न थी

भाषा बेजुबान और आंख इतनी बेआवाज़ तो पहले न थी
हालात जैसे भी थे चेहरे पर मुस्कान इतनी नाकाम न थी
सड़क पर इंतजाम, इतना कुछ उसकी जिंदगी में भी न था
फलसफा बेआबरू कि जंग में शामिल मेरा गांव क्यों न था! 



बेखबर नदियाँ रहती हैं, शायद

बेखबर नदियाँ रहती हैं, शायद!
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समुद्र ठहरा दिखता है
मगर आंतरिक गतिमयताओं और हलचलों
को तो वही जानता है न! 
किस नदी की किस धारा के इंतजार में
ज्वार भाटा के आलिंगन में
पछाड़ खाता है
समुद्र जानता है
और जानता है थोड़ा थोड़ा चाँद भी!

समुद्र में न निर्माल्य विसर्जित होता है
न अस्थिकलश न राग न द्वेष
समुद्र में सिर्फ़ नदियों को
विसर्जित होने की अनुमति होती है।

ताकि नदियाँ बादल बनें
चाँद से खेलें मुक्त मनोभाव 
और टूटकर बरस जायें धरती पर
धरती के नवसृजन
नव शृंगार का संदेश बनकर
धरती की पर्वतमाला पर
मेखला का वैभव बनकर! 

यह कैसे होता है!
समुद्र को पता है।
पता चाँद को भी है। 
बेखबर नदियाँ रहती हैं, शायद! 
गति और गीत के नाद में!

खोई और मचलती हुई!
सृष्टि ऐसे ही चलती है
मेरी जान, ऐसे ही।

पुनर्परिभाषा का दौर

करोना का कहर हमारी समझ के कई महत्वपूर्ण संदर्भों की पुनर्परिभाषा के लिए हमें उकसा रहा है। इनमें एक महत्वपूर्ण संदर्भ है आजादी। आज आजादी को भी पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है। आजादी की यूटोपिया को समझने और निरस्त करने का दौर ये हो सकता है। गांधी जी ने अंतिम आदमी की सामग्रिक स्थिति से जोड़कर देखा। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने आजादी के सपने को इस तरह समझा कि जहाँ चित्त भय शून्य हो, माथा ऊँचा हो, ज्ञान मुक्त हो। 
नागार्जुन. मुक्तिबोध. रघुवीर सहाय आदि ने आजादी के यथार्थ को भिन्न तरह से देखा। 
अंग्रेजी में एक शब्द है independence जिसे हम सामान्यतः आजादी कहते हैं, हालांकि आत्मनिर्भरता अधिक करीब है। अंग्रेजी में एक शब्द है liberation जिसे हम सामान्यतः मुक्ति कहते हैं, हालांकि उदारता अधिक करीब है। 
आजादी, आत्मनिर्भरता, मुक्ति के और उदारता सभी सापेक्षिक अवधारणाएं हैं। 
गुलामी क्या है! कुछ संकेत तो ज्योतिबा फूले की किताब गुलामीगिरी से मिल जायेंगे। बाहरी आजादी या external independence इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह आंतरिक मुक्ति internal liberation को सुनिश्चित करती है।
internal liberation या आंतरिक मुक्ति का अभाव external independence को प्रश्नांकित करती है, चुनौती देती है। यह चुनौती खतरनाक हद तक पहुंचे, इसके पहले समय रहते, इन्हें यथार्थ के आइने में पुनर्परिभाषित कर नये सपनों के आकाश में इंद्रधनुष रचने की जरूरत को समझना होगा। 



वक्त बदलने का मतलब

कल 'पर बरहमन झूठा है : कोलकाता में कोलख्यान' की सोलहवीं कड़ी पर फेसबुक रूबरु (लाइव) पर Hitendra Patel भी हमारे साथ रहे। उन्होंने वक्त बदल रहा है को थोड़ा और साफ करने की जरूरत की ओर इशारा किया। इस सक्रिय भागीदारी के लिए मैं उनका आभार मानता हूँ। इस प्रसंग पर भी आज शाम रूबरु में शाम 07.00 बजे संभव हुआ तो चर्चा की जायेगी।
फिलहाल, तो यह कि
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जिस क्रम में वस्तु का निवास होता है उसे स्थान कहते हैं।जितनी देर में धरती सूर्य की परिक्रमा पूरी करती है, उसे हम 24 घंटा में बाँटकर एकत्र 
करते हैं, यह प्राकृतिक
समय है।
जितनी देर में हम किसी काम को कर लेते हैं वह हमारा व्यक्तिगत वक्त होता है। अब दो व्यक्ति एक काम को संपन्न करने में अलग-अलग समय लगा सकते हैं। इससे उनके 
वक्त में अंतर को समझा जा सकता है। काम का संपन्न होना सामूहिकता 
 पर निर्भर होता है। व्यक्तिगत
वक्त समूह के अधीन होता
है। कई बार इसे वर्क इनवायारामेंट और वर्क
कल्चर के रूप में हम समझते हैं। काम और उपभोग के अवसर और आधिकारिकता
(इंटाइटेलमेंट, संदर्भ अमर्त्य 
कुमार सेन) की स्थिति पर
वक्त का अच्छा या बुरा होना
निर्भर करता है। जिसके पास
यह अवसर और आधिकारिकता जितना अधिक होती है, उसका
वक्त उतना अच्छा होता है। काम के अवसर और आधिकारिकता का सामान्य रूप से व्यापक अभाव, सामान्य और व्यापक रूप से समय का खराब होना है। वक्त के बदलने का मतलब
क्रिया की संपन्नता में बदलाव
की प्रक्रियाओं में बदलने से
होता है। इसमें वर्क कल्चर
को जोड़कर विचार करें तो
काम के अवसर और उपभोग
के अवसर की जटिलताओं में
होनेवाले बदलाव से भी समझा
जा सकता है। इस तरह से हम अपने वक्त में बदलाव को समझ सकते हैं। औकात असल में वक्त का बहुवचन है। और वक्त!
वक्त काम और उपभोग के 
अवसर से जुड़ा है। काम और उपभोग के अवसर और आधिकारिकता का बदलना, औकात का बदलना है। काम और उपभोग के अवसर में असामंजस्य और असंतुलन वक्त को खराब बना देता है। 
हमारा वक्त कैसा है!
फैसला आप कर सकते हैं। वक्त के बदलने का मतलब
क्रिया की संपन्नता में बदलाव
की प्रक्रियाओं में बदलाव से
होता है। इसमें वर्क कल्चर
को जोड़कर विचार करें तो
काम के अवसर और उपभोग
के अवसर की जटिलताओं में
होनेवाले बदलाव से भी समझा
जा सकता है।

करोना की सीख और सलाह

करोना का कहर जारी है। पूरी दुनिया इससे अपने-अपने तरीके से बचाव में लगी हुई है। हमारी सरकारें भी यथासंभव सूझबूझ से निपट रही है। एक बात जो साफ-साफ नजर आ रही है वह यह कि नजरिया हमारा चाहे जो हो, कुछ मामलों में, खासकर असंगठित आबादी और दिहाड़ी मजदूरों के बारे में, स्पष्ट नीति निरुपण की तत्काल जरूरत है। 
करोना की सीख हमारे राज्यों की आंतरिक सीमाएं इतनी निष्प्रभावी नहीं हैं, जितनी वे अपनी सुप्तावस्था में अब तक लगती रही हैं। 
निवासीयता के साथ ही रिहाइशीयता का सवाल भी महत्वपूर्ण हो गया है। निवासीयता पर रिहाइशीयता भारी है। निवासीयता भले भारतीय हो, रिहाइशीयता अपने-अपने राज्यों, जिलों और पंचायतों की है। 
रोजी-रोटी की तलाश में अपने राज्य, जिला और पंचायत से बाहर जानेवालों का संबंधित ब्यौरा, यथाप्रसंग, राज्य, जिला, पंचायत के पास प्रामाणिक तौर पर रखा जाना जरूरी किया जाना चाहिए। राज्य से बाहर अपने मानव संसाधन के नियोजन से मुनाफा की एक निश्चित राशि को राज्यों के खजाने में जमा किया जाना चाहिए। इस राशि का इस्तेमाल राज्य से बाहर नियोजित मानव संसाधन की सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए किये जाने का प्रावधान किया जाना चाहिए। 
दिहाड़ी मजदूर को हम निकृष्टतम अर्थ में प्रवासी या बाहरी मान चुके हैं तो उसकी रिहाइशीयता के संदर्भ को अधिक जीवंत और प्रभावी बनाया जाना जरूरी है। संबंधित श्रम कानूनों को श्रमिक अधिकार, मानवाधिकार और नागरिक अधिकार के परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित किया जाना चाहिए। 
विपत्ति कभी भी और किसी भी रूप नाम से आ सकती है, हमें अपने संदर्भों को समय रहते पुनर्गठित करने के लिए तत्पर होना चाहिए। एक नागरिक की यह सहज चिंता है और इसका सिर्फ सामाजिक परिप्रेक्ष्य है। 

प्रेमचंद की कहानी - नशा

हो सके तो, ऐसे साहित्यकारों की अदृश्य होती स्थिति और लुप्त होती निर्मिति में अपनी अदृश्य भूमिका को पहचानने और समझने की कोशिश कीजिए। 

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प्रेमचंद की एक कहानी है नशा। नशा का नैरेटर समतामूलक विचार और समाज का पैरोकार है। जमींदार परिवार से आये अपने सहपाठी के सामंती व्यवहार के लिए उसे कोसता रहता है। एक बार वह सहपाठी जमींदार के साथ उसके गांव जाता है। इस शर्त के साथ कि उसे वहां कुछ दिन के लिए जमींदारी परिवेश के अनुरूप आचरण करना होगा। इस शर्त का पालन करने के क्रम में वह सत्ता के नशे में जीने लगता है। लौटते समय रेल सफर में एक हादसा होता है। वह एक ग्रामीण यात्री के साथ अमानवीय आचरण कर बैठता है। उसके बाद, एक सहयात्री ग्रामीण बोला- "दफ्तरन माँ घुसन तो पावत नहीं, उस पर इत्ता मिजाज!

ईश्वरी ने अंग्रेजी मे कहा- What an idiot you are, Bir! (बीर, तुम कितने मूर्ख हो !) और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मालूम होता था।" इस

नशा कहानी की याद आ गई तो मैं ने सिर्फ याद दिलायी है, कहानी के साथ सफर कोई अकेले करे तो बेहतर। 

नवाबराय के नाम से लिखने वाले व्यक्ति धनपतराय श्रीवास्तव ने अकेले प्रेमचंद नामक लेखक का उपार्जन किया था! नहीं इसके पीछे दयानारायण निगम की भूमिका थी। प्रेमचंद और दयानारायण निगम बहुत गहरे मित्र थे। नवाबराय के नाम से लिखनेवाले धनपतराय श्रीवास्तव को प्रेमचंद नाम दयानारायण निगम ने ही सुझाया। 

दयानारायण निगम कानपुर से निकलनेवाली जमाना नाम की उर्दू पत्रिका के संपादक थे। प्रेमचंद की पहली कहानी 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' पहली बार इसी जमाना में छपी थी। जमाना में ही पहली बार इक़बाल की रचना, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, भी छपी थी। दयाराम निगम के साथ प्रेमचंद का सघन और गहन पत्राचार भी होता था, जिसका अधिकांश अब प्रकाशित है। 

दयानारायण निगम के पीछे भी कोई व्यक्ति, कोई प्रेरणा रही होगी। मूल बात यह कि कोई दयानारायण निगम न हो तो किसी धनपतराय श्रीवास्तव का प्रेमचंद में कल्पातंरण कैसे हो! यों ही नहीं लेखक बनता है। लेखकों की बनक के पीछे झांकिए तो पता चलता है कि इतिहास के गत्तों में गुम हो जाने की शर्त पर भी समाज को गुमराह करनेवाली शक्तियों से बचाने के लिए दयानारायणों की कैसी अदृश्य भूमिका सक्रिय रहती है। अब तो प्रेमचंद की भूमिका भी अदृश्य होती दिख रही है। अचंभा होता है कि जिस हिंदी समाज के पास प्रेमचंद और उन जैसे कई साहित्यकार हैं वह समाज इतना भाव विपन्न कैसे हो सकता है! हो सके तो, ऐसे साहित्यकारों की अदृश्य होती स्थिति और लुप्त होती निर्मिति में अपनी अदृश्य भूमिका को पहचानने और समझने की कोशिश कीजिए। 

फिलहाल, कहीं प्रेमचंद की कहानी नशा पढ़ने की कोशिश कीजिए और मुझे भी बताइए। 


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यों दान तो देता है दिल खोलकर बहुत

यों तो अलग रहने के कायदे थे बहुत

ये आलमी जंग तो उनमें शुमार न था

यों पहले बीमारियाँ थी जहां में बहुत

हां तुम्हारा नाम तो उनमें शुमार न था

यों तो जुर्म थे पहले दर्ज खाते में बहुत उन में तेरी करतूत का तो शुमार न था

यों परिंदों पर तो पाबंदी नहीं थी बहुत जमीन पर कोई इंसानी किरदार न था


रोजी रोटी में कोताही थी पहले ही बहुत 

सांसों और ख्वाहिशों का पहरेदार न था


जिंदगी में खुशी और गम के रंग थे बहुत 

हालांकि मरने से तो कभी इन्कार न था

यों तो कशिश थी तेरी अदाओं में बहुत नाक के नीचे अगरचे कोई इसरार न था

पिछले चुनावों में फूल तो बिके थे बहुत हालांकि दिल अवाम का गुलज़ार न था

यों दान तो देता है दिल खोलकर बहुत कह रहा कोई वह शख्स देनदार न था







करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था

करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था

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करोना का प्रकोप दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। अधिकृत सरकारी और प्रशासनिक निर्देशों का पालन कड़ाई से करना जरूरी है। इस समय बहुत ही डरावनी स्थिति है। अलग रहना ही सब के साथ होना है। 

सभ्यता का इतिहास जब लिखा जायेगा तब पिछले चालीस साल का एक अलग अध्याय होगा। 1980 से 2020 के बीच दुनिया का चक्का बहुत तेजी से घूमा, इतनी तेजी से घूमा कि इसकी धूरी ही दरक गई। करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था के बदलाव की कथा इतिहास की सिसकियों के साथ लिखी जायेगी। जाने मेरा मन क्यों ऐसा संकेत दे रहा है! मन यानी 6ठी इंद्रिय। 6ठी इंद्रिय के पास संकेत तो होते हैं, सबूत नहीं होते हैं। 6ठी इंद्रिय पर बात करने के पहले कुछ और शब्दों पर बात कर लेते हैं, जरूरी है। साहित्य तो सभ्यता की अंतर्ध्वनि को शब्दों से ही पकड़ता है, इसलिए शब्द। 

इन दिनों चाणक्य की चर्चा आम जुबान पर रहती है, सूत्र यहीं से सुलझाते हैं। साम, दाम, भय, भेद, दंड, माया, उपेक्षा, इंद्रजाल।। साम यानी प्रशंसा, पुरस्कार। दाम यानी पैसा, वस्तु भी। भय यानी असुरक्षा की आशंका। भेद यानी रहस्य। दंड यानी शक्ति का कोप। माया जो है ही नहीं या जो है उस पर जो नहीं है उसकी प्रतीति। उपेक्षा यानी जो है उसका होना न होने जैसा कर दिया जाये। ये सभी अलग-अलग सूत्र हैं जो अस्ल में नाभिनालबद्ध होकर भीतर से एक ही होते हैं। जब साम, दाम, भय, भेद, दंड, उपेक्षा और माया का इस्तेमाल कर लिया जाता है तब बारी आती है इंद्रजाल की। इंद्रजाल यानी जादू, धोखा का शक्ति का जाल। इंद्र देवताओं के राजा रहे हैं। महा शासक। अब इंद्र से इंद्रजाल का क्या रिश्ता हो सकता है! इस रिश्ते को मिलकर समझना और खोजना होगा। बहर हाल यह कि इंद्रजाल के प्रभाव में आई आबादी की इंद्रियों में दिमाग को सही सूचना देने में शक्ति नहीं रह जाती है। इसलिए ईश्वर को भी इंद्रियातीत, यानी बियांड इंद्रिय, अर्थात इंद्रियों के प्रभाव से पार जाकर ही समझा जा सकता है। ईश्वर यानी सत्य। सत्य जो न होकर भी नहीं होता है और होकर तो होता ही है। इसकी सूचना दिमाग को जिस से मिलती है उसी का नाम 6ठी इंद्रिय है। जी, 6ठी इंद्रिय! 6ठी इंद्रिय, जो न होकर भी होती है और होकर तो होती है। उसी 6ठी इंद्रिय का संकेत मानें तो यही लगता है कि करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था के बदलाव की कथा इतिहास की सिसकियों के साथ लिखी जायेगी।

विज्ञान और धर्म

विज्ञान और धर्म 

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करोना से बचाव के लिए अपनाई गई एहतियाती सामाजिक दूरी के हवाले से कुछ लोग विज्ञान और धर्म की उपयोगिता से जोड़ कर टिप्पणी करते हुए कह रहे हैं कि संकट की इस घड़ी में विज्ञान ड्यूटी पर है और धर्म छुट्टी पर! उनका इशारा अस्पतालों को खुले रखने और उपासना स्थलों को बंद रखने की स्थिति की तरफ है। इस इशारे में थोड़ा तंज भी है। यह तुलना समीचीन नहीं है। 

व्यक्तिगत आस्था जो भी हो, धर्म के पुरोहितवादी रुझान को बाद देकर देखा जाये तो धर्म मनुष्य की भिन्न जरूरतों को पूरा करता है और विज्ञान भिन्न जरूरतों को पूरा करता है। विज्ञान से भी जीवन में कम विसंगतियां नहीं पैदा हुई है। जानता हूँ कि यह बहुत बड़ा, यह बहुआयामी और संवेदनशील विषय है। कई तरह से बात की जा सकती है। इस प्रसंग पर अभी अधिक कुछ नहीं कहते हुए भी इतना कहना जरूरी है कि इस समय इस मुद्दे पर समग्र रूप से तंज करना न सिर्फ़ अनावश्यक है, बल्कि हानिकारक भी है। 

युद्ध और अकाल

युद्ध और अकाल
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युद्ध और अकाल बहुत नजदीकी रिश्तेदार हैं, साथ-साथ चलते हैं। इसलिए यह बहस फिलहाल बहुत जरूरी नहीं है। मनुष्य दोनों का मुकाबला करता आया है। अभी पूरी दुनिया में युद्ध जैसी स्थिति है। अकाल की स्थिति भी बहुत दूर नहीं है। अमर्त्य सेन ने यह साबित किया है कि अकाल वस्तु की उपलब्धता के अभाव से नहीं, बल्कि आधिकारिकता, इंटाइटेलमेंट, क्रय शक्ति में आई कमी से पैदा होता है। हमारी बहुत बहुत बड़ी आबादी क्रय शक्ति में होनेवाली कमी के सामने है। क्रय शक्ति में कमी का संबंध रोजगार के अभाव और उच्च महगाई दर से होता है।
हम करोना से युद्ध के साथ ही क्रय शक्ति के अभाव में अकाल के सामने हैं। इस समय धूमिल की कविता याद आ रही है। पूरी कविता के बजाय यहां उसकी एक उक्ति की याद आ रही है, दया अकाल की और एकता युद्ध की पूजी है। हमें इस युद्ध को जीतना ही होगा और अकाल के पहाड़ के पार भी जाना होगा। उस पार जहां मुक्तिबोध के शब्दों में सुनील जल में कांपता रहता है रक्त कमल।

करोना का कोहराम

करोना का कोहराम
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इस समय करोना का कोहराम मचा हुआ है। राज्य सरकारें अपनी सीमाओं को बंद कर रही है। एक तरह से यह जरूरी है। हर किसी को इसमें हर प्रकार से सहयोग करना चाहिए, मानसिक, संवेदनात्मक स्तर पर भी। यह विपत्ति का समय है। विपत्ति बीत जाने के बाद भी अपने कुछ सक्रिय निशान छोड़ जाती है।
नागरिक और निवासी का फर्क अधिक तीखा हो रहा है। नागरिक हम भारत के ह हैं और निवासी किसी न किसी राज्य के। नागरिकता स्थाई है लेकिन नैवासिकता स्थाई और अस्थ अस्थाई दोनों हो सकती है। बल्कि, बहुत बड़ी आवादी स्थाई नागरिकता के साथ अस्थाई ननैवासिकता में रह रही है। इस संबंध में उत्पन्न नई स्थिति पर भी नजर रखने की जरूरत है। बहरहाल ये संकेत भर है, इस समय तो सामाजिक दूरी के लिए सहयोग में ही संक्रमण से सुरक्षा की संभावना है। 

घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु।

घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु।

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सामाजिक दूरी में सुरक्षा की संभावना तलाशते हुए हमें इस बात के प्रति भी सचेत रहना होगा कि यह मानसिक दूरी में न बदलने लगे। सामाजिक दूरी में सुरक्षा की संभावना बहुत संवेदनशील मामला है। परिवार में इस समय संवाद और संवेदनशील आचरण की जरूरत है। पीढ़ियों के बीच के बीच के अंतराल को पाटते हुए संवाद की जरूरत है। जेंडर सेंसेटिव, अर्थात स्त्री पुरुष के बीच संवेदनशील व्यवहार की जरूरत है। घरेलू काम को जेंडर निरपेक्ष होकर किये जाने की जरूरत है। घरेलू काम में घर की साफ सफाई से लेकर धोने मांजने और बच्चों की जिज्ञासाओं को बिना खीझे पूरा किया जाना भी शामिल है। एक दूसरे को अवसाद से दूर रखने और विवाद के किसी भी प्रकरण को विनोद में बदलने के कौशल का उपयोग भी घरेलू काम में शामिल है। 

घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु। 

विरोध और समर्थन

विरोध और समर्थन लोकतंत्र में लोकव्यवहार का आवश्यक उपकरण है। किसी भी मुद्दे पर सभी लोग एकमत या सहमत हों यह जरूरी नहीं होता है। लोकतंत्र सर्वसम्मत से नहीं बहुमत से चलता है। बहुमत तभी तक लोकतंत्र की सेवा करता है जब तक उसमें सब का सहयोग हासिल करने और अल्पमत के मूल्यवान तत्व के संयोजित करने की कोशिश का हौसला बचा रहता है। कोशिश में नाकामी की कशिश बची रहती है। भारतीय वृहदाख्यान (मेगा टेक्स्ट) में आंख और कान की प्रतिबंधकता से उत्पन्न संकटों के संदर्भ में हिंदी आलोचक विनोद शाही ने अपनी किताब में विस्तार से लिखा है, श्रवण कुम्हार और धृतराष्ट्र का संदर्भ याद किया है, समझा है समझाने की कोशिश की है। अंधत्व या अंधापन आंख की प्रतिबंधकता से उतना नहीं जुड़ा है, जितना पूर्वग्रहों को प्रतिबद्धता मानकर अभिमत बनाने और उसके सामाजिक प्रसार से जुड़ा है। अंध समर्थन बुरा है, बहुत बुरा है। अंथ विरोध भी बुरा है और बहुत बुरा है। अस्ल में अंधत्व बुरा है। अंध समर्थन और अंध विरोध के इस घनीभूत समय में कभी इसके और कभी उसके उचित के साथ होनेवाले को दोनों तरफ की ओर से बेपेंदी का कहकर मजाक उड़ाया जाता है। अंध समर्थन से समर्थन की सार्थकता और धार खत्म होती है। अंध विरोध से विरोध की भी सार्थकता, स्वीकार्यता और धार खत्म ही होती है। लोकतंत्र को अंधलोकवाद से बचाने के लिए अंध समर्थन और अंध विरोध के ब्यूह से बाहर निकलना ही होगा, बेपेंदी का मान लिए जाने का जोखिम चाहे जितना हो। 

प्रियता की परवाह किये बिना किया जानलेवा यह साहस आसान नहीं है। आखिर कृष्ण को भी अर्जुन तभी तक प्रिय थे जब तक उनकी दी हुई दृष्टि से जगत को देखते रहे। अपने समय के कई अच्छे लोगों को अंध समर्थन और अंध विरोध के ब्यूह में पड़ा देखकर बहुत पीड़ा होती है। इस ब्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है? रास्ता का अंत कभी नहीं होता! कोई-न-कोई रास्ता तो होना ही चाहिए। 

ऊँचा कद, ऊँचा पद


ऊँचा कद, ऊँचा पद

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ऐसा अवसर देखने में कम ही आता है जब इतिहास में किसी व्यक्ति का कद भी ऊँचा हो और पद भी ऊँचा हो। आज भौतिक विकास का जो ढाँचा हमारे समय प्रचलन में है, उसमें क्षैतिजीय विकास पर नहीं बल्कि लंबवत विकास पर ही जोर है। ऐसे में ऊँचाई का अपना महत्व है। इस ऊँचाई के हासिल में होने में कद और पद दोनों की बड़ी भूमिका होती है। अधिकतर मामलों में व्यक्ति अपने पद के आधार पर ऊँचाई को हासिल करते हैं। पद की ऊँचाई कद की ऊँचाई के अभाव में व्यक्ति को गरूर के ऐसे भँवर में डाल देती है कि उससे उसका व्यक्तित्व का वास्तविक सम्मान भयानक छीजन का शिकार हो कर इतिहास के कचरा घर में खो जाता है। इतिहास बहुत क्रूर होता है, निर्मम भी। संवेदनशील लोग, उनकी विचारधारा कुछ भी हो, अपने एकांत में इस बात को बहुत गहराई से समझते हैं। चलिए, आप को अटल बिहारी वाजपेयी की कविताई के एक अंश की याद दिलाता हूँ।

धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कलि न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़
हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।

हे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले लगा न सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
(अटल बिहारी वाजपेयी की कविता का एक अंश, साभार)

बुद्धि भ्रंश Intellect Deficit


बुद्धि भ्रंश
Intellect Deficit

यह मान लेने में गुरेज करने की कोई वजह नहीं है कि हम बुद्धि भ्रंश के भयानक दौर से गुजर रहे हैं। नहीं क्या? इस बुद्धि भ्रंश या इंटिलेक्ट डेफिसीट को गंभीरता से समझने की कोशिश करनी चाहिए। बुद्धि या इंटलेक्ट क्या होती है, पहले तो यही समझना होगा। intellect deficit और intellect disability के अंतर को भी ध्यान में रखना होगा। डिसएबिलीटी या विकलांगता सामान्यतः, व्यक्तिगत और स्थाई किस्म की होती है जब कि प्रभावी डेफिसीट सामूहिक और अस्थाई किस्म की होती है। मोटे तौर पर डिसएबिलीटी व्यक्ति के अपने आंतरिक असामंजस्य या संकट से उत्पन्न होती है तथा उससे अधिकतर मामलों में प्राथमिक स्तर पर केवल व्यक्ति ही दुष्प्रभावित होता है जब कि डेफिसीट समाज के अपने आंतरिक असामंजस्य या संकट से उत्पन्न होती है और प्राथमिक स्तर पर व्यापक समााज दुष्पप्रभावित होता है। समाज के इस संकट में फँस जाने के कारण समाज सर्वनाश के मुहाने पर पहुँच जाता है। इतना इशारा काफी है।
इंटिलेक्ट वह क्षमता है जिससे विचारों और तरकीबों को विश्लेषित किया जाता है, निष्कर्ष निकाले जाते हैं और उसे माना जाता है, निष्कर्ष की स्वीकृति का मानसिक माहौल बना रहता है। इसे कैसे समझा जाये! हिंदी साहित्य से कुछ उदाहरण ले सकते हैं। हिंदी के कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता हमें बताती है, जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। इस विवेक पर ध्यान देना जरूरी है। एक इशारा और करना जरूरी लग रहा है। यूरोपीय नवजागरण जिसे ज्ञानोदय का युग  या the age of enlightenment  कहा जाता है। इस इनलाइटमेंट के पीछे विवेक सक्रिय था बुद्धिवाद के तर्क की जगह इसे विवेकवाद के संदर्भ से समझा जा सकता है और इसमें दार्शनिक कांट (Immanuel Kant 1724–1804) आदि हमारी मदद कर सकते हैं। लेकिन हमें रामचरितमानस लिखनेवाले तुलसीदास की याद आ रही है, उनकी कविता में उल्लेख है कि बिन सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिन सुलभ न सोई । यानी विवेक गहरा संबंध सत्संग से होता है। राम कृपा को हम पक्षपात रहित या पक्ष निरपेक्ष बुद्धिवाद के समाज-मानसिक उत्पाद के तौर पर देख सकते हैं। बहरहाल, सवाल यह है कि क्या हम  बुद्धि भ्रंश या intellect deficit के भयानक दौर से गुजर रहे हैं। हम यह समझने मानने को तैयार ही नहीं हैं कि लंबे समय में हमारे हित में क्या है, अहित में क्या है। बुद्धि भ्रंश या intellect deficit के चलते हमारा विवेक मर नहीं भी गया हो तो निकृष्टतम सामाजिक निष्क्रियता का शिकार हो गया है। इस पर सोचने की जरूरत है कि लंबे समय में बनी इस इस फाँस से कैसे बाहर निकला जा सकता है।  

राष्ट्रवाद का नया चेहरा नहीं, नये राष्ट्रवाद का चेहरा


राष्ट्रवाद का नया चेहरा नहीं, नये राष्ट्रवाद का चेहरा

भारत में राष्ट्रवाद का मोटे तौर पर अंग्रेजों से मुक्ति के  संघर्ष के दौरान विकसित हुआ। इसका व्यावहारिक पक्ष 1857 में दिखता है। 1857 में किसान जनता का बड़ा हिस्सा शामिल हुआ। यह सिर्फ सिपाहियों का मामला होता तो बलिया बागी क्यों होता! देश के साधारण जन पर अंग्रेजी हुकूमत का ऐसा कहर क्यों ढाया गया होता! 1857 पर काबू पाना आसान नहीं था, मगर पा लिया गया। कैसे काबू पाया गया, इस पर अभी यहाँ बात करने का अवकाश नहीं। अभी तो इतना ही कि 1857 पर काबू पाने के बाद अंग्रेज जो अपनी समझ से हिंदू मुसलमान को न सिर्फ अलग मान रहे थे, बल्कि एक दूसरे के विरोधी भी मान कर चल रहे थे। उन्हें भरोसा था कि उन्होंने राजपाट मुसलमानों का छीना है तो विरोध सिर्फ वहीं से होगा। दलित प्रताड़ित जनता तो खुद अपने लोगों से सदियों से परेशान हैं, तो खतरा वहाँ से भी नहीं हो सकता है। मगर ऐसा नहीं हुआ। उसमें हिंदू (सदियों से शोषित-प्रताड़ित जनता सहित) मुसलमान एक साथ मिलकर उनके विरुद्ध खड़े हो गये। हिंदू मुसलमान का एक साथ मिलकर खड़ा हो जाना भारतीय राष्ट्रवाद की पहली उठान था। अंग्रेज इस बात पर भौंचक्के रह गये थे। उनके बुद्धिजीवियों ने सलाह दी कि भारत को नहीं जानने के कारण ऐसा हुआ। उन्होंने भारत को जानने की कोशिश शुरू की। एक निष्कर्ष यह निकाला कि किसी देश पर शासन करने और जनता को काबू में रखने के लिए उसके धार्मिक रीति रिवाज और मान्यताओं को जानना बेहद जरूरी है। वैसा ही जरूरी है जैसा युद्धरत दुश्मन की शक्ति और शक्ति के स्रोत को जानना जरूरी है।
1857 पर काबू पा लिया गया था, मगर भरोसा हिल गया था। वे भारत के राष्ट्रवाद में निहित शक्ति को पहचान गये थे। बहुत जल्दी उन्होंने अपने प्रोजेक्ट की रूप रेखा बनाई और उस पर अमल शुरू कर दिया। नतीजा भारतीय राष्ट्रवाद बिखर तो नहीं गया, लेकिन दो फाड़ जरूर हो गया। द्विराष्ट्रीयता का सिद्धांत सक्रिय हो गया। यह नया राष्ट्रवाद था। जिसे स्थानापन्न राष्ट्रवाद कहा गया। जिसकी त्रासद परिणति भारत विभाजन के रूप में सामने आयी। पढ़ा-लिखा, समझ कुछ भी काम नहीं आया। यह इसलिए हुआ कि अंततः राष्ट्रवाद से जनता को विच्छिन्न कर दिया गया और दलों के राष्ट्रवाद ने उसका स्थान ले लिया। जनता हिंदू हो या मुसलमान लगभग ताकती रह गयी, दोष किसका था, कितना था, गिन-गिनकर क्या होगा! मतलब कि बात इतनी ही है कि विधाताओं ने नारकीय दुखों की पटकथा लिख दी। दलों के राष्ट्रवाद या कह लें स्थानापन्न राष्ट्रवाद से भारत परेशान और लहूलुहान होता रहा।
अब ऐसा लग रहा है कि भारत का पहले उभार का राष्ट्रवाद अपने नये रूप में प्रकट हो रहा है। इस अर्थ में यह भारत का नया राष्ट्रवाद है। इस में दलों की भूमिका सिकुड़कर शून्य होती चली जा रही है। यह बात समझ में आनी चाहिए कि भारत की विशिष्टताओं को, उसकी अंतर्निहित बहुलताओं को सुगठित दलों ने नहीं बिखरी-बिखरी-सी दिखने और लगने वाली जनता ने बनाया है, और वही उसे बचा ले जायेगी। मेरा अध्ययन सीमित है, ज्ञान तो खैर बहुत ही अपर्याप्त है। मूल रूप से जो भी सीखा है, बस साहित्य से सीखा है, इसलिए इस पर भरोसा कर लेगा कोई कि नये राष्ट्रवाद के चेहरे को पढ़ने में कोई गलती नहीं कर रहा हूँ, मैं नहीं मानता हूँ। लेकिन साहित्य समाज और जनतंत्र से जुड़ी संवेदना यही पढ़ पा रही है कि यह राष्ट्रवाद का नया चेहरा नहीं, नये राष्ट्रवाद का चेहरा है। यह मेरा भ्रम तो, भ्रम ही सही। हो अतिकथन, तो वही सही,  मैं भी फ़ैज अहमद फ़ैज को याद कर लेता हूँ और क्षमा सहित भरोसा कर लेता हूँ कि वो इंतजार था जिसका ये वही सहर है, ये वही सहर है चले थे जिसकी आरजू लेकर!

अपवाद की तरह जीना क्या होता है


अपवाद की तरह जीना क्या होता है
प्रफुल्ल कोलख्यान

मनुष्य इसलिए भी अन्य प्राणियों से अलग इस सृष्टि में अपना स्थान बना पाया है तो इसका एक प्रमुख कारण यह है कि इसने अपनी भाषा को विकसित किया है। भाषा के बनने या होने में व्याकरण की बड़ी भूमिका होती है। व्याकरण पढ़ते समय हम देखते हैं कि भाषा में कुछ नियम ऐसे होते हैं जिन पर उस भाषा के साधारण नियम लागू नहीं होते हैं, इन्हें अपवाद की श्रेणी में डाल दिया जाता है। अपवादों पर नियम लागू नहीं होते, इसलिए नियमों के आधार पर उन्हें गलत नहीं ठहराया जा सकता है। भाषा के विकसित होने में इन अपवादों की बड़ी भूमिका होती है। यही जीवन में भी होता है। विकसित भाषा ने उसे बहुत बड़ी ताकत दी है, कौशल दिया है। सृष्टि के जीव जंतु पर गौर करने से यह बात समझ में आ सकती है कि मनुष्य उन में अपवाद है। बात खुद-ब-खुद समझ में आ सकती है, फिर भी कुछ उदाहरण। संसार का कोई प्राणी कपड़ा नहीं पहनता, किसी प्राणी ने अपने लिए स्कूल-कॉलेज, गाड़ी-घोड़े की व्यवस्था नहीं की है, इत्यादि।
मनुष्य अपने आप में एक अपवाद है। मनुष्य इसलिए भी अपवाद है कि उसने अपवाद के महत्व को समझा और उसे अपने बीच जगह दी। विकास के जितने भी प्रकरण हैं उन के होने में अपवादों की गहरी भूमिका है, इसके साथ यह भी कि उन अपवादों के वजूद को कायम रखने में नियमों की भूमिका भी कोई कम बड़ी नहीं है। इस बात को स्वीकार करते हुए भी, यह तो मानना ही होगा कि नियमवालों ने अपवादों की जिंदगी को कम मुसीबत में नहीं डाला। वैसे तो जरूरत नहीं है, फिर भी कुछ उदाहरण का उल्लेख इस से बात को समझने में मदद मिल सकती है। सुकरात, गौतम, वाल्मीकि, शेक्सपीयर, एडीसन, विवेकानंद, तुलसी, कबीर, गाँधी, आंबेदकर, भगत सिंह, बिल गेट्स और इन जैसे बहुत सारे लोग आदि अपवाद ही तो हैं। उनकी जीवनी को समझें तो पता चलते देर नहीं लगेगी कि अपवादों का जीना, खासकर प्रारंभ में, कितना मुश्किल होता है। सवाल उठता है कि कुछ को नियम से बाहर रहने को क्यों मान लिया जाता है या यह कि कुछ को नियम से बाहर रहने की अनुमति ही क्यों दी जाती है। जवाब सीधा और सरल है। क्योंकि अपवाद ही विकास और परिवर्तन के वाहक होते हैं।
अपवादों के रास्ते का बाधक होने से बचना चाहिए। जानना चाहिए कि अपवाद क्या होता है। अपवाद बनने की क्या प्रक्रिया होती है। इस समय सभ्यता में धीरे-धीरे अपवाद बनने की स्थिति कमजोर पड़ती गई है। यह जरूरी नहीं कि यही स्थित सदैव रहेगी। मुश्किल यह है कि अपवाद को उसके प्रारंभिक अवस्था में समझ पाना बहुत आसान नहीं होता है। जब हमारे चारों तरफ एक जैसा या एकरूपता का कोलाहल है, नियमबद्धता का दबाव है क्या हम अपने आस-पास बनते किसी अपवाद को पहचान सकने की क्षमता रखते हैं। कोशिश तो करें। हम अपवाद बन नहीं सकते, कम-से-कम किसी बन रहे अपवाद के प्रति संवेदनशील तो हो ही सकते हैं। क्या पता किस बनते हुए अपवाद से सभ्यता को सार्थक दिशा मिल जाये!