विज्ञान और धर्म

विज्ञान और धर्म 

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करोना से बचाव के लिए अपनाई गई एहतियाती सामाजिक दूरी के हवाले से कुछ लोग विज्ञान और धर्म की उपयोगिता से जोड़ कर टिप्पणी करते हुए कह रहे हैं कि संकट की इस घड़ी में विज्ञान ड्यूटी पर है और धर्म छुट्टी पर! उनका इशारा अस्पतालों को खुले रखने और उपासना स्थलों को बंद रखने की स्थिति की तरफ है। इस इशारे में थोड़ा तंज भी है। यह तुलना समीचीन नहीं है। 

व्यक्तिगत आस्था जो भी हो, धर्म के पुरोहितवादी रुझान को बाद देकर देखा जाये तो धर्म मनुष्य की भिन्न जरूरतों को पूरा करता है और विज्ञान भिन्न जरूरतों को पूरा करता है। विज्ञान से भी जीवन में कम विसंगतियां नहीं पैदा हुई है। जानता हूँ कि यह बहुत बड़ा, यह बहुआयामी और संवेदनशील विषय है। कई तरह से बात की जा सकती है। इस प्रसंग पर अभी अधिक कुछ नहीं कहते हुए भी इतना कहना जरूरी है कि इस समय इस मुद्दे पर समग्र रूप से तंज करना न सिर्फ़ अनावश्यक है, बल्कि हानिकारक भी है। 

युद्ध और अकाल

युद्ध और अकाल
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युद्ध और अकाल बहुत नजदीकी रिश्तेदार हैं, साथ-साथ चलते हैं। इसलिए यह बहस फिलहाल बहुत जरूरी नहीं है। मनुष्य दोनों का मुकाबला करता आया है। अभी पूरी दुनिया में युद्ध जैसी स्थिति है। अकाल की स्थिति भी बहुत दूर नहीं है। अमर्त्य सेन ने यह साबित किया है कि अकाल वस्तु की उपलब्धता के अभाव से नहीं, बल्कि आधिकारिकता, इंटाइटेलमेंट, क्रय शक्ति में आई कमी से पैदा होता है। हमारी बहुत बहुत बड़ी आबादी क्रय शक्ति में होनेवाली कमी के सामने है। क्रय शक्ति में कमी का संबंध रोजगार के अभाव और उच्च महगाई दर से होता है।
हम करोना से युद्ध के साथ ही क्रय शक्ति के अभाव में अकाल के सामने हैं। इस समय धूमिल की कविता याद आ रही है। पूरी कविता के बजाय यहां उसकी एक उक्ति की याद आ रही है, दया अकाल की और एकता युद्ध की पूजी है। हमें इस युद्ध को जीतना ही होगा और अकाल के पहाड़ के पार भी जाना होगा। उस पार जहां मुक्तिबोध के शब्दों में सुनील जल में कांपता रहता है रक्त कमल।

करोना का कोहराम

करोना का कोहराम
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इस समय करोना का कोहराम मचा हुआ है। राज्य सरकारें अपनी सीमाओं को बंद कर रही है। एक तरह से यह जरूरी है। हर किसी को इसमें हर प्रकार से सहयोग करना चाहिए, मानसिक, संवेदनात्मक स्तर पर भी। यह विपत्ति का समय है। विपत्ति बीत जाने के बाद भी अपने कुछ सक्रिय निशान छोड़ जाती है।
नागरिक और निवासी का फर्क अधिक तीखा हो रहा है। नागरिक हम भारत के ह हैं और निवासी किसी न किसी राज्य के। नागरिकता स्थाई है लेकिन नैवासिकता स्थाई और अस्थ अस्थाई दोनों हो सकती है। बल्कि, बहुत बड़ी आवादी स्थाई नागरिकता के साथ अस्थाई ननैवासिकता में रह रही है। इस संबंध में उत्पन्न नई स्थिति पर भी नजर रखने की जरूरत है। बहरहाल ये संकेत भर है, इस समय तो सामाजिक दूरी के लिए सहयोग में ही संक्रमण से सुरक्षा की संभावना है। 

घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु।

घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु।

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सामाजिक दूरी में सुरक्षा की संभावना तलाशते हुए हमें इस बात के प्रति भी सचेत रहना होगा कि यह मानसिक दूरी में न बदलने लगे। सामाजिक दूरी में सुरक्षा की संभावना बहुत संवेदनशील मामला है। परिवार में इस समय संवाद और संवेदनशील आचरण की जरूरत है। पीढ़ियों के बीच के बीच के अंतराल को पाटते हुए संवाद की जरूरत है। जेंडर सेंसेटिव, अर्थात स्त्री पुरुष के बीच संवेदनशील व्यवहार की जरूरत है। घरेलू काम को जेंडर निरपेक्ष होकर किये जाने की जरूरत है। घरेलू काम में घर की साफ सफाई से लेकर धोने मांजने और बच्चों की जिज्ञासाओं को बिना खीझे पूरा किया जाना भी शामिल है। एक दूसरे को अवसाद से दूर रखने और विवाद के किसी भी प्रकरण को विनोद में बदलने के कौशल का उपयोग भी घरेलू काम में शामिल है। 

घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु। 

विरोध और समर्थन

विरोध और समर्थन लोकतंत्र में लोकव्यवहार का आवश्यक उपकरण है। किसी भी मुद्दे पर सभी लोग एकमत या सहमत हों यह जरूरी नहीं होता है। लोकतंत्र सर्वसम्मत से नहीं बहुमत से चलता है। बहुमत तभी तक लोकतंत्र की सेवा करता है जब तक उसमें सब का सहयोग हासिल करने और अल्पमत के मूल्यवान तत्व के संयोजित करने की कोशिश का हौसला बचा रहता है। कोशिश में नाकामी की कशिश बची रहती है। भारतीय वृहदाख्यान (मेगा टेक्स्ट) में आंख और कान की प्रतिबंधकता से उत्पन्न संकटों के संदर्भ में हिंदी आलोचक विनोद शाही ने अपनी किताब में विस्तार से लिखा है, श्रवण कुम्हार और धृतराष्ट्र का संदर्भ याद किया है, समझा है समझाने की कोशिश की है। अंधत्व या अंधापन आंख की प्रतिबंधकता से उतना नहीं जुड़ा है, जितना पूर्वग्रहों को प्रतिबद्धता मानकर अभिमत बनाने और उसके सामाजिक प्रसार से जुड़ा है। अंध समर्थन बुरा है, बहुत बुरा है। अंथ विरोध भी बुरा है और बहुत बुरा है। अस्ल में अंधत्व बुरा है। अंध समर्थन और अंध विरोध के इस घनीभूत समय में कभी इसके और कभी उसके उचित के साथ होनेवाले को दोनों तरफ की ओर से बेपेंदी का कहकर मजाक उड़ाया जाता है। अंध समर्थन से समर्थन की सार्थकता और धार खत्म होती है। अंध विरोध से विरोध की भी सार्थकता, स्वीकार्यता और धार खत्म ही होती है। लोकतंत्र को अंधलोकवाद से बचाने के लिए अंध समर्थन और अंध विरोध के ब्यूह से बाहर निकलना ही होगा, बेपेंदी का मान लिए जाने का जोखिम चाहे जितना हो। 

प्रियता की परवाह किये बिना किया जानलेवा यह साहस आसान नहीं है। आखिर कृष्ण को भी अर्जुन तभी तक प्रिय थे जब तक उनकी दी हुई दृष्टि से जगत को देखते रहे। अपने समय के कई अच्छे लोगों को अंध समर्थन और अंध विरोध के ब्यूह में पड़ा देखकर बहुत पीड़ा होती है। इस ब्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है? रास्ता का अंत कभी नहीं होता! कोई-न-कोई रास्ता तो होना ही चाहिए।