लेखन और आलोचन

आलोचक का दायित्व है कि अपनी पहल पर साहित्य को पढ़ने की कोशिश करे और नये पुराने के बीच तारतम्य की तलाश करे। लिखना एक कला है और पढ़ना भी। लेख लिखने के बाद उस रचना विशेष के लेखन के कला दायित्व से मुक्त हो जाता है और पाठक उस रचना विशेष से आनंद (कभी-कभी मजा) से तृप्त हो जाता है। हर तृप्ति अपने असर में अतृप्ति की गुंजाइश और ललक छोड़ जाती है। आलोचना इस अतृप्ति को साथ लेकर तृप्ति की नई संभावनाओं की तलाश में सृजन के ज्ञात परिप्रेक्ष्य के समकक्ष रचना को समुपस्थित करता है। बातें और भी हैं, संक्षेप में यह कि रचना की आलोचना कार्य तो है भी किसी तरह, लेकिन अनुकंपा तो कभी नहीं, कभी नहीं। संदर्भ महत्वपूर्ण है, विस्तार से लिख सकूँ तो धन्य कोई और लिखे तो कृतकत्य!

इसको भी सलाम! उसको भी सलाम!

क्या महान दृश्य है!
क्या महान दृश्य ॥
जाल में हिलोर मारती मछलियाँ
रसोइये की सलाहकार!
क्या महान दृश्य है!
इसको भी सलाम!
उसको भी सलाम!

जाने अब क्या देखता हूँ!

इनको भी देखा
उनको भी देखा
यह मुल्क अब करे तो क्या करे
तेरी रहनुमाइयों का यह कमाल कि
अब मसीहाई का कोई इंतजार नहीं
शहर सुंदर बनेगा बेदाना बनाकर
और गाँव रहेगा शहर से बेगाना होकर
ये हौसला तेरा और तेरा इकबाल
पिटकर मरेगा सिपाही
घर रह जायेगा कैदखाना होकर
इनको भी देखा
उनको भी देखा
यह मुल्क अब करे तो क्या करे

हिंदुस्तान भी बना लिया
पाकिस्तान भी बना लिया
तेरा रसूख कि मुल्क रह गया
सियासत का निशाना बनकर।

वे दिन जो अब यादों में बचे रहे

वे कुछ दिन थे
अच्छे या जैसे भी थे
थे मगर इस लायक कि बचे रह गये
बचे रह गये यादों में
जब कभी आघात लगता है
मन उन्हीं यादों के दरमियान होता है
चलती है हवा जैसा कि स्वभाव है
हरा भरा कर देती है
कहा था बहुत व्याकुल होकर
कान्हा ने राधा से
हालांकि सामने थी रुक्मिणी
ऐसा दादी ने कहा था
कहा था कान्हा ने
सर्ब सुवर्ण की बनि द्वारिका, गोकुल कि छवि नाहीं
ऐसी बात
सिर्फ राधा से ही कही जा सकती है
भले ही माध्यम रुक्मिणी हो
जब कहती है रुक्मिणी कि
जब इतना प्यारा था गोकुल
तो फिर डगरे क्यों कन्हैया!
कहे भले रुक्मिणी
मगर असल में उलाहना देती है राधा
उलाहना राधा का हक है
रुक्मिणी माध्यम
अब दादी रही नहीं
इस तरह
कहने सुनने का रिवाज भी नहीं रहा
वे कुछ थे जो यादों के दरमियान हैं!