मेढकी का शिकार और तीरंदाजी

मेढकी का शिकार और तीरंदाजी

हिंदी और उसकी सहभाषाओं में कई तरह की लोकोक्तियाँ हैं, अधिकतर वक्रोक्तियाँ हैं इन में से एक है – बाप न मारे मेढकी, बेटा तीरंदाज। मेरा मानना है कि लोकोक्तियों, वक्रोक्तियों, मुहावरों, मिथकीय उदाहरणों का इस्तेमाल करते समय अधिकतम सावधानी बरतनी चाहिए। ये दो-धारी ही नहीं बहु-धारी हथियार होते हैं; पलटकर वार कर सकते हैं, दोगुनी-तिगुनी ताकत से कर सकते हैं। राजनीतिक बहसबाजी में तो इसका इस्तेमाल और ज्यादा सावधानी से करनी चाहिए; खासकर अपने को पढ़ा लिखा बतानेवाले या विद्वान प्रवक्ताओं, बहसबाजों से तो यह उम्मीद की जा सकती है। आज राजनीति बाहर से धन और वोट के अलावा कुछ नहीं लिया करती है, ज्ञान तो बिल्कुल नहीं। मुझे लगता है, ज्ञान कोई बाहर से नहीं लेता है। जिससे ज्ञान लेना होता है, उसे पहले अपने अंदर का बना लेता है, उसके बाद लेने पर विचार करता है। खैर!

एक सज्जन जो खुद राजनीति में परिवारवाद का विरोध करते हैं, उनकी पार्टी करती है और ऐसा करने का हक भी है। वे आजकल बार-बार प्रयोग कर रहे हैं – बाप न मारे मेढकी, बेटा तीरंदाज। मेढकी को मारनेवाले जानते हैं कि मेढकी को मारने के लिए न तीर की जरूरत होती है, न तीरंदाजी की। यहाँ, मुद्दा यह है कि बेटा के तीरंदाज होने के लिए क्या बाप का मेढक मारने की न्यूनतम क्षमता की कोई शर्त होती है! ऐसा है तो, फिर यह परिवारवादी शर्त है। इसे पलटकर कोई यह कह दे कि बाप न हुआ पंच और बेटा.... ! खैर जाने दीजिये। किसी कहने, नहीं कहने से क्या होता है? कुछ नहीं होता है, हाँ कुछ नहीं। लोगों को कहने का कुटेव है और अभिव्यक्ति का अधिकार भी सो कहते रहते हैं। कही हुई बात कान से सुनी जाती है; न कही गई बात बिना कान के सुन ली जाती है। कहने को तो तुलसीदास ही कह गये हैं, विभावना शक्ति से जनार्दन, बिना कान के सुनता है और अपने अदृश्य हाथ से सारा काम करता है बिनु पद चलइ, सुनइ बिन काना। कर बिनु करम, करइ बिधि नाना।।’ जनार्दन! आप ही तो जनार्दन हैं! नहीं हैं क्या?

   

 

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