डूबना भी नहीं आता

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

डूबना भी नहीं आता
++++++++++++

पानी बहुत ही गहरा है
उसमें उतरने की तमन्ना


उसने पूछा▬▬
तैरना आता है
मैंने कहा▬
नहीं


उसने कहा ▬
डूब जाओगे


मैंने कहा▬
डूबना भी नहीं आता
और पानी में उतर पड़ा


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Tushar Krishna Singh Shrinet, अजय गुप्ता, Vijay Mishra Vijay और 54 अन्य को यह पसंद है.


Kumar Kuldip सुंदर !
28 जुलाई पर 06:56 पूर्वाह्न · पसंद


Uday Raj Singh Bahut badhiyaa ! Yah naadaan na aanaa jaane kitane rahasyodghaatan karataa hai.Doob kar door kee kaudee laataa hai.
28 जुलाई पर 07:02 पूर्वाह्न · पसंद · 1


Sulakshana Datta
28 जुलाई पर 07:08 पूर्वाह्न · पसंद


धर्म पाण्डेय बहुत खूब।
28 जुलाई पर 07:12 पूर्वाह्न · पसंद


Haridev MP डूबने की बात मत करों सर । साहित्य आपकी प्रकृति के अनुकूल युद्धक्षेत्र है । उसी में से हम रसियों के लिए कुछ नवरस का सृजन करो । हमें डूबने दो उस ज्ञानगंगा में ।
28 जुलाई पर 07:37 पूर्वाह्न · पसंद · 1


Noor Mohammad Noor Mutta kodi kavadi hda....
28 जुलाई पर 09:16 पूर्वाह्न · पसंद


K C Babbar Babbar मेरे साकी ने मुझको दे दिया है जाम कुछ ऐसा ,जो छोड़ा भी नही जाता ऊठाया भी नही जाता
28 जुलाई पर 09:39 पूर्वाह्न · पसंद · 2


Binay Pathak क्या बात है
28 जुलाई पर 10:16 अपराह्न · नापसंद · 1


Javed Usmani बेजोड़ ,
29 जुलाई पर 03:53 पूर्वाह्न · नापसंद · 1


Harish Sharma आप तो ईद का चाँद हो गये थे ।
29 जुलाई पर 12:38 अपराह्न · नापसंद · 1

ओफ्फ! आज दूज का चाँद

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

ओफ्फ! आज दूज का चाँद

29 जुलाई 2014 पर 10:18 पूर्वाह्न


दूज का चाँद
जैसे हल्के-से, बहुत हल्के-से
लजाते-लजाते मुस्कुराया हो आसमान
और दिख गये हों तुम्हारे दाड़िम-से दाँत

दूज का चाँद
जैसे हल्के-से, बहुत हल्के-से
आयी हो हवा के संग
रोटी की सोंधी गंध
और सज गई हो माथे पर
तुम्हारे पसीने की दमकती पाँत

ओफ्फ! आज दूज का चाँद
रोती हुई माँ की गोद में
दुधुआ बच्चे की पहली-सी मुस्कान



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Prem Prabhakar, Shiv Shambhu Sharma, Sheel Kumaar और 24 अन्य को यह पसंद है.

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Praphull Jha " दाड़िम-से दाँत" ठेठ मैथिल, आहाँ के गोर लगैत छी
29 जुलाई पर 10:24 पूर्वाह्न · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान Praphull Jha हमहुँ अहाँ के गोर लगै छी...
29 जुलाई पर 10:26 पूर्वाह्न · पसंद


Ram Murari ओफ्फ! आज दूज का चाँद

रोती हुई माँ की गोद में

दुधुआ बच्चे की पहली-सी मुस्कान...
29 जुलाई पर 10:27 पूर्वाह्न · नापसंद · 3


Javed Usmani बहुत उम्दा
29 जुलाई पर 11:11 पूर्वाह्न · पसंद


Manzar Jameel bahut pyara,maza aa gaya.iss rachna mein bharatiya gaon ki mitti ki sugandh mili.
29 जुलाई पर 11:41 पूर्वाह्न · नापसंद · 1


Alpana Nayak ओफ्फ! आज दूज का चाँद

रोती हुई माँ की गोद में

दुधुआ बच्चे की पहली-सी मुस्कान- Offff ! kahaan se khoj laate hain itne sundar Upmaan ?
29 जुलाई पर 01:13 अपराह्न · नापसंद · 1

मालूम कीजिये

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
मालूम कीजिये

एक आदमी
देश छोड़कर भाग गया

मालूम हुआ
बुद्धि अधिक हो गयी थी

फिर एक आदमी
देश छोड़कर भाग गया
मालूम हुआ
पैसा अधिक हो गया था

बुधना
गाँव से भाग गया


मालूम नहीं क्या हुआ था

यह उसका देश है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
यह उसका देश है

वह
कौन लगता है हमारा
गुदड़ी में लिपटा हुआ
हर रोज गुजरता है जो
इस गली से
कुछ-कुछ बुद-बदाता हुआ

अब गुदड़ी और
सूट के बीच
बुझारत के लिए
रिश्ते की कौन-सी
जमीन शेष है

वह कौन लगता है
हमारा आपका हम सबका

उसे किस भाषा में
बतायें कि उसे प्यार करना चाहिए
यह उसका देश है

हमारी कविता में लगभग जबरन
वह आदमी दाखिल होता है
और पूछता है कि
चीथड़े की बीमारी का
कोई शर्त्तिया इलाज है
थान के पास

पूछता है कि वह
कौन लगता है
हमारा, आपका, हम सबका,

इस देश का

धरती ऊर्वरा है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
धरती ऊर्वरा है
इसी धुआँस की कोख से
निकलेगा
नया सूरज

यह सच है कि
आकाश जब कभी
सिकुड़ता है
सबसे पहले
सूरज की हत्या होती है

धरती ऊर्वरा है
धरती
नये आकाश को
आकार देती हुई
उछाल देती है नया सूरज
और किरणें
नई हवा के साथ
निकल पड़ती हैं
फाग की खोई हुई

लड़ी की खोज में

माँ धधकती है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
माँ धधकती है
धुआँती हुई
लकड़ी को फूँकती है
माँ धधकती है

बहते हुए आँसू
आग में पलकर
लाल लोहे की तरह
चमकते हैं
सिग्नल की जगह
मगन
नाचते हैं बच्चे
जुगनुओं के संग

फूली
नहीं समाती है रोटी
यकीनन
दुनिया के
सबसे बड़े
मनोरंजन का

नाम है रोटी

धराऊ

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
धराऊ
खनकती होगी धूप
किसी के आँगन में
गाती होगी
चाँदनी किसी की सिहरन में
इस पर कोई बहस नहीं

अपना वास्ता
उस धूप से है
जो दबे पाँव आती है
गिरबी रखे बासन की
स्मृति में
कौंध की तरह

अपना वास्ता
उस चाँदनी से है
जो ठिठक जाती है
पड़ोसी की छत पर
बड़े साइनबोर्ड की
चमक की जद में
फँसे धूल भरे नंगे पाँव की तरह

धूप चाँदनी हवा
जिस दिन तुम
ठीक कर पाओगे
हमारे जख्म
सहेज पाओगे
पसीना
उस दिन
हम सुबह-सुबह
नहायेंगे हुलास की नदी में
बनाकर कतार
हो जायेंगे खड़े
सपरिवार
और बच्चों को
ताली पर ताल देना
सिखाते हुए
रच देंगे उनके हर ओठ पर
एक नया गीत
मुस्कान में ढालकर
जो होगा धराऊ

जिसे वक्त रखेगा दुलारकर

रोपते हैं गीत और काटते हैं रुदन

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
रोपते हैं गीत और काटते हैं रुदन

बजाये जाते हैं नगाड़े
जब लड़ाये जाते हैं पहलवान

पहलवान
तोल ठोकते हैं
बच्चे पीटते हैं ताली
मजदूर
अपना गीत खुद गाते हैं
मालिक
घुमाते रहते हैं दुनाली

नगाड़े की आवाज
दूर-दूर तक ललकारती है
मजदूरों का गीत
पके धान-सा गुप-चुप
लह-लह मुस्काता है

अगहन के
कटे खेत की तरह
उदास हो जाता है
मजदूरों का चेहरा
रौंद दी जाती है
मुस्कानें
पके धान-सी
और खिलखिला उठते हैं
बड़े-बड़े बखार

कैसी रीति है कि
मजदूर
रोपते हैं गीत
और काटते हैं रुदन
इसलिए वाजिब नहीं है
रोपने और काटने का
समीकरण

जब तक खेत
बन नहीं पाते अनुकूल
हिस्से में आयेंगे

सिर्फ काँटेदार बबूल

धारा के विपरीत

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
धारा के विपरीत

नदी पर
तैरनेवाली नाव
धारा के
विपरीत तो चल सकती है
मगर मोड़ नहीं सकती है
नदी की धारा

नाविक
साबित करने में
अक्सर कामयाब हो जाते हैं कि
उन्हीं की मोहताज
है नदी की धारा

सच-सच
बताइये
संसद नहीं लगती है

किसी बड़े जहाज की तरह

लिखने में वक्त लगता है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
लिखने में वक्त लगता है

लिखने में वक्त लगता है, पढ़ने में उससे ज्यादा वक्त लगता है।
समझने में तो और भी ज्यादा।
हल्के-फुल्के मूड में पढ़ने का अपना मजा है तो, गंभीर पाठ से गुजरने का अपना आनंद।
अक्सर पाठक गंभीर पाठ पर अपनी बेबाक राय देने में
संकोच कर जाते हैं।
इस संकोच से सिद्ध लेखकों को तो शायद कोई खास क्षति नहीं होती होगी
लेकिन मेरे जैसे नये लोगों का तो विकास ही रुक जाता है।
आप इस विश्वास के साथ अपनी राय अवश्य दें कि
आप पाठ पर राय देते हुए असल में लेखक को रच रहे हैं।


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Noor Mohammad Noor, Sudhir Kumar Jatav, Sandeep Meel और 15 अन्य को यह पसंद है.


Neer Gulati एक अच्छा लेखक होने के लिए अच्छा पाठक होना जरूरी है.
7 घंटे पहले · नापसंद · 1


Ashish Anchinhar और सरजी कहीं रचनाकार बेबाक टिप्पणी पर गुस्सा हो गया तो............
6 घंटे पहले · पसंद


Rajnish Kumar मै तो यह कहना चाहूँगा की आपके लेखन की विधा के माध्यम से मैं एक अच्छे पाठक बनने की कोशिश कर रहा हूँ
6 घंटे पहले · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान Ashish Anchinhar हो गया तो हो गया। रचनाकार समझदार और सहमत हुआ तो मान लेगा नहीं तो बेबाक टिप्पणी का उतना ही बेबाक उत्तर देगा। टिप्णी देनेवाला रचनाकार की टिप्पणी से सहमत हुआ तो वह मान जायेगा। रचनाकार भी अपने घर, टिप्पणी देनेवाला भी अपने घर, रास्ता बंद।
5 घंटे पहले · पसंद · 1


Ashish Anchinhar सरजी अक्सर यही हो रहा है......
5 घंटे पहले · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान Ashish Anchinhar सर जी, आलोचना, टिप्पणी में असहमति और संतुलन की गुंजाइश दोनों तरफ रहने से इसकी आशंका कम रहती है... और कहीं इसमें अभद्रता घुस आई तो फिर क्या कहने...
5 घंटे पहले · पसंद · 1


Ashish Anchinhar सरजी ये तो भारत वर्ष की पुरातन व्यवस्था है कि जिसने आलोचना की वह अभद्र है और जिसने प्रशंसा की वह सर्वगुण संपन्न भद्र मानव है
5 घंटे पहले · संपादित · पसंद


Ashish Anchinhar अब वैसे भी अगर हमारी उम्र ५० के पार हो गई है तो उम्मीद करते है की सतही शेर पर भी लोग वाह-वाह करें।

ध्यान रहें कि उपर की पंक्ति मैने खुद केलिये लिखी है
5 घंटे पहले · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान Ashish Anchinhar सर, आलोचना और प्रशंसा को अनिवार्य विरोधी मान लेने के कारण भी कम गड़बड़ी नहीं हुई है। आलोचना नई विधा है।
5 घंटे पहले · पसंद · 1


Ashish Anchinhar आपके इस बात से सहमत हूँ सरजी। मगर आलोचना और प्रशंसा अनिवार्य रूप से साथ रहें कया ऐसा भी विधान है ?
5 घंटे पहले · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान Ashish Anchinhar सर, आलोचना और प्रशंसा को अनिवार्य विरोधी न मानने का अर्थ ही हुआ कि इनमें विरोध हो सकता है, लेकिन विरोध न हुआ तो आलोचना न हुई, यह नहीं माना जाना चाहिए। एक बात और यह भी कि असहमति किसी भी हाल में विरोध और निंदा नहीं होती है।
5 घंटे पहले · पसंद · 1


Ashish Anchinhar अपने आलोचना को अपने हिसाब से "अपना विरोध" बना डालने की गुण हम भारतीय लेखकों मे कूट कूट कर भरी है सरजी।

मान लीजिये आपने मेरे शेर को अपने दृष्टिकोण से उसे औसत माना (याद रहे मैं मूल रूप से शाइर ही हूँ और किसी अन्य को नहीं कह रहा हूँ) तो मै यह मान लूँ कि कोलख्यानजी मेरे विरोधी है ?...और देखें
4 घंटे पहले · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान Ashish Anchinhar बस मुस्कुराइये। आलोचना करनेवाले को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए कि उसके बारे में लेखक की क्या राय बन रही है... परवाह करनी चाहिए उस रचनाशीलता के बारे में जो रचनाकार की रचना में उभर कर आ रही है, कि कहीं वह आलोचना से क्षतिग्रस्त न हो जाये। आलोचना भाषा सुधार या वैयाकरणिक काम होते हुए भी मूल रूप से वह इससे भिन्न है। इंतजार करना चाहिए रचनाकार के मन और उसकी रचनाशीलता के स्थिर होने की सबकुछ तत्काल आलोच्य हो जाये जरूरी नहीं है..
4 घंटे पहले · संपादित · पसंद


योगेंद्र यादव मेरा मानना है की प्रत्येक लेखक को अपने लेख की खूबियों और कमजोरियों का भलीभांति ज्ञान होता है। आलोचना अगर उचित है तो यह विरोधी नहीं सुधार में सहयोगी ही होती है।
4 घंटे पहले · नापसंद · 2


Ashish Anchinhar सरजी मुस्कुराएँ तो मुस्कुराएँ कैसे जब लठैत लोग को लेखक महाशय पोसने लगे हो....
4 घंटे पहले · पसंद


Ashish Anchinhar वैसे जरूरी तो कुछ भी नहीं है सरजी.... लेखक का उतवाला होना भी जरूरी तो नहीं है
4 घंटे पहले · पसंद


Ashish Anchinhar लेकिन योगेन्द्रजी कोई महान लेखक आलोचना को असहयोगी मानते हुए आलोचक को दुश्मन मान ले तब क्या हो
4 घंटे पहले · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान योगेंद्र यादव सही कह रहे हैं आप। आलोचना कृति के बन/छप/सार्वजनिक हो जाने के बाद होती है और तब तक उस रचना में सुधार की गुंजाइश सामान्यतः समाप्त हो चुकी होती है। आलोचना के बाद किसी रचना में परिवर्त्तन हो यह संभव नहीं है। सुधार या कहें उस रचना के माध्यम सेऩई दृष्टि बिंदुओं का विकास आलोचना में होता है और यह परवर्त्ती रचना में प्रतिफलित होता है। कमलेश्वर का उपन्यास है 'कितने पाकिस्तान'। उसका छठा संस्करण आ चुकने के बाद नामवर सिंह के प्रधान संपादकत्व और परमानन्द श्रीवास्तव के संपादन में राजकमल प्रकाशन से निकलनेवाली 'आलोचना' पत्रिका में लिखने का प्रस्ताव मुझे मिला था। मैं 'कितने पाकिस्तान' लिख रहा हूँ, इस बात पर कमलेश्वर जी ने मुझ से खुशी जाहिर की। हालाँकि वह 'आलोचना' में छपने के लिए जा चुकी थी और छपी भी। कमलेश्वर जी उससे कितना खुश हुए, सहमत हुए या दुखी और असहमत हुए मुझे इसका इल्म नहीं है। आलोचना रचना के माध्यम या ब्याज से रचनाशीलता की होती है... रचनाकार की तो कभी नहीं..
4 घंटे पहले · पसंद · 1


प्रफुल्ल कोलख्यान Ashish Anchinhar लठैत पोसनेवाले लेखक, अगर कोई हो तो, के लेखन की आलोचना की क्या जरूरत है, यह नहीं समझ पा रहा हूँ।
4 घंटे पहले · संपादित · पसंद


Neel Kamal पाठक से आपकी प्रत्याशा क्या कुछ अधिक ही नहीं है ? लेखक के विकास की फ़िक्र भी पाठक ही करे ? क्यों ?
4 घंटे पहले · नापसंद · 1


Ashish Anchinhar हाँ यह बात आपने सही कही सरजी।
4 घंटे पहले · नापसंद · 1


प्रफुल्ल कोलख्यान Neel Kamal इसलिए कि लिखना और पढ़ना सह-क्रिया है। लेखक लिखते हुए अपने मन में पढ़ता हुआ चलता है और पाठक पढ़ते हुए अपने मन में लिखता हुआ चलता है। जिस लेखन में पाठक पढ़ते हुए अपने मन में लिखते चलने की गुंजाइश कम पाता है, वह उससे विरत हो जाता है। जब पाठक अपनी राय देता है तो लेखक को पता चल सकता है कि उसके लिखे को पढ़ते हुए पाठक ने अपने मन में क्या लिखा है, लिखा भी है कि नहीं, पाठक के लिए पढ़ते हुए लिखने की गुंजाइश थी/है ... नहीं...
4 घंटे पहले · पसंद · 2


योगेंद्र यादव आशीष जी अगर ऐसा है तो फिर या तो लेखक के महान होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता अथवा आलोचक की आलोचना किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होगी।
4 घंटे पहले · पसंद · 1


प्रफुल्ल कोलख्यान योगेंद्र यादव आलोचना (कृपया, आलोचक न पढ़ें) रचना (कृपया, रचनाकार न पढ़ें) के प्रति सम्मानशील होना ही चाहिए। आलोचना न तो औकात बताने का औजार है और न ही रचना के शासन का आधार है।
3 घंटे पहले · पसंद · 1


Neer Gulati दर्शन मैं तो आलोचना ही रचना का आधार होती है, साहित्य मैं बेशक नही होती.
3 घंटे पहले · पसंद


योगेंद्र यादव सहमत हूँ सर।आलोचना का आधार तो आलोच्य रचना ही होती है और किसी आलोचक का उद्देश्य भी सम्बंधित रचना के सापेक्ष सकारात्मक ही होता है नकारात्मक नहीं।
3 घंटे पहले · नापसंद · 1


Neel Kamal राय देने वाला पाठक भी तो आलोचक हो सकता है । वह एक साथ बेबाक और सम्मानशील रहे … आपका आशय क्या यही है ?
3 घंटे पहले · नापसंद · 2


Ashish Anchinhar बहुत ही सटीक प्रश्न उठाया आपने Neel Kamalजी
2 घंटे पहले · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान भाष्य, राय, विवेचना, समीक्षा, आलोचना... अंतर मिटता जा रहा है...
37 मिनट पहले · पसंद

Ashish Anchinhar सरजी जिस समाज का लेखक अपनी एक रचना पर आलोचना नहीँ झेल पाता हो उस समाज मे इतने अंतर रखकर विश्वयुद्ध करवाना है क्या
अभी अभी · पसंद