ध्रुवीकरण

देश का हाल हवाल

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सामान्यतः, राजनीति पर बात करना पेशेवर राजनेताओं, पत्रकारों का काम है; एक भिन्न स्तर पर नागरिकों का भी काम है। राजनेताओं और पत्रकारों का यह काम नागरिकों के काम का ही विस्तार है। बल्कि कहना चाहिए कि कोई भी काम नागरिक अधिकार की परिधि में ही संभव और संपन्न होता है। नागरिक जमात का व्यक्तिगत या सामूहिक सामाजिक स्तर पर अपने अधिकारों से निरपेक्ष हो जाना नागरिक जीवन के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकता। हाँ, राजनेताओं, पत्रकारों के मंतव्यों के आयाम और गहनता में अंतर होता है। अधिकार के कई पहलू होते हैं। अधिकार का ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू कर्तव्य है। नागरिक अधिकार और कर्तव्य के तहत इस पर विचार करना जरूरी है। इस विचार का मूल उद्देश्य आत्म प्रचार, सहमति का संधान न हो कर, आत्म प्रकाश है; बस इतना कि मैं जो सोचता हूँ। अच्छा अब कोसिश करता हूँ।

ध्रुवीकरण का मतलब

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आजकल यह शब्द बार-बार सुनाई पड़ता है। क्या होता है, ध्रुवीकरण! क्या किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना  ध्रुवीकरण है? क्या संगठित होना ही ध्रुव बनना है? क्या ध्रुवीकरण विचारधारात्मक होता है? क्या ध्रुवीकरण भावधारात्मक होता है? क्या ध्रुवीकरण के लिए विचार को भावना में लपेटकर असरदार बनाया जा जाता है? क्या ध्रुवीकरण में भावनाओं को विचार के पोशाक में पेश किया जाता है? ध्रुवीकरण अच्छा है? ध्रुवीकरण बुरा है? ध्रुवीकरण एक सहज सामाजिक प्रक्रिया है? संगठन विहीन ध्रुवीकरण हो सकता है? भेड़िया धसान है ध्रुवीकरण? ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र है? क्या ध्रुवीकरण बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है? इन में से या स तरह के सवालों के जवाब हाँ/ना में नहीं दिया जा सकता है। इन पर विचार करना होगा; इन पर बार-बार सोचना होगा। इस सोच में आत्मनिष्ठता, वस्तुनिष्ठता, हीन-निष्ठा और निष्ठा-हीनता के भी तत्त्व हो सकते हैं; इन तत्त्वों की विभिन्न आनुपातिकता भी किये जानेवाले विचार में सन्निहित हो सकते हैं। एक बात की ओर इशारा कर देना यहाँ जरूरी है, इन सवालों के जवाब हर किसी को अपने लिए ढूँढ़ना नहीं, सोचना होगा; ढूँढे हुए विचार रेडीमेड होते हैं, उनमें कतर-ब्यौंत कर काम तो चलाया जा सकता है। काम-चलाऊ से काम चलाने की मजबूरी तो हो सकती है, इस मजबूरी का आदर करते हे भी यह समझना जरूरी है कि काम-चलाऊ तो अंततः काम-चलाऊ ही होता है, न! कहने का आशय है ––– अनायास हासिल होनेवाले जवाब पर आँख-नाक-कान बंद कर भरोसा करना अहितकर होता है, कम-से-कम इस समय तो हितकर नहीं हो सकता है। साफ कहूँ? मैं भी इन सवालों पर सोच रहा हूँ, हो सके तो आप भी सोचिए। मैंने क्या सोच रह हूँ? अभी बताना ठीक नहीं। इससे आपके सोचने पर संक्रामक असर पड़ सकता है। मैं इस से बचना-बचाना चाहता हूँ, इसलिए अभी बताना ठीक नहीं। वह बाद में, उनके लिए जिन्हें रेडीमेड चाहिए, या जिन्हें उसमें कतर-ब्यौंत कर काम-चलाऊ सोच पाने में सुविधा होगी उनके लिए!

ध्रुवीकरण : संभावित जवाब

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क्या होता है, ध्रुवीकरण! क्या किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना  ध्रुवीकरण है? नहीं किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना ध्रुवीकरण नहीं है। संदर्भ हट जाने के बाद भी उस खास संदर्भ को किसी अन्य संदर्भ या काल्पनिक संदर्भ से जोड़कर जन और जनमन का किसी अप्रकट उद्देश्य से संगठित बना रहना ध्रुवीकरण है।

क्या संगठित होना ही ध्रुव बनना है? नहीं संगठित होना ध्रुव बनाना नहीं है, वह तब तक दल बनाना है, जब तक उसके उद्देश्य, कार्य-पद्धति, उसके स्रोत सुपरिभाषित और सार्वजनिक रूप से घोषित रहते हैं तथा वे इस पर बने रहते हैं। ध्रुवीकरण दल के बाहर साधारण नागरिकों का होता है ; दल के भीतर के लोगों के बीच यह गुटबंदी कहलाता है।

क्या ध्रुवीकरण विचारधारात्मक होता है? नहीं। किसी भी, तर्कसंगत, विवेकपूर्ण मानव-मूल्यों की सापेक्षता में हित-बोध से संपन्न विचारधारा से दल के बाहर के लोगों को जोड़ना आंदोलन कहलाता है। यह अपने आप में ध्रुवीकरण नहीं है, हाँ इस आंदोलन के खड़ा करने में ध्रुवीकरण-कारक तत्त्वों के इस्तेमाल के प्रति सदैव सचेत रहना चाहिए।  

क्या ध्रुवीकरण भावधारात्मक होता है? हाँ, मनुष्य की नैसर्गिक भावधाराओं को अपचालित करके ध्रुवीकरण किया जाता है। इसके लिए भयदोहन, और लोकलुभावन (पॉपुलिस्ट) वादों, इरादों, अतीत और कई बार गढ़े हुए इतिहास-हंता अतीत और सुनहरे भविष्य के माया-जाल को विभिन्न तरीके से सजाया एवं फैलाया जाता है। ऐसा करनेवाले लीडर को उत्तेजक और उन्माद-पसंद, समाज और समुदायों के बीच निरंतर युद्धक-परिस्थिति बनाये रखा जाता है –– ये डेमागॉग (Demagogue) कहलाते हैं। ये अपने प्रभाव विस्तार के क्रम में सज्जनता को दुर्जनता से विस्थापित करने की दिशा में बढ़ने से परहेज नहीं करते। इस तरह से देखें तो, अपचालित भावधाराओं की पेशबंदी विचारधारा के रूप में की जाती है। साधारण नागरिक के सहज जीवनयापन के नजरिये से देखें तो यह सब से अधिक हानिकारक होता है।

क्या ध्रुवीकरण के लिए विचार को भावना में लपेटकर असरदार बनाया जा जाता है? नहीं। यह नैसर्गिक भावधाराओं के अपचालन से बनी क्षतिकर विचारधारा की चपेट में आने से सही विचारधारा को बचाने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया में खतरा होता है –– सही विचारधारा भी तात्कालिक रूप से प्रभावी दिखने-बनने के चक्कर में विचारधारा का मूल सूत्र हाथ से छूट जाता है और वह खुद भावधारा के भँवर में फँस जाता है; इस तरह सुचिंतित विचारधारा के हारने और अपचालित भावधारा के जीतने की दुखांत पटकथाएँ सामने आती हैं। इन दुखांत पटकथाओं में कुत्सित हास्य-विनोद के फूहड़, निकृष्ट बिंबों का खुलकर व्यवहार होता है –– साधारण आदमी की मनःस्थिति अपने बहते हुए लहू को आलता की तरह देखता और विभोर होता है।   

क्या ध्रुवीकरण में भावनाओं को विचार के पोशाक में पेश किया जाता है? हाँ। युक्ति-युक्तता, वास्तविकता और बुद्धि-गम्यता से काटकर नैसर्गिक भावनाओं के आधार पर अहितकर विचारधारा की पेशबंदी की जाती है।

ध्रुवीकरण अच्छा है?  अच्छा हो सकता है, यदि ध्रुवीकरण के वास्तविक संदर्भ के हटते ही यह अपने पीछे एक नैतिक चेतावनी और वैधानिक प्रावधानों को सुनिश्चित करके समाप्त हो जाये। ऐसा होना थोड़ा मुश्किल इसलिए भी होता है कि ध्रुवीकरण के पीछे जो सायासता होती है वह सायासता ध्रुवीकरण के विसर्जन में नहीं होती है।

ध्रुवीकरण बुरा है? नहीं। समुचित संदर्भ के बाद दीर्घकाल तक इसका बना रहना, सक्रिय रहना बुरा है। ध्रुवीकरण एक सहज सामाजिक प्रक्रिया है? हाँ। यह प्रक्रिया खतरनाक तब हो जाती है, जब इस सहज सामाजिक प्रक्रिया का पर्यवसान जटिल राजनीतिक प्रक्रिया हो जाता है।  संगठन विहीन ध्रुवीकरण हो सकता है? हो सकता है। नागरिक जमात के दबाव में ऐसा हो सकता है। जमात र संगठन का अंतर ध्यान में रहे तो बात अधिक साफ हो सकती है। भेड़िया धसान है ध्रुवीकरण? नहीं। भेड़िया धसान का आधार मनुष्य की सहज अनुकरण वृत्ति रचती है। सहज अनुकरण वृत्ति ने मनुष्य को मनुष्य बनाने में बड़ा योगदान किया है, इसे सभ्यता के किसी चरण में छोड़ा नहीं जा सकता है, न इसकी निंदा की जा सरकती है। अनुकरण की सहज वृत्ति में अनुकरण के पीछे जब दिमाग अनुपस्थित और चेतना निष्चेष्ट रहती है एवं सारी गति बाह्य कारकों के नियंत्रण में रहती है। ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र है? ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र नहीं है, लेकिन भीड़तंत्र का नतीजा हो सकता है। क्या ध्रुवीकरण बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है? बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है अपने आप में ध्रुवीकरण नहीं है, यह ध्रुवीकरण की पूर्व शर्त है। आगे और..


क्या बात करूंगा!

अभी क्या बात करूंगा!

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भी क्या मैं बात करूंगा!

अभी क्या तुम बात करोगे?

बात करेंगे न, उस दिन ––

जिस दिन धरती पर चलने का शऊर आ जायेगा

जिस दिन आँखें फिर से नम होंगी

किसी बेगुनाह के मारने, धमकाने, लूट लिये जाने पर

जिस दिन गला सूखेगा किसी अनजाने के मार दिये जाने पर

नहीं पूरा तो थोड़ी-सी भी आँखें झुकेंगी शर्म से

अपनी आपराधिक खामोशी से बाहर निकल आने की

जिस दिन हल्की-सी भी कोशिश दिखेगी या दिखेगी बेकसी

अपने रुआब के बोझ से होगा अंत:करण होगा जिस दिन

मेरा हो या हो तुम्हारा मन अपने जिंदा होने का देगा सबूत

हाँ, हाँ बात करेंगे न उस दिन, चाय की गर्म चुस्कियों के साथ

अभी क्या मैं बात करूंगा

अभी क्या तुम बात करोगे

 

 

साहित्य की रसोई

साहित्य की रसोई

वह क्या चीज थी, जिसके पीछे एक उम्र गँवा दी हमने!

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पहले रसोई। बड़े-बड़े होटलों में भोजन कक्ष जितने करीने से सजा होता है, बातचीत जितने सलीके से होती है; ऐसा ही व्यवस्थित सबकुछ उसकी रसोई में नहीं होता है। कहते हैं, जो ग्राहक भोजन कक्ष को पार कर रसोई तक पहुँच जाता है, उसे भोजन कक्ष के ‘करीने और सलीके’ पर भरोसा जाता रहता है, कई बार जायका भी। असल में हर चीज का एक नेपथ्य होता है –– जीवन, प्रकृति, राजनीति, साहित्य, नाटक, आदि सब का जादू नेपथ्य में होता है! जादू का ‘जादू’ भी नेपथ्य में ही रहा करता है। नेपथ्य दिखलाने के लिए नहीं होता, दिखलाने की तैयारी के लिए होता है। एक दिन एक सज्जन किसी विषय पर सार्वजनिक बातचीत में मुझ से अपनी तर्कहीनता से उलझ रहे थे। अंततः मैंने हार मान ली, जान छूटी। मन दुखी था। मन उनका भी खुश नहीं था। बाद के किसी ईमानदार क्षण के एकांत में उन्होंने मुझ से कहा। दादा आप सही कह रहे थे। मेरा कमान पीछे था। मैं आप की बात तब मान लेता तो प्रबंधन को वह बात नहीं मनवा पाता। यहाँ मैं जो भी कहता, ऊपर तुरंत पहुँच जाता। मेरे पीछे आदमी लगा रहता है। मुझे हिडन कमांड को फॉलो करना पड़ता है। नाटक में जैसा स्क्रिप्ट होता है, या पीछे से प्रॉम्पट मिलता है, वैसा ही करना पड़ता है। बुरा न मानियेगा। आपकी बात को प्रबंधन ने मान लिया है, मैं भी यही चाहता था –– हिडन कमांड तो नेपथ्य में रहता है। दर्शक दीर्घा में बैठ कर नाटक देखने और नेपथ्य या ग्रीन रूम के पर्यवेक्षण में अलग-अलग तरह का मजा है। आदमी को दोनों का मजा चाहिए। कुछ बड़े या आत्मीय लोगों को मंच पर प्रदर्शन के बाद, नेपथ्य या ग्रीन रूम के मुयाने का भी मौका दिया जाता है  –– ताकि दर्शक के मन में उनके बड़े होने और अपने आत्मीय होने का झूठा सच्चा एहसास करवाया जा सके, इस एहसास जागरण के भी अपने लाभ हैं, व्यावसायिक भी और पेशागत भी!

राजनीति की बात! इसे छोड़िये। साहित्य की बात करते हैं, न! कुछ पाठक, मेरा अनुभव हिंदी पाठक तक सीमित है, साहित्य के नेपथ्य को घूम-फिरके देखने के मजा की मनोहारी गिरफ्त में इस कदर आ जाते हैं कि उनके लिए रचना का जादू खो जाता है। वे नेपथ्य से अपनी रिपोर्टिंग करते रहते हैं –– इस रिपोर्टिंग के वे साहित्य या साहित्य की आलोचना मानते और मनवाते रहते हैं। कुछ लोग, कुछ दिन तक इसे मान भी देते हैं। बाद में, बहुत बाद में उन्हें सवाल बहुत परेशान करने लगते हैं –– वह क्या चीज थी, जिसके पीछे एक उम्र गँवा दी हमने!

अब वही कैफ़ियत सभी की है

अब वही कैफ़ियत सभी की है

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मैं  क्यों जो इतना परेशान-सा रहता हूँ ––

वह कौन-सी कसक है,

जिसकी तबाही के सबूत दिख जाते हैं

जिसकी मातहती में

मेरे मिजाज का लहू निकलता रहता है

वक्त, बेवक्त सूरत बनी रहती है रोनी

सब कुछ तो ठीक है, सब कुछ तो ठीक है!

जो है, वही ठीक है, ठीक और क्या होता है!

कहते हैं चाहनेवाले।

 

अगरचे  जानता हूँ

अपने निखालिस हयात में वे भी

कोई कम नहीं बिसूरते रहते हैं!

जो है, वही ठीक है, ठीक और क्या होता है!

अब वही कैफियत सभी की है।

 

(शीर्षक साभार : फैज़ अहमद फैज़)

 

 

मुरदों का गाँव

साधो ये मुरदों का गाँव!

कबीरा ये मुरदों का गाँव!

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बुझी हुई आँख से निकली धुआँसू बेकरारी

ये दुबकी हुई शाम का नजारा,

ये पैर बढ़ाता हुआ बहुरंगी अँधेरा

कोई भूला भटका, थका परेशान बेहाल

बटोही नहीं, लुटेरा है, लुटेरा है।

 

ओ बेदखल डाक जिनका रहता था इंतजार

गये जमाने के डाकिया की साइकिल की

टूटी घंटी की खामोशी में सिमटी पग-ध्वनि

नहीं कोई, कोई नहीं, कोई भी तो नहीं

नहीं, किसी का भरोसा नहीं, लुटेरा है, लुटेरा है।

 

मच्छरों की तरह लगातार उतर रही इमोजियाँ

मरी हुई बधाइयाँ, भावना शून्य श्रद्धांजलियाँ

हतोत्कर्ष बैसाखियों की तरह लचकती डालियाँ

मरणासन्न हाकरोस करता न्याय-निर्णयन-पदचाप

कुछ भी तो नहीं, विषाक्त भ्रम है, लुटेरा है, लुटेरा है।

 

साधो, ये मुरदों का गाँव!

कबीरा, ये मुरदों का गाँव!!

अब दायें झुको, अब बायें झुको

अब दायें झुको, अब बायें झुको

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अब क्या कहें कि प्रजातंत्र है। बड़े और गौर-तलब लोगों की जिंदगी में आचार-विचार, व्यवहार और मनस्विता की जो सहूलियतें हासिल रहती हैं वह साधारण लोगों को नहीं रहा करती हैं। उसकी जिंदगी का हर मसला हमेशा मरम्मत-तलब बना रहता है। प्रजा, नागरिक के हकों के बारे में वह कब, कितना और किस तरह सोचने का मौका निकाले! किस से कहे, कैसे दावा करे जो उसका है – दावा करने की सोचने तक की भनक लगने से जीने के दायरे से निकाल दिया जा सकता है। जो जिंदगियों के लिए मायने रखते हैं उनकी नजर में साधारण आदमी न प्रजा है, न नागरिक बस रियाया है, रैयत है – उसका हक बस रियायत है! रियायत किसी लिखित कानून के तहत नहीं, देनेवाले के विवेक पर निर्भर करता है। मुनरो साहब को क्या याद करना! यहाँ तो, साहब ही साहब हैं! ऐसी जीवन-स्थिति में मनुष्य की उत्पादक क्षमता की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर डालता है। मशीन अब मनुष्य से अधिक जहीन है। जाहिर है, मनुष्य की जीवन-स्थिति से अधिक मशीन के डोमेन इन्वायरामेंट को अग्राधिकार प्राप्त है। यह कब तक! मनुष्य जो उत्पादित करता है, उपभोग भी करता है। मशीन जो उत्पादित करती है, उपभोग नहीं करती है। उत्पादन के दायरे से विरत मनुष्य उपभोग के दायरे से बाहर हो जाता है – चीजों के अंबार लगे होंगे, उसे हासिल करने के लिए बहुत बड़ी आबादी ग्रहण की आधिकारिकता से वंचित रहेगी। मनुष्य है तो मूल्य है। मशीन का अपना मोल है उसके लिए कोई मूल्य नहीं है; मशीन में कोई ललक नहीं होती, राग-विराग नहीं होता। ऐसे में कोई क्या दायें, बायें सोचे। हरि अनंत, हरि कथा अनंता!  सुकूनदेह तो नहीं, फिर भी मीराजी की दो पंक्तियाँ दुहरा लेते हैं :

राजा तो कहाँ, परजा प्यासी एक और ही रूप में नाचती है

अब दायें झुको, अब बायें झुको, यूँ, ठीक, यूँ ही, ऐसे ऐसे

(साभार : मीराजी : कथक)

 

जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ

जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ

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पटना में रहनेवाले हिंदी के बड़े आलोचक खगेन जी से बात हो रही थी। मैंने किसी प्रसंग में बाबा नागार्जुन की पंक्ति का हवाला दिया – “क्या है दक्षिण, क्या है वाम; जनता को रोटी से काम।” बात बाबा के हवाले से थी। एक चुभती खामोशी के बाद उन्होंने कहा – यह प्रामाणिक पंक्ति नहीं है, कम-से-कम मैंने नहीं देखी है। जाहिर है, बातचीत पटरी से उतर गई! वे बाबा के हवाले से खिन्न थे, मैं उनके नकार से अवसन्न। हम असहमताधिकार के सम्मान के साथ अपने-अपने अप्रकट मनोविकार से ग्रस्त हो कर बातचीत से बाहर निकल आये।

जब से वैचारिक सक्रियता शुरू हुई तब से दक्षिण-वाम के भेदाभेद की वैष्णवी व्याख्या सुनता आया हूँ। जिंदगी का असली सवाल रोटी है। रोटी मिले तो सीधा-सादा बहुसंख्य आदमी सीधी राह पकड़ गृहस्थी की गाड़ी खींचने में जुता रहता है विशिष्ट जनों की बात और है। भूखे पेट न भजन होती है, न जुगाली और न ही जुगलबंदी। बिना काम-काज का आदमी दाएँ-बाएँ होता रहता है – हाँ कुछ लोग होते हैं जो अपने निरंतर दाएँ या बाएँ होने के दीर्घकालिक भ्रम को बाहर-भीतर टिकाये रखने में कामयाब रहते हैं। आदमी आज काम-काज माँग रहा है, काम-काज! सुन रहे हैं? आज से नहीं! सदियों से।

याद कीजिए रघुवीर सहाय की कुछ पंक्तियों को

“मनुष्य के कल्याण के लिए / पहले उसे इतना भूखा रखो कि वह और कुछ / सोच न पाए / फिर उससे कहो कि तुम्हारी पहली जरूरत रोटी है/ जिसके लिए वह गुलाम होना भी मंजूर कर लेगा ... (गुलामी 1972)” और यह भी, कितना अच्छा था छायावादी / एक दुख लेकर वह एक गान देता था / कितना कुशल था प्रगतिवादी / हर दुख का करण वह पहचान लेता था / कितना महान था गीतकार / जो दुख के मारे अपनी जान लेता था / कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में / जहाँ मरता है सदा एक और मतदाता (एक अधेड़ भारतीय आत्मा: आत्म हत्या के विरूद्ध:67)।”

सुन रहे हैं न?

 

चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी

चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी

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प्रार्थना है कि धरती का कोलाहल

चाँद पर न पहुँचे यहाँ का हलाहल

धरती की छाया को न ओढ़ा करे इस तरह अब।

चाँद पूछे तो बस बता देना

झुलसी हुई रोटी

माँ को सताने के लिए कहा था

सच है

मुँह के टेढ़ा होने की बात भी कही थी

मगर यह सब तो

माँ से मामा का उलाहना भर है

इसका बुरा न माने चाँद!

 

सुना है चाँद के पास है

ढेर सारा – अमृत!

हो सके तो नहीं ज्यादा तो थोड़ा भी

मिल जाये अमृत

धरती के रहनिहारों के लिए

थोड़ा भी बहुत है।

 

न मिले अमृत तो भी कोई बात नहीं

बस पता न चले किसी तरह चाँद को कि

जिन्हें छाछ भी नसीब नहीं

उनके लिए अमृत की तलाश में है धरती!

कम-से-कम अभी तो मुलतवी रखना

धरती का अंदरूनी मामला वहाँ उठाने से

वहाँ बस यही संदेशा देना

चाँद मामा की जय!

भारत माता की जय!

जय-जय सच्चा मामा, जय-जय धरती माता!

मुमकिन, नहीं मुश्किल: मुमकिन नहीं, मुश्किल

मुमकिन, नहीं मुश्किल!

मुमकिन नहीं, मुश्किल!!

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जीवन में थोड़ा विरमने, थोड़ा हो जाने का महत्त्व भी कम नहीं है। कुछ लोगों को कुटेव होता है, विरमने के नाम पर ठहर ही जाते हैं – टस से मस नहीं। कोई लाख टसमसाने की कोशिश करे बस जावबन – ऊँह आह!

जीवन में कई बातों का बुनियादी महत्त्व है। अभी तीन चीजों के महत्त्व पर बात करते हैं – मति, गति और यति। विद्यापति ने वरदान में सहज सुमति माँगा था। सहज का मतलब तो समझा जाता है आसान, यह ठीक भी है। विद्वान लोगों का जीवन अनुभव बताता है, सहज का अर्थ भले आसान हो, लेकिन सहज होना इतना आसान भी नहीं होता है। सहजता की जटिलता कहाँ से आती है! सहज का अर्थ होता है – साथ में उत्पन्न, जैसे पंकज का अर्थ होता है, पंक में उत्पन्न। आगे बढ़ने पर में से हो जाता है – सहज साथ से उत्पन्न, पंकज पंक से उत्पन्न! “से” संप्रदान है – अलग होने का भाव, “में” अव्यय। अब “में” और “से”, अव्यय और संप्रदान, दोनों साथ-साथ रहकर अर्थ देते हैं – भिन्न होकर भी, न-भिन्न होने की बात! तुलसीदास का संदर्भ लें तो, कहियत भिन्न, न भिन्न की स्थिति! भिन्न के न-भिन्न होने से विभिन्न तरह की जटिलताओं का सूत्रपात होता है। सूत्रपतन में उलझाव बहुत होते हैं। भिन्न और न-भिन्न को एक साथ साध लेने पर मति सुमति हो जाती है। सुमति सहज तब होती है जब भिन्न के न-भिन्न होने की स्थिति बनी और बनती रहती है। भारत की विविधता में एकता को समझने की यह भी एक कुंजी है। यह कुंजी बहुत सारी जटिलताओं से गुजरने के बाद मिलती है। कबीरदास सहित सभी संतों ने सहजता की महिमा को अपने-अपने ढंग से समझाया है – सहज सहज सबकौ कहे, सहज न चीन्है कोइ। दिलचस्पी हो तो सिद्धों के वज्रयान सहजयान के बारे में देखना-जानना प्रासंगिक हो सकता है सरहपा सहित सिद्धों के सहजयान, वैष्णवों के सहजिया संप्रदाय के क्या संदर्भ रहे हैं! धीर मन में थिर मति संपन्न गति! गति – चरैवेति चरैवेति! चलते रहो, चलते रहो! क्यों चलते रहो? प्राण रक्षा के लिए! फिर यति क्यों, रुकना क्यों? प्राण के अर्थात! फिर ययाति?

फिलहाल यह कि लोगों को गति में यति का स्थान बदला-बदला लग रहा है – “मुमकिन, नहीं मुश्किल”, बदलकर “मुमकिन नहीं, मुश्किल” हो गया है! जो मुमकिन था अब तक, वह मुश्किल हो गया! कहाँ-कहाँ? अब देख लीजिये कहाँ, कहाँ! 

मुबारकबाद

मुबारकबाद

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वे भी मनुष्य हैं

उनका भी परिवार है

माँ-बाप, बेटे-बेटियाँ

भाई बहन बचपन के दोस्त

शिक्षक, दोस्त-यार, प्रेम के विस्मृत धागे

बूढ़ा लाब्रेरियन, पसंदीदा कलाकार

वे भी मनुष्य हैं, उनके साथ, आगे पीछे

वह सब होता है, जो होता है हमारे साथ

जब दहलता है देश थोथी दहाड़ से

जब धू-धूकर जलता है

साधु चरित शुभ चरित कपास

नफरत में सिसक रहा होता है आस-पास

मन उनका भी बहुत बिलखता होगा

रह-रहकर बिखर जाता होगा

उनके भी अंदर बहुत कुछ

हो जाता होगा रंग फीका-फीका

मन में उठता होगा हाहाकार

उन्हें भी बर्दाश्त करना होता होगा अहंकार

सब कुछ के बीच से गुजरना होता होगा बारंबार

वे जो प्रयोगशालाओं में निष्कंप आँख

सतत सक्रिय प्रज्ञा के साथ झुके रहते हैं

झुके रहते हैं कि तनकर खड़ा रह सके देश

वे जो शिखर से ले कर सागर तक

यहाँ से लेकर वहाँ तक अंगद की तरह डटे रहते हैं

डटे रहते हैं कि डटा रहे देश निर्भय

ऐसे ही बहुत सारे लोग, बिना ध्यान भटकाये

लगे रहते हैं, अपनी-अपनी जगह

लगे रहते हैं कि मनुष्यता के लिए कम न पड़े जगह

आज का दिन उनको मुबारकबाद देने का है

यकीनन वे सोचते होंगे देश के बारे में

हम सब के बारे में,

जब वे सोचते होंगे अपनों के बारे में

वे जानते होंगे यहाँ का हाल

ओझल न होगा आँखों से, न आटा, न दाल

आज का दिन उनको मुबारकबाद देने का है

 

       

 

 

मेढकी का शिकार और तीरंदाजी

मेढकी का शिकार और तीरंदाजी

हिंदी और उसकी सहभाषाओं में कई तरह की लोकोक्तियाँ हैं, अधिकतर वक्रोक्तियाँ हैं इन में से एक है – बाप न मारे मेढकी, बेटा तीरंदाज। मेरा मानना है कि लोकोक्तियों, वक्रोक्तियों, मुहावरों, मिथकीय उदाहरणों का इस्तेमाल करते समय अधिकतम सावधानी बरतनी चाहिए। ये दो-धारी ही नहीं बहु-धारी हथियार होते हैं; पलटकर वार कर सकते हैं, दोगुनी-तिगुनी ताकत से कर सकते हैं। राजनीतिक बहसबाजी में तो इसका इस्तेमाल और ज्यादा सावधानी से करनी चाहिए; खासकर अपने को पढ़ा लिखा बतानेवाले या विद्वान प्रवक्ताओं, बहसबाजों से तो यह उम्मीद की जा सकती है। आज राजनीति बाहर से धन और वोट के अलावा कुछ नहीं लिया करती है, ज्ञान तो बिल्कुल नहीं। मुझे लगता है, ज्ञान कोई बाहर से नहीं लेता है। जिससे ज्ञान लेना होता है, उसे पहले अपने अंदर का बना लेता है, उसके बाद लेने पर विचार करता है। खैर!

एक सज्जन जो खुद राजनीति में परिवारवाद का विरोध करते हैं, उनकी पार्टी करती है और ऐसा करने का हक भी है। वे आजकल बार-बार प्रयोग कर रहे हैं – बाप न मारे मेढकी, बेटा तीरंदाज। मेढकी को मारनेवाले जानते हैं कि मेढकी को मारने के लिए न तीर की जरूरत होती है, न तीरंदाजी की। यहाँ, मुद्दा यह है कि बेटा के तीरंदाज होने के लिए क्या बाप का मेढक मारने की न्यूनतम क्षमता की कोई शर्त होती है! ऐसा है तो, फिर यह परिवारवादी शर्त है। इसे पलटकर कोई यह कह दे कि बाप न हुआ पंच और बेटा.... ! खैर जाने दीजिये। किसी कहने, नहीं कहने से क्या होता है? कुछ नहीं होता है, हाँ कुछ नहीं। लोगों को कहने का कुटेव है और अभिव्यक्ति का अधिकार भी सो कहते रहते हैं। कही हुई बात कान से सुनी जाती है; न कही गई बात बिना कान के सुन ली जाती है। कहने को तो तुलसीदास ही कह गये हैं, विभावना शक्ति से जनार्दन, बिना कान के सुनता है और अपने अदृश्य हाथ से सारा काम करता है बिनु पद चलइ, सुनइ बिन काना। कर बिनु करम, करइ बिधि नाना।।’ जनार्दन! आप ही तो जनार्दन हैं! नहीं हैं क्या?

   

 

भाषा में डर

भाषा में डर

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प्रकृति तो है ही मनोहारी और चमत्कारी। मनुष्य की सभ्यता भी कोई कम विस्मयकारी नहीं है। वन, नदियाँ, पहाड़ जंगल मनुष्य की निर्मिति नहीं है। मनुष्य इन्हें बना नहीं सकता। ये बनती रहती है। बड़े-बड़े भवन, डैम, फैक्ट्रियाँ, कल-पूर्जे, वाहन आदि सभ्यता की निर्मिति है। इन्हें मनुष्य ही बना सकता है। बनाता रहता है। प्रकृति में चीजें बनती नहीं, बल्कि विकसित होती रहती है, मनुष्य का इनके विकास में कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं होता है, विध्वंस में भले हो। प्रकृति की निर्मिति में मनुष्य का हस्तक्षेप कितना होता है, इस पर विभिन्न तरह से सोचा जा सकता है। लेकिन, सभ्यता की निर्मिति में प्रकृति बुनियाद देती है। इस तरह से सोचें तो प्रकृति से बाहर कुछ भी नहीं होता है।

मैं भाषा के बारे में सोचता हूँ। भाषा प्रकृति की निर्मिति है या सभ्यता की निर्मिति है। मनुष्य भाषा का निर्माण नहीं कर सकता है। भाषा के विकास में प्रकृति मनुष्य को अपना माध्यम बनाती है। कुछ लोग प्रकृति के विरुद्ध जाकर भी भाषा का निर्माण उसी तरह करने की कोशिश में लगे हैं। ऐसे लोग अक्लमंद होते हैं या मंद अक्ल होते हैं।  कम का विपरीत अधिक है। कम का विपरीत मंद नहीं होता है। लेकिन कमअक्ल का विपरीत अक्लमंद होता है! मुझे समझ में नहीं आ रहा। जिसे कोई बात समझ में नहीं आता, क्या उसे नासमझ कहा जा सकता है? जिसे कोई बात समझ में आती है, क्या उसे समझदार कह सकते हैं? आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं। यदि आप ने मेरी मदद की तो मैं आपको अपना मददगार कहूँगा, जरूर कहूँगा। लेकिन आपने मेरी मदद नहीं की तो मैं क्या कहूँगा? साधारणतः भाषा में आदमी व्यक्ति निडर होता है, लेकिन जब व्यक्ति की अभिव्यक्ति में डर का सदावास हो जाये, तो भाषा में डर अपना घर बना लेता है। यही है, भाषा में डर!

विजन कथा

विजन कथा
एवं

क्वचितअन्योपि

वे तीन थे। असल में वे चले तो थे अकेले-अकेले ही। बाद में एक-एक कर तीनों एक होकर तीन हो गये। विडंबना यही थी कि वे तीनों मिलकर एक नहीं हुए, बल्कि तीनों मिलकर तीन हो गये। ये तीनों तीन अवश्य थे। इन तीनों के मिलने को एक नाम पर पहुँचना जरूरी था। अब ये तीनों एक नाम में कैसे समाहित हों! इनके सामने यह पहली चुनौती थी। पहले सोचा कि इनके लिए तिलंगा, यानी तीन तिलंगा ठीक रहेगा। काफी मनन करने के बाद, यह नाम मन पर चढ़ न सका। रही बात माथे पर चढ़ने की, तो सो उन्होंने अब किसी के भी माथा पर चढ़ने की सारी इजाजतें वापस ले ली है। वापस तब ली जब पाया कि माथे पर जिनको बैठाया उन्होंने धोवन व्यवस्था, यानी वाश रूम जैसी व्यवस्था, वहीं करने के अपने अधिकार की बात करने लगे। अधिकार की बात उठे तो वकीलों के मुसकुराने के अवसर खिलते हैं। वकीलों ने खर्चा पानी, पूजा परिग्रह के बाद, सारा किस्सा सुना और अपनी बात रिजर्व रख ली। बात रिजर्व रखने की तजवीज बड़े दिमाग से निकली तावीज है। कोई यह तावीज दिखा दे तो तहजीब कहती है, खामोशी से मान जाओ और इंतजार करो। रिजर्व के खिलाफ की गई हलचल का एक ही नतीजा निकलता ¾ लौट के बुद्धू घर को जाओ। जब बुद्धू का घर ही विवाद में हो, तो बुद्धू कहाँ जाये! घाट? सौंदर्यीकरण के पहले बुद्धुओं के लिए घाट निरापद होते थे। आपत्ति किसी को नहीं थी। आपत्ति तब उठने लगी जब घर लौटकर बुद्धुओं ने अपने घाट-घाट के पानी पीने का हवाला देकर ज्ञान छाँटने लगे। ऐसे में घर से निकाला हो गया। तो बुद्धू फिर घाट पर जमने की सोचने लगे। प्रभु, हमारे गाँव की पंचटोली के प्रभु जी भी घर निकाला होने पर सबसे पहले घाट ही तो गये थे, याद है न! घाट-घाट का पीनी पीनेवालों की जो मर्यादा मिलती है, वह अवघट का पानी गटकनेवालों को कहाँ नसीब! अवघट का पानी पीनेवालों को पापी कहा जाता है। फिर तो माँ गंगा का ही सहारा बचता है ¾ बेसहारा का सहारा! गंगा पाप को ढोती है, धोती नहीं है। धोने की जिम्मेवारी नर्मदा के पास थी, पहले। सारी नदियाँ अंदर पेट मिली होती हैं। खैर नदियों की बातें नदियाँ जानें। पते की बात यह है कि सौंदर्यीकरण के बाद लगभग कोई घाट बुद्धुओं के लायक और निरापद नहीं बचा। लगभग, इसलिए कि बात में लगभग लगा देने से बड़ी सुविधा रहती है। हिंदी का लगभग एक चोर दरवाजा है। घिरने पर निकलने का अचूक रास्ता! एक विद्वान प्रवक्ता की कला से विद्याधर को लगभगाने का पारस मणि हाथ लगा था। ये प्रवक्ता कहीं भी मिल जाते हैं ¾ कॉलेज में, युनिवर्सिटी में, चाय मंडली में और सबसे बढ़कर टीवी चैनलों आदि में ¾ अब जो जहाँ से सीख ले! अब इस आदि, इत्यादि की अपनी महिमा है। कहाँ आदि लगे, कहाँ इत्यादि इस बात के महीन धागों में उलझे बिना चतुर प्रवक्ताओं से जयमंद को इसके उपयोग की निष्णाती हासिल हुई। देखिये न इस आदि, इत्यादि की महिमा ¾ हिंदी के बहुत सारे कवि और सामाजिक कर्मी इसमें अपने होने को लेकर जबर्दस्त ढंग से सदा आश्वस्त रहते एवं आजीवन घिसटते रहते हैं। नरेश बहुत चतुर था। वह भी प्रवक्ताओं से सीखकर यद्यपि तथापि के लाजवाब इस्तेमाल से कमाल की जिरहबंदी में माहिर था।

ये तीनों एक होके तीन हो गये थे इसलिए एक नाम जरूरी हो गया था। त्रिदेव अच्छा नाम हो सकता था। लेकिन एक तो यह नाम बहुत ही पवित्र था, दूजा इन पर फबता भी नहीं था। न त्रिदेव जमा न तिलंगा। इसी चिंता में तीनों अवघट पर साधना मस्त थे। काफी सोच विचार के बाद नरेश का प्रस्ताव साने आया ¾ यद्यपि नाम का गुण से कोई संबंध नहीं होता, तथापि हम तीनों के प्रथमाक्षर को जोड़कर विजन नाम पर विचार किया जा सकता है। जयमंद ने मुँह से निकाला ¾ तरकीब अच्छी है। यही बात है तो जविन, नजवि आदि पर भी विचार किया जा सकता है। नरेश ने छूटते ही कहा ¾ विजन लगभग ठीक है। विद्याधर के मन में बात आई, उसके नाम का प्रथमाक्षर पहला है, तो बड़ी बात है, बड़ी बात का होना हमेशा अच्छा होता है। जयमंद भी इसी लय पर था, चलो बीच में रहना ठीक है, जनता के बीच, खबरों के बीच। बीच का रास्ता। जब चाहो इधर हो लो, जब चाहो उधर! नरेश के दिमाग में बात कुछ दूसरी तरह से चल रही थी ¾ लिफो। हुआ यों कि वह ट्रेन में सफर कर रहा था। उसकी ट्रेन खड़ी रही। सिंगल लाइन थी। विपरीत दिशा की ट्रेन के पास कर जाने तक इस ट्रेन के इंजिन को फेल रहना था। मूँगफली फोड़कर आधा घंटा काट लेना कोई आसान काम नहीं होता है। इस देश में समय काटने के और भी कई जरियों का आम चलन है। इन में तीन बहुत पॉपुलर हैं, दो रूढ़ और एक रूढ़-यौगिक  ¾ धर्म और राजनीति, रूढ़ तथा इनका रासायनिक मिश्रण, रूढ़-यौगिक। ये तीसरा तो बहुत ही पॉपुलर है ¾ एकदम ही नहीं, हरदम ही अचूक रामवाण! बहस के बीच व्यवधान की तरह विपरीत दिशा की ट्रेन आ गई। ऐसा तो होता ही है उद्यमी जीवन में जिसका इंतजार करते हैं, वही उद्मियों के जीवन प्रसंग में बाधा की तरह आ धमके! विपरीत मनोरथवाली ट्रेन आई और खुल भी गई! रासायनिक परिसर से बाहर निकल कर नरेश पेनिक हो गया। यह क्या बाद में आई और पहले निकल गई। अब तक खामोश रहे प्रवक्ता ने कहा ¾ लिफो। नरेश के उलझने से पहले उन्होंने कहा। लिफो एक थियरी है, नहीं समझे ¾ लास्ट इन फर्स्ट आउट। नरेश ने छूटते ही  कहा ¾ बाजा, बाजा। अब प्रवक्ता के चौंकने की बारी थी ¾ बाजा क्या? नरेश ने समझाया ¾ बाद में आ पहले जा। प्रवक्ता इस आशु-प्रतिभा का कायल हो गया, ऊपर से हिंदी की डपट। इस सभ्यता में ज्ञान की पराकाष्ठा है ¾ पहले बीजाक्षर कहो, सामनेवाला मूढ़ता की मुद्रा और अज्ञानता के भँवर में फंसा नहीं कि बीजाक्षर को  फैलाकर ज्ञान का उपवन गढ़ कर खुद मिनटों में ज्ञानमोहन बन जाओ! है न, एकदम कमाल की कला! अन्याय-से-अन्याय, असंगत-से-असंगत बात यदि थियरी के रूप में सामने आये तो इस देश में उसकी स्वीकार योग्यता कानून की स्वीकार्यता को भी मात दे दे। आह क्या बात है! देश कानून से नहीं, थियरी से चलता है। नरेश का मानना था कि कहीं घुसने के पहले उससे निकलने का रास्ता सोच लेना चाहिए चाहे गोदीगिरी का रास्ता हो या कोई और रास्ता। सो बाजा ज्ञान के तहत अपने नाम के प्रथमाक्षर का बाद में आना अच्छा लगा! नाम तय हो गया ¾ विजन।

विजन प्रथमाक्षरों से बना बीजाक्षर। बीज में वृक्ष बनने की आध्यात्मिक लालसा तो होती ही है। विजन का वृक्ष बना ¾ विशाल जुगाड़ निष्ठा। विजन में लगभगाने, आदि-इत्यादि, यद्यपि-तथापि के इस्तेमाल की अपनी-अपनी विशिष्ट-विशेषज्ञताएँ हैं और किंतु-परंतु की अशिष्ट-सर्व-सामान्यताएँ हैं। सुना है, विजन की सक्रियताएँ बढ़ रही हैं ¾ जुगाड़ की फसल का बाजार गर्म है। आगे कुछ-कुछ अन्य बातें भी छन-छन कर आती रहती हैं। कुछ बातें मायने ¾ क्वचितअन्योपि! विजन का नया संस्करण भी इसी नाम से लॉन्च होनेवाला है ¾ विजन क्वचितअन्योपि।