने के क्रम में धर्म का उद्भव होता है। संतोष के ये छोटे-छोटे द्वीप न्याय और समानता के आश्वासन पाकर ही स्वार्थ के महासमुद्र के तूफानों से होनेवाले क्षरण का मुकाबला कर पाते हैं। किसी भी हालत में, रघुवीर सहाय के शब्दों में कहें तो, `लोग न्याय और बराबरी के जन्मजात आदर्श को नहीं भूलते।' न्याय और समानता प्राप्ति के आश्वासन के लिए ईश्वर की जरूरत होती है। अंतिम न्यायकर्त्ता और समदर्शी होने के रूप में ईश्वर को प्रचारित किया जाता है। इसलिए सताये हुए लोग – जिन्हें न्याय की प्रतीक्षा सबसे ज्यादा होती है – ईश्वर को अपने मन से सब से अधिक चिपकाये रहते हैं। निर्बल के बल, राम! दूसरी ओर सतानेवाले लोग भी बड़े जोर-शोर से ईश्वर-विचार का प्रचार करते हैं क्योंकि ईश्वर पर भरोसा कर ही आदमी अंतिम न्याय की प्रतीक्षा में सारे दुख को चुपचाप सहता रहता है। इस प्रकार ईश्वर-विचार सताये हुए लोगों के सामाजिक संघर्ष को कर्महीन और सतानेवाले लोगों के शोषण को सामाजिक चुनौतियों से रहित बनता है। इस प्रक्रिया में ईश्वर सब का प्रिय और आराध्य बना रहता है। इसलिए, सताये हुए लोगों के सामाजिक संघर्ष की कर्महीनता और सतानेवाले लोगों के शोषण को सामाजिक चुनौतियों से रहित किये जाने के विरोधी लोगों के लिए ईश्वर-विचार का निषेध प्राथमिक दायित्व होता है। ध्यान में यह होना चाहिए कि यह प्रसंग ईश्वर के अस्तित्व और अन-अस्तित्व की बहस से भिन्न प्रकार का है। नास्तिकता को सीधे ईश्वर का निषेधी प्रचारित कर उलझा दिया जाता है। इस बात को धीरे से दबा दिया जाता है कि पूर्ण नास्तिक वेद या धर्मग्रंथों को अपौरुषेय और प्रमाण न माननेवालों को ही माना जाता है। वेद और धर्मग्रंथ अन्य बातों के साथ-साथ प्रमुखत: ईश्वर-विचार ही हैं। वेद या धर्मग्रंथ के विरोध का मुख्य तात्पर्य ईश्वर का नहीं, ईश्वर-विचार का विरोध है। नास्तिकता ईश्वर के अस्तित्व की बहस में न पड़कर ईश्वर-विचार का निषेध करती है। ईश्वर-विचार का निषेध `अंतिम न्याय' और `समदर्शिता' के छलावे से बाहर निकलकर सामाजिक संघर्ष को कर्महीनता से बचाने और शोषण को सामाजिक चुनौतियाँ देने की ओर बढ़ता है। सिद्धांतत:, धर्म और ईश्वर-विचार अन्योनाश्रित नहीं हैं। व्यवहारत:, धर्म और ईश्वर-विचार एक दूसरे के बिना टिक नहीं पाते हैं। ईश्वर-विचार को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए उसे सांस्थानिक रूप देने की जरूरत होती है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए धर्म का संघटन होता है। धर्म अपने समूह के अंदर किसी न किसी रूप में अंतिम न्याय और समानता का झाँसा देने में सफल रहता है। इस अंतिम न्याय और समानता को पाने के लिए जरूरी होता है कुछ विधि, निषेध को मानना। इसके लिए विभिन्न प्रकार की धर्म संहिताओं का जन्म होता है। पाप और पुण्य की संकल्पनाएँ सामने आती हैं। समानता और न्याय के आश्वासन को जिंदा रखने के लिए धर्म नैतिकता की बात भी उठाता रहता है। हिंदु धर्म में कर्म-फल जैसे सिद्धांत बनाये जाते हैँ। यह सही है कि धर्म के कई-कई आकाश होते हैं। इन आकाशों में तरह-तरह के कुसुम खिले होते हैं। लेकिन उसके पास जमीन तो एक ही होती है ! और वह जमीन, सामाजिक मुक्ति की नहीं सामाजिक शोषण की होती है। धर्म मूल रूप से सतानेवाले लोगों के हित रक्षण से ही जुड़ा होता है। फिर भी, ऐसा प्रतीत होता है कि नैतिकता को अपनी परिधि में लेकर, धर्म जहाँ एक ओर शोषकों से शोषण को मानवीय सहन सीमा के अंदर बनाये रखने का अनुनय करता है वहीं दूसरी ओर सताये जा रहे लोगों की विनयशील सहन सीमा को फैलाता भी रहता है। धर्म के एक आकाश पर मानववाद रहता है। धर्म का मानववाद सामाजिक सहिष्णुता और सामंजस्य का आधार रचने की कोशिश करता है। धर्म के एक अन्य आकाश पर पुरोहितवाद रहता है। पुरोहितवाद सहिष्णुता को कायरता और उग्रता को वीरता के रूप में गौरवान्वित कर असहिष्णुता और मिथ्या सामाजिक संघर्षों को हवा देता रहता है। धर्म के इस जाल को वे लोग भी भलिभाँति समझते हैं जो उसकी ओर आध्यात्मिक आग्रह और शांति के लिए आकृष्ट होते हैं। सूफी सहित पूरी संत परंपरा धार्मिक आच्छादन में रहकर भी पुरोहितवाद और सामंतवाद को चुनौती देती थी। चुनौती देती थी इसलिए धार्मिक दिखते हुए भी यह परंपरा विभेदकारी और संप्रदायवादी नहीं थी, बल्कि इस अर्थ में धार्मिक परिसर के बाहर जाने का भी खतरा उठाती थी। धर्म और भक्ति के अंतर को ध्यान में रखना चाहिए। रवींद्रनाथ ठाकुर भी अ-धार्मिक व्यक्ति नहीं थे। वे धर्म के विभेदकारी और शोषक रूप को भी भलीभाँति पहचानते थे। यही कारण है कि वे अपनी कविता में धर्म के विभेदकारी और शोषक रूप का पूरा विरोध करते हैं। इसीलिए उनके मानवादी धर्म में ईश्वर की व्याख्या मानवीय रूप में की जाती है। ईश्वर की व्याख्या मानवीय रूप में करना असल में ईश्वर को मनुष्य से विस्थापित करना भी है। ईश्वर को विस्थापित करनेवाला यह `मानव' व्यक्तिवाचक नहीं जातिवाचक है। पुरोहितवाद भी कभी-कभी ईश्वर को मानव से विस्थापित करता है। अंतर यह है कि पुरोहितवाद का मानव जातिवाचक न होकर व्यक्तिवाचक ही होता है। वह राजा या शासक के ही किसी रूप को ईश्वर बताने के प्रयास में लग जाता है। रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे मानववादी किसी राजा को नहीं जन को ही जनार्दन मानकर आगे बढ़ते हैं। इस अर्थ में, संत परंपरा की प्रतिधर्म चेतना, सूफी संवेदना एवं रवींद्रनाथ ठाकुर के `मानववादी' दर्शन में `अविकसित जनवाद' के भी किसी-न-किसी रूप और तत्त्व के बीज की भी तलाश की जा सकती है। अवतारवाद की पूरी संकल्पनाएँ इस अर्थ में ईश्वर को मनुष्य से विस्थापित ही तो करती हैं! मदर तेरेसा जैसी धर्मात्मा को भी धर्म की शोषक और विभेदकारी भूमिका के कारण कभी-कभी ईश्वर-विचार की सार्थकता पर शंका होने लगती थी। यहाँ धर्म के पुरोहितवादी, शोषक, सामंती और आध्यात्मिक, सहनशील, शांति प्रदायी रुझान के बीच के संघर्ष को समझा जा सकता है। लेकिन एक बात ध्यान में रखने की है कि यह संघर्ष चाहे जैसा और जितना रहा हो, सच यही है कि धर्म के आध्यात्मिक, सहनशील, शांति प्रदायी रुझान को धर्म के पुरोहितवादी, शोषक, सामंती रुझान ने कभी समाज में ढंग से चलने नहीं दिया। धर्म के सारे आश्वासन समूह के सदस्य के लिए होते हैं। समूह से बाहर जाकर वह कोई आश्वासन नहीं देता है। वह शरणागति की ही कल्याण कामना करता है। भाषा चाहे जो हो अर्थ एक ही है – मामेकं शरणं ब्रज – मेरी शरण में आओ । धर्म सामाजिक एकता और अनिवार्यत: पार्थक्य का भी भ्रमपूर्ण आधार बनाता है। ये आधार भ्रमपूर्ण क्यों होते हैं, इस पर विचार किया जाना जरूरी है। कबिलाई या आदिम स्थिति को छोड़ दें तो सामाजिक समूहन के लिए धर्म के आधार पर बनाई गई एकता में समूह के सदस्यों के बीच वास्तविक सामाजिक समानता का कोई तत्त्व नहीं होता है। एकत्वबोध के बिना वास्तविक एकता नहीं हो सकती है। समानता के बिना एकत्वबोध नहीं हो सकता है। असमानों में कैसी एकता ! जो शोषण का आधार बनाता है, वह चाहे और जो करे एकता का आधार नहीं बना सकता है। धर्म की बनाई एकता शोषण का आधार बनाती है। जाहिर है धर्म एकता का नहीं एकता के भ्रम का ही आधार बनाता है। बिना किसी प्रयास के यह समझ में आने लायक बात है कि समूह के सदस्यों में एकता के भ्रम के निर्माण के लिए धर्म पार्थक्य का भी नकली आधार ही बनाता है। धर्म निर्मित पार्थक्य का आधार नकली इसलिए होता है कि वह मनुष्य की नैसर्गिक, जैविक और संवेदनात्मक एकता के वास्तविक आधार को ध्वस्त करता हुआ ही विकसित होता है। यह नकली पार्थक्य संप्रदायवाद को जन्म देता है। धर्म निर्मित पार्थक्य के नकली आधार पर विकसित संप्रदायवाद शोषण का आधार बनाता है। तात्पर्य यह कि पुरोहितवाद के द्वारा एकता और पार्थक्य दोनों ही के लिए धर्म निर्मित आधार अंतत: मिथ्या और शोषण की प्रेरणा से प्रसूत होता है तथा मानववाद में आकांक्षित निर्विशिष्ट मनुष्य की नैसर्गिक संवेदनात्मक एकताबोध के अर्जन के प्रयास को निरर्थक बनाने में अक्सर सफल रहता है। आतंक धर्म शोषण का आधार प्रदान करता है। धर्म के आधार पर निर्मित एकता और पार्थक्य का भ्रम शोषण का आदिम अवसर बनाता है। इससे आंतरिक रूप से संप्रदायवाद और बाह्य रूप से आतंकवाद के एक प्रकार का जन्म होता है। इसे धर्म मात्र के बारे में समझना चाहिए, किसी एक ही धर्म के बारे में नहीं। आतंकवाद का संबंध किसी एक धर्म से जोड़ने की गलत प्रवृत्ति इन दिनों खुलकर खेल रही है। यह सही है कि आतंकवाद का एक सिरा धर्म से भी जुड़ता है, लेकिन यह आतंकवाद की प्राणसिरा नहीं है। आतंकवाद की प्राणसिरा को पहचानने के लिए हमें धर्म और राजनीति के सम्मिश्रण की प्रक्रिया को भी ध्यान में रखना चाहिए। धर्म के ढाँचे से धर्म की अंतर्वस्तु – न्याय और समानता से जुड़ी तमाम मानवीय मूल्यों की नैतिकता – बाहर कर दी गई है। धर्म के खाली ढाँचे में राजतंत्रीय अंतर्वस्तु का ऐकांतिक अंतर्वास हो गया है। धर्म अपनी इस समकालीन अंतर्वस्तु के साथ राजनीति के ढाँचे में प्रवेश कर वहाँ से जनतंत्र की बची हुई अंतर्वस्तु को बाहर कर राजतंत्रीय अंतर्वस्तु के संस्थापन के काम में लगा हुआ है। इस प्रसंग के रूप में आज विश्व स्तर पर आतंकवाद के नये उभार को समझने का प्रयास किया जा सकता है। हटिंगटन जैसे विद्वान सभ्यताओं के जिस संघर्ष की बात कहते हैं वह बात सभ्यता और धर्म को समव्यापी पर्याय माने बिना पूरी नहीं होती है। आतंकवाद से इसलाम को जोड़ने के प्रयास को अपने हित में दुनिया को एक ध्रुवीय बनाने की परियोजना पर काम कर रहे लोगों के मनोभाव से जोड़कर देखा जा सकता है। यह सच है कि आज आतंकवाद का बाहरी और खुरदुरा रूप, प्रभाकरण आदि के रहते हुए भी, इसलाम से संबंधित होने की प्रतीति कराता है लेकिन उसका भीतरी और महीन रूप वास्तव में साम्राज्यवादी विश्वविजयनी आकांक्षा से ही संबंधित है। एक ओसामा बिन लादेन को `पकड़ने' और सद्दाम हुसैन का `दिमाग ठिकाने' पर लाने के लिए अमेरिकी आका विश्व जनमत की अवहेलना करते हुए आगे बढ़ते जाने के लिए उद्धत होते हैं। यह औद्धत्य क्या कम आतंकवादी है ? आतंकवाद या उग्रवाद का एक सिरा हमेशा से अन्याय के किसी-न-किसी रूप के विरोध से भी जुड़ा रहता है। जब राज्य-सत्ता सारे तर्कों को स्थगित कर देती है, जनतांत्रिक रास्तों को बंद कर देती है, सहमति और सहकार के महत्त्व को नजरअंदाज करती हुई अपने व्यवहार में निरंकुश हो जाती है तभी आतंकवाद का जन्म होता है। इसलिए जिस कार्रवाई का एक रुख आतंकवादी लगता है उसी कार्रवाई का दूसरा रुख क्रांतिकारी भी प्रतीत होने लगता है। आतंकवाद और क्रांतिकारी विचारधारा में अंतर इतना बारीक होता है कि कभी-कभी इन्हें एक दूसरे से अलग करना भी मुश्किल हो जाता है। 2002 के शीतकालीन अधिवेशन में भारतीय संसद की राज्यसभा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर एक पर्चा प्रकाशित और वितरित की थी। बताया गया है कि इस पर्चा में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी नायकों के लिए आतंकवादी और उग्रवादी जैसे विशेषणों का प्रयोग हुआ है। शोरगुल और संभवत: शर्मिंदगी के बाद राज्यसभा ने इस पर्चे को वापस ले लिया। इस घटना से समझा जा सकता है कि आतंकवाद और क्रांतिकारी गतिविधि में कितना बारीक अंतर होता है। इस बारीक अंतर को देश में जनतांत्रिक विमर्श की सर्वोच्च संस्था भी पकड़ पाने में विफल रहती है। इस विफलता को सिर्फ असावधानी का नतीजा मानना ठीक नहीं है। यह घटना पर्चा तैयार करनेवालों की असावधानी से अधिक उनके सरोकार को स्पष्ट करती है। आतंकवाद पर विचार करते समय उसके ग्लोबल मिजाज की अनदेखी नहीं की जा सकती है। आज जिस प्रायोजित आतंकवाद का प्रसार हम देख रहे हैं, उस आतंकवाद के प्रायोजन का सिरा किसी राष्ट्र की अंदरूनी स्थितियों से ही जुड़ी न होकर विभिन्न राष्ट्रों की वैदेशिक नीतियों के आर्थिक हितों से भी जुड़ा है। वस्तुत: धर्म के नाम पर एकता और पार्थक्य के लिए तैयार किये गये भ्रामक आधार आतंकवाद के बड़े काम का होता है। आतंकवाद समाज में आतंक का प्रसार चाहता है। आतंक के प्रसार के लिए जरूरी है कि आतंकित करनेवालों और आतंकित होनेवालों के दो स्पष्ट समूह हों। धर्म ऐसे समूहन के लिए पहले से बना-बनाया अव्याख्येय आधार मुहैय्या कराता है। आतंकवाद के प्रसार के अध्ययन से यह पता चलता है कि आतंकवादी अपनी कार्रवाइयों के प्रति समर्थन हासिल करने के लिए सबसे पहले अपने समूह के सदस्यों को ही निशाना बनाता है। क्रांतिकारी कार्रवाइयों के इतिहास को देखने से यह बात बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही समझ में आ जाती है कि क्रांतिकारी कार्रवाइयाँ ऐसे समूहन के लिए पहले से बने-बनाये किसी अव्याख्येय आधार का आश्रय नहीं लेती है। इसके विपरीत क्रांतिकारी कार्रवाइयाँ समूहन के लिए नये और व्याख्येय आधार का संघटन करती है। इसके साथ ही यह भी कि क्रांतिकारी कार्रवाइयाँ जिनके हित साधन के लिए वचनबद्ध होती है उनके समर्थन हासिल करने के लिए जोर-जबर्दस्ती का सहारा न लेकर सहमति और सहकार बनाने का रास्ता अख्तियार करती है। इस सहमति और सहकार के बनने में, क्रांतिकारी कार्रवाइयों की सफलता के बाद की, समाज-आर्थिक आकांक्षाओं की अपेक्षाकृत अधिक सुस्पष्ट और सुसंगत तस्वीर होती है। समूहन के लिए सहमति और सहकार किसी भी क्रांतिकारी कार्रवाई की अनिवार्य पूर्व-शर्त्त होती है। आतंकवादी कार्रवाइयाँ सहमति और सहकार की किसी पूर्व-शर्त्त को वैध नहीं मानती है। जाहिर है आतंकवाद जिनके हित के लिए प्रतिश्रुत होने का दावा करता है उन्हें भी अपना ग्रास बनाने से कोई परहेज नहीं करता है। कहने की जरूरत नहीं है कि तालिबानों से कितना त्रस्त इसलाम को माननेवाले हुए हैं। इसका कुछ-कुछ देशी अनुभव और अनुमान हमें बजरंगदलियों से त्रस्त हिंदुओं को देखने से हो ही सकता है। जिस उदारता से आतंकवादी कार्रवाइयों को विदेशी सहायता हासिल होती है, वह बहुत ही चौंकानेवाला है। आखिर बाहरी शक्तियों की इस दिलचस्पी के क्या कारण हो सकते हैं ? और वे बाहरी शक्तियाँ कौन-सी हैं ? यह इतनी छिपी हुई बात तो नहीं है ! छिपी हुई नहीं होने के बावजूद उन बाहरी शक्तियों की दिलचस्पी के कारण बहुत ही जटिल और संश्लिष्ट हैं। इसलिए, इनका विश्लेषण बहुत गहराई से किये जाने की आवश्यकता है। इस विश्लेषण के लिए भय और आतंक के संबंध को भी समझना चाहिए। भय व्यक्ति की अस्थाई मनोदशा है। आतंक समाज की स्थाई मनोदशा है। व्यक्ति भय के कारण समाज और कानून के द्वारा वर्जित प्रदेश में प्रवेश करने से हिचकता है। भय में समाज का दबाव व्यक्ति के मन में काम करता है। आतंक में व्यक्ति और उसके छोटे समूह का दबाव समाज के मन में काम करता है। सहमति और सहकार से सापेक्षता के कारण भय की एक सकारात्मक और सामाजिक भूमिका भी होती है। सहमति और सहकार से निरपेक्षता के कारण आतंक की नकारात्मक और असामाजिक भूमिका ही होती है। तुलसी दास ने भय की इसी सकारात्मक भूमिका को समझते हुए उसे प्रीति से जोड़ा होगा — `बिन भय होंहि न प्रीति' । `आदमी का डर' कहानी की शुरुआत करते हुए शेखर जोशी लिखते हैं , `बच्चों के होश सँभालने के साथ ही माँएँ उनके मन में एक आतंक भर देती थीं । यह सामान्य सा मुहावरा था `हुणियाँ' आया । सुनते ही रोते हुए बच्चे सहम कर चुप हो जाते और जिद्दी बच्चा अपनी माँगें भूल जाता था। ऐसे ही वातावरण में हम पले बढ़े थे ।' इस अनुभव से हम सभी किसी-न-किसी रूप में परिचित हैं। कभी भगवान भी इस `हुणियाँ' के रूप में प्रकट होते हैं। ध्यान देने पर यह स्पष्ट होता है कि शेखर जोशी ने माँओं के द्वारा बच्चों के मन में जिस `आतंक' के भरे जाने की बात कही है, वह सामान्य आतंक है और भय का ही समानार्थी है। यह आतंक `जिद्दी माँग' को स्थगित करने के प्रयोजन का पूरा करने में कारगर है। इस `जिद्दी माँग' को नागरिक जीवन के विस्तार में समझना चाहिए। हम जब आज आतंक को उसके `वाद' से जोड़कर समझने की कोशिश कर रहे हैं, तो उस सामान्य अर्थ से इसकी भिन्नता हमारे ध्यान में होनी ही चाहिए। इस बात से हमें `भय' के `आतंक' बनते जाने की भी गवाही मिल जाती है। जो हो, इतना तो स्पष्ट है कि व्यक्ति के मन में जिस भय वृत्ति का सदावास हुआ करता है आतंकवाद उस भय को ही आतंक तक फैलाने की परियोजना पर काम करता है। एक सुचिंतित विचार समुच्चय के रूप में आतंकवाद के इतिहास पर अलग से विचार किया जा सकता है। यहाँ तो बस इतना ही ध्यान में रखने से काम चल जायेगा कि भय और आतंक दोनों की आनुपातिक संचरण और संतुलन व्यक्ति और समाज में सदा रहा है। आज की बिडंबना यह है कि भय और आतंक के आनुपातिक संतुलन में भारी गड़बड़ी पैदा हो गई है। आज व्यक्ति के मन में `भय' कम हो गया है। कानूनी और सामाजिक वर्जना के भय से बड़ा-से-बड़ा अपराध और अनैतिक काम करने में व्यक्ति की सामाजिक हिचक कम हुई है। वहीं `आतंक' के कारण अपने बड़े-से-बड़े अधिकार को भी सहज छोड़ देने की व्यक्ति की सामाजिक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसी सामाजिक और वैयक्तिक प्रवृत्ति के तोते में आतंकवाद प्राण बसता है। कुत्सित विचारों के एक समुच्चय के रूप में आतंकवाद सभ्यता की इस स्थिति को जानता है। आतंक फैलानेवालों की करतूतें न किसी सामयिक उत्तेजना की परिणति होती है और न ही किसी प्रकार की गलतफहमियों से उपजी संदर्भच्युत विच्छिन्न घटना ही होती है। आतंकित करनेवाली घटनाओं के पीछे बारीकी से तैयार किया गया कु-तर्कजाल होता है। यह कु-तर्कजाल ही आतंकित करनेवाली घटनाओं को `वाद' के आभास से जोड़ कर एक वैचारिक आधार प्रदान करने की कोशिश करता है। इस कु-तर्कजाल का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र धर्म के परोहितवादी रुझान से बनता है। वह धर्म के विधान के लिए ईश्वर के नाम पर फैलाये जानेवाले सामाजिक आतंक की सफलता के रहस्य को भी जानता है। आतंकवाद धर्म के पुरोहितवादी और मानववादी रूप और तत्त्व के अंतर को जानता है। धर्म के मानवादी रूप और तत्त्व में अविकसित जनवाद के भी किसी-न-किसी रूप और तत्त्व के होने की विपुल संभावनाएँ छिपी होती हैं। यह धर्म के आधार पर विकसित किये जानेवाले आतंकवाद के किसी काम का नहीं होता है। बल्कि धर्म का मानवाद तो आतंकवाद के विरोध की प्रेरणा और प्रतिज्ञा बनकर उभरने की कोशिश करता है। इसीलिए किसी धर्म का मानवादी रूप और तत्त्व अपने ही धर्म के पुरोहितवादी रूप और तत्त्व के आधार पर विकसित आतंकवाद का पहला ग्रास बनता है। समझा जा जा सकता है कि सभ्यता निर्मिति के ऐतिहासिक-सामाजिक विकासक्रम में उपलब्ध हुई सूफी-चेतना और संत-चेतना तालिबानों और बजरंगदलियों को क्यों पसंद नहीं आती है। पूरी दुनिया में आतंकवाद और पुरोहितवाद के नवोत्थान को उनके सहदोर ही नहीं जुड़वाँ भी होने की जटिल प्रक्रिया के माध्यम से ही समझा जा सकता है। नवपूँजीवाद की विश्वविजयनी आकांक्षा इनकी माता है। उनिभू (उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण) की त्रिशिरा इस आकांक्षा की त्रिजटा को संपोषित करती है। इस त्रिजटा का एक पहलू अ-राजकीय आतंकवाद है, दूसरा पहलू राजकीय आतंकवाद है और तीसरा इन के अंतराल में विकसित सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में निरंतर पसरते हुए स्थानीय अपराधों के आतंक की छोटी-बड़ी गाँठों का महाजाल है। उनिभू की प्रक्रिया के अंतर्गत दुनिया के बहुसंख्यक लोगों के सामने अस्तित्व का संकट आ खड़ा हुआ है। इस संकट से उत्पन्न आतंक क्या कम बड़ा है ? इसके कारण जीवन हलकान है, सपने लहुलुहन हैं। सामाज-व्यवस्था के सुचारू रहने के लिए सब-से महत्त्वपूर्ण तत्त्व जनतंत्र – उसका ढाँचा और अंतर्वस्तु दोनों ही -– इस प्रक्रिया में संकटापन्न हो गया है। दुनिया के शासकों की स्वैच्छाचारिता पर जनतंत्र ही अंकुश लगाता है। राजनीतिक राज्य धीरे-धीरे नैगमिक राज्य से विस्थापित हो जाने की दिशा में बढ़ रहा है। जननायक आजकल धननायक बनने में जरा भी देर नहीं करते हैं। राम के नाम पर लोगों को गोलबंद करने के काम में लगे मुख्य लोगों के पास करोड़ों-अरबों का कारोबार है। देश और दुनिया के अन्य जनतांत्रिक राज्यों के भी अधिकतर जनप्रतिनिधि करोड़ों-अरबों के कारोबारी हैं। ये जनतंत्र को भी कारोबार मानते हैं। ये अपने कारोबार में सहायक नहीं बन पानेवाले जनतंत्र को पलक झपकते ही कबार बना देने के कूट-उद्यम में लग जाते हैं। इन कारोबारियों को जनतंत्र की चिंता भला क्यों हो ! दुनिया अपनी जगह, अपने भारतवर्ष में भी वह समय बहुत दूर नहीं है जब धनपति लोग सीधे चुनाव लड़ेंगे, जीतेंगे और अपने व्यापार जगत के हित में राज्य और जनतंत्र का सीधा इस्तेमाल करेंगे। यह कोई हवाई बात नहीं है। इस संदर्भ में जनतंत्र के अप्रत्यक्ष इस्तेमाल का हमारा देशी अनुभव है। हमने देखा है, चुनावी प्रक्रिया में अपराधियों का साथ लेने पर किस कदर राजनीति का अपराधीकरण हुआ। बाहुवली खुद नेता बन गये। कानून और संविधान के प्रवाधानों की तमाम पगबाधाओं को पार करते हुए चुनाव लड़ते ही नहीं जीतते भी हैं। जीतते ही नहीं मंत्री भी बनते हैं। मंत्री भी ऐसे-वैसे नहीं, साधारण मंत्रियों पर भारी पड़नेवाले मंत्री ! धनपतियों और उद्योगपतियों के सामने तो ऐसी कोई पगबाधा भी नहीं है। अभी इस या उस व्यापारिक घराने के हितसाधन के लिए चोरी-चोरी, चुपके-चुपके हमारे जननायकों की लॉबिंग से ही हमारा जनतंत्र वृद्ध जटायु की तरह घायल होकर कराह रहा है ! तब क्या होगा जब इस या उस व्यापारिक घराने के मालिक खुद अपने हाथ में राज्य-सत्ता की बागडोर ले लेंगे ? विज्ञान तो अंत:सलिला की तरह काम करता है, स्वाभाविक ही है कि धनसत्ता की सेवा में उसके लग जाने की स्थिति भी अंत:सलिला ही होती है। फिल्म और मीडिया पर तो धनसत्ता की पकड़ बिल्कुल साफ-साफ सतह पर देखी जा सकती है; बौद्धिक-सांस्कृतिक विमर्शों, साहित्य और अन्य कलाओं पर उनकी जकड़ के दबाव को महसूस करने और स्वीकारने में हो सकता है थोड़ा समय और लगे। ऐसे में जनतंत्र ! जनतंत्र का स्यापा भी होता रहेगा और जनतंत्र की हत्या भी होती रहेगी ! स्यापा करने में हत्यारे सब-से आगे रहेंगे! जनतंत्र जन का नहीं बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों का आपसी मामला बनकर रह जायेगा। जनतंत्र के ढाँचों से उसकी बची हुई अंतर्वस्तु भी खदेड़ दी जायेगी। जनतंत्र के खाली ढाँचे में राजतंत्र की अंतर्वस्तु विलास करेगी। हमारे जननायकों में राजा बनने की ललक कितनी बढ़ी है ! नहीं । आतंकवाद – अ-राजकीय हो या राजकीय – कुल मिलाकर इसी थिसिस पर काम करता है। जिन्हें हम आतंकवादी कहते हैं वे गरीब तो इस थिसिस की सेवा से अपना रोजगार कमाते हैं या बेगार करते हैं। चाहे जिस रंग और ढंग का आतंकवाद हो उसके फिदायिनों या आत्मघातियों के आर्थिक आधार को देखने से उनकी बेचारगी का पता चल सकेगा। अमीर तो छोड़िये किसी भी प्रकार से जिंदगी की गाड़ी को गुड़का ले जाने का थोड़ा-सा भी भरोसा रखनेवाले बच्चे (जी हाँ बच्चे !), किशोर और युवा फिदायिन या आत्मघाती बनने की बात भी नहीं सोच सकतेहाँ इन में से कुछ किसी प्रकार की रोमानियत ओर नाजायज सपनों को साकार करने के लिए जरूर इनकी चपेट में आ जाते होंगे लेकिन इन से फिदायिन या आत्मघाती की मुख्यधारा नहीं बनती है। आतंकवाद और संप्रदायवाद में मनुष्य के प्रति कोई आदर नहीं होता है। इसलिए आतंकवाद और संप्रदायवाद किसी भी रूप में समानता और न्याय के लिए प्रतिश्रुत धर्म और जनतंत्र का आदर नहीं करता है। धर्म हो या जनतंत्र हो वह मनुष्य के लिए है। सच्चे धर्म के मानववादी रूप और तत्त्व में मनुष्य के प्रति गहरा अनुराग होता है। सच्चे जनतंत्र के भी जनवादी रूप और तत्त्व में मनुष्य के प्रति गहरा अनुराग होता है। धर्म और जनतंत्र के एकाकार होने का आधार मनुष्य के प्रति इनका अनुराग है। सच्चा धर्म और सच्चा जनतंत्र एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक होते हैं। सच्चे धर्म और सच्चे जनतंत्र की अलग-अलग चिंता करनेवलों को यह बात समझनी होगी। आतंकवाद और संप्रदायवाद के हथियार का उद्भव धर्म के ढाँचे में विकसित पुरोहितवाद की अंतर्वस्तु और जनतंत्र के ढाँचे में विकसित राजतंत्र की अंतर्वस्तु के बीच बने जटिल संश्रय से हुआ है। इसलिए, आतंकवाद और संप्रदायवाद से निपटने के लिए जरूरी औजार का उद्भव धर्म की मानववादी अंतर्वस्तु और जनतंत्र की जनवादी अंतर्वस्तु के सरल संश्रय से ही हो सकेगा। सभ्यता के संकट की इस घड़ी में मनुष्य के सामने मुख्य सवाल यह है कि धर्म के ढाँचे में विकसित पुरोहितवाद की अंतर्वस्तु और जनतंत्र के ढाँचे में विकसित राजतंत्र की अंतर्वस्तु के बीच संश्रय बनाने का काम तो राज ने कर लिया है लेकिन इन से पार पाने के लिए धर्म की मानववादी अंतर्वस्तु और जनतंत्र की जनवादी अंतर्वस्तु के संश्रय बनाने का गुरूतर काम कौन करेगा ? कैसे करेगा ? इस `कौन करेगा' के जवाब से ही `कैसे करेगा' का करगर जवाब मिल सकेगा। इस `कौन करेगा' का उत्तर समाज है। यह काम तो समाज करता ही आया है। इस काम को समुचित गति और दिशा देने की कोशिश और उससे भी अधिक अपने लिए भरोसे की तलाश में हमें समाज को बार-बार समझना होता है। समाज को हासिल कर ही हुस्स होते हुए हुलास को कुछ हद तक बचाया जा सकता है। समाज सभ्यता के विकास के साथ-साथ समाज की संरचना में काफी बदलाव आया है। औद्योगिक विकास के बाद सामाजिक संरचना के स्तर-विन्यास में बहुत बड़ा अंतर आया था। अब तकनीक के विकास के बाद समाज की संरचना में फिर भारी अंतर उपस्थित हुआ है। `विश', `ग्राम', `सभा', `समिति', `गण' आदि के प्रसंग से समाज की बनावट की ऐतिहासिकता का पता चलता है। इतिहास अध्ययन की दृष्टि से इसका अपना महत्त्व भी है। यहाँ मुख्य चिंता समकालीन समाज के बनाव को समझने की है। समकालीन समाज को समझने की दृष्टि से यहाँ उन प्रसंगों की उपादेयता बहुत अधिक नहीं प्रतीत होती है। औद्योगिक विकास के साथ आबादी में भारी गत्यात्मकता आई। विभिन्न जगहों से कुशल और अधिक जागरुक लोग रोटी की तलाश में औद्योगिक केंद्रों की ओर आने लगे। धीरे-धीरे उनका नया बसाव इन औद्योगिक केंद्रों के आस-पास होने लगा। इससे सामाजिक संस्तरीयकरण की दुहरी प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ। एक स्तर की सामाजिक प्रक्रिया उन जगहों पर शुरू हुई जिन जगहों को छोड़कर कुशल और अधिक जागरुक लोग औद्योगिक केंद्रों पर आकर बस गये थे। उन जगहों पर एक सामाजिक शून्यता बनने लगी। ऐसी शून्यता जो सामाजिकता की दृष्टि से कालांतर में बहुत ही भयावह और घातक साबित हुई। दूसरे स्तर की सामाजिक प्रक्रिया उन औद्योगिक केंद्रों पर शुरू हुई जहाँ कुशल और अधिक जागरुक लोगों का अति-रिक्त जमाव होने लगा था। स्वभावत: इस अति-रिक्त जमाव में अर्थ-प्रवाह अधिक गहन था। लेकिन यह अति-रिक्त जमाव सामाजिकता में बदल नहीं पाया। इस जमाव के बसाव को कॉलोनी कहे जाने का प्रचलन बढ़ता ही गया। यह बसाव सचमुच अपने ही देश में कॉलोनी अर्थात उपनिवेश के रूप में ही जमता चला गया। इससे उद्योग केंद्रित स्थानों की पारंपरिक सामाजिकता अतिकेंद्रण के दबाव में आने लगी। इस प्रकार, संक्षेप में यह कि औद्योगिक क्रांति की प्रक्रिया के साथ ही प्रतिभा-वितरण की दृष्टि से एक सामाजिक असंतुलन का भी प्रारंभ हो गया। प्रतिभा-वितरण का यह असंतुलन कम भयावह और घातक साबित नहीं हुआ। ध्यान में रखने की बात यह भी है कि भारत में औद्योगिक विकास का काम भीतरी और बाहरी औपनिवेशिकता के वातावरण में हो रहा था। औपनिवेशिकता अपने आप में नाना प्रकार के असंतुलन की जननी होती है। सामाजिक असंतुलन पैदा करनेवाली इस तिहरी स्थिति के कारण भारतीय समाज में परंपरा के साथ आधुनिकता का सार्थक संवाद और विश्वसनीय संबंध नहीं बन सका तो उसके कारणों को समझे जाने की जरूरत है। औद्योगिक क्रांति के पहले उपभोक्ता वस्तु के उत्पादक और वितरक समूह का चेहरा उपभोक्ता के सामने साफ हुआ करता था। औद्योगिक क्रांति के बाद उत्पादक और वितरक समूह का चेहरा धीरे-धीरे ओझल और अमूर्त्त होता गया। सामाजिकता के लिए आवश्यक प्रतिनिर्भरता या अंतर्निर्भरता भी अमूर्त्त होती चली गई। इस अमूर्त्तता को तोड़ने का कोई बड़ा प्रयास भी नहीं हुआ। आज तो बाजार का अदृश्य हाथ बड़े-बड़े फैसले चुटकियों में ले रहा है। मिल्टन सिंगर के संदर्भ से सव्यसाची भट्टाचार्य कहते हैं कि आम आदमी की स्थानीय परंपराओं (little tradition) को परिष्कृत करके उच्च कोटि की महान परंपराओं (great tradition) की सृष्टि करना, प्राचीन नगरों का अवदान रहा है। इस प्रकार के नगरों जैसे मदुरै अथवा काशी को उन्होंने मूलसंभूत (ortho-genetic) नगर का नाम दिया है। इसके विपरीत औपनिवेशिक महानगरों, जैसे चेन्नेई और कोलकाता को उन्होंने अपरसंभूत (hetero-genetic) नगर का नाम दिया है। औपनिवेशिक महानगरों में प्राचीन परंपरा तथा एक दूसरी नई संस्कृति के बीच खींचतान चल रही थी। भारतीय समाज बाह्य उपनिवेश के साथ ही एक किस्म के आंतरिक उपनिवेश से भी जूझ रहा था। इस नई खींचतान में इस आंतरकि उपनिवेश का भी एक – कुछ हद तक गुप्त – पक्ष था। इसी खींचतान में आंतरिक उपनिवेश की त्रासदी के साथ संघर्ष करते हुए बाह्य उपनिवेश के वातावरण में ही ज्ञानोदय, आधुनिकता और स्वतंत्रता के त्रैत से हमारा परिचय हुआ। इसी वातावरण में हमारा राष्ट्रबोध भी सक्रिय हुआ। इस चढ़ा-उतरी में भारतीय समाज एक मरोड़ को झेल रहा था। इस सामाजिक मरोड़ के दरम्यान ही भारतीय समाजों के पुनर्निर्माण की आवश्यकता उपस्थित हुई थी। आज मूलसंभूत (ortho-genetic) और अपरसंभूत (hetero- -genetic) नगरों के साथ ही साइबर स्पेस की सिलकन घाटी में बस रहे नवनगरों से सामाजिक मरोड़ में नई ऐंठन भी आशंकित है। यह नगर इंटरनेट पर कुंभ-स्नान करवाने में अपनी क्षमता साबित करने में कामयाब रहा है। अब, इससे रोटी माँगने की जहालत अगर कोई करे तो इस दुनिया के नवनागरिक कंपुप्रभुओं की शान में गुस्ताखी ही है न ! सव्यसाची भट्टाचार्य कहते हैं, `महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रशासनिक ढाँचों में होनेवाले किसी भी परिवर्तन का कारगर होना तब तक संदेहास्पद ही रहता है जब तक उन ढाँचो को सामाजिक ढाँचे से पुरजोर सक्रिय समर्थन न मिल पाता हो। भारतीय समाजों के पुनर्निर्माण की आवश्यकता इस दृष्टि से समझी जा सकती है कि एक-से-एक जनपक्षधर कानून के होते हुए भी उन कानूनों के सामाजिक प्रतिफलन को हासिल करने में हम विफल ही रहे हैं। फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जातपात के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण का असर आर्थिक स्तरीकरण पर भी अमोघ था। बंधुआ मजदूरों की जाति संबद्धता को ध्यान में रखते हुए किये जानेवाले विश्लेषण से यह बात और साफ हो सकती है।' उनिभू (उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण) की प्रक्रिया के अंतर्गत जब पूरी दुनिया एक प्रकार के आत्म-उपनिवेशीकरण के दौर से गुजर रही भारतीय सामाजिकताओं का यथार्थ और भी उलझ गया है। भारतीय सामाजिकताओं के साथ-साथ हिंदी की विभिन्न सामाजिकताओं के उलझाव तो और भी भंगुर हैं। ऐसे में अर्द्धजीवित पुराने सामाजिक निर्माण के ऊपर नये सामाजिक पुनर्निर्माण की चुनौती सामने है। राजनीतिक एवं जीवन के अन्य क्षेत्रों के नेतृत्व की गुणवत्ता को देखते हुए यह काम बहुत ही कठिन दीखता है। सामाजिक नेतृत्व या तो है ही नहीं या फिर जहाँ है वहाँ अप्रभावी ही है। सांस्कृतिक नेतृत्व तो अपने-अपने व्यक्तिगत बड़प्पनों को ही सुधारने में व्यस्त है ! हमारा अनुभव इस बात की पुष्टि करता है कि सामाजिक समर्थन के बिना कोई भी बड़ा काम नहीं हो पाता है। लेकिन सामाजिक समर्थन तो बहला-फुसलाकर भी हासिल कर लिया जा सकता है। सोचने की बात है कि बहलाने-फुसलाने में कामयाबी नहीं मिलती तो संप्रदायवाद का इतना बड़ा उभार आज के समय में कैसे होता ? धर्म के मानववादी तत्त्व को पुरोहितवादी धूर्तता कैसे बे-असर कर देती ? बहलाने ओर फुसलानेवालों की पोल खोलने में हम क्यों कामयाब नहीं हो पा रहे हैं ? ये सब सवाल बहुत कचोटनेवाले हैं। कचोट है, तो हम जिंदा हैं। अभी साँस बाकी है तो आस भी बाकी है। समाज मनुष्य की सब-से पुरानी संस्था है। जब सभ्यता बदलाव के किसी भी दौर के सम्मुखीन होती है, समाज उसकी ताकत बनकर उभरता है। संक्रमण की किसी भी पीड़ा को झेलने की आंतरिक ताकत ओर दक्षता समाज की बनावट में अंतर्निहित होती है। 
सभ्यता और संस्कृति को समझने के लिए
आज संस्कृति की चर्चा बहुत होती है, सभ्यता की बहुत कम, लगभग न के बराबर। पहले सभ्यता की चर्चा अधिक होती थी। ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, उत्पादन, वितरण, भागीदारी, भोग आदि की प्रक्रियाओं और इन प्रक्रियाओं में बदलाव के साथ सभ्यता बनती है। सभ्यता के आधार पर संस्कृति विकसित होती रहती है। संस्कृति सभ्यता की अधीनस्थ होती है या यह कि संस्कृति को सभ्यता के अधीनस्थ होना चाहिए! मनुष्य का जीवन और उस जीवन का बहुविध प्रसंग सभ्यता विकास से अधिक प्रभावित होता है। सभ्यता को नहीं समझने या उससे संगति नहीं बिठा पाने के कारण संस्कृति की हमारी समझ में भारी उलझाव पैदा होता है। रवीन्द्रनाथ ने अपने अंतिम दिनों में जो लेख लिखा या संदेश दिया उसका शीर्षक 'सभ्यता का संकट' है, 'संस्कृति का संकट' नहीं। अभी कुछ दिन पहले एक बहु-चर्चित अंगरेजी किताब के शीर्षक का हिंदी अनुवाद 'सभ्यता का संघात (क्लेशेज ऑफ सिविलाइजेशन)' हो सकता है। मुक्तिबोध को हम अक्सर 'सभ्यता समीक्षा' की बात करते हुए पाते हैं। इसलिए, साहित्य को, खासकर समकालीन साहित्य को 'सभ्यता के संदर्भ' से देखना अधिक समीचीन होगा, जबकि हम उसे 'संस्कृति के संदर्भ' से देखने के अभ्यासी होते गये हैं। उदाहरण के लिए कबीर-तुलसी के साहित्य को तो 'संस्कृति के संदर्भ' से देखा जा सकता है, जबकि निराला-नागार्जुन के साहित्य को 'सभ्यता के संदर्भ' से देखना अधिक जरूरी है। 
मोटे तौर पर सभ्यता और संसकृति के अंत को समझने के लिए उदाहरण-स्वरूप एक दृश्य-विधान। दृश्य यह कि, एक ही सामज के भिन्न संस्कृतियों से जुड़े जोड़े की शादी हो रही है। दोनों के पोशाक की बनावट, सामुदायिक या जातिगत रीति-रिवाज की पारस्परिक भिन्नता बिल्कुल स्पष्ट रूप से अलग और सहज ही लक्षित हो सकती है, हो जाती है। जबकि, दोनों ही जोड़े के लोगों के पास लगभग एक ही तरह या संवर्ग का मोबाइल सेट, कनेक्शन, गाड़ियाँ, एक ही तरह की बिजली व्यवस्था और उपलब्धता देखने को मिलती है। इस आधार पर भिन्नता में अभिन्नता को लक्षित कर पाने में यदि हम सहज कामयाब रहते हैं तो समझना चाहिए नजरिया के संघटन में सभ्यता के सूत्र सक्रिय हैं। यह ध्यान रहे, भिन्नता लक्षित करनेवाला हमारा खुद का नजरिया समुदाय के सांस्कृतिक तत्त्व से जाने-अनजाने निरंतर निर्मित होता रहता है। हमारे समय के बदलते मिजाज का बड़ा संकट यह है कि नजरिया के संघटन में सामुदायिक या सांस्कृतिक तत्त्व अधिक तेजी से सक्रिय होते जा रहे हैं और सभ्यता के सूत्र तेजी से निष्क्रिय नहीं भी अगर तो शिथिल जरूर होते जा रहे हैं। आगे की ओर बढ़ने के लिए संस्कृति को सभ्यता के अनुसरण में अपनी आंतरिक गतिमयता को बरकरार रखना पड़ता है। पीछे की ओर लौटने या जड़ता की स्थिति सभ्यता को संस्कृति के अनुशरण में बने रहने का दबाव बनाती है। यह इतना सूक्ष्म होता है कि अनुसरण और अनुशरण पर ध्यान देने से पता चलता है कि इन में जो भिन्न ध्वनि है, उनमें सिर्फ दंत्य और तालव्य का अंतर है।
अर्थातः
समाज में सच्चे धर्म और सच्चे जनतंत्र का संश्रय बनेगा। यही संश्रय धर्म के पुरोहितवादी रूप और राजतंत्र की अंतर्वस्तु को अपने ढाँचे में समेटे जनतंत्र के बीच के जटिल संश्रय से उत्पन्न आज के अशुभ-चक्र को सफलतापूर्वक तोड़ेगा। देश की नदियों को जोड़ने की अपनी जरूरत है। भावनाओं के जोड़ने का अपना महत्त्व है। इतिहास बड़ा निर्मम होता है। वह निर्ममतापूर्वक सवाल करता है। वह बार-बार सवाल करेगा कि धर्म और आतंक के सहारे समाज में भावनात्मक-विच्छेद कर सभ्यता की आत्म-गत्यात्मकता को मानवीय धूरी से विपथित कर देने का षडयंत्र जब नवपूँजीवाद रच रहा था तब हम क्या कर रहे थे?

दलित राजनीति की समस्याएँ


डॉ. आंबेदकर

दलित राजनीति की समस्याएँ


मेरे विचार से इस देश के दो दुश्मनों से कामगारों को निपटना होगा। ये दो दुश्मन हैं, ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद ...। ब्राह्मणवाद से मेरा आशय स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की भावनाओं के निषेध से है। यद्यपि ब्राह्मण इसके जनक हैं, लेकिन यह ब्राह्मणों तक ही सीमित नहीं होकर सभी जातियों में घुसा हुआ है।--डॉ. आंबेकर

1.  स्थिति और संदर्भः राजनीति क्या है

i. दलित एक विशुद्ध भारतीय स्थिति है और इसीलिए `दलित राजनीति की समस्या' अपने मूल चरित्र में बिल्कुल भारतीय यथार्थ है। दलित का अर्थ और अभिप्राय सिर्फ भारतीय संदर्भ से हासिल किये जा सकते हैं। दलित समस्याओं से मिलती-जुलती समस्याएँ अन्य समाजों में भी हो सकती है, लेकिन उन पर प्रसंगवश ही चर्चा की जा सकती है। उनके साथ दलित समस्याओं को समीकृत करना समस्या के मूल से भटकाव की आशंकाओं को सघन करता है। कहना न होगा कि यह भटकाव मूल समस्या को उलझाव में डाल देता है और उसके चरित्र को समझने में बाधा उत्पन्न करता है। ऐसा कई बार शरारतन किया जाता है, तो कई बार अनजाने ही हम उस उलझन में फँस जाते हैं। कोशिश की जा सकती है कि उलझाव और भटकाव के ऐसे संदर्भों से बचा जाये। भारत बहुत बड़ा देश है, भौगोलिक रूप से ही नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी इतना वैविध्य है कि कई बार इसके देश नहीं `महादेश' होने का भ्रम होता है। `महादेश' न हो, तो भी इतना तो है कि कोई भी `भारतीय स्थिति' अपनी सामाजिकता में एकार्थी नहीं हो सकती है और न पूरे भारत पर एक ही अर्थ में लागू हो सकती है। उत्तर और दक्षिण भारत की या फिर पूर्व और पूर्वोत्तर की `दलित राजनीति' से हिंदी क्षेत्र की दलित राजनीति भिन्न हो सकती है। इस भिन्नता के कारण वहाँ की सामाजिक-आर्थिक संरचना, समकालीन राजनीतिक, सांस्कृतिक स्थिति आदि में निहित हैं। कहना न होगा कि `दलित राजनीति की समस्या' का अपना क्षेत्रीय प्रसंग भी है। जाहिर है कि  `दलित राजनीति की समस्या' पर विचार करते हुए यहाँ व्यापक और सामान्य नजरिया ही अपनाना बेहतर होगा। विशिष्ट क्षेत्र की `दलित राजनीति की समस्या' पर केंद्रित अध्ययन में विशिष्ट नजरिया अपनाया जा सकता है।

ii. राजनीति मूलत: `सत्ता-विमर्श' है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में `सत्ता' की व्याप्ति होती है। यह व्याप्ति कई बार दृश्य होती है, तो कई बार अदृश्य भी रहती है। दृश्य हो या अदृश्य किंतु `सत्ता' की उपस्थिति वहाँ होती जरूर है। तात्पर्य यह कि सत्ता राजनीति का केंद्रीय विधान है। कहना न होगा कि राजनीतिक आंदोलन का मकसद `सत्ता की संरचना' में परिवर्त्तन के माध्यम से `समाज की संरचना' में परिवर्त्तन करना होता है और सामाजिक आंदोलन का मकसद `सामाजिक संरचना' में परिवर्त्तन के माध्यम से `सत्ता की संरचना' में परिवर्त्तन करना होता है। दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं और एक दूसरे से टकराते भी हैं। यहीं पर यह स्मरण कर लेना जरूरी है कि `सत्ता' का मतलब होता है, इच्छित परिणाम पाने की क्षमता। `इच्छा' क्या है, और यह भी कि इच्छा का निर्माण कैसे होता है, इस पर ध्यान देना जरूरी है। `इच्छा' उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक विकल्प के चयन में अभिव्यक्त होती है। विकल्पों का चयन प्राथमिक रूप से आर्थिक और उसके साथ-साथ सांस्कृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, भौतिक आदि कारणों पर, अर्थात `जीवन-स्थितियों' पर निर्भर करता है। इस प्रसंग में, यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि आर्थिक आधार को विकसित करने के भी कई विकल्प हो सकते हैं। इन विकल्पों में से किसी एक के चयन का आधार प्रमुख रूप से आर्थिक स्थिति ही मुहय्या कराती है। बच्चा  स्कूल जाने के `काम' के बदले स्कूल के सामने की चाय दूकान में प्याला धोने का `काम' चुनता है, तो `विकल्प के इस चयन' में उसकी `जीवन-स्थितियों' की भूमिका को समझना मुश्किल काम नहीं है। इस चयन से भी `जीवन-स्थितियाँ' बदलती है। `स्कूल जानेवाला बच्चा' `प्याला धोनेवाले बच्चे' से अधिक सामाजिक सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इन्हें परस्पर जुड़ी कड़ियों के रूप में समझा जा सकता है। `समझने के बाद' प्रेक्षक के पास भी कई विकल्प होते हैं --  बच्चा के माता-पिता, को भला-बुरा कहना, दूकानदार को फटकारना, व्यवस्था को दोष देना, तत्काल कुछ व्यवस्था करना या कुल्हा मटकाकर चल देना -- इनमें से एक या अनेक विकल्प को प्रेक्षक अपनी `जीवन-स्थितियों' के अनुसार चुनता है। कहना न होगा कि `जीवन-स्थितियों' में `व्यक्तित्व के गुण' शामिल हैं। तात्पर्य यह कि `जीवन-स्थितियों' की सामाजिकता और राजनीति से `अर्थ' का गहरा संबंध होता है।

iii. सत्ता का सबसे अधिक सुपरिभाषित, स्वीकृत और प्रभावी रूप `अर्थ' होता है। कहना न होगा कि `इच्छा' और `विकल्पों' के चयन की `स्वतंत्रता' का अधिकार और `इच्छित परिणाम' पाने का सीधा संबंध `अर्थ' से है। `अर्थ' का प्रवाह `रोजगार' से होता है। बीसवीं सदी का बीज शब्द था `स्वतंत्रता' और इक्कीसवीं सदी का बीज शब्द है `रोजगार'। `मानव विकास का महत्त्वपूर्ण आधार है -- आजीविका। अधिकतर लोगों के लिए इसका अर्थ है, रोजगार। लेकिन, परेशान करनेवाला तथ्य यह है कि औद्योगिक और विकासशील देशों की आर्थिक वृद्धि से रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं बन पा रहे हैं। इसके अलावे आजीविका से बंचित रह जाने की स्थिति, रोजगारविहीन लोगों की योग्यताओं के विकास, महत्त्व और आत्मसम्मान को भी नष्ट कर देती है। ... तेजी से आर्थिक वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्था में भी रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं बन रहे हैं।'[1] `राजनीति' का संबंध `सत्ता' के अर्जन की `स्वतंत्रता' से है। `स्वतंत्रता' का संबंध `रोजगार' और रोजगार के `उपलब्ध विकल्पों' में से किसी विकल्प को चुनने की स्वतंत्रता ओर आधिकारिकता से है। मतलब यह कि `राजनीति' का संबंध `स्वतंत्रता' और `स्वतंत्रता' का संबंध `रोजगार' से है। राजनीति को समझने के लिए रोजगार के रूप और प्रकार पर ध्यान देना जरूरी है। रोजगार उत्पादन के बाद वस्तु के बढ़े हुए महत्त्व के कारण उसकी कीमत में हुई बढ़ोत्तरी से उत्पन्न होता है। कीमत में बढ़ोत्तरी का संबंध `बाजार' और `इजारेदारी' से होता है। बढ़ी हुई कीमत के कारण प्राप्त अतिरिक्त धन के वितरण में सम्यक संतुलन के अभाव से धन एक जगह जमा होने लगता है। यह धन `पूँजी' में बदल जाता है और फिर `अतिरिक्त धन' का सृजन करता है। जो व्यवस्था वितरण के सम्यक संतुलन में अभाव उत्पन्न करने की पद्धतियों को अपनाती है, समाज के हाथ के बदले व्यक्ति के हाथ में अतिरिक्त धन के जमाव और उसके पूँजी में अंतरण को अपना लक्ष्य बनाती है, वह व्यव्स्था `पूँजीवादी व्यवस्था' कहलाती है।

iv.`पूँजीवाद' का जन्म अतिरिक्त-धन के सम्यक वितरण में असंतुलन से होता है और यह असंतुलन अंतत: सामाजिक विषमता में परिणत होता है। सम्यक वितरण के अभाव से उत्पन्न असंतुलन का दुष्प्रभाव पूँजीवाद की कतिपय विकृतियों में अभिव्यक्त होता है। `सामाजिक विषमता' पूँजीवाद से पैदा होती है और पूँजीवाद को पोसती है। `सामाजिक विषमता' का यह मुख्य कारण है। मुख्य कारण मानने से ही यह बात स्पष्ट है कि कारण अन्य भी हैं। इन `अन्य' कारणों को भी समझना बहुत जरूरी है, खासकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में इन्हें समझना बहुत जरूरी है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में `धन की अतिरिक्तता' के जमाव का मुख्य रूप से हिंदू धर्म के ब्राह्मणवादी गर्भ से निकले जातिवाद की सामाजिक पदानुक्रमता से और इसीलिए सामाजिक विषमता से भी गहरा रिश्ता है। कहना न होगा कि विषमताओं को प्रोत्साहन `पूँजीवाद' से तो मिलता ही है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह प्रोत्साहन `ब्रह्मणवाद से व्युत्पन्न जातिवाद' से भी मिलता है। एक बात और जिस पर हमारा ध्यान सहज ही नहीं जा पाता है -- पुराने समय का `ब्राह्मणवाद' ही आज के समय में अपने को `हिंदुत्व' के रूप में अभिव्यक्त कर रहा है। ध्यान रखना चाहिए कि `हिंदुत्व' धर्म नहीं धर्म पर आधारित एक राजनीतिक विचारधारा है। `हिंदुत्व' को विषमता के पोषक होने का चरित्र धर्म के विषमताकारी चरित्र से विरासत में मिला है। ऐसी हालत में किसी भी कारण से और किसी भी आधार पर गठित `जातिवाद' की प्रेरणाएँ `हिंदुत्व' के किसी भी रूप से निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ सकती है। बल्कि कहना यह चाहिए कि `जातिवाद' की राजनतिक सिद्धांतिकी अंतत: `हिंदुत्व' की ही सेवा करती है। `पूँजीवाद' अपने मूल चरित्र में ही सामाजिक-विषमताओं को बढ़ावा देनेवाला होता है। स्वभावतः कोई भी सिद्धांतिकी जो सामाजिक-विषमताओं को किसी भी रूप में बढ़ावा देती है `पूँजीवाद' की मित्र सिद्धांतिकी ही होती है। स्वाभाविक ही है कि `पूँजीवाद की सिद्धांतिकी' अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर `धर्म' की और राष्ट्रीय स्तर पर `हिंदुत्व' की सिद्धांतिकी से अपना गठबंधन करती है। इस गठबंधन को `धर्म' और `बाजार' के नव-संश्रय में पढ़ा जा सकता है।

v.`स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व' की आकांक्षा रखनेवाली किसी भी सिद्धांतिकी को भारतीय परिप्रेक्ष्य की विशिष्टता के कारण `पूँजीवाद और हिंदुत्व' से एक साथ लड़ना पड़ेगा। अलग-अलग नहीं। डॉ आंबेदकर के विचार महत्त्वपूर्ण हैं, `मेरे विचार से इस देश के दो दुश्मनों से कामगारों को निपटना होगा। ये दो दुश्मन हैं, ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद ...। ब्राह्मणवाद से मेरा आशय स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की भावनाओं के निषेध से है। यद्यपि ब्राह्मण इसके जनक हैं, लेकिन यह ब्राह्मणों तक ही सीमित नहीं होकर सभी जातियों में घुसा हुआ है।'[2] `दलित राजनीति' की एक प्परमुख समस्या यह भी है कि इस `एक साथ' लड़ने की जरूरत को समझते हुए भी यह इसे अपने राजनीतिक बरताव में अपना नहीं पाती है।

vi. `दलित राजीनीति' की समस्याओं को समझने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। इसे खोलें तो कुछ बातें समझ में आती हैं (I) देश के दो दुश्मन हैं -- ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद। ये दोनों अंतर्गुंफित[3] हैं। ये ऊपर से दो दिखते हैं, लेकिन असल में एक ही हैं, इसलिए इन से एक साथ निपटना होगा। (II) `ब्राह्मणवाद' के जनक ब्राह्मण हैं, लेकिन यह ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है, यह सभी जातियों में घुसा हुआ है -- दलितों में भी यह घुसा हुआ हो सकता है। इस मुहिम का लक्ष्य सिर्फ `ब्राह्मण' ही नहीं हो सकते हैं। (III) इनसे कामगार ही निपट सकता है। संसदीय राजनीति, बुद्धिजीवी आदि इसमें सहायक तो हो सकते हैं, लेकिन निपटना तो कामगारों को ही होगा। इसके लिए कामगारों को संगठित होना होगा। कामगारों को ऐसे संगठनों का लक्ष्य सिर्फ रोजी-रोटी से सीधे जुड़े सवालों को ही नहीं `ब्राह्मणवाद' से निपटने से जुड़े सवाल को भी अपने एजेंडा में स्पष्ट तौर पर शामिल करना होगा। (IV) `ब्राह्मणवाद' से लड़ने का मतलब, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की भावनाओं के निषेध से लड़ना है, अर्थात स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की बहाली के लिए संघर्ष करना है।

vii. सर्वविदित ही है कि `स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व' की सामाजिक आकांक्षा 1979 की `फ्राँसिसी क्रांति' के दौरान एक विशेष राजनीतिक संदर्भ में अपनी पूरी ताकत के साथ उभर कर सामने आई थी। बाद के दिनों में ये आकांक्षाएँ उस राजनीतिक संदर्भ से विच्छिन्न हो गयी तो इसका मतलब यह नहीं कि ये आकांक्षाएँ पूरी या बेमानी हो गई। इसका सीधा-सा मतलब यह है कि इन आकांक्षाओं को उभारनेवाली राजनीतिक शक्ति को उसमें अपने लिए कोई लाभजनक स्थिति नहीं दिख रही थी। यह अवसर तो `फ्राँसिसी क्रांति' के `पहले और बाद' के मूल्यांकन का नहीं है, लेकिन यह देखने का अवसर जरूर है कि `दलित राजनीति' के संदर्भ में `स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व' का कुछ अपना अलग और विशिष्ट अर्थ भी है। `दलित राजनीति' के संदर्भ में इस विशिष्टता को ठीक से स्थिर नहीं कर पाना `दलित राजनीति' की कतिपय समस्याओं के मूल में हो सकता है और है। डॉ. आंबेदकर के मंतव्य का अर्थ समझने के लिए `दलित राजनीति' के ऐतिहासिक संदर्भ को याद कर लेना जरूरी है।

2.    दलित राजनीति का ऐतिहासिक संदर्भ 


i.`दलित राजनीति' समस्याओं को समझने के लिए इसके ऐतिहासिक संदर्भ को समझना जरूरी है। ऐतिहासिक संदर्भ में यह देखने की भी खास जरूरत है कि  `दलित राजनीति' की समस्याओं का कितना संबंध इतिहास से है और कितना संबंध `मुख्यधारा की राजनीति' की अंतर्बाधाओं से है। ऐतिहासिक संदर्भ में देखा जाये तो, आधुनिक अर्थ में भारतीय राजनीति की शुरूआत अंग्रेजों के औपनिवेशिक वर्चस्व से बाहर निकलने की छटपटाहट के साथ शुरू हुई और उसी छटपटाहट की की मति-गति से जुड़ी रही। `अंग्रेजों के औपनिवेशिक वर्चस्व' से कौन-सा दुख जनमा था, यह एक बार ध्यान में लाने की जरूरत है। वह दुख था धन के विदेश चले जाने का दुख -- `अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी, पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी'[4]। किसका धन ? इस धन में दलितों की साझीदारी कितनी थी ? अगर `बहुत' नहीं थी तो `धन के विदेश चले जाने' का `बहुत' दुख दलितों को क्यों होना चाहिए था ? आजादी के आंदोलन के दौरान `आजादी' का क्या अर्थ बन रहा था, इसे ठीक से नहीं समझा जाये तो `दलित राजनीति' का आजादी के आंदोलन से कैसा संबंध हो सकता था, इसका अनुमान भी सहज ही नहीं लगाया जा सकता है।

ii.`दलित राजनीति की समस्याओं' को समझने के लिए आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा से `दलित राजनीति' के द्वंद्वात्मक रिश्ते की ऐतिहासिकता को कोरी भावुकता से ऊपर उठकर समझना जरूरी है। आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा से `दलित राजनीति' के द्वंद्वात्मक रिश्ते में यह बात निहित थी कि `दलित राजनीति' का लक्ष्य अंग्रेजों के बाह्य औपनिवेशिक शक्ति से मुक्ति के साथ ही, वर्णव्यवस्था के वर्चस्व के साथ आंतरिक उपनिवेश को मजबूत करनेवाली शक्तियों के द्वारा निर्मित आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा के भावुकतापूर्ण राष्ट्रवाद के प्रपंच से, अर्थात `आंतरिक उपनिवेश' से भी मुक्त होना था। आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा सिर्फ बाहरी औपनिवेशिकता से लड़ रही थी, जबकि `दलित राजनीति' के सामने `आंतरिक औपनिवेशिकता' का सवाल भी मुखर था। तात्पर्य यह कि `आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा' की तुलना में `दलित राजनीति' का संघर्ष दोहरा और अधिक पूर्ण होने के कारण कठिन भी था। जाहिर है कि `दलित राजनीति' का टकराव आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा से भी होता था। मुख्यधारा की राजनीति दलितों के दुख के प्रति इतनी संवेदनशील नहीं थी कि वह इस टकराव की तह में जाकर इसके वास्तविक कारणों को समझती और इसके औचित्य का प्रतिपादन करती। मुख्यधारा की राजनीति उलटे `दलित राजनीति' पर मन से आजादी के आंदोलन की भागीदार नहीं बनने या रोड़ा अटकाने जैसे मिथ्या आरोपी मनोभाव से ग्रस्त हो जाती थी।

iii. आजादी के आंदोलन की `मुख्यधारा' के न सिर्फ नैसर्गिक नेता थे गाँधी जी, बल्कि वे उसके प्रतीक पुरुष भी थे। `दलित राजनीति' और `मुख्यधारा' के अंतस्संबंध को जानने के लिए गाँधीजी के दृष्टिकोण को जानना भी आवश्यक है। गाँधीजी न सिर्फ महात्मा के रूप में जाने जाते हैं, बल्कि वे महात्मा थे भी। उनकी यह बद्धमूल धारणा थी कि `अस्पृश्यता जैसे ही खत्म होगी, स्वयं जाति प्रथा भी शुद्ध हो जायेगी, अर्थात मेरे स्वप्नों के अनुसार शुद्ध हो जायेगी। यह सच्ची वर्णाश्रम व्यवस्था बन जायेगी, जिसके अंतर्गत समाज चार भागों में विभाजित होगा और प्रत्येक भाग एक दूसरे का पूरक होगा, कोई छोटा या बड़ा नहीं होगा। हिंदू धर्म के समग्र अंग के लिए प्रत्येक भाग समान रूप से आवश्यक होगा या एक भाग उतना ही आवश्यक होगा जितना दूसरा।'[5] गाँधीजी की इस धारणा को थोड़ा खोलें तो कुछ बातें साफ होती हैं : (क) सच्ची `वर्ण व्यवस्था' अच्छी है। (ख) इसके अंतर्गत समाज चार भागों में (श्रम के आधार पर) विभाजित होता है। (ग) सच्ची `वर्ण व्यवस्था' के अंर्तगत ये चारो विभाग एक दूसरे से छोटे या बड़े नहीं होते, एक दूसरे के पूरक होते हैं। (घ) इन चारो विभागों के सदस्यों की सामाजिक समता का सवाल गाँधीजी की नजर से ओझल रहता है। (ङ) इन चारो विभागों के सदस्यों की आर्थिक समता का सवाल भी गाँधीजी की नजर से ओझल रहता है। (च) गाँधीजी `वर्णव्यवस्था' को `हिंदू धर्म' का आंतरिक मामला मानते थे और इसकी `विकृतियों' को `सामाजिक-धार्मिक मामला' मानते हुए इन विकृतियों को `धर्म में निहित करुणा' के बल पर सामाजिक आंदोलन से दूर कर `सच्ची वर्णव्यवस्था' को कायम करना चाहते थे। (छ) गाँधीजी `दलित समस्या' को `राजनीति' से काटते थे तथा `धर्म' और `समाज' से जोड़ते थे। (ज) `दलित समस्या' को `राजनीति' से काटने तथा `धर्म' और `समाज' से जो़ड़ने के लिए गाँधीजी के द्वारा की गई `राजनीतिक कार्रवाइयों' का गाँधीजी के `महात्मापन' से गहरा संबंध है। (झ) गाँधीजी की इन मान्यताओं को `मुख्यधारा की राजनीति' से अनुमोदन और समर्थन प्राप्त था।

iv. इसका नतीजा यह था कि `मुख्यधारा की राजनीति' कं अंतर्मन में यह बात बनी हुई थी कि `दलित समस्या' का `राजनीतिक जनतांत्रिकता' से कोई सरोकार नहीं है। अत: राजनीतिक नेताओं को इससे दूर ही रहना चाहिए; इसका सरोकार `धर्म' से है अत: धार्मिक नेता, पंडा, पुजारी, संत, महात्मा को ही `दलित समस्या' पर कुछ सोचना और करना चाहिए। `दलित राजनीति' इन बातों से घोर असहमत थी। `दलित राजनीति' के अनुसार (क) `वर्ण व्यवस्था' अपने किसी भी रूप में अच्छी नहीं हो सकती है। (ख) `वर्ण व्यवस्था' में `श्रम' का नहीं, जन्म के आधार पर `श्रमिकों' का विभाजन होता है। (ग) `वर्ण व्यवस्था' के विभाग अनिवार्यत: एक दूसरे से बड़े या छोटे होते हैं, एक दूसरे के पूरक नहीं `स्वामी' या `सेवक' होते हैं। (घ)  `दलित राजनीति' में सामाजिक समता मूल और मानवाधिकार का सवाल बनकर उभरता है। (ङ) `दलित राजनीति' मूल प्रश्न में निहित सामाजिक उलझावों में पड़कर आर्थिक समता का सवाल पूरी तत्परता से नहीं उठा पाता है। हालाँकि मुख्यधारा की राजनीति भी आर्थिक समता का सवाल नहीं उठाती है। (च) `दलित राजनीति' किसी भी रूप में `वर्णव्यवस्था' को `हिंदू धर्म' का आंतरिक मामला नहीं मानती थी। `धर्म में निहित करुणा' पर उसे कत्तई विश्वास नहीं था, वह `राजनीति में निहित अधिकार चेतना' को महत्त्व प्रदान करती थी। `वर्णव्यवस्था' के सभी रूपों को समूल उखा़ड फेकना चाहती थी। (छ) `दलित राजनीति' अपने `राजनीतिक एजेंडे' में `दलित समस्या' को पूरे आग्रह के साथ समेटती थी, `धर्म' और `समाज' से जोड़कर देखने का दौर सामाजिक आंदोलन के प्रथम चरण में पूरा हो चुका था। (ज) `दलित समस्या' को `राजनीति' से काटने तथा `धर्म' और `समाज' से जो़ड़ने के लिए गाँधीजी ने जो कार्रवाइयाँ की उन कार्रवाइयों को `दलित राजनीति' शंका की नजर से देखती थी। इसलिए गाँधीजी का `महात्मपन'  `दलित राजनीति' को ढोंग सरीखा लगता था। (झ) `दलित राजनीति' की इन मान्यताओं को `मुख्यधारा की राजनीति' से अनुमोदन और समर्थन प्राप्त नहीं होता था। (ञ) `मुख्यधारा की राजनीति' से पूरी तरह असहमत होते हुए `दलित राजनीति' `दलित समस्या' को `राजनीतिक जनतांत्रिकता' के सरोकारों से जोड़ती थी और राष्ट्रीय स्तर के अपने राजनीतिक नेतृत्व के विकास की गहरी आकांक्षा रखती थी। `दलित राजनीति' धार्मिक नेता, पंडा, पुजारी, संत, महात्मा को `दलित समस्या' का कारण मानती थी और स्वभावत: इसके `निदान' के लिए उन पर जरा भी भरोसा नहीं करती थी।

v. इतिहास बताता है कि `गाँधीजी ने जान-बूझकर हरिजन आंदोलन को सामाजिक सुधार (हरिजनों के लिए सार्वजनिक कुओं, सड़कों, ओर विशेष रूप से मंदिरों को खुलवाना, साथ में मानवतावादी कार्य) तक सीमित रखा था (यद्यपि अनेक हरिजन खेतिहर मजदूर थे), साथ ही उन्होंने समग्र रूप से जाति-व्यवस्था की भर्त्सना करने से इनकार कर दिया। उन्होंने रोटी-बेटी के व्यवहार में सावधानी बरतने की सलाह दी और मूल वर्णाश्रम धर्म की हिमायत की, जिसका परिणाम यह हुआ कि आंबेदकर ने साप्ताहिक हरिजन के लिए यह कहते हुए संदेश देने से इनकार कर दिया कि ``जाति-व्यवस्था को नष्ट किए बिना अछूतों का उद्धार संभव नहीं है''। [6] याद रखना चाहिए कि `जुलाई 1933 और फरवरी 1934 के बीच थोड़े समय के लिए जब नेहरू जेल के बाहर रहे तब ह्विदर इंडिया ?  शीर्षक  से प्रकाशित अपने पत्रों एवं लेखों में उन्होंने गाँधीजी से अपने सैद्धांतिक मतभेदों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने `राष्ट्रीय लक्ष्यों को जुझारू सामाजिक एवं आर्थिक कार्यक्रमों के साथ जोड़ने की आवश्यकता पर बारंबार बल दिया और `हिंदू संप्रदायवाद की कड़ी आलोचना' की।[7] जाहिर है कि `आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा' और `दलित राजनीति' में टकराव के कई बिंदु थे।

3.  मुख्यधारा का भारतीय राष्ट्रवाद और दलित राजनीति


i. यह सच है कि मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद का विकास आधुनिक चेतना के आग्रहों के अंतर्गत हुआ, लेकिन यह आधा सच है। भारतीय राष्ट्रवाद की आधुनिक चेतना ने न तो कभी आधुनिकता को पूरी तरह अपनाया न आाधुनिकता की परियोजनाओं को पूरा करने में ही कोई वास्तविक दिलचस्पी दिखलाई। इस राष्ट्रवाद के नायक महात्मा गाँधी थे, संभवत: इसी अर्थ में उन्हें `राष्ट्रपिता' कहा जाता है। गाँधीजी के राजनीतिक उपकरण मध्यकालीन चेतना से निर्मित थे -- महात्मा गाँधी की मूल्य-चेतना का शरणागति, करुणा, हृदय-परिवर्त्तन, धार्मिकता से जितना गहरा संबंध था उतना गहरा संबंध सामाजिक अंतनिर्भरताओं, आधिकारिकताओं, परिस्थति-परिवर्त्तन आदि से नहीं था। तात्पर्य यह कि `भारतीय आधुनिकताबोध' के ऊपर पूर्व-आधुनिकताओं का बोझ पूरी तरह से लदा हुआ था। पूर्व-आधुनिकताओं में जो कर्त्तव्य राजा के थे, उन कर्त्तव्यों को `मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की राजनीति' ने, अपनी तमाम सदाशयताओं के बावजूद, अपने राजनीतिक एजेंडे में स्वीकार लिया। राजा के कर्त्तव्य को देखें तो, `ईसा की दूसरी शताब्दी के अभिलेख बताते हैं कि राजा वर्णव्यवस्था का पोषक और संरक्षक है। इसके बाद राजा के इस कर्त्तव्य की चर्चा अभिलेखों में आम तौर पर होने लगी। कलियुग का सामाजिक संकट आरंभ होने के बाद राजा के इस दायित्व पर सबसे अधिक बल दिया जाने लगा। ईसा के बाद  की तीसरी शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश से चौथी शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश के पौराणिक पाठ्यांशों से पता चलता है कि आंतरिक संकट के कारण वर्णव्यवस्था बिखरने लगी। इस अवस्था को कलियुग की संज्ञा दी गई। कलि से लोगों का उद्धार करना राजा का पुनीत कर्त्तव्य बन गया। ईसा के बाद की 4-6 शताब्दियों के अभिलेखों में स्पष्ट रूप से और बाद के पुरा लेखों में पारंपरिक रूप से राजा को वर्णधर्म का पोषक बतलाया गया है।'[8] कहना न होगा कि `कलि से लोगों का उद्धार करना' वर्णव्यवस्था को बिखराव से बचाना है। जाहिर है कि महात्मा गाँधी जब `सच्ची वर्णव्यवस्था' की बात करते थे, तो उसके पीछे `राजा के कर्त्तव्य' को `मुख्याधारा के राष्ट्रवाद की राजनीति' के द्वारा आत्मार्पित करने की ऐतिहासिकता को `दलित राजनीति की समस्या' के संदर्भ में सचेत होकर पढ़ने की जरूरत है।

ii.जवाहरलाल नेहरू यद्यपि सेाच के स्तर पर गाँधीजी से सहमत नहीं थे, लेकिन अपनी असहमति के राजनीतिक बरताव का साहस या समझ कभी दिखा नहीं पाये। राष्ट्रीय लक्ष्यों को जुझारू सामाजिक एवं आर्थिक कार्यक्रमों के साथ जोड़ने की आवश्यकता पर बल देने और `हिंदू संप्रदायवाद की कड़ी आलोचना' करने के साथ नेहरूजी महात्मा गाँधी के हरिजन आंदोलन को भटकाव मानते थे, इसलिए नहीं कि गाँधीजी के हरिजन आंदोलन के औजार `हिंदू संप्रदायवाद' की वर्णवादी समझ से बने थे। `गाँधीजी के अन्य अनेक कार्यक्रमों की भांति उनके हरिजन आंदोलन के कार्यक्रमों  में भी लक्ष्यों और महत्त्व को लेकर अनेक अस्पष्टताएँ देखने में आती हैं। जवाहरलाल जैसे जुझारू लोगों का विचार था कि यह कार्यक्रम साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के मुख्य कार्य से हानिकर भटकाव है; यह धारणा इस बात से भी पुष्ट होती थी कि ब्रिटिश सरकार जेल में गाँधीजी को हरिजन-कार्यक्रम सहर्ष चलाने देती थी। साथ ही, काँग्रेस के भीतर रूढ़िवादी हिंदुओं को यह नई बात अधिकाधिक खल रही थी। उदाहरण के लिए, मालवीय, जो 1920 के दशक के मध्य में गाँधीजी के अत्यंत निकट रहे थे अब उनसे दूर जाने लगे थे। हिंदू संप्रदायवादियों में इस बात से भी क्षोभ बढ़ा कि गाँधीजी ने मैकडोनल्ड -निर्णय की अन्य बातों से कोई सरोकार रखना अस्वीकार कर दिया था जिसके अनुसार पंजाब में मुसलमानों को 49 प्रतिशत और बंगाल में 48.6 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया गया था (अर्थात यूरोपियन सदस्यों के साथ मिलकर इन प्रांतों में उनका बहुमत हो जाता था)। बंगाल के रूढ़िवादी हिंदुओं को इस बात पर आपत्ति थी कि पूना समझौते ने सदा के लिए सवर्ण हिंदुओं को अल्पसंख्यकों की हैसियत प्रदान कर दी थी। किंतु जून 1934 में काँग्रेस वर्किंग कमेटी ने एक समझौतापूर्ण `न स्वीकार न इनकार' का उपाय अपनाया जिसके फलस्वरूप मालवीय ने एक अलग नेशनलिस्ट पार्टी बनाई। अप्रैल और जुलाई 1934 में बक्सर, जसीडीह और अजमेर में सनातनियों ने गाँधीजी की हरिजन सभाओं को भंग किया, और पूना में 25 जून को उनकी कार पर बम से हमला भी किया गया। अँग्रेज सरकार भी आधुनिकीकरण का प्रभाव डालने का दावा तो करती थी, किंतु वह भी रूढ़िवादी जनमत को विरोधी नहीं बनाना चाहती थी। अत: अगस्त 1934 में सरकारी सदस्यों ने लेजस्लेटिव असेंबली में टेंपल एंट्री बिल को पराजित करने में सहायता की।'[9] इस लंबे उद्धरण से यह बात समझ में आती है कि हरिजन की सामाजिक स्थितियों को लेकर `मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद' का नजरिया कैसा था। न तो मदनमोहन मालवीय जैसे `रूढ़िवादी' लोगों के मन में `दलित प्रश्न' को महसूस करने की संवेदनशीलता थी और न ही नेहरू जैसे `प्रगतिशील' लोगों को इस `आंतरिक औपनिवेशिकता' से संघर्ष करने की राजनीतिक फुर्सत थी। `मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद' के चाल-चरित की `स्थानापन्नता' को देखते हुए ही रवींद्रनाथ ठाकुर ने `राष्ट्रवाद की सर्वोच्चता की धारणा' से अपने को मुक्त करना जरूरी समझा होगा !  `भारत ने कभी भी सही अर्थों में राष्ट्रीयता हासिल नहीं की। मुझे बचपन से ही सिखाया गया कि राष्ट्र सर्वोच्च है, ईश्वर और मानवता से भी बढ़कर। आज मैं इस धारणा से मुक्त हो चुका हूँ और दृढ़ता से मानता हूँ कि मेरे देशवासी देश को मानवता से भी बड़ा बतानेवाली शिक्षा का विरोध करके ही सही अर्थों में अपने देश को हासिल कर पाएँगे।'[10] रवींद्रनाथ ठाकुर की इस घोषणा के बावजूद बंगाल में `भारतीय राष्ट्रवाद' के साथ और सहमेल में `बाँग्ला-राष्ट्रवाद' का विकास भी बहुत तेजी से हुआ, सिर्फ विकास ही नहीं हुआ बल्कि रवींद्रनाथ ठाकुर को ही उसके केंद्रीय व्यक्ति-प्रतीक के रूप में अपनाया भी गया।

iii. पूँजीवाद की साम्राज्यवादी आकांक्षा ने `राष्ट्रवाद' नाम के ऐसे नुस्खे का आविष्कार किया था जो हर `मर्ज' की दवा थी -- `राष्ट्रवाद' के नाम पर राष्ट्र के अंदर के किसी भी विभेद, विषमता और असहमति को नजरअंदाज करते हुए पूँजी के प्रच्छन्न-हित में सभी राष्ट्रवासियों को जान देने तक के लिए `पूँजीवाद' आसानी से प्रोत्साहित करता था। `राष्ट्रवाद' मानवता से ऊँचा मूल्य बनकर शोषण और युद्ध की पीठिका तैयार करता था। `राष्ट्रवाद' ऐसा दुधारी कटार था जिस से पूँजीवाद देश के अंदर भी अपना हित साधता था और बाहर भी। `राष्ट्रवाद' मनुष्य को अंधा बनाने का ही उपाय था। जो दूसरे को अंधा बनाने की `परियोजनाओं' पर काम करता है, उसके खुद के अंधा बनते ही कितनी देर लगती है ! जल्दी ही `राष्ट्रवाद' अंधा हो गया। अंध-राष्ट्रवाद ने जो गुल खिलाये वह तो विदित ही है। यह `दलित राजनीति' का राजनीतिक कौशल ही था कि वह `मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद' के अंधत्व से बहुत हद तक अपने को बचाये रखा।

iv. गाँधीजी के लिए तो हरिजन आंदोलन `सच्ची वर्णव्यवस्था' की बहाली का ही उपाय था। `अगस्त 1932 में मैकडोनल्ड ने सांप्रदायिक मामले में जो निर्णय दिया था, उसमें हरिजनों के लिए अलग से निर्वाचकमंडल बनाने की बात भी थी। इससे गाँधीजी को यह बात सूझी कि वे अपना ध्यान मुख्य रूप से `हरिजन-कल्याण' पर केंद्रित करें। 20 सितंबर को गाँधीजी ने हरिजनों के लिए अलग निर्वाचकमंडल के मु­द्दे के विरुद्ध `आमरण अनशन' आरंभ कर दिया, और अंत में सवर्ण हिंदू एवं हरिजन नेताओं के बीच एक समझौता (पूना समझौता) कराने में सफल हुए। इस समझौते के अनुसार मैकडोनल्ड के प्रस्ताव में परिवर्त्तन किये गये। हिंदुओं के लिए संयुक्त निर्वाचकमंडल बने रहे जिनमें अछूतों के लिए आरक्षित सीटें रखी गई और मैकडोनल्ड की तुलना में उन्हें अधिक प्रतिनिधित्व भी दिया गया। यही व्यवस्था थी जो मूलत: 1947 के बाद भी बनी रही। अब हरिजनों का उत्थान गाँधीजी का मुख्य सरोकर हो गया। एक अखिल-भारतीय छुआछूत-विरोधी लीग की स्थापना की गई। सितंबर (1932) और गाँधीजी के रिहा होने के पूर्व ही साप्ताहिक हरिजन (जनवरी 1का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। नवंबर 1933 और अगस्त 1934 के बीच उन्होंने 12,500 मील की `हरिजन यात्रा' की और 15 जनवरी 1934 को बिहार में जो भयंकर भूकंप आया उसे `सवर्ण हिंदुओं के पापों का दैवी दंड' कहा -- यह एक ऐसी सुधार-विरोधी बात थी, पुरातन-पंथी बात थी जिससे रवींद्रनाथ को गहरा सदमा लगा।'[11] वस्तुत: `हरिजनों के लिए अलग से निर्वाचकमंडल बनाने की बात' एक राजनीतिक बात थी, सामाजिक नहीं। इसलिए इतना तो समझ में आना ही चाहिए कि 1932 में इस `राजनीतिक बात' के सामने आते ही `आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा' ने इस `राजनीतिक बात' को `सामाजिक बात' बनाने की गहरी राजनीतिक चुनौती के रूप में लिया। 1932 के बाद, गाँधीजी के सामाजिक कार्यक्रमों को यही राजनीतिक चुनौती प्रेरणा और प्राण प्रदान कर रही थी।

4.  हरिजन बनाम दलित


i. चूँकि `भारतीय राष्ट्र' के गठन में गाँधीजी के विचारों को केंद्रीयता प्राप्त है, इसलिए `हरिजन बनाम दलित' के संदर्भ को भी गाँधीजी के विचारों की केंद्रीयता में देखा जाना चाहिए। `हरिजन' और `दलित' का अर्थ क्या एक ही है? कुछ लोग मानते हैं कि एक ही है। ये `कुछ लोग' कौन हैं? ये वे लोग हैं, जो गाँधीजी की अवधारणाओं का इस संदर्भ में सही मानते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि एक ही नहीं है। ये `कुछ लोग' कौन हैं? ये वे लोग हैं, जो गाँधीजी की अवधारणाओं का इस संदर्भ में सही नहीं मानते हैं। ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर हमें यह बात स्वीकारनी चाहिए कि `हरिजन' और `दलित' का अर्थ एक ही नहीं है। `हरिजन' एक सामाजिक समूह को ध्वनित करता है। `दलित' राजनीतिक समूह को ध्वनित करता है। `हरिजन' की अवधारणा `सामाजिक-न्याय' की माँग करती है। `दलित' की अवधारणा `राजनीतिक-न्याय' की माँग से परिचालित है। `हरिजन' की अवधारणा `सामाजिक संरचना' में बदलाव की माँग करती है। `दलित' की अवधारणा `सत्ता की संरचना' में बदलाव के लिए संघर्षशील है। `सामाजिक-संरचना' में बदलाव की माँग बहुत ही पुरानी `सामाजिक माँग' है, विभिन्न ऐतिहासिक अवसरों पर इसके लिए सामाजिक-सुधार के आंदोलन हुए हैं। लेकिन इस या उस कारण से इस संदर्भ में `सामाजिक संरचना' में कोई परिवर्त्तन घटित नहीं हुआ है। `दलित राजनीति' का विश्वास दृढ़ होता गया है कि `सत्ता की संरचना' में परिवर्त्तन घटित हुए बिना `समाज की संरचना' में परिवर्त्तन का होना असंभव है। संवैधानिक प्रावधानों के होने को उनकी ऐतिहासिकता में देखें तो यह बात समझते देर नहीं लगेगी कि वे `हरिजन' की अवधारणा से नहीं `दलित' की अवधारणा से व्युत्पन्न हुए हैं। इस `हरिजन' ने `दलित' को कम नहीं छला है, लेकिन मानना होगा कि संवैधानिक प्रावधानों का होना `हरिजन' पर `दलित' की एक बड़ी जीत है।

ii. यह ठीक है कि 1789 की `फ्राँसिसी क्रांति' में उठी `समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व' की माँग और `भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन' के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उठी `समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व' की माँग की अपनी कुछ विशिष्टताएँ भी हैं, लेकिन इस माँग के धीरे-धीरे कमजोर पड़ते जाने के कारणों में कुछ ऐतिहासिक समानताएँ भी हैं। इन समानताओं को देखना-परखना जरूरी है। डॉ. आंबेदकर अपने लेखनाधीन निबंध ` बुद्ध और कार्ल मार्क्स' में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि `समाज की नई आधारशिला फ्रांसिसी क्रांति के तीन शब्दों, बंधुत्व, स्वतंत्रता और समता में समाहित है। फ्रांसिसी क्रांति का स्वागत इसी संकल्प के कारण हुआ। यह समता लाने में विफल रही। हमने रूसी क्रांति का स्वागत किया क्योंकि यह समता लाने का लक्ष्य रखती थी। लेकिन समता लाने के नाम पर समाज बंधुत्व और स्वतंत्रता का कुर्बान नहीं कर सकता है। बिना बंधुत्व और स्वतंत्रता के समता का कोई मोल नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन तीनों को एक साथ सिर्फ बुद्ध के अनुसरण से ही हासिल किया जा सकता है। साम्यवाद एक दे सकता है, सब नहीं।'[12] डॉ. आंबेदकर `समाज की नई आधारशिला' के रूप में `बंधुत्व, स्वतंत्रता और समता' को तो स्वीकारते हैं, इनकी अविभाज्यता को जानते हुए भी इसे अपनी राजनीति के व्यवहार्य एजेंडे में तत्त्वांतरित नहीं कर पाते हैं। कहना न होगा कि  राजनीतिक व्यवहार के एजेंडे में इसे तत्त्वांतरित नहीं कर पाना उनके राजनीतिक-दृष्टिकोण को आत्म-खंडित करता है। असल में `बंधुत्व, स्वतंत्रता और समता' अलग-अलग न होकर मानवीय-अस्मिता के ही तीन अविभाज्य पहलू हैं।

iii. डॉ. आंबेदकर `समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व' की अविभाज्यता को जानते थे, मानते थे -- संविधान सभा में उन्होंने कहा, `हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र के रूप में ढालना है। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक  कि उसकी आधारशिला के रूप में सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है ? इसका अर्थ है जीवन की वह राह जो स्वाधीनता, समानता एवं भ्रातृत्व को जीवन के सिद्धांत के रूप में मान्यता दे। स्वाधीनता, समानता एवं भ्रातृत्व के इन सिद्धांतों के त्रित्व को अलग उपादानों के रूप में न समझा जाए। ये सिद्धांत त्रित्व के समेकित  रूप का निर्माण करते हैं तथा इनका आशय यह है कि एक को दूसरे से अलग करने का अर्थ है -- लोकतंत्र के मूल उद्देश्य को नकार देना। स्वाधीनता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता, समानता को स्वाधीनता से अलग नहीं किया जा सकता और न तो स्वाधीनता और समानता से भ्रातृत्व को अलग किया जा सकता है।'[13] इसके बावजूद `फ्राँसिसी' ओर `रूसी' क्रांति के संदर्भ में `त्रित्व' को तोड़कर उन पर अभिमत बनाना, `दलित राजनीति' के लिए आज भी परेशान करनेवाली बात है।

iv.`बुद्ध के अनुसरण से' ही इन्हें हासिल करना संभव होता तो यह संभव हो चुका होता। इतिहास अपने को दुहराता है, मगर इस तरह नहीं। `बुद्ध के अनुसरण' या `शरण' में जाने का मतलब, बाद में विकसित कई अनिवार्य प्रसंगों को नजर-अंदाज करना है। गतकाल में जाकर पुरखों से प्रेरणा लेना और बात है, लेकिन संघर्ष तो हर किसी को समकाल की कठिन भूमि पर ही करना पड़ता है। `क्रांति का स्वागत करना' काफी नहीं होता है, जरूरी होता है क्रांति करना। क्रांति करने में योगदान करना। अपनी सामाजिक विशिष्टताओं को समझते हुए क्रांति की सही समझ विकसित करना। असल में भारत में यह सबकुछ औपनिवेशिक वातावरण में हो रहा था और औपनिवेशिकता के बहुत सारे अदृश्य प्रभाव होते हैं। इन प्रभावों को काट पाना हर समय संभव नहीं होता है। यह न डॉ. आंबेदकर के लिए संभव हुआ और न भारतीय वामपंथ के लिए ही संभव हुआ इसलिए भी, कि `आम तौर पर, भारतीय वामपंथ जाति और वर्ग के जटिल संबंधों की ओर पर्याप्त ध्यान देने में असफल रहा।'[14]

v. दुखद है कि `दलित राजनीति' और `भारतीय वामपंथ' की दिशा एक थी, लेकिन वे अपनी राजनति के नैसैर्गिक साहचर्य की ऐतिहासिक आवश्यकता को सही अर्थ में आँककर न एक हो पाये, न `मुख्यधारा की राजनीति' की साझी चुनौती को ही ठीक से समझ पाये। इस साझी चुनौती के महत्त्व के संदर्भ में एक तथ्य इतिहास से, `12 अप्रैल 1934 को बिड़ला ने ठाकुरदास को सलाह दी : ``मैं चाहता हूँ कि आप भूलाभाई  (देसाई) से संपर्क रखें। यदि स्वराज पार्टी को सफल होना है तो उन्हें नए चुनाव लड़ने के लिए धन की आवश्यकता पड़ेगी और मेरी सलाह है कि बंबई वह धन तबतक न दे जब तक वह इस बात के प्रति संतुष्ट न हो जाए कि सही लोगों को भेजा जा रहा है।'' 3 अगस्त 1934 को बिड़ला ने पुन: लिखा : ``वल्लभ भाई, राजाजी और राजेंद्र बाबू सभी कम्युनिज्म और समाजवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। अत: यह आवश्यक है कि हम में से कुछ जो स्वस्थ पूँजीवाद के प्रतिनिधि हैं, यथासंभव गाँधीजी की सहायता करें और एक साझे लक्ष्य को लेकर कार्य करें'' (ठाकुरदास पेपर्स, फा.नं. 123.42[vi]।'[15] `स्वस्थ पूँजीवाद के प्रतिनिधि' अपने साझे लक्ष्य के अंर्गत ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए नहीं `कम्युनिज्म और समाजवाद' के प्रसार को रोकने के लिए `गाँधीजी की सहायता' करते थे और `मुख्यधारा की राजनीति' को अर्थ उपलब्ध करवाते थे ! देखने की बात यह है कि `कम्युनिज्म और समाजवाद' के प्रसार को रोकने के लिए ही `दलित' के सामने `हरिजन' को खड़ा कर दिया गया -- `समझदार दुश्मनों' ने हमें `दर्पण' के सामने खड़ा कर दिया --  हम अपने-आप से लड़ते रहे! देखना दिलचस्प होगा कि हम आज भी लड़ ही रहे हैं, या स्थिति कुछ बदली भी है!

vi. डॉ. आंबेदकर बहुत ही सावधानी के साथ, आजादी और संविधान के हासिल होने के बाद उत्पन्न होनेवाली विरोधाभासी जीवन-स्थितियों की व्याख्या करते हुए कहते हैं, `भारतीय समाज में दो बातों का पूर्णत: अभाव है। इनमें से एक समानता है। सामाजिक क्षेत्र में हमारे भारत का समाज वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत पर आधारित है जिसका अर्थ है, कुछ लोगों के लिए उत्थान एवं अन्यों की अवनति। आर्थिक क्षेत्र में हम देखते हैं कि समाज में कुछ लोगों के पास अथाह संपत्ति है जबकि दूसरी ओर असंख्य लोग घोर दरिद्रता के शिकार हैं। 26 जनवरी, 1950 को हमलोग एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में हमारे बीच समानता होगी। राजनीति में हम एक-व्यक्ति एक-मत एवं एक-मत एक-मूल्य के सिद्धांत को स्वीकृति देंगे। पर अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में वर्त्तमान सामाजिक एवं आर्थिक संरचना के चलते एक-व्यक्ति एक-मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करना जारी रखेंगे। हम कब तक इस विरोधाभासी जीवन को जीते रहेंगे, अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में समानता को अस्वीकार करते रहेंगे ?'[16] दूसरी बात के रूप में वे `भ्रातृत्व के अभाव' को रेखांकित करते हैं। डॉ. आंबेदकर की चेतावनी को दरकिनार करते हुए हम अपने `सामाजिक' एवं `आर्थिक' जीवन में समानता को अस्वीकार करते आ रहे हैं। `उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण' के दौर में तो, इस `अस्वीकार' को स्वाभाविकता और वैधता मिलने का मौसम ही आ गया है। इस नये मौसम में `दलित राजनीति' को `समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व' के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में प्रवेश के लिए नये सिरे से संगठित संघर्ष करने की चुनौती को समझना है।

5. आज की दलित राजनीति


i. इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर संक्षिप्त-सी चर्चा के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आज की `दलित राजनीति' पर विचार करना उपयुक्त होगा। `स्वतंत्रता' के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण विकास यह हुआ कि धीरे-धीरे `हरिजन आंदोलन' पिछड़ता गया और `दलित आंदोलन' बढ़ता गया। यह शुभ हुआ या अ-शुभ, इस पर दो-टूक बात करना मुश्किल है। यह मुश्किल इसलिए भी कुछ अधिक है कि ऐसी चर्चा में अक्सर गुपचुप तरीके से कल्पना अपना काम करने लगती है। कल्पना में हम अपनी सुविधा और इच्छा के अनुसार अनुकूल स्थितियों का चयन कर उसे शृँखलाबद्ध कर लेते हैं, यथार्थ इसकी अनुमति नहीं देता है। ऐतिहासिक अनुभव यह बताता है कि `हरिजन आंदोलन' का प्रारंभ ही हुआ था `दलित आंदोलन' को दबाने के लिए। ऐसे में `दलित आंदोलन' की वैधता से टकराकर `हरिजन आंदोलन' अगर अप्रासंगिक होता गया तो इसे `दलित आंदोलन' के लिए शुभ ही माना जाना चाहिए। लेकिन इस ऐतिहासिक दबाव से थोड़ा बाहर निकलकर यह सोचा जाये कि `दलित आंदोलन' यदि पराजयोन्मुखी `हरिजन आंदोलन' को अपनी अंतर्वर्त्ती सामाजिक प्रक्रिया के रूप में अनुकूलित कर अपनी राजनीतिक आकांक्षा के सामाजिक प्रतिफलन के बारे में सचेत होता तो `सामाजिक परिवर्त्तन' का काम तेजी से आगे बढ़ता। इस तरह `राजनीतिक लोकतंत्र' के `सामाजिक लोकतंत्र' में अंतरित होते जाने की प्रक्रिया भी जारी रहती। कहना न होगा कि `पूँजीवाद' ने `हरिजन' और `दलित' को एक दूसरे की विरोधिता में विकसित किया लेकिन यदि `समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व' के लिए संघर्षशील चेतना से संपन्न लोग संगठित रूप से `हरिजन' और `दलित' में `बंधुत्व' की स्थिति बना पाते तो यह काम `पूँजीवाद' के हितों पर चोट ही पहुँचाता। असली दुश्मन न तो `गाँधी जी का दृष्टिकोण' था और न `हरिजन', असली दुश्मन तो `पूँजीवाद' ही था और है। अब, आज की `दलित राजनीति' की समस्याओं के संदर्भ में देखें तो कुछ बातें साफ होती हैं।

ii. आज की `दलित राजनीति' अपने एजेंडा में `ब्राह्मणवाद' के विरोध को तो शामिल करती है, लेकिन `पूँजीवाद' के सवाल पर या तो उसके पास कथ्य ही नहीं है या फिर चुप है। आज की `दलित राजनीति' की व्यावहारिकता इस बात से कत्तई सचेत नहीं है कि अन्य जातियों, जिनमें दलित भी शामिल हैं, के सदस्यों में भी स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की भावनाओं का निषेध, अर्थात `ब्राह्मणवाद' का समर्थन हो सकता है। संसदीय राजनीति की बाध्यताओं से संघर्ष करने के बदले उसकी सुविधाओं की माँग पर आज की `दलित राजनीति' कई बार सामाजिक स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की भावनाओं का निषेध करती हुई भी प्रतीत होती है, अधिक-से-अधिक, दलितों के बीच स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की भावनाओं की बहाली की बात करती हुई, `ब्राह्मणवाद' के एजेंडे को ही लागू कर देती है।

iii. `कामगार' से तात्पर्य श्रम से आजीविका का उपार्जन करनेवाले से है। `कामगारों' से मुख्य आशय सिर्फ `संगठित क्षेत्र' के कामगारों तक सीमित होकर रह गया है। `संगठित क्षेत्र' के कामगारों के बीच रोजी-रोटी, वेतन एवं अन्य सुविधाओं आदि के लिए श्रमिक संगठन हैं। ऐसे `श्रम संस्थान' में भी `श्रम-विभाजन' के साथ ही `श्रमिक विभाजन' की नई पद्धतियों से टकराने की जरूरत को बरतने की मन:स्थिति विकसित नहीं हो पाई है। `आरक्षण कवच'[17] के साथ जो `कर्मचारी ऐसे प्रतिष्ठानों से जुड़ते हैं, उनका एक अलग `प्रगतिशील' संगठन तो होता है लेकिन यह संगठन `श्रमिक विभाजन' की प्रक्रियाओं को रोक कर सामाजिक स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की भावनाओं को प्रोत्साहित करने की अपनी सचेत-सक्रिय भूमिका को अपने एजेंडे में शामिल नहीं कर पाता है। होना तो यह चाहिए था कि ट्रेड युनियनें `पूँजीवाद' की बुराइयों के खिलाफ और ऐसे प्रगतिशील संग्ठन `ब्राह्मणवाद' की बुराइयों के खिलाफ अलग-अलग संघर्ष करते और आपस में ताल-मेल बनाकर `पूँजीवाद' और `ब्राह्मणवाद' से एक साथ निपटते। लेकिन ये दोनों ही संगठन, एक दूसरे को शक की निगाह से देखते हैं और आपसी अलगाव में पड़े रहते हैं। यह अलगाव `पूँजीवाद' और `ब्राह्मणवाद' की औपनिवेशिक मनोवृत्तियों को और अधिक पुष्टि एवं सामाजिक अनुकूलन प्रदान करती है।

iv. जाहिर है कि इस तरह से औपनिवेशिक मनोवृत्तियों के बने रहने और निरंतर पुष्ट होते रहने से `स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व' की भावना विकसित नहीं हो सकती है। आज के दौर में जब `सभ्यताओं के संघात'[18] और नई विश्व-व्यवस्था की बात जोर-शोर से उठ रही है। `स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व' की भावना के नये सिरे से विकास के लिए `नवनैतिकता' की मनोभूमि तैयार करने का दायित्व हमारे सामने है। बदलाव की नई हवा की दशा-दिशा और इससे उत्पन्न प्रदूषणों को भी समझना होगा। यह सभ्यता और संस्कृति के जटिल सवालों की पुरानी गुत्थियों के खुलने और नई गुत्थियों के बनने का दौर है। भारतीय राज और समाज की पुरानी गुत्थियाँ खुल नहीं पाई हैं और नई गुत्थियाँ तेजी से बन रही हैं। प्रत्येक क्षेत्र की देशी-विदेशी सत्ताएँ अपने-अपने तरीके से अपनी-अपनी जनता को बाद देकर पूँजीवाद के प्रभुत्व को बढ़ाने में दिलचस्पी ले रही हैं। इतिहास बताता है कि बाहरी औपनिवेशिक दासता में जकड़नेवाले `विदेशी अंगरेजों' और देश को आंतरिक औपनिवेशिक दासता में जकड़ रखनेवाले `देशी प्रभुओं' के बीच कैसी कूट और कुटिल समझदारी विकसित हुई थी। असल में यह सत्ता और सत्ता के बीच की अंतर्निहित एकता है। देशी और विदेशी जैसे विशेषण सिर्फ भरमाते हैं।

v. यह याद रखना चाहिए कि `भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष' असल में `समस्त अंगरेज जाति' के विरुद्ध `समस्त भारतीयों का संघर्ष' नहीं था। यह `अंगरेज जाति की औपनिवेशिक शक्ति' के विरुद्ध उन भारतीयों का और कुछ अ-भारतीयो का भी, संघर्ष था जो एक साथ बाहरी और भीतरी दोनों ही प्रकार की औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए आग्रहशील थे। ध्यान देने की बात यह है कि सामाजिक-राजनीतिक पूर्णता के साथ यह संघर्ष `मुख्यधारा की राजनीति' नहीं कर रही थी -- `मुख्यधारा की राजनीति' सिर्फ बाहरी उपनिवेश के राजनीतिक और कुछ हद तक विदेशी पूँजी के वर्चस्व से लड़ रही थी जबकि `दलित राजनीति' बाहरी और भीतरी दोनों ही प्रकार की औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए लड़ रही थी; हालाँकि देशी-विदेशी पूँजी के वर्चस्व से संघर्ष `दलित राजनीति' के राजनीतिक एजेंडे में प्रमुखता से शामिल नहीं था। फिर भी खास अर्थ में देखा जाये तो `मुख्यधारा की राजनीति' की तुलना में `दलित राजनीति' अधिक पूर्णता से संघर्ष कर रही थी। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की पूर्णता के समर्थक अंगरेज जाति के लोगों में भी थे और इस संघर्ष की पूर्णता के विरोधी भारतीयों में भी थे। विभिन्न क्षेत्र की देशी-विदेशी सत्ताओं की बनाई पुरानी गुत्थ्यिों को खोलने और नई गुत्थ्यिों के बनने नहीं देने में निर्विशिष्ट मानवीय मेधा का इस्तेमाल करना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। इसका कारण सत्ता के स्वभाव में ही निहित है। दुनिया भर की सत्ताएँ अपने हित-संरक्षण के मामले में समान मनोवृत्ति से संचालित होती हैं। सत्ता की सहचरी के रूप में राजनीति में पृथक्करण की प्रवृत्ति जितनी तेज होती है, एकीकरण की प्रवृत्ति उतनी तेज नहीं होती है। पृथक्करण राजनीति की शैली है, एकीकरण सामाजिकता की शैली है। `राजनीति' और `सामाजिकता' के एक साथ सक्रिय रहने से `पृथक्करण' और `एकीकरण' से संतुलन बना रहता है। `राजनीति' इस संतुलन के भंग हो जाने की कीमत पर भी `सत्ता की सीढ़ी' पकड़ने के लोभ से अपने को बचा नहीं पाती है।

vi. सत्ताएँ और सामाजिकताएँ, गोचर-अगोचर रूप से, आपस में भिड़ती रहती है। ध्यान में रहना ही चाहिए कि सत्ता अपने स्वभाव से ही भूमंडलीय व्याप्तिवाली होती है। राजा को `जगदीश्वर' ही बताया और माना जाता है। सामाजिकताएँ अपने स्वभाव से ही स्थानिक होती है। आज के संदर्भ में ग्लोबल और लोकल के संघर्ष का संदर्भ सत्ता और सामाजिकता से जुड़ा हुआ है। सत्ता अपने को ईश्वर मानती है और इस मामले में उसका स्वभाव `एकेश्वरवादी' होता है। दो सत्ताएँ एक साथ अस्तित्व में रह नहीं सकती है, इसलिए उनमें वर्चस्व का संघर्ष सदा जारी रहता है। आज की `सत्ता' का नाम `पूँजी' है। बड़ी सत्ता छोटी-छोटी `सत्ताओं' को व्यावहारिक रूप से अधीनस्थ `सामाजिकताएँ' ही मानती है। उदाहरण के लिए विकसित देश की सत्ता की नजर में विकासशील देश की कोई सत्ता नहीं होती, महज सामुदायिकताएँ या अधिक-से-अधिक `सामाजिकताएँ' होती है; इसलिए विकासशील राष्ट्रों की `संप्रभुता' का कोई अर्थ नहीं होता है। अब एक गंभीर सवाल से हमारा सामना होता है। यह सवाल है, `राष्ट्र की संप्रभुता' के असली अर्थ को ढूढ़ निकालने का। इस अर्थ को ढूढ़ने में कठिनाई कहाँ है? पहली कठिनाई यह है कि `बहुराष्ट्रीय आवारा पूँजी' के बढ़ते वर्चस्व के इस दौर में जब `राष्ट्रों की राजनीतिक सीमाएँ' तेजी से भंजनशील हो रही हैं और `बहुराष्ट्रीय आवारा पूँजी' की आकांक्षित और संपोषित `अधि-राष्ट्रीयता'[19] उठान पर है, तब `राष्ट्रों की संप्रभुता' का वास्तविक अर्थ क्या ठहरेगा? कल तक हम यह मानते रहे हैं कि `संप्रभुता' राष्ट्र की जनता में निवास करती है, लेकिन अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि `संप्रभुता' का असली निवास `पूँजी' में होता है। किसकी `पूँजी' में? राष्ट्र की `पूँजी' में? लेकिन राष्ट्र तो `पूँजी प्रक्षेत्र' से बाहर हो रहे हैं ! असल में नई विश्वव्यवस्था का तकाजा है कि जिसकी `पूँजी' होगी, `संप्रभुता' भी उसी की होगी; चाहे वह व्यक्ति हो, कोई कंपनी हो, या कुछ और ही क्यों न हो। जिसकी जितनी `पूँजी' होगी, उसकी उतनी `संप्रभुता' होगी ! कहना न होगा कि `परुष पुरातन की बधु' होने के कारण `पूँजी' अपने स्वभाव से ही चंचल होती है, `पूँजी' का चांचल्य `संप्रभुता' को भी चंचल बनाता है।

vii. अब समस्या यह कि जब `राजनीतिक राष्ट्रों की संप्रभुता' ही नहीं बचेगी, तब `सामाजिकताओं का सम्मान' और `नागरिकों के राजनीतिक एवं मानव अधिकार' ही कैसे बचेंगे? `पुरानी विश्वव्यवस्था', यानी राजनीतिक नियंत्रण, सामाजिक संतुलन और जनतांत्रिकता में निहित जनाधिकार की समतोन्मुखी आकांक्षित संवैधानिक व्यवस्था, की आधारभूत संरचना में परिवर्त्तन किये बिना उसकी अंतर्वस्तु में विचलनकारी गुणात्मक परिवर्त्तन कर, `नई विश्वव्यवस्था' तैयार की जा रही है। `पुरानी विश्वव्यवस्था' की अवधारणाओं में `नई विश्वव्यवस्था' चुपके से नया और पुराने से भिन्न तथा विपरीत अर्थ भरती है। `नई विश्वव्यवस्था' शब्दों के निहितार्थ को बदल रही है। कभी `फ्रैंडली फायर' और `कोलेटरल डैमेज' जैसे विरोधी अर्थों को एक शब्द-युगम में नत्थीकर उनमें नये निहितार्थ का संपुट किया जा रहा है, तो कभी शब्दों को जस का तस बनाये रखकर भी उसकी मूल संकल्पना को बदलने की कोशिश की जा रही है। बदली हुई संकल्पना को वैकल्पिक अर्थ बताया जाता है। `नई विश्वव्यवस्था' वैकल्पिक अर्थ के स्थिर होने की जाँच करती रहती है। हाल ही में इस तरह की जाँच का अभियान `वाशिंगटन पोस्ट' ने चलाया था। पाठकों से `शब्दों के वैकल्पिक अर्थ' के बारे में सुझाव माँगा गया था। `नई विश्वव्यवस्था' की धमक के पहले कौन कह सकता था कि `मुक्ति' और `जनतंत्र' का वह अर्थ है जिस अर्थ में अमेरीकी प्रशासन, खासकर अफगानिस्तान और इराक में, उसका इस्तेमाल करता है ! `लिबरलेजाइशन' या `उदारीकरण' का ऐसा अर्थ भी हो सकता है, किसने सोचा था! राजसत्ता ने हमेशा भाषा पर कब्जा करने की भी कोशिश की है। राज-सत्ता की कोशिश के सफल होने के साथ ही जनसत्ता ने अपनी भाषा को बदल दिया है। भाषाओं के विकास के सामाजिक प्रसंग को ध्यान में रखा जा सकता है। ऐसा नहीं होता तो `भद्र' का विकसित रूप `भद्द­ और भद्दा' कैसे होता! पुराने शब्दों में नये और विपरीत अर्थों की तानातानी होने पर बौद्धिक विमर्श में `तर्क की ताकत' कम होती है और `ताकत का तर्क' अधिक प्रभावी होता है। जाहिर है, वाद-विवाद तो खूब होता है, लेकिन संवाद कभी सफल नहीं होता है। इस `नई विश्वव्यवस्था' में `पूँजी की संप्रभुता' का विन्यास है और इससे `श्रम की सत्ता' का सत्यानाश होते जाना तय है। `श्रम की सत्ता' के सत्यानाश का मतलब मनुष्यता की सत्ता के नाश के अलावे और हो ही क्या सकता है ! मुख्य सवाल यह है कि `श्रम की सत्ता' को बचाने के लिए क्या किया जा सकता है ?

viii. `सत्ता' की डोरी आंदोलनों के जरिये तैयार होती है। `दलित राजनीति की समस्या' के खास संदर्भ में देखें तो एक बड़े और टिकाऊ सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन चलाने की तैयारी में लगना सबसे बड़ी समस्या है। इस तैयारी की पहली बड़ी समस्या `दलित' की पहचान को लेकर ही है। खासकर आंदोलन के लिए इस पहचान का संकट और गहरा है। `दलित राजनीति' का एक बड़ा अंश `दलित पहचान' को जन्म से जोड़ता है। मुश्किल यह है कि `जन्म' के आधार पर `पहचान' तो ब्राह्मणवाद का सिद्धांत और लक्षण है। दलित नेता इस बात को जाने हुए भी क्यों `बह्मणवाद' के औजार को अपनाते हैं या अपनाने के लिए विवश होते हैं। डॉ. आंबेदकर ने तो कहा था कि `ब्राह्मणवाद' सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित न होकर सभी जातियों में घुसा हुआ है, आशय यह कि यह `दलितों' में घुसा हो सकता है। `दलित राजनीति' का लक्ष्य सिर्फ `दलितों' तक ही सीमित क्यों हो? `दलित राजनीति और आंदोलन' का लक्ष्य सिर्फ `दलित विरोधी' को उखाड़ फेकना ही क्यों हो, `दलित राजनीति और आंदोलन' का लक्ष्य मानवता विरोधी, समता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व विरोधी सारी शक्तियों का विरोध क्यों न हो? इन सवालों से टकराते हुए `दलित आंदोलन और राजनीति' को अपने लक्ष्य के अनुकूल `विचारधारा' का विकास करना जरूरी है। कहना न होगा कि विचारधारा के विकास में पहले से उपलब्ध विचारधाराओं की अनुकूलताओं को सावधानी से परखना भी जरूरी होता है। लक्ष्य और विचारधारा के अनुसार दीर्घकालिक और तात्कालिक कार्यक्रम की रूप-रेखा तैयार करने के लिए नेतृत्व और संगठन पर काम करना और इन्हें सूत्रबद्ध करना बड़ी समस्या है।

ix. लक्ष्य, विचारधारा, कार्यक्रम, नेतृत्व और संगठन जैसे अनविार्य घटक एक-दूसरे से स्वायत्त न होकर परस्परावलंबित होते हैं। ये आंदोलन के अविभाज्य घटक हैं। इन में से किसी एक का भी अभाव आंदोलन को विकलांग बनाता है। जीवन के मूल्य-समुच्चय की आंतरिक प्रणाली में नये मूल्य के समायोजन या फिर एक मूल्य-समुच्चय को तजकर सर्वथा नये मूल्य-समुच्चय को अपनाने के लिए एक मूल्यबोध से दूसरे मूल्यबोध तक की यात्रा में व्यक्तिगत रूप से सहमत होकर सामूहिक रूप से क्रियाशील  होने से ये घटक संघटित होकर आंदोलन का रूप लेते हैं। कोई राजनीतिक कार्रवाई तब आंदोलन हो जाती है, जब उसमें व्यापक जनता की भागीदारी होती है और जो उस कार्रवाई में सक्रिय रूप से शामिल नहीं होते हैं, यहाँ तक कि जो उसके प्रत्यक्षतः लाभार्थी नहीं भी होते हैं, उनकी भी सहमति और सहानुभूति अर्जित करती है। यह विमर्श काफी दिलचस्प हो सकता है कि आंदोलन के भीतर से उसके ये घटक बनते हैं या इन घटकों के मिलने से आंदोलन बनता है। लेकिन मुख्य बात यह है कि न तो कोई आंदोलन पूर्णत: स्वत:स्फूर्त्त होता है और न पूर्णत: निदेशित। हालाँकि राजनीतिक और सामाजिक परिवर्त्तन की सही मति ओर गति रेखाएँ एक दूसरे से संवादी होती हैं, बहुत कम अवसरों पर एक दूसरे से उलझती हैं फिर भी उनके लक्ष्यों की प्राथमिकता के अंतर से उनमें महत्त्वपूर्ण अंतर भी होता है। इस अंतर को ध्यान में रखना चाहिए। कई बार राजनीतिक परिवर्त्तन सरकार में परिवर्त्तन के आशयों से ही सीमित होकर रह जाता है। लेकिन सरकार में परिवर्त्तन राजनीति में परिवर्त्तन की सही सूचना नहीं भी हो सकता है। राजनीति में परिवर्त्तन का अर्थ होता है शासक और शासित, कई बार इसे शोषक और शोषित के रूप में भी पढ़ना जरूरी होता है, के बीच बहुस्तरीय संबंधों के नियामक कारकों में, विभिन्न हितग्राही समूहों के पारस्परिक संबंधों और सत्ता के साथ  उनके संबंधों की जारी सामंजस्य शृँखला में परिवर्तन। राजनीतिक परिवर्त्तन का यह काम वैधानिक स्तर पर होता है और राजनीतिक सत्ता इसके लिए नियम बनाती है। वर्चस्वशाली समूह और उनकी विचार-पद्धति तथा उनकी कार्य प्रणालियों में बदलाव सामाजिक परिवर्त्तन कहलाता है। सामाजिक परिवर्त्तन का यह काम सांस्कृतिक स्तर पर होता है और समाज सत्ता इसके लिए मन बनाती है। चूँकि सामाजिक परिवर्त्तन का कोई भी प्रयास समाज के वर्चस्वशाली हित-समूहों को प्रभावित करता है, इसलिए वर्चस्वशाली हित-समूह राजनीतिक और सामाजिक परिवर्त्तन की सही मति और गति को नये-नये उलझावों में डालकर वैचारिक और सांस्कृतिक भटकाव का मायावी वातावरण रचता रहता है। यह बहुत ही सूक्ष्म तथा मनोनुकूलन के रूप में होता है। जनमत का एक रूप ऐसा होता है जो समाज के वर्चस्वशाली हित समूहों की इस माया परियोजना को जानबूझकर, और कई बार सामजिक प्रवाह की बहती धारा के प्रभाव में अनजाने भी, अपने विचार का हिस्सा बना लेता है। जनमत का दूसरा रूप वह होता है जो सामाजिक प्रवाह की बहती धारा के प्रभाव को समझते हुए उसके साथ संघर्षशील होता है और समाज के वर्चस्वशाली हित समूहों की इस माया परियोजना का जानबूझकर, कई बार अनजाने में भी, विरोध रचता है। यहीं हम देख सकते हैं कि औपनिवेशिक वर्चस्व में रह चुके देशों के उत्तर-औपनिवेशिक राज में भी देशी-जनतांत्रिक सत्ताएँ वर्चस्व बनाये रखने की औपनिवेशिक युक्तियों का इस्तेमाल करना सहज ही नहीं छोड़ देती हैं। हमारा अनुभव बताता है कि बिना क्रांति के हुए सत्ता परिवर्त्तन से सर्वांगीण राजनीतिक परिवर्त्तन घटित नहीं हो पाता है।

x. राजनीतिक परिवर्त्तन के क्रम में नियम बनाये जाने के बावजूद सांस्कृतिक स्तर पर सामाजिक मन नहीं बन पाता है। इसलिए नागरिक संहिता में उपकारी नियमों के रहते हुए भी सामाजिक जीवन में सौमनस्य नहीं बन पाता है। यह काम अधूरा रह जाता है। इस अधूरे काम को पूरा करने में साहित्य की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अर्थात सामजिकता के वि-औपनिवेशीकरण की दरकार बनी हुई रहती है। राजनीतिक परिवर्त्तन का लक्ष्य सिर्फ सत्ता परिवर्त्तन नहीं होता है, बल्कि सामाजिक परिवर्त्तन तक पहुँचकर ही सार्थक बनता है।  इसके लिए आज के जटिल समय में सामजिक अभिप्रेरणाएँ तो चाहिए ही राजनीतिक और आर्थिक अभिप्रेरणाएँ भी चाहिए। स्वाभाविक ही है कि इस काम में राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों को झटककर `सामाजिक स्वायत्तता' के प्रति समर्पित युरोप-केंद्रित `नव सामाजिक आंदोलन' जैसा आंदोलन `स्वतंत्रता, समता ओर बंधुत्व' को हासिल करने का लक्ष्य रखनेवाले आंदोलन की प्रेरणा का आधार नहीं बन सकता है (देखें 5 का xi)। कहना न होगा कि `स्वतंत्रता का राजनीति' से, `समता का आर्थिकी' से और `बंधुत्व का सामाजिकता' से गहरा संबंध होता है। अत: जिस प्रकार `स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व' को विच्छिन्न करना आत्मघाती होता है, उसी प्रकार `राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक' प्रसंगों को विच्छिन्न करना भी आत्मघाती होता है। इनके संयोजन-सहयोजन का सूत्र संगठन से निकलता है। संगठन अर्थात, लक्ष्य, विचारधारा, कार्यक्रम, नेतृत्व की व्याघाती प्रवृत्तियों को उनके न्यूनतम स्तर पर ले जाकर उनका इस तरह का अंतर्गुंफन तैयार करना कि वे सह-क्रियाशील[20] मुद्रा में एक दूसरे की संवेदनशीलता से जुड़े रह सकें। इतिहास प्रसिद्ध अनुभव है कि सत्ता पर अधिकार असंगठित बहुसंख्यक का नहीं संगठित अल्पसंख्यक का ही होता है। `श्रम की सत्ता' भी संगठन से ही स्थापित होती है। दलित अनुभव यह है कि संगठनहीनता के कारण श्रम की सत्ता को स्थापित करने में उसे कामयाबी नहीं मिल पायी।     

xi. बदलाव प्रक्रिया से गुजर रही दुनिया के विभिन्न समाजों में आत्मान्वेषण का काम नये सिरे शुरू हुआ है। इसी परिप्रेक्ष्य में आज के `नव सामाजिक आंदोलन' की गति-मति को समझा जा सकता है। वस्तुत: युरोप केंद्रित यह `नव सामाजिक आंदोलन' `उत्तर-आधुनिक' प्रेरणा से संचालित है। यह आंदोलन न तो जीवन के आर्थिक प्रसंगों की बात करता है और न ही राजनीतिक प्रसंगों की। यह नागरिक समाज की स्वायत्तता पर ही पूरा जोर देता है। यह राज-शक्ति से स्वायत्त समाज-शक्ति की आकांक्षा रखता है। यह एक अद्भुत आकांक्षा है। अद्भुत यह कि यह आंदोलन राज और समाज के संबंधों को किसी सहजता और सातत्य के सहयोजी प्रसंग में न देखकर इन्हें एक दूसरे के धुर विरोधी के ही रूप में सामने लाता है और सामाजिक न्याय के नाम पर मानवाधिकारों का मामला उठाते हुए राज से छिटक जाने की पेशकश करता है। यह सच है कि समाज और राज दोनों एक ही नहीं हैं। जाहिर है कि समाज-शक्ति और राज-शक्ति भी एक ही नहीं हैं। लेकिन आज के समय में समाज-शक्ति हो या राज-शक्ति हो, उन्हें राजनीतिक प्रक्रियाओं की जटिलताओं से विच्छिन्न करना संभव नहीं है। यह तो ध्यान में रखना ही होगा कि राजनीति को सिर्फ राजनीतिक दलों तक सीमित मानकर चलना, हमें भटकाव में डाल दे सकता है। सही बात तो यह है कि राजनीतिक सहयोजिता की उपेक्षा से सामाजिक न्याय  की अवधारणा समझ में ही नहीं आ सकती है। यद्यपि कुछ जीवन प्रसंग वर्ग संदर्भों से बाहर रहकर भी कुछ दूर तक सार्थक ढंग से समझे जा सकते हैं, लेकिन यह कहना बचकाना ही है कि आज की एक ध्रुवीय होती जा रही दुनिया में वर्ग विलुप्त हो गये हैं। वर्ग के वैश्विक आयाम जरूर प्रकट हो रहे हैं (देखें 5 का vi) क्योंकि, `लोगों को प्रभावित करनेवाले मामले अब सिर्फ राष्ट्र की सीमाओं में सीमित नहीं हैं। एकीकृत दुनिया में लोकतांत्रिक सिद्धांतों का वैश्विक आयाम है, क्योंकि विश्व नेता और शासक राष्ट्रीय नेताओं की तरह ही उनके जीवन को प्रभावित करते हैं। हाल के दिनों में औद्योगिक और विकसित दोनों ही प्रकार के देशों में भूमंडलीकरण विरोधी अभियान में यह नया यथार्थ उभर कर सामने आया है। हालांकि, इनके विभिन्न रूप हैं और विभिन्न कार्यसूचियाँ हैं फिर भी एक बात पर इनमें साम्य है कि विश्व के गरीब लोगों की समस्याओं के लिए विश्व संस्थाएँ और विश्व नेता जबावदेह हैं। इसे आपातकालीन समस्या माननेवाले ये विरोधी अकेले नहीं हैं।'[21]

xii. संभवत: जातीय या सामाजिक उपविभाजनों के अंतर्गत वर्गबोध को समझने के साथ ही भूमंडलीय यथार्थ के अंतर्गत उसके वैश्विक आयाम को पहले की अपेक्षा अधिक आसानी से स्पष्ट किया जा सकेगा। लेकिन वर्गबोध तो रहेगा ही। दुनिया में वर्गों की अवस्थिति या वर्गविभाजन का कारण दुनिया की बहुध्रुवीयता नहीं थी, इसलिए दुनिया के एकध्रुवीय, जो हकीकत से अधिक बोध है, होने से वर्गसंरचना में ही क्या अंतर आ सकता है! उदाहरण के लिए कहा जा सकता है कि पर्यावरण को लेकर चलनेवाला आंदोलन एक गैर-वर्गीय आंदोलन है। लेकिन क्या सचमुच? पर्यावरण के उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय और कामगारों एवं आदिवासियों के जुड़ाव, प्रभाव और मुद्दे क्या बिल्कुल एक ही हैं? `नव सामाजिक आंदोलन' समाज के वि-राजनीतिककरण पर इतना जोर देता है तो निश्चय ही इसके पीछे राजनीति की इकहरी और राजसत्तात्मक समझ ही हो सकती है। वैसे कभी-कभी वि-राजनीतिकरण की प्रक्रिया की प्रेरणाएँ भी राजनीति की अतल गहराइयों से निकल रही होती हैं! सामाजिक परिवर्त्तन के लिए किया गया कोई भी प्रयास श्रम और संपत्ति के संबंधों में बदलाव, संसाधानों के वितरण, चिरंतन विकास के लिए भूमंडलीय पर्यावरण के संदर्भों से जोड़कर ही संभव होता है; राजनीतिक उपकरणों के उपयोग के बिना यह संभव नहीं हो सकता है।

xiii. सामाजिक परिवर्त्तन के प्रयास मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी संदर्भ से समझे जाते हैं। मार्क्सवादी दृष्टिकोण समाज में व्यापक ओर क्रांतिकारी परिवर्त्तन की आवश्यकताओं के विभिन्न स्तरों  को स्पष्ट करता है। मार्क्सवाद के अनुसार सामाजिक परिवर्त्तन के आधार कारण आर्थिक संरचना में अंतर्निहित होते हैं। आज के भूमंडलीय वातावरण में वर्ग के विलोप और वर्ग के स्थान पर समुदाय की अवधारणा की सिद्धांतिकी प्रस्तावितकर विश्लेषण और संघर्ष के सबसे कारगर औजार को भोथरा किया जा रहा है। आज के समुदाय कबिलाई नहीं हैं। आज जीवन के सारे संदर्भों में वर्गविभाजन पहले से कहीं अधिक तीखा है। यह मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि समुदाय भी वर्ग-विभक्त होता है और समाज भी। वर्ग-विभक्त समाज में श्रम और सत्ताधिकरणों के परस्पर विरोधी हितों के संघर्ष अंतर्विरोध पैदा करते हैं। सत्ताधिकरण राजशक्ति के साथ-साथ धर्म, शिक्षा, जनसंचार आदि का इस्तेमाल करते हुए शेष समाज पर अपनी हितैषी विचारधारा की लदनी करता है। इस लदनी के माध्यम से वह शेष समाज को अनुकूलित और नियंत्रित करता है। ऐसी स्थिति में सत्ताधिकरणों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए इस लदनी को उतार फेकना जरूरी होता है। लदनी उतारने का यह काम क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्त्तन की प्रक्रिया में ही संभव होता है। मार्क्सवादी दृष्टिकोण में संघाती आर्थिक हितों की पेचीदगियाँ ही प्रमुख रहती है। इस पर पूरा जोर दिये जाने के कारण सामजिक एकता और विभाजन के वर्गेतर आधार पर कई बार अपेक्षित ध्यान दे पाना संभव नहीं हो पाता है। इधर सामाजिक एकता और विभाजन के अन्य आधार के रूप में जातीयता और धर्म सहित अन्य सांस्कृतिक कारकों की ओर भी समुचित ध्यान दिये जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। अब सांस्कृतिक संदर्भों का नये सिरे से मूल्याँकन करने और वर्ग चेतना के विकास की एक रेखीय अवधारणा की जगह उसकी बहुआयामिता की ओर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक माना जा रहा है। बहुआयामिता पर ध्यान देते हुए भी हमें वर्गीय चेतना के संदर्भ में संरचनागत अंतर्विरोधों पर भी ध्यान बनाये रखना होगा।

6.   दलित राजनीति की सीमा और संभावना


i. `दलित विमर्श की भूमिका' में कँवल भारती के निष्कर्ष से दलित राजनीति की सीमा और संभावना पर बात शुरू की जा सकती है। उनका निष्कर्ष है , `डा. आंबेदकर ने कहा था कि दलित समान विचारधारा वाले दलों से मिलकर अपनी राजनीतिक शक्ति बना सकते हैं। लेकिन दलितों के लिए समान विचारधारावाला दल न काँग्रेस है और न भाजपा, वह मार्क्सवादी दल ही हो सकता है। पर मौजूदा मार्क्सवादी दल भाजपा और काँग्रेस के ही लग्गू-भग्गू बने हुए हैं। इसलिए रेडिकल मार्क्सवाद के साथ रेडिकल आंबेदकरवाद के गठन की सख्त जरूरत है। डा. राजाराम की मानें तो तो रूस में मार्क्सवाद के साथ लेनिनवाद को मिलाकर रूसी जनता ने क्रांति की, चीन में मार्क्सवाद के साथ माओवाद को मिलाकर चीनी जनता ने क्रांति की, तो भारत में मार्क्सवाद के साथ आंबेदकरवाद को मिलाकर क्रांति क्यों नहीं हो सकती?'[22] काँग्रेस की बात कुछ-कुछ समझ में आ सकती है। लेकिन भाजपा? गंभीर चिंतन के निष्कर्ष को तत्काल के ऐसे दबावों ओर भटकावों से बचाना नहीं चाहिए? तत्काल के ऐसे दबावों से कई सीमाएँ निकल आती हैं। `मार्क्सवाद के साथ लेनिनवाद को मिलाकर रूसी जनता ने क्रांति की' किसके नेतृत्व में की? लेनिन के नेतृत्व में! `चीन में मार्क्सवाद के साथ माओवाद को मिलाकर चीनी जनता ने क्रांति की' किसके नेतृत्व में की? माओ के नेतृत्व में! `भारत में मार्क्सवाद के साथ आंबेदकरवाद को मिलाकर क्रांति' किसके नेतृत्व में हो सकती थी? आंबेदकर के नेतृत्व में! क्यों नहीं हो सकी? इसका जवाब कौन देगा ? `समान विचारधारा' का सुझाव देनेवाले डॉ. आंबेदकर का `असमान विचारधारावाले' काँग्रेस के साथ मिलाप और कम्युनिस्ट पार्टी के साथ उनके संबंधों की व्याख्या में भी कठिनाई आ सकती है। इतिहास से संवाद करने की जरूरत होती है, बार-बार होती है, लेकिन इतिहास का मुँह चिढ़ाना इतिहास से संवाद करना नहीं होता है। क्रांति एक चमक है। इससे चौंधिया जाने के बहुत सारे अवसर आते हैं। क्रांति का अपना रोमान होता है, लेकिन रोमान से क्रांति नहीं होती। काश कि क्रांति इतनी आसान हुआ करती ! बहरहाल आज की राजनीति की समस्या ओर दलित राजनीति की समस्या और इन समस्याओं के पारस्परिक सरोकारों पर बात करते हुए आज की राजनीतिक चुनौतियों के भारतीय परिप्रेक्ष्य पर बात करना अधिक प्रासंगिक है।

ii. `विविधता में एकता' को `फैलाकर विषमता में एकता' तक भी चाहे क्यों न ले जाया जाए, सच तो यह है कि भारतीयता परिप्रेक्ष्य बुरी तरह विभंजित रहा है। इस विभंजन में कई कारकों की सक्रिय भूमिका होती है। यहाँ दलित सिर्फ दलित नहीं होता है, मराठी, हिंदी, पंजाबी, काँग्रेसी, बहुजनवादी, भाजपाई, दरिद्र-अमीर शिक्षित-अशिक्षित दलित भी होता है। `हम' और `अन्य' के निर्धारण के ढेर-सारे वास्तविक और आभासी कारक एक साथ सक्रिय रहते हैं। इन कारकों में अंतर्विरोध ही नहीं, अंतर्व्याघात भी होता है। इन कारकों को स्थगित या निष्क्रिय करना बहुत मुश्किल है। मार्क्सवाद के पूर्ण जानकार और उस पर भरपूर भरोसा रखनेवाले भी अपने घर में बैठे-बैठे कम्युनिस्ट नहीं हो जाते हैं। कम्युनिस्ट होने के लिए जरूरी है, संगठित होना, संगठित करना, बदलाव की रणनीति पर संगठित और सुनियोजित तरीके से अमल करना, समाज के वर्गीय आधार की समझ और सहानुभूति को तीव्रता के साथ उभारना। कम्युनिस्ट अपने-आप में महाविशेषण है। इसके साथ आनेवाला दूसरा विशेषण या तो खुद खंडित हो जाता है, या इसे खंडित कर देता है। जिस प्रकार `ब्राह्मण कम्युनिस्ट', `राजपूत कम्युनिस्ट', `हिंदी कम्युनिस्ट', `बंगाली कम्युनिस्ट' आदि नहीं होता है उसी प्रकार `दलित कम्युनिस्ट' भी नहीं हो सकता है। लेकिन हमारी मुसीबत यह है कि  हमारे यहाँ `ब्राह्मण कम्युनिस्ट' और `दलित कम्युनिस्ट' हो सकते हैं। `हिंदी कम्युनिस्ट' या `बंगाली कम्युनिस्ट' भी होते हैं ! माना जाना चाहिए कि कम्युनिस्ट होना थोड़ा मुश्किल काम है। वर्गीय आधार के अनुसार व्यवहार तक पहुँचने के पहले वर्गेतर आधारों को समझना और उसे निष्प्रभ करना दायित्व है।      

iii. वर्ग-स्वार्थ के अलावे भी इसके कारणों की खोज की जानी चाहिए। पहली नजर में तो यह भी लगता है कि उच्च वर्ण से संबंधित वे लोग भी जिन्हें वर्ग-स्वार्थ के कारण स्वाभाविक रूप से दलित-स्वार्थ के निकट होना चाहिए या हैं, वर्गीय आधार को अस्वीकृतकर उभरती हुई दलित संदर्भ की `प्रतिरोधी चेतना' को `प्रतिशोधी चेतना' मानकर डरे और बिदके रहते हैं। इस डर के कारण ही दलित सवाल के उठते ही सवर्ण मेधा बौखला  जाती है। दूसरी बात , संवेदनशील और व्यापक अर्थ में प्रगतिशील सवर्ण इस बात से भी बौखलाये हुए रहते हैं कि जिस हिंदुत्ववादी राजनीतिक शक्ति के मनुष्य-विरोधी होने की बात उनके मन में गहरे जमी हुई रहती है उसी के साथ `दलित राजनीति' के प्रतिनिधियों के द्वारा उन्हें जोड़ दिया जाता है। वे इस राजनीतिक शक्ति और चेतना से विजड़ित किये जाने की स्थिति से भी बहुत विचलित होते हैं। तीसरी बात, संवेदनशील सवर्ण के सामने अपने तथाकथित संस्कारों या कु-संस्कारों से साथ आंतरिक आत्म-संघर्ष (सामाजिक संघर्ष चल नहीं रहा और जो आंतरिक आत्म-संघर्ष सामाजिक-संषर्ष की सक्रियता में शीघ्रता से बदल नहीं जाता है, वह अ-क्रिय आंतरिक आत्म-संघर्ष स्वाभाविक रूप से अविश्वसनीय होता जाता है) की व्यावहारिक विश्वसनीयता बहाल रखने की चुनौती के अलावे एक बड़ी कठिनाई यह है कि दलितवादी दलितों की नजर में वे अपने सवर्ण होने के अर्थ को उसी तरह बदल नहीं पाते हैं, जिस तरह अपने दलित होने के अर्थ को हिंदुत्ववादी सवर्णों की नजर में दलित नहीं बदल पाते हैं। यह दुष्चक्र है। यानी अपने मूल्यांकन के लिए जिस आधार को नकारा जाता है, दूसरों के मूल्यांकन के लिए उसी आधार को दृढ़ता से स्वीकार कर लिया जाता है। इस दुष्चक्र को तोड़ना `दलित राजनीति' की समसया है।

iv. सहानुभूति बनाम स्वानुभूति के द्वंद्व को समझना जरूरी है। अक्सर कहा जाता है कि `घोड़ा को समझने के लिए घोड़ा होना जरूरी नहीं है'।  इस रूपक के नव्य-न्याय का तर्क इतना संगत नहीं है कि इससे सहानुभूति बनाम स्वानुभूति के द्वंद्व की गुत्थी खुल जाये। इस  नव्य-न्याय का तर्क सामने रखने के बाद शीघ्रता से नैय्यायिक लोग भावानुप्रवेश जैसे महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक सूत्र का सहारा लेते हैं। यह भावनुप्रवेश क्या है ? यही न कि जो वह नहीं है, मनोवैज्ञानिक रूप से वह होकर उसके जैसा अनुभव करना। इसके अतिरिक्त भावनुप्रवेश का क्या अर्थ हो सकता है? भावानुप्रवेश के माध्यम से `घोड़ा बनने के लिए तैयार रहना', `घोड़ा' को समझने के अधिकार की शर्त है। न सिर्फ तैयार रहना, बल्कि अधिकतम संभाव्य स्तर तक `घोड़ा' बनने में सक्षम और ईमानदार होना भी। `घोड़ा' के दुख पर बात करेंगे और `घोड़ा' बनना  भी नहीं चाहेंगे! यह नहीं चलेगा। `डि-क्लास' होने की जरूरत खत्म तो नहीं हो गई है! धूमिल ने झूठ थोड़े न कहा था कि लोहा का स्वाद लुहार और घोड़े, जिसके मुँह में लगाम होती है, एक ही नहीं होता है। दुखी तो सभी हैं। `घोड़ा' भी और `घुड़सवार' भी। लेकिन `घोड़ा' और `घुड़सवार' का दुख एक ही हो, यह कैसे हो सकता है? इसलिए दलित संदर्भ को समझने में `स्वानुभूति' और `सहानुभूति' के मुद्दे पर नव्य-न्याय का तर्क असंगत है। `दलित राजनीति' की समस्याओं को सिर्फ अवधारणाओं के आधार पर समझना मुश्किल है, इसके लिए  सामाजिकताओं के अंदर सम्मान के अवसर की परित्यक्त मनोभूमि की पैमाइश से भी कुछ हद तक जरूरी है। स्वानुभूति के अभाव की प्रतिपूरक ही सहानुभूति हो सकती है, विस्थापक नहीं। कहना न होगा, सहानुभति वस्तुत: स्वानुभूति का ही विस्तार है, एवजी नहीं। `जाके पैर न फटे बेवाई, वो क्या जाने पीर पराई', तो बाबा तुलसीदास ही कह गये हैं। यदि दलित-समाज को लगता है कि उनके दुख का उतना भी निदान मुख्यधारा की सहानुभूतिमूलक राजनीति से नहीं हुआ जितना कि जनतंत्र में सामान्यत: संभव हुआ करता है और इसलिए वे मुख्यधारा की राजनीति से अलग `दलित राजनीति' की और बढ़ रहे हैं, तो इसे समझना होगा। आजादी के इतने दिनों के बाद भी दलितों की सामाजिकता  के सवाल, हजारों वर्ष पुरानी गुत्थियों  से प्राणरस ग्रहण कर रहे हैं, तो क्या कहा जाये ! दुख को तर्क से व्याख्यायित किया जा सकता है लेकिन जरूरी नहीं कि वह व्याख्या संवेदना का भी हिस्सा बन ही जाये। असल में यह सवर्ण डर है जो बुद्धि और चेतना को कुतर्क के पथ पर भटकाता है। इस डर को पहचानने की जरूरत है। पहचानेंगे नहीं तो लड़ेंगे क्या? कौन पहचानेगा? यह काम `दलित राजनीति' और `वामपंथी राजनीति' दोनों को मिलकर करना होगा। `दलित राजनीति' और `वामपंथी राजनीति' दोनों के सामने एक दूसरे की संभावनाओं को समझते हुए अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर मिलने की पहल करने की गहरी चुनौती है।

v. दलितों के दुख को नहीं समझा गया तो `स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व' को नव-साम्राज्यवाद के विस्तार की आकांक्षा से उपजी फासीवादी बर्बरता, जिसका एक सिरा पुरातन धर्म से जुड़ा है तो दूसरा सिरा नूतन पूँजी-बाजार से जुड़ा है, की चपेट में आने से बचाना मुश्किल है। वैसे भी, नाना ऐतिहासिक कारणों से वर्गीय आधार पर समूह बनने की पुष्ट संभावना के नहीं होने के कारण ही धर्म के आधार पर समूह बनता है और संप्रदायबोध को सामाजिक आधार प्रदान करता है। समाज इस अनुचित आधार पर बँटकर पहले से लहुलुहान है। दलित-चेतना के विश्वसनीय वर्गीय आधार की शीघ्र तलाश न की जा सकी तो भारतीय समाज के आंतरिक विभाजन की दरारों को पाटना तो दूर, उनकी फाट रोकना भी बहुत ही मुश्किल होगा। इस तलाश के लिए दलित दुख को महसूस करना होगा। इसके लिए किसी पूर्वनिर्धारित और कदाचित उससे भी अधिक तात्कालिक राजनीतिक लाइन से थोड़ा अलग होकर भी सोचने की जरूरत है।

vi. अभी की राजनीतिक लाइन से हटने का मतलब है संसदीय प्रक्रियाओं की तात्कालिक बाध्यताओं पर काबू पाते हुए दीर्घकालिक राजनीति के जोखिमों को उठाने की तैयारी करना। `विरोधाभासी जीवन' की विसंगतियों को दूर करने, `स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व' को हासिल करने के लिए `हिंदुत्व' और `उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण' से संघर्ष को एक साथ एवं सकारात्मक ढंग से चलाने के लिए `दलित राजनीति' और `वामपंथी राजनीति' को नई समझदारी और सहमेल की नई गुंजाइश विकसित करनी होगी। इस गुंजाइश का न बनना अपने-आप में समस्याओं की जड़ है। एक सामान्य भारतीय संस्कृति के विकास के लिए यह जरूरी है, क्योंकि, `यह बात माननी ही होगी कि ऐतिहासकि रूप से एक सामन्य भारतीय संस्कृति का अस्त्त्वि कभी नहीं रहा है। ऐतिहासिक रूप से भारत तीन रहा है, ब्राह्मण भारत, बौद्ध भारत और हिंदू भारत। इन तीनों की अपनी अलग-अलग संस्कृति रही है। .... यह बात भी माननी होगी कि मुसलमानों के वर्चस्व के पहले ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद के बीच गहरे नैतिक संघर्ष का भी इतिहास रहा है।'[23] जाहिर है जब `पूँजी की सत्ता' अधिराष्ट्रीय हुई जा रही है, `श्रम की सत्ता' को बचाने के लिए राष्ट्रीय सरोकारों को नये सिरे से टटोलना होगा तभी `सही अंतर्राष्ट्रीयता', `आंकाक्षित पर्यावरणीय भूमंडलीकरण' और `विश्वमानवतावाद' की नवनैतिकता का विकास हो पायेगा। इसके लिए `आत्म निर्णय का अधिकार' ही काफी नहीं है, `आत्मान्वेषण का धैर्य', `आत्मसंयोजन का साहस' और `आत्म विस्तार का विवेक' भी चाहिए; और इन सब को नये सिरे से संगठित करने की इच्छा-क्रिया-शक्ति भी चाहिए। तभी फ़ैज को दुहराने का साहस करते हुए कोई कह सकेगा कि `ऐ ख़ाक-नशीनों उठ बैठो, वो वक़्त क़रीब आ आ पहुँचा है / जब तख़्त गिराये जायेंगे, जब ताज उछाले जायेंगे / अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िन्दानो[24] की खैर नहीं / जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जायेंगे'[25]। लोग जुटेंगे और जंजीरें टूटेंगीं। जंजीरें टूटती आई हैं, जंजीरें टूटेंगी और जरूर टूटेंगी।
कृपया, निम्नलिंक भी देखें--
1.दलित राजनीति की समस्याएँ .pdf

[1] मानव विकास रिपोर्टः1996 (HDR-1996 : Growth as ameans to human development)
[2] Gail Omvedt : Ambedkar and After: The Dalit Movement in India: Social Movements and the State, Edit. Ghanshyam Sahah (Sage Pub.2002) ý
[3] `Interwoven' के अर्थ में

[4] भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध उक्ति
[5] एम के गाँधीः वर्णाश्रम धर्म, नवजीवन ट्रस्ट, 1926
[6] सुमित सरकारः आधुनिक बारत-1885-1947 : राजकमल प्रकाशनः हरिजन आंदोलन
[7] सुमित सरकारः आधुनिक बारत-1885-1947 : राजकमल प्रकाशनः हरिजन आंदोलन
[8] रामशरण शर्माः प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएः परिशिष्ट – 2: गोपति से भूपतिः राजकमल प्रकाशनः 5वीं आवृत्ति 2001
[9] सुमित सरकारः आधुनिक बारत-1885-1947 : राजकमल प्रकाशनः हरिजन आंदोलन
[10] रवींद्रनाथ ठाकुरः भारत में राषट्रीयता 1917: सामाजिक क्रांति के दस्तावेजः सं. डॉ शंभुनाथः वाणी प्रकाशन 2004
[11] सुमित सरकारः आधुनिक बारत-1885-1947 : राजकमल प्रकाशनः हरिजन आंदोलन
[12] Gail Omvedt : Ambedkar and After: The Dalit Movement in India: Social Movements and the State, Edit. Ghanshyam Sahah (Sage Pub.2002)
[13] भीमराव आंबेदकरः संविधान सभा में दिये गये भाषण सेः सामाजिक क्रांति के दस्तावेज-2:सं. डॉ शंभुनाथः वाणी प्रकाशन, 2004

[14] सुमित सरकारः आधुनिक बारत-1885-1947 : राजकमल प्रकाशनः हरिजन आंदोलन
[15] सुमित सरकारः आधुनिक बारत-1885-1947 : राजकमल प्रकाशनः हरिजन आंदोलन
[16] भीमराव आंबेदकरः संविधान सभा, नवंबर 1949 में दिये गये भाषण सेः सामाजिक क्रांति के दस्तावेज-2:सं. डॉ शंभुनाथः वाणी प्रकाशन, 2004
[17] `Reservation Cover' के अर्थ में
[18] Huntington : Clashes of Civilization
[19]`Trans-Naionalityके अर्थ में
[20] `corresponding'  के अर्थ में
[21] मानव विकास रिपोर्ट 2002
[22] कँवल भारतीः दलित विमर्श की भूमिकाः पुनश्च – दलित और वामः कुछ जरूरी सवालः इतिहासबोध प्रकाशन, 2 परि. सं. 2004
[23] Dr. Babasaheb Ambedkar : "Revolution and Counter Revolution in Ancient India” Writings and speeches, Volume 3 ( Bombay Govt of Maharashtra, 1987)
[24] जेलखाना
[25] फ़ैज अहमद फ़ैजः प्रतिनिधि कविताएँ : राजकमल पेपर बैक्स – 2003 : तराना