लोकतंत्र से खेल में खून, खतरा और कानून का ककहरा

लोकतंत्र से खेल में खून, खतरा और कानून का ककहरा

हिमाचल प्रदेश सत्तारूढ़ कांग्रेस ने 15 भाजपा के विपक्षी विधायकों को निलंबित कर बजट पास करवा लिया है। प्राथमिक तौर पर माना जा सकता है कि सुखविंदर सिंह सुक्खू की सरकार पर से खतरा टल गया है। हमारे देश की राजनीति में इस तरह की घटनाएं बहुत बढ़ गई है। सरकारें और राजनीतिक दल तो जीत जाती है, लोकतंत्र हार जाता है। निश्चित रूप से आज के नैतिकता विमुख राजनीतिक परिदृश्य में यह एक नैतिक सवाल उठता है। नैतिक सवाल उठना ही चाहिए। विचारधारा के लिए संघर्ष हो या किसी अन्याय के विरुद्ध, एक खतरा हमेशा बना रहता है। खतरा यह कि जीतनेवाला जीतकर कुछ-न-कुछ तो वैसा ही हो जाता है, जैसा होने के खिलाफ वह अपनी जीत दर्ज करवाने की खुशी में जश्न मनाता है।

यही वह खतरा है — हारनेवाला असल में जीत जाता है और जीतनेवाला असल में हार जाता है। विडंबना है कि इस तरह न्याय और अन्याय या उचित-अनुचित की लड़ाई में अन्याय और अनुचित ही जीतता है। इतिहास के अनुभवों का निष्कर्ष तो यही निकलता है कि नीति विहीनता और अनैतिकता जीत की ‘आभा’ को कम नहीं करती है। पहलू बदल जाता है, सिक्का तो वही रह जाता है। लोकतंत्र की लड़ाई पहलू बदलने की नहीं, सिक्का बदलने की लड़ाई है। नीति विहीनता और अनैतिकता के बाहर निकलने की लड़ाई है।

फिलहाल, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार जीती क्या, कहना चाहिए बच गई है। यह संतोष की बात है क्योंकि वह अभी-अभी राज्य सभा के चुनाव में नीति विहीनता और अनैतिकता के कारण हार गई थी, इस लिए सरकार का बचना फिलहाल संतोष की बात है।

डेढ़ सौ के करीब सांसदों को सदन से बाहर निकाले जाने का नजारा अभी इतिहास के खाते में दर्ज नहीं हुआ है, वर्तमान की आंख का कांटा बना हुआ है। व्यावहारिक समझ कहती है, नैतिकता या न्याय-निष्ठता को उसकी पूर्णता में नहीं सापेक्षता में ही देखा जा सकता है। बाजार से गुजरते हुए आदमी कभी-न-कभी खरीददार हो ही जाता है, दुनिया में रहते हुए दुनिया का तलबगार भी होना ही होता है। मनुष्य के मन में पूर्णता के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है, इस आकर्षण में छिपे छलावा से बचना जरूरी होता है। लोकतंत्र में आम नागरिक राजनीतिक दलों की हार-जीत के जल-थल प्रभाव से खुद को अलग-थलग नहीं रख सकता है।

महात्मा गांधी होते तो इस प्रसंग पर क्या सोचते! मारनेवालों ने महात्मा गांधी को मार दिया, लेकिन अपने विचारों में, कर्म और चिंतन की प्रेरणा के रूप में जिंदा हैं और रहेंगे। महात्मा गांधी को यंत्रों का विरोधी माना जाता है। कुछ हद तक वे यंत्र विरोधी थे भी। लेकिन, कारखानों के मामले में वे इस हद तक अपने को समाजवादी भी मानते थे कि बड़े कारखानों का मालिक व्यक्ति को नहीं, राष्ट्र को होना चाहिए और उसे सिर्फ मुनाफा के लिए नहीं होना चाहिए। लोगों की भलाई के लिए होना चाहिए। कारखानों को लोभ से जुदा और प्रेम से जुड़ा होना चाहिए। महात्मा गांधी बाग-बगीचों को ही नहीं कारखानों को भी प्रेम से जोड़कर देखते थे। महात्मा गांधी कारखानों को कायम करने का उद्देश्य जन-हित को मानते थे। महात्मा गांधी के सामने सोवियत का उदाहरण रहा होगा, उन्होंने अपने को किसी हद तक पूंजीवादी नहीं कहा, समाजवादी कहा तो इसका मतलब साफ है।

महात्मा गांधी का यंत्र विरोध यांत्रिक नहीं, नैतिक था, व्यावहारिक था। यहां से यह सीखा जा सकता है कि अनैतिकता के विरोध की नैतिकता को यांत्रिकता से बचाने की जरूरत है। ध्यान रहे, साधन-साध्य की शुचिता के मुद्दे पर भी गांधी नीति में कोई यांत्रिकता नहीं थी, इसे किसी हठधर्मी सैद्धांतिक मिजाज से व्याख्यायित करना भूल होगी। आज के राजनीतिक प्रसंग में भी पूर्ण-नैतिकता की किसी हठधर्मी सैद्धांतिक मिजाज से काम नहीं चलेगा — किसी भी तरह की पूर्णता के छलावा से बाहर रहना ही उचित है।

सामने 2024 का आम चुनाव है। सामने तो, पिछली जीत का दंभ और अगली जीत की हवस का भयानक परिदृश्य भी है। अपने कहे को स्व-प्रमाणित मानकर चलना लोकतंत्र में सरकार के निकृष्ट व्यवहार के अलावा और क्या हो सकता है। किसान आंदोलन के दौरान शहीद आंदोलनकारी शुभकरण सिंह की हत्या की जांच तक करवाने की सामान्य संवेदनशीलता तक इस सरकार में नहीं दिखी है!

जिस आंदोलन  में शुभकरण शहीद हो गया, उस आंदोलन  की मांगें जायज है, नाजायज है यह अलग मसला है, लेकिन जिंदा रहने का हक शुभकरण को था, इससे कोई इनकार कर सकता है क्या? यह सरकार कर सकती है। एक क्षण के लिए मान लिया जा सकता है कि सरकार के न चाहते हुए यह दुर्भाग्यजनक घटना गई, लेकिन उसके बाद का रवैया! पूर्व राज्यपाल, सत्यपाल मलिक ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि प्रधानमंत्री के सामने जब उन्होंने पिछले किसान आंदोलन में सैकड़ों किसानों की शहादत के मामले की चर्चा करनी चाही तो जवाब आया — क्या वे लोग मेरे लिए मरे! ऐसा जवाब देनेवालों से किस संवेदनशीलता की उम्मीद की जाये? संसदीय लोकतंत्र में सरकार के किसी निर्णय का सामूहिक उत्तरदायित्व मंत्री परिषद का होता है। भारत के संविधान के 75(3) की याद, पता नहीं मंत्री परिषद  के सदस्यों का है या नहीं  The Council of Ministers shall be collectively responsible to the House of the People — शाह आयोग के सामने व्यक्तिगत आरोप के जवाब में इंदिरा गांधी की तरफ से यही कहा गया था न! कल को अगर कोई जांच होगी, तो ‘राज भोगने की विवशता’ में खामोश मंत्री संवैधानिक रूप से अपनी सामूहिक जिम्मेवारी से बच नहीं पायेंगे। तब सिर्फ मैथिली शरण गुप्त के जयद्रथ-वध की पंक्ति ही याद नहीं आयेगी — ले डूबता है, नाव को मझधार में; तब दिनकर की भी कविता की याद आयेगी कि ‘समर शेष है’ और समय तटस्थ रहनेवालों का भी अपराध लिखता है। विडंबना है कि ऐसी किसी जांच की नौबत न आये, इस लिए खामोश हैं। यह खामोशी आपराधिक है। उस देश में लोकतंत्र का क्या हो सकता है, जिस देश के मंत्री ही अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति इतने मंदोत्साह और लापरवाह हों। यह नहीं भूलना चाहिए कि जो नेत्र-जल सफलता की सीढ़ी चढ़ते समय आनंददायक होता है, सीढ़ी से उतरते समय वही नेत्र-जल तेजाबी हो जाता है।

राहुल गांधी की संसद सदस्यता को खत्म करने के लिए क्या-क्या न किया गया। चुनाव के समय ‘अपलम, चपलम की चपलाई’ के साथ छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के ‘आंगन आनेवाली’ एजेंसियों की ‘उत्तम कार्रवाइयों’ की याद तो होगी ही न!  कहां गया महादेव एप्प, अब चुप्प! झारखंड का मुख्यमंत्री रखते हुए हेमंत सोरेन जेल भेजे जा चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को आठ बार सम्मन भेजा जा चुका है। अखिलेश यादव को सबीआई (Central Bureau of Investigation) ने वर्ष ‘एकादशी’ पर ‘आदर’ के साथ आमंत्रित किया है। लोग कहते हैं, अवैध खनन के मामले में ‘सत्यान्वेषण’ के लिए अवैध पुरातात्विक खनन हो रहा है।  बार-बार के बुलावे से परेशान तेजस्वी यादव ने तो ‘बिन पानी साबुन बिना’ निर्मल बनने के लिए अपने आंगन में ही ‘विभागी सत्यान्वेषियों’ की कुटिया बनवा देने की बात कह दी थी। एकनाथ शिंदे, अजीत पवार, शुभेंदु अधिकारी, हिमंत विश्व शर्मा जैसे कई लोग ‘पॉवर लोक’ में स्वच्छंद और सानंद विहार कर रहे हैं।

मकसद भ्रष्टाचार को समाप्त करना हो, भ्रष्टाचारियों के ऊपर कार्रवाई करना हो तो निश्चित ही इस से अधिक लोकतांत्रिक काम दूसरा क्या हो सकता है ? कुछ नहीं। साफ-साफ दिखता है कि मकसद भ्रष्टाचार को समाप्त करना नहीं है। ठीक चुनाव के समय विभाग अपनी ‘शीत-निष्क्रियता’ से बाहर क्यों निकलते हैं! कहते हैं कि असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर साइकिया के हारने के बाद जब छात्रों के हॉस्टल से निकलकर सीधे सचिवालय पहुंचने की नौबत आ जाने पर अधिकतर वरिष्ठ अधिकारी गुवाहाटी से पहली उड़ान पकड़ने के फिराक में लग गये थे। बदले की कार्रवाई न होने के निश्चित आश्वासन पर डरते-डरते अधिकारी वापस आये थे। इस अनुभव से भी कुछ सीखा जा सकता है।

पाप में शामिल बाल-बच्चेदार अधिकारी भी सत्ता बदल से बहुत डरे हुए होते हैं, और जी जान से सत्ता बदलाव के विरोध में सक्रिय रहते हैं। ध्यान रहे लोकतंत्र बदलाव को स्वीकारता है, बदला लेने की प्रवृत्ति को धिक्कारता है। इतिहास से सीखें तो जनता पार्टी की सरकार ने बदलाव को बदला लेने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहा था, उस सरकार की कई गलतियों में से एक प्रमुख गलती यह भी साबित हुई थी। 

दुखद है कि बाल-बच्चेदार लोगों ने महात्मा गांधी की इस बात को नजरंदाज कर दिया कि सच्चे अर्थ में निष्पाप रहने के लिए सुख और सुविधा के लालच को नियम-भंग नहीं करने देना चाहिए। लोभ को मर्यादा में रखना चाहिए। वे ऐसा न कर सके होंगे या अन्य कारणों न सिर्फ सेवा शर्तों का उल्लंघन कर बैठे होंगे और न निकल पाने की बुरी स्थिति में फंसते चले गये होंगे। विपक्षी गठबंधन को कम-से-कम ऐसे अधिकारियों के लिए, उनकी आत्म घोषणा (Self-Disclosure) के आधार पर, आम माफी के किसी-न-किसी रास्ते की घोषणा या इशारा करना चाहिए। कहते हैं हम्माम में सभी नंगे होते हैं। नेताओं के हम्माम में कोई दीवार नहीं होती है। उनका इधर-उधर होना आम लोगों को भी दिखता रहता है। कुर्सीबद्ध नौकरशाहों के हम्माम की दीवारें बहुत अपारदर्शी होती हैं, उनका इधर-उधर होना, निष्ठा बदलना किसी आम आदमी को नहीं दिखता है।   

भ्रष्टाचारी बिल्कुल आश्वस्त हैं। सरकार भ्रष्टाचारियों या भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं है, उनके अपने दल से बाहर रहने से खफा रहती है। संस्कृति और संस्कार की बड़ी-बड़ी बातें अपनी जगह ‘शीरीमानों’ के तो मुहं तक नहीं खुलते, जुबान हिलती तक नहीं। क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भारतीय जनता पार्टी को दुनिया के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी राजनीतिक दल में के रूप में विकसित होने की खुली छूट दे रखी है? कहाँ हवा में उड़ गया चाल-चरित्र-चेहरा से महिमा-मंडित संकल्प जो भय-भूख-भ्रष्टाचार से संघर्ष करने चला था! सुख और सुविधा की सीढ़ी का हत्था पकड़ते ही श्रीमान श्रीहीन हो गये! अचरज होता है, नियमित रूप से मातृ-वंदना करनेवालों की मातृ-भक्ति की अपराजेय खामोशी के उदाहरणों को देखकर।    

यह लोकतंत्र है। लोकतंत्र नर को नारा लगाते-लगाते नारायण होने का रास्ता देता है, नराधम हो जाने को बरदाश्त नहीं करता है। सागर में गोता लगाइये या शिखर पर चढ़कर सूरज को पकड़ लीजिये, लोकतंत्र सागर से शिखर तक आवाजाही की अपरंपार सुविधा देता है। लोकतंत्र जनविरोधी रुझानों की निरंतरता को एक हद के बाद कभी बरदाश्त नहीं करता है। तीन तेरह का तिकड़म ताल बहुत दिन तक साथ नहीं देता है।                

राजनीतिक लाभ बटोरने के लिए सामाजिक ही नहीं हर तरह के अन्याय और संसाधनिक असंतुलन को बढ़ाने और सामाजिक शांति को बिगाड़ने से, यह सरकार कभी परहेज नहीं करती है। लगता है इसके मिजाज में किसी भी लोकतांत्रिक मूल्य के लिए कोई सम्मान नहीं है। अराजकीय कारक और कारण (Non State Actor And Factor) पर कोई रोक नहीं लगाती है। अधिकार की बात करनेवालों के विरुद्ध तरह-तरह के हथकंडे आजमाती रहती है। जो सरकार रोजी-रोजगार का महत्व न समझे, उस से किसी भी प्रकार के न्याय की उम्मीद अपने को धोखा में रखना है। ‘धोखा बाजार’ किसी-न-किसी  दिन उठेगा जरूर। 

लोकलुभावन राजनीति के अनुरूप  बार-बार अपने को ‘तीसरे के रूप’ में पेश करते हुए अपने नाम की गारंटी देना क्या दर्शाता है? यह खतरनाक प्रवृत्ति है। अपनी बात को ‘किसी तीसरे की बात’ के रूप में पेश करने या दिखाने की प्रवृत्ति में आत्म-विच्छिन्नता का (Dissociative Identity Disorder — DID) व्यक्तित्वगत दोष (Illeism) होता है। इस दोष को उच्च स्तर की भाषण कला,  शब्द-निपुणता समझना भूल है। इस देश में संविधान की गारंटी नहीं बची है क्या! अगर हिफाजत हो तो, देश के नागरिकों के लिए संविधान की गारंटी ही काफी है। कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया कायम है। उम्मीद की जानी चाहिए, संवैधानिक गारंटी की हिफाजत होगी, अन्याय को चुनौती देने के लिए इस कठिन काल में न्याय यात्रा जारी है।  

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

 

      

 

मुद्दा क्या है! ‘घनचक्करों’ और ‘धनचक्रों’ का तिकड़म ताल : मुद्दा है लोकतंत्र अब हो बहाल!

मुद्दा क्या है! ‘घनचक्करों’ और ‘धनचक्रों’ का तिकड़म ताल : मुद्दा है लोकतंत्र अब हो बहाल! 

प्रफुल्ल कोलख्यान

 

गिने-चुने दिन रह गये हैं। आम चुनाव 2024 सामने है। विभिन्न राजनीतिक दल और गठबंधन अपने-अपने चुनावी कार्य-क्रम और कार्य-सूची (एजेंडा) बनाने में जुटे हुए हैं। चुनावी मुद्दा की सूची तैयार कर रहे हैं। इस समय काम चल रहा है। एक-दूसरे की तरफ ताक कर रहे हैं। जैसा परीक्षा के दौरान परीक्षार्थी अपना-अपना पर्चा लिखते लहते हैं और बीच-बीच में नजर घुमा-घुमाकर टोह लेते रहते हैं कि अन्य साथी परीक्षार्थी क्या कर रहे हैं! सुना है आजकल कॉपी जांचनेवालों के पास भी प्रश्नों के ‘मॉडल आंसर’ तैयार रहता है।

चुनावी परीक्षा का परीक्षार्थी नेता-वृंद होते हैं या ‘जनता जनार्दन’ ? इस सवाल को ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना। कुंडे-कुडे नवं पयः जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे।’ का स्मरण करते हुए आगे बढ़ना ही उचित है। फिलहाल, यह प्रस्ताव है कि परीक्षार्थी और परीक्षक दोनों ही मतदाताओं को मानना चाहिए। नेता की स्थिति ‘लीक पेपर’ के ‘मॉडल आंसर’ की होती है। कुछ लोग कहते हैं कि जांच का अधिकार मतदाता के पास ही होता है, सही कहते हैं ऐसा ही होता होगा। चुनावी रैलियों, सभाओं, घोषित-अघोषित रूप से ‘मार्ग दर्शक मंडल’ के बहार रह गये नेता-वृंद जनता का ‘मार्ग प्रदर्शन’ (Road Show) करते हुए ‘आंसर’ देते नहीं थकते हैं! मतदाताओं का क्या भरोसा, कब किसे ‘मार्ग दर्शक मंडल’ का मार्ग दिखला दे। नेतागण समझते हैं कि परीक्षार्थी वे हैं। इस लिए मतदाताओं के पास नेतागण अपना ‘आंसर’ जमा करते रहते हैं। आम मतदाता भी मन-ही-मन परीक्षा दे रहा होता है। परीक्षार्थी और परीक्षक दोनों के रूप में अपना फैसला सुनाने का अधिकार मतदाताओं के पास ही होता है। फिर भी ध्यान रहे विशेषाधिकार, केंद्रीय चुनाव आयोग के पास होता है। अब इस विवाद में क्या पड़ना कि ‘अधिकार’ अधिक ‘पॉवरफुल’ होता है या ‘विशेषाधिकार’ अधिक ‘पॉवरफुल’ होता है! गफलत में न रहे कोई, सच्चा और सुच्चा ‘मॉडल आंसर’ केंद्रीय चुनाव आयोग के पास ही होता है।

आजकल परीक्षार्थी ‘पेपर लीक’ से बहुत परेशान रहते हैं। परीक्षा में ‘पेपर लीक’ का मतलब सिर्फ सवालों के आम होने तक सीमित नहीं रहता है, उसका ‘मॉडल आंसर’ भी उपलब्ध हो तभी इस कुचक्र चक्कर पूरा हो सकता है। क्या पता, ‘मॉडल आंसर’ भी उपलब्ध करवा दिया जाता होगा। मुद्दा तो यह भी है।

अब 2024 का आम चुनाव सामने है तो लोगों को अपना मुद्दा तय करना चाहिए। यहां तो सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। न केवल तय करना चाहिए, बल्कि मुहँ भी खोलना चाहिए। जिस तरह रोशनी से अंधकार दूर हो जाता है, उसी तरह वाणी से भय दूर हो जाता है। लोकतंत्र की यही तो बड़ी खासियत है कि यह गूंगों को भी जुबान देता है। यह अलग बात है कि बहुत सारे वाचाल लोग भी, जरूरत के समय ‘समझदारी के सुख में लिपटकर’ जुबान को आराम देते हैं! खामोश रहते हैं। बोलने के अधिकार में चुप रहने का अधिकार स्वतः शामिल है। गालिब ने कहा था —  गालिब ने कहा — गा

 

 

 

 

 

 

मैं भी मुंह में जुबान रखता हूं काश, पूछो कि मुद्दआ क्या है! लोकतंत्र पूछ रहा है कि मुद्दा क्या है! आम मतदाताओं को भी खुद से ही सही, पूछना ही चाहिए कि मुद्दा क्या है ?

क्रम कुछ भी हो सकता है। आम चुनाव का मुद्दा है —  लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना।  सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करना। संवैधानिक ईमानदारी से जाति-गणना और आर्थिक सर्वेक्षण करवाना। आंदोलनकारियों के साथ संवैधानिक तरीके से पेश आना। शहरीकरण के साथ-साथ गांवों का सभ्य और बेहतर जीवन के लिए नवीकृत करना। ग्रामीण समस्या और किसानी की दिक्कतों को दूर करना।

नागरिकता और राष्ट्रीयता के मुद्दों पर हुज्जत न पसारना तथा नागरिकता के सवाल के साथ बिना मतलब का छेड़-छाड़ बंद करना। महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं यौन सुरक्षा के लिए सभी कानूनी उपायों को बिना भेदभाव के लागू करना। स्वायत्त संवैधानिक ढाँचों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाना। नौकरशाही को दलीय क्रिया-कलाप की जरूरतों को पूरा करने के काम में नहीं लगाना। पोसुआ पूँजीवाद (Crony Capitalism) और उस से मिली-भगत (Quid Pro Quo) को बंद करना। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा असंवैधानिक घोषित धुरफंदिया चुनावी फंड (Electoral Bonds) जैसी किसी योजना को न लाना। किसी भी तरह की ‘उगाही’ के लिए उद्योगपतियों या कारोबारियों पर सरकारी विभागों का दबाव न बनाना।

विघटनकारी और विभाजनकारी जनविद्वेषी वक्तव्यों (Hate Speech) पर पूरी तह से रोकना और ऐसे वक्ताओं पर बिना भेदभाव के कार्रवाई करना। ‘बुलडोजर न्याय’ की बढ़ती प्रवृत्ति पर तुरत रोक लगाना। देश के संघात्मक ढाँचा  के प्रति सम्मान बनाये रखना। पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार और विश्व शांति के लिए कूटनीतिक प्रयास जारी रखना। रोजगार के लिए समुचित अवसर बनाने के लिए सदैव तत्पर रहना। सामाजिक और सांस्कृतिक संतुलन बनाये रखना। सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन के उपायों पर अमल करना।  राजनीतिक ‘लाभार्थी’ की जगह संवैधानिक भावनाओं के अनुरूप आधिकारिकता (Entitlement) का आदर करना।

सामाजिक दक्षता (Social Efficacy) के उपयोग से हुए सामुदायिक प्रभुता (Community Dominance)  का राजनीतिक इस्तेमाल लोक-हित में ही करने को बढ़ावा देना और व्यक्ति वर्चस्व  को बढ़ने से रोकना। धर्मों के वास्तविक स्वरूप और उसके नैतिक मूल्यों की रक्षा करना। नागरिकों के बीच सह-अस्तित्व एवं सहिष्णुता की प्रवृत्ति  को बढ़ावा देना। पेंशनार्थियों का हक मारने को रोकना एवं वरिष्ठ नागरिकों की रियायतों को जारी रखना।

विभागीय कार्रवाइयों का डर दिखाकर से भिन्न विपक्षी राजनीतिक दलों से जुड़े जन-प्रतिनिधियों को बहलाने, फुसलाने, रिझाने, लुभाने के कपट से लोकतांत्रिक मूल्यों पर चोट को रोकना। राजकोषीय संतुलन (Fiscal Balance) की अवहेलना न करना। राजनीतिक लाभ-द्वेष को ध्यान में रखकर देश की सुरक्षा के लिए किये गये कानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल, नागरिकों, बुद्धिजीवियों, छात्रों आदि के विरुद्ध किये जाने को रोकना।        

 

राजनीतिक मायावाद कहें, विभ्रमवादी राजनीति कहें, आम नागरिकों को नेताओं की बाजीगरी से बाहर निकलना ही होगा। विकास के नाम पर आम नागरिकों को लूटने और पूंजीपतियों के घर भरने की छूट देना बंद करना होगा। पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से आम मतदाताओं को सोचना ही होगा, आखिर ये भविष्य का नहीं वर्तमान के मुद्दे हैं।

 

भारत ऋषियों-मुनियों-दार्शनिकों, सत्यान्वेषियों, कवियों, मनीषियों का भी देश रहा है।  लोक में इनके प्रति नैसर्गिक सम्मान रहा है। औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति के लिए प्रयास करनेवाले लोगों को इस देश के लोग वही नैसर्गिक सम्मान देते थे। नैतिक एवं संवैधानिक प्रावधानों का पालन लोगों के उस नैसर्गिक सम्मान का प्रतिदान है।  बूढ़ों के सम्मान और युवाओं के उत्साह से किसी देश का मान बढ़ता है। देश में भगवान राम की चर्चा खूब हो रही है, बूढ़ों के सम्मान और युवाओं के उत्साह के संदर्भ में एक प्रसंग का उल्लेख, शायद उपयोगी हो।

अथाह समुद्र को पार कर सीता की सुध लाने के लिए खोजी दल के सभी सदस्य अपनी-अपनी ताकत का अनुमान लगा रहे थे। हनुमान चुप थे। रीछपति, जामवंत ने हनुमान से पूछा तुम क्यों चुप हो! तुम पवन पुत्र हो, बल में पवन के समान। पवन तो कहीं भी आ, जा सकता है। बुद्धि, विवेक और ज्ञानवान हो। युवा हनुमान ने बूढ़े जामवंत को कोई जवाब नहीं दिया।  हनुमान के जवाब के इंतजार में किष्किन्धाकांड समाप्त हो गया।

जब जामवंत की अच्छी बात हनुमान को भी अच्छी लगी तब ही सुंदरकांड प्रारंभ हो पाया। अब यहां कम-से-कम दो सवाल विचारणीय हैं, बस अपने लिए। पहला यह कि जामवंत ने हनुमान को पवन पुत्र कहकर प्रेरित किया था। क्या जामवंत ने परिवारवाद को बढ़ावा देने का दोष किया था ?

दूसरा यह कि वृद्ध (जामवंत) की प्रेरणाएं युवाओं (हनुमान) को अच्छी लगे और सक्रिय कर दे क्या, तब ही सुंदरकांड का प्रारंभ होता है ?

 

‘घनचक्करों’ और ‘धनचक्रों’ की रणनीतिक चौकसी के बीच परेशान मतदाताओं का मुद्दा है लोकतंत्र बचाओ!

 

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

झुंडी-मुंडीकरण की राजनीतिक रणनीति और भारत का लोकतंत्र

झुंडी-मुंडीकरण की राजनीतिक रणनीति और भारत का लोकतंत्र   


किसान आंदोलन पर हैं, भारत में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में। भारत में आंदोलन  पर व्यवस्था जिस तरह से कहर ढा रही है, वह अप्रत्याशित है। जिससे निदान की अपेक्षा हो वही अप्रत्याशित व्यवहार करने लगे तो मामला कुछ अधिक ही गझिन हो जाता है। किसान जीवन की समस्याओं पर निष्ठुरता से नहीं, समझ और सहानुभूति के साथ विचार किया जाना बहुत ही जरूरी है। इसका एक स्थानीय प्रसंग हैं तो वैश्विक प्रसंग भी है। किसान जीवन की समस्या की जड़ में एक बात यह भी है कि जितनी तेजी से अर्थव्यवस्था का शहरीकरण हुआ उस अनुपात में अर्थव्यवस्था का ग्रामीकरण न के बराबर ही हुआ। किसानों की समस्याओं का गहरा संबंध संपूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था और जाति-आधारित पदानुक्रमिक  समाज व्यवस्था  से है। किसान आंदोलन में जुटे आंदोलनकारियों को सिर्फ भीड़ मानकर चलना अपने को गफलत में रखना है।

आम नागरिकों के प्रति सरकार का रवैया लोकतांत्रिक तो बिल्कुल ही नहीं है। सिर्फ किसान आंदोलन के आंदोलनकारियों के प्रति ही नहीं, सरकार से किसी भी तरह के लोकतांत्रिक सवाल करनेवाले, अपना हक माँगनेवाले व्यक्ति, समूह, समुदाय के साथ  ‘लोकतांत्रिक सरकार’ जैसा व्यवहार कर रही है, वह भयानक है। लगता है सतरू (सत्तारूढ़) पक्ष पूरे देश को झुंड-मुंड में बदल देने की अपनी चुनावी परियोजनाओं के सफल होने के प्रति “आश्वस्त” है। रोजी-रोजगार के लिए पात्रता की उम्र गँवाते युवा आकुल-व्याकुल हैं। रोजगार परीक्षाओं को पेपर लीक के बेलगाम सिलसिले में झोंक दिया गया है। सरकारी नीति से ‘अगनिवीर’ पस्त हैं। पुरानी पेंशन की माँग को टरकाने, भटकाने से रिटायर्ड लोग हैं। वरिष्ठ नागरिकों को मिलनेवाली सहूलियतों के कानून अपनी जगह, अपमानित और रियायतों से वरिष्ठ नागरिक वंचित हैं। मोटर गाड़ी से रौंद कर किसानों को मार दिये जानेवाले को प्रश्रय दिये जाने, विपक्षी नेताओं पर केंद्रीय चुनाव आयोग समेत संवैधानिक संस्थाओं की विवेकहीन कार्रवाई किये जाने, नाजायज और असंवैधानिक तरीके से फंड जुगाड़ने जैसे किसी भी मुद्दे पर खौलते सवालों के प्रति सरकार का रवैया अप्रत्याशित ढंग से लापरवाह निष्ठुर और आक्रामक होता है। नागरिक समस्या के प्रति ऐसा रवैया, क्या लोकतांत्रिक पद्धति से चुनकर आई किसी ‘लोकतांत्रिक सरकार’ का हो सकता है? बिल्कुल ही नहीं। कारण नागरिक ‘असंगठित’ सरकार ‘संगठित’! ‘असंगठित’ पर ‘संगठित’ का वर्चस्व तो सभ्यता संकट का मूल है; असंगठित यानी स्वाभाविक रूप से विकेंद्रित और संगठित यानी आक्रामक ढंग से केंद्रित।

पूँजीवाद और लोकतंत्र में एक स्वाभाविक अंतर्विरोध होता है; पूँजीवाद में सर्व-केंद्रीयकरण की अपराजेय प्रवृत्ति होती है, जबकि लोकतांत्रिक विचारों के अंतःकरण में सर्व-विकेंद्रीयकरण का आश्वासन  होता है। लोकतांत्रिक नेतृत्व में सर्वसत्तावाद का रुझान पूँजीवाद के माफिक बैठता है। अद्भुत नजारा होता है। कभी पूँजीवाद सर्वत्तावाद की गोद में तो, कभी सर्वत्तावाद पूँजीवाद की गोद में; यानी तू मुझ में है, मैं तुझ में हूँ! सर्वत्तावादी राजनीति लोकतंत्र और पूँजीवाद के बीच संतुलन बनाये रखने की कोई कोशिश नहीं करती है, इस तरह से लोकतांत्रिक     ढाँचे में बहुमत का नहीं तानाशाही हुकूमत का दखल हो जाता है। बहुमत पर बहुसंख्यक अपनी सवारी कस लेता है।

क्या माहौल है! अल्पसंख्यकों के ‘तुष्टीकरण’ का होहल्ला मचाकर नागरिक मिजाज में राजनीति का ‘दुष्टीकरण’ कर दिया गया है। इतना ही नहीं, संवैधानिक संस्थाएँ भी अपनी कार्रवाइयों के ‘लुच्चीकरण’ के रास्ते पर आगे-आगे चलते हुए, बिना कंधा बदले सत्ता की पालकी को 400 के पार ले जाने के लिए निकल पड़ी है। कहाँ है न्याय, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय? क्या संवैधानिक न्याय को ‘बुलडोजर न्याय’ से विस्थापित नहीं कर दिया गया है?  

असल में, भारत का लोकतंत्र आज कई संचयी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं से घिर गया है। भारत की आजादी के बाद से ये समस्याएँ धीरे-धीरे संचित होती रही हैं। इन समस्याओं का समग्र प्रभाव राजनीतिक लोकतांत्रिक की संरचना पर रह-रहकर उभर रहा है। राजनीतिक रूप से सरकारी नौकरियों के लिए उचित ही आरक्षण का तात्कालिक संवैधानिक उपाय किया गया था। दीर्घकालिक उपाय तो सामाजिक रूप से ही हो सकता है। डॉ. आंबेडकर  इस बात को बहुत गहराई से समझते थे। इसलिए उन्होंने बहुत ही संवेदनशील लहजे में कहा कि राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में बहुत जल्दी न बदला जा सका तो भारत के राजनीतिक लोकतंत्र को झटका लग सकता है। इस संवेदनशील लहजे को ‘करुणा विगलित’ नजरिये से देखने की कोशिश हमें भरमा सकती है। लोकतंत्र में अंतर्निहित अनिवार्य मूल्यों को जातिवाद से बाहर निकलकर गहरी सांस्कृतिक समझ और समकारक (ईक्वलाइजर) सहानुभूति से ही स्वीकार किया जा सकता है। यह सच है कि लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में नहीं बदला जा सका और आज भारत के राजनीतिक लोकतंत्र को ‘झटका-पर-झटका’  लग रहा है।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जाति-व्यवस्था और लोकतंत्र को परस्पर विरोधी मानते थे। भारत में हिंदु धर्म में निहित जाति-व्यवस्था का दुष्प्रभाव सिर्फ जन्म आधारित अपरिवर्तनीय सामाजिक पदानुक्रमिकता तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि इसमें श्रेष्ठताओं और हीनताओं का अनिवार्य भाव-बोध भी सांस्कृतिक रूप से बद्धमूल रहता है। जातिवाद आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी लोकतांत्रिक मूल्यों और अवसरों को विघटित करता है। सरकारी नौकरियों आदि में आरक्षण की व्यवस्था से समुदाय से जुड़े व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में थोड़ा-बहुत दी सही बदलाव तो आ जाता है, लेकिन न तो उस व्यक्ति की अपनी सामाजिक स्थिति में और न उसके समुदाय की सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव आ पाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकारी नौकरियों आदि में आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक स्थितियों में बदलाव का औजार नहीं हो सकती है। आरक्षण की व्यवस्था से तात्कालिक राहत तो मिलती है, लेकिन इस आरक्षण व्यवस्था में दीर्घकालिक सामाजिक बदलाव का उपाय निहित नहीं रहता है। सहानुभूति रखनेवाले उच्च-वर्ग या जाति के थोड़े-बहुत लोग अपनी बौद्धिकता या संवेदनशीलता में सामाजिक बदलाव को लेकर चाहे जितने भी निष्कलुष हों एक अपूरणीय  फाँक (Unbridgeable Gap) तो उनके विचार और संवेदना में रह ही जाती है। प्रसंगवश, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और उनके समकालीन उच्च-वर्ग या जाति के लोगों सामाजिक स्थितियों के मूल्यांकन या बदलाव के संदर्भ में व्यक्त चिंताओं को देखने से इस अपूरणीय  फाँक (Unbridgeable Gap) का पता आसानी से चल जायेगा।

यह अपूरणीय फाँक (Unbridgeable Gap) जीवन के अन्य प्रसंगों में भी बहुत आसानी से दिख जायेगा। इस अपूरणीय  फाँक को उसके यथार्थिक स्वरूप में न देखकर पीड़ित समुदाय के लोग (अधिकतर बुद्धिजीवी) शंका की नजर से ही देखते रहे हैं। उनकी नजर में उच्च-वर्ग या जाति में पैदा लेनेवाला हर आदमी उनके लिए एक ही तरह का है, चाहे वह उनकी ही तरह से क्यों न सोचता हो। यह एक दुष्चक्र है। किसी का किसी समुदाय में पैदा होने को उसके मूल्यांकन का आधार मानने के खिलाफ की लड़ाई में लगे व्यक्ति को केवल उसके पैदा होने के आधार पर ही ‘दोस्त-दुश्मन’ मानना ही तो जातिवाद है। इसमें एक पेच है, राजनीतिक पेच। किसी समुदाय के हित को उसी समुदाय के किसी व्यक्ति के नेतृत्व से नत्थी कर देने से सामाजिक और लोकतांत्रिक, दोनों ही मूल्यों की हानि होती है। नेतृत्व हासिल करनेवाले व्यक्ति को लाभ होता है, राजनीतिक लाभ, चुनावों में वोट को एकमुश्त कर लेने का लाभ।

सामाजिक और लोकतांत्रिक हानि क्या होती है? सामाजिक हानि यह है कि इससे जातिवाद और अधिक आक्रामक बन जाता है।  वर्चस्वशाली समुदाय का उत्पीड़न बढ़ जाता है। उत्पीड़न का एक नया-नया मकाम बनने लग जाता है। कोई अपने जाति-समुदाय के नेता के आगे नाक रगड़े या किसी उच्च कही जानेवाली जाति में पैदा वर्चस्वशाली नेता के सामने नाक रगड़े, उसे क्या फर्क पड़ता है? लोकतांत्रिक क्षति यह होती है कि नेतृत्व में समुदाय को उसके हाल पर छोड़कर खुद वर्चस्वशील बनने और पहले से सक्रिय वर्चस्वशाली लोगों की जमात में शामिल होने की प्रवृत्ति उफान मारने लगती है। सामुदायिक प्रभुता का राजनीतिक इस्तेमाल समुदाय की वास्तविक सामाजिक स्थिति में समकारक बदलाव लाने में नेतृत्व दिलचस्पी खो देता है। अपने ही समुदाय और अपनी जाति पर वर्चस्व बनाये रखने में नेतृत्व अपनी सारी राजनीतिक ताकत खपाने लगता है। इस तरह जिससे ताकत मिलती है, उसी के हित के विरुद्ध आचरण करने लगता है। यही तो अन्य राजनीतिक नेता भी करते हैं। लोकतांत्रिक पद्धति से लोक की ताकत पाकर राजनीतिक नेताओं का यही लोक-विरुद्ध आचरण आज के लोकतंत्र का संकट है!

भारत की आजादी के बाद सत्ता-प्रदायी राजनीति के पीछे जितनी तेजी से लोग भागे, समाजसुधारी राजनीति से उस से अधिक दूर होते गये। आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ राम मनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह, ज्योति बसु, कर्पूरी ठाकुर, कांशी राम जैसे कई नेता जरूर कुछ आशा जगाते थे। लेकिन जल्दी ही सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध और सशक्त अनुयायी के अभाव में वे बौद्धिक चर्चा में तो बने रहे, लेकिन व्यावहारिक राजनीतिक में अप्रासंगिक होते चले गये। भारत का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान मिलना सचमुच गर्व की बात है, लेकिन समाजवादी आंदोलन के ‘फिनिश्ड प्रोडक्ट’ की हालत देख ही रहे हैं। उम्मीद तो वामपंथी राजनीतिक दलों से भी बहुत रही, लेकिन देर-सबेर वे भी सत्ता-प्रदायी राजनीतिक प्रक्रिया में अपना सर्वस्व खो बैठे और आज राजनीतिक दिवालियापन की स्थिति में पहुँच गये हैं। यह एक लंबी और त्रासद कथा है, फिर कभी। प्रभुता में मद तो होता ही है, मोह भी होता है। सामाजिक बदलाव की राजनीति प्रभुता के मद में उतना नहीं डूबी जितना मोह में फँसी। कहने का तात्पर्य यह है कि  सत्ता-प्रदायी राजनीतिक प्रक्रिया की वैकल्पिक राजनीति, समाजसुधारी राजनीति शक्ति और दृढ़ता से आगे-आगे चल नहीं सकी। भारत की राजनीति ने वह दौर भी देखा है, जब पारस्परिक सहमति-असहमति के बावजूद सह-अस्तित्व, सम्मान के साथ कई आदरणीय सक्रिय थे। कहाँ वह दौर, कहाँ आज का यह दौर।

सामाजिक बदलाव का संकल्प लेकर राजनीति में सक्रिय हुए अधिकतर नेताओं का जुड़ाव निश्चित रूप से कांग्रेस से था। नेहरू युग के बाद राजनीतिक जरूरतों और उससे अधिक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण कांग्रेस पार्टी राजनीतिक तात्कालिकताओं में फँसती चली गई। सामाजिक बदलाव की राजनीतिक आकांक्षा को प्रतीकी ढंग से अंजाम देती रही, वह भी वोट के कारण। सामाजिक बदलाव की परियोजनाएँ लागू होने में असहनीय विलंब को बर्दाश्त न कर सकी, कांग्रेस पार्टी खंड-खंड होती रही और फिर-फिर सम्हलती रही। राजनीतिक आपातकाल की कहानी भयंकर है, लेकिन इसके कारण और परिणाम के विस्तृत और स्वतंत्र विश्लेषण की भी आज जरूरत है।

कांग्रेस के खंड-खंड होने के पीछे द्विदिश पाखंड से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। 2004 तक कांग्रेस या उसका गठबंधन जब भी शासन में रहा, निश्चित ही समस्याओं से जूझता रहा।  हाँ, इस बीच कुछ बेहतरीन लोकहितकारी योजनाएँ भी बनाई गई। कुछ अच्छे कानून भी लागू किये गये। लेकिन 2014 तक आते-आते राजनीतिक माहौल में बुनियादी परिवर्तन आ चुका था। भारत की आजादी के दौरान लगभग अलग-थलग रही हिंदुत्व की राजनीति अब पूरे उफान पर पहुँच गई थी। लोकलुभावन राजनीति के प्रवेश से भारत के राजनीतिक माहौल में बुनियादी परिवर्तन आ गया था। लोकप्रिय राजनीति और लोकलुभावन राजनीति में बहुत अंतर होता है। अच्छे दिन के आने के वायदों और ऐसे ही बहुत सारे वायदों, जिन्हें बाद में जुमला कह दिया गया, ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया। अन्य बातों के साथ-साथ आम नागरिकों को इस में ‘वैकल्पिक राजनीति’ की झलक दिखने लगी। धीरे-धीरे यह वैकल्पिक राजनीति एक बड़े नाटक, ‘इपिसोड’ में बदल रही थी। भारी बहुमत से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गये। उसके बाद विकसित हुई राजनीति का चाल-चरित्र-चेहरा धीरे-धीरे खुलने लगा। क्या और कैसे हुआ, यह अधिक विस्तार और स्वतंत्र रूप से अलग विश्लेषण का विषय है।

आज की परिस्थिति संक्षेप में, यह है कि राजनीतिक अतिचार से घबराये कांग्रेस से अलग हुए सामाजिक न्याय के झंडाबरदार विभिन्न राजनीतिक दल अपनी प्रासंगिकता बहाल करने के लिए कांग्रेस के साथ आ गये हैं। राजनीतिक प्रासंगिकता खोती जा रही कांग्रेस के लिए भी यह राहत की बात साबित हो रही है। चुनावी गठबंधन के अलावा इं.ड.इ.आ (I.N.D.I.A - इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) के बनने के इस महत्व को समझने की जरूरत है। स में एक चेतावनी भी छिपी है, यदि कांग्रेस समेत, सामाजिक न्याय के सभी झंडाबरदार दल सत्ता-प्रदायी राजनीति के फाँस से बाहर निकलकर समाजसुधारी राजनीति की तरफ गंभीरता से नहीं लौटते हैं, तो वे अपनी राजनीति को फिर से अप्रासंगिकता के भँवर में डूब जाने से बचा नहीं पायेंगे। दूसरी बात यह भी है कि कांग्रेस यदि सत्ता-प्रदायी राजनीति के बाहर अपने राजनीतिक एजेंडे पर नहीं लौटेगी तो उसे भी भयानक संकट का सामना करना पड़ेगा। ऐसा विश्वास है कि भारत जोड़ो न्याय यात्रा के “न्याय योद्धा राहुल गांधी” सामाजिक अन्याय की राह न छोड़ेंगे। फिलहाल, यह तो देखने की बात है।

राजनीतिक रैलियों में मतदाताओं का एक जगह पर जुटना-जुटाना आम बात है। मतदाताओं के जुटान को मात्र भीड़ समझना या कहना एक असामान्य बात है। लोकतंत्र का प्राण बहुमत में निवास करता है। बहुमत को विवेक से विच्छिन्न कर दिया गया है। बहुमत को बहुसंख्यकवाद में बदल दिया गया है। अपने हर अन्याय में 140 करोड़ के समर्थन का दबदबा दिखाने के दंभ ने रैलियों में जुटनेवाली भीड़ को सहज और सामान्य नहीं रहने दिया है। लोकलुभावन राजनीति भीड़ को झुंड में बदलकर राजनीति का झुंडीकरण करती है। बात यहीं नहीं रुकती है, कुछ नेता भीड़ के जुटान से हुलसित होकर कह उठते हैं कि जहाँ तक देखिये, मुंड-ही-मुंड दिखता है। लोकतंत्र का ‘झुंडी-मुंडीकरण’ लोकलुभावन राजनीति के प्रगल्भ नेता को हर तरह के स्वार्थ साधने की सहूलियतें देता है।

यह सच है कि एक बार लोकलुभावन राजनीति में फँसने के बाद लोकतंत्र का बाहर निकलना आसान नहीं होता है। लेकिन यह भी सच है कि लोकलुभावन राजनीति का दौर बहुत दिन तक नहीं चल सकता है, खासकर भारत जैसे देश में। भारत जैसे देश में इसलिए नहीं चल सकता है कि सामाजिक अन्याय और आर्थिक अन्याय से उत्पीड़ित जनता के जीवन में भावुकता की चादर के नीचे नई-नई उत्पीड़कताओं को लोकलुभावन राजनीति जन्म देती रहती है। उत्पीड़कताओं की समग्रता को कम करने में पचकेजिया मरहम कम नहीं कर पाता है।  

लोकतंत्र की इस परिस्थिति से मन कुम्हलाता तो जरूर है। मन कोई पहली बार नहीं कुम्हला रहा है। झुंडी-मुंडीकरण से बचना होगा, मन को कुम्हलाने से बचाना होगा, पढ़िये कबीर को साभार ———

काहे री नलिनी तूं कुमिलांनीं।

तेरे ही नालि सरोवर पांनी॥ टेक॥

जल मैं उतपति जल में बास,

जल में नलनी तोर निवास॥

ना तलि तपति न ऊपरि आगि,

तोर हेतु कहु कासनि लागि॥

कहैं कबीर जे उदिक समान,

ते नहीं मूए हंमरे जांन॥

 

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

किसानों के लिए ‘निधि सम्मान’ से अधिक जरूरी है ‘विधि सम्मान’ की व्यवस्था

किसानों के लिए ‘निधि सम्मान’ से अधिक जरूरी है ‘विधि सम्मान’  की व्यवस्था 

सपनों का समय आ गया है। एक दौर से निकलकर दूसरे दौर में पहुंच रहे हैं। सपना झूठ होता है। कभी-कभी सच भी हो जाता है। सपना देखना और बुनना मनुष्य का स्वभाव है। क्यों न एक सवाल ही बुना जाये! बस एक ध्यान रखना जरूरी है — जूता पहनकर सपनों में टहलना गुनाह है।

सामने 2024 का आम चुनाव है। राजनीतिक दलों में घमासान है। नागरिक परेशान है। कौन जीतेगा ? कहना मुश्किल है! नागरिक को इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन जीतता है ? नागरिक के लिए महत्वपूर्ण यह है कि उसके जीवन पर क्या फर्क पड़ता है ? कुल मिलाकर सवाल यह है कि एक नागरिक के रूप में हम चाहते क्या हैं ? अपनी इच्छाओं को जानना भी कोई कम मुश्किल काम नहीं है! कहते हैं, एक बार किसी के सामने प्रभु प्रकट हो गये। जिद करने लगे कि जो इच्छा हो माँग लो! भक्त भौंचक्का। मांगे तो क्या मांगे ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अपनी सारी अपूर्ण इच्छाओं की सूची खंगाल ली। ऊहापोह था कि खत्म ही न हो रहा था। प्रभु जरा जल्दी में थे। प्रभु तो ठहरे, प्रभु! ऊहापोह ताड़ गये। शर्त लगाना प्रभुओं का विशेषाधिकार होता है। प्रभु ने शर्त लगा दी — तुम्हें जो मिलेगा, तुम्हारे पड़ोसी को उसका डबल मिलेगा। शर्त सुनते ही उसने बिना पलक झपकाये मांग लिया — प्रभु मेरी एक आंख फोड़ दें। प्रभु हक्का-बक्का! करते क्या ? उनके कुल की रीति थी — प्राण जाये पर वचन न जाये। सो उसकी एक आंख मारी गई। बेकसूर पड़ोसी तो खैर दोनों आँख से निपट गया। प्रभु ने भी तय कर लिया — दोबारा मनुष्य के फेर में नहीं पड़ना है! प्रभु तो फेर में पड़ने से बच गये लेकिन मनुष्य के स्वभाव में यह प्रवृत्ति घर कर गई।

मनुष्य में एक ऐसी प्रवृत्ति घर कर गई है कि हमें अच्छा जो मिले सो मिले, दूसरों को अधिक-से-अधिक उसका आधा ही मिले। जो बुरा मिले दूसरों को उसका डबल मिले! इस प्रवृत्ति की चपेट में पड़ने से बचने के लिए सोचा कि क्यों न नागरिक इच्छाओं का एक ब्योरेवार दस्तावेज बना लूँ! जब आम चुनाव के नेतागण वोट मांगने आयें तो उनके सामने पेश कर दूं! पारदर्शिता बनी रहे, यह सोचकर उसी दस्तावेज को यहां रख रहा हूं। नागरिक के कई रूप हैं, सोचा जब दस्तावेज बना ही रहा हूं तो क्यों नहीं पहले किसान नागरिक की इच्छा को समझूँ ? ग्रामीण नागरिक की इच्छाओं के बारे में पहले सोचूँ ?  अपनी बाद में सोचूंगा ? अपनी-अपनी सोचने के कारण ही तो हमारा यह हाल हुआ है।

एक किसान के रूप में किसान की इच्छा लोकतंत्र में क्या हो सकती है ? भारत के आर्थिक विकास में किसानों की बड़ी भूमिका रही है। भूमि से जुड़े रहनेवालों की भूमिका तो होनी ही चाहिए। खेतीबारी के लिए भूमि चाहिए। खेतीबारी में दिनानुदिन उन्नति के लिए सरकार को नीतिगत तदर्थता तोड़कर सुव्यवस्थित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। किसान के लिए ‘निधि सम्मान’ की नहीं ‘विधि सम्मान’ की व्यवस्था की जानी चाहिए।  

व्यवस्थित दृष्टिकोण अपनाते हुए उपजाऊ खेतिहर जमीन के मृदा-परीक्षण (Soil Testing) एवं अन्य संबंधित सुविधा के लिए किसानों की पहुंच के अंदर पर्याप्त संख्या में उपयोगी कृषि शाला (Agri Clinic) खोलने की व्यवस्था पर अविलंब ध्यान दिया जा सकता है। स्वस्थ-सुरक्षित-पुष्टिवर्द्धक खाद्यान्न के उत्पादन करने के लिए उच्च-उपजनशील बीज की व्यवस्था पर विचार किया सकता है। नकली या निम्न-स्तरीय बीज बेचनेवालों के लिए कड़े कानूनी प्रावधान करने की जरूरत है। कोई माल नकली या निम्न-स्तरीय होता है, तो एक समान की हानि होती है, लेकिन बीज से कई गुणा और बहु-स्तरीय हानि होती है।

पर्यावरण में आ रहे बदलाव को ध्यान में रखते हुए फसल-ऋतु पर पड़ रहे प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन किया जा सकता है। तदनुसार किसान को यथासमय प्रोयजनीय सूचना एवं जानकारी दी जा सकती है। मृदा-सुरक्षा की दृष्टि से केंचुआ खाद (Vermicompost) के व्यापक प्रचलन पर जोर दिया जा सकता है। बाहरी कारकों से फसलों की सुरक्षा करने के लिए जैविक कीटनाशक (Organic Insecticide) नीम से बनाये गये कीटनाशक के प्रयोग की व्यापक व्यवस्था  की जा सकती है।

कृषि पद्धति में सामयिक बदलाव की जरूरत छोटे-बड़े हर किसान को होती है। बदलाव के लिए यथार्थिक दृष्टिकोण (Realistic Approach) अपनाने की जरूरत होती है। बदलाव में एक तरह की स्वाभाविक जड़ता होती है। इन बदलावों को अपनाने के प्रति आग्रहशील बनाने, नई तकनीकों के अपनाव के लिए किसानों के मनो-तकनीकी प्रशिक्षण की निःशुल्क व्यवस्था की जा सकती है।

कृषि संयंत्रों के लिए कम ब्याज पर वित्तीय सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए। कृषि संयंत्रों की पलट खरीद (Buy Back) की सम्यक व्यवस्था भी कारगर हो सकती है। पंजीकृत जोतदारों को सुपरिभाषित किसान भत्ता दिये जाने पर विचार किया सकता है। कन्या शिक्षा, विवाह के समय बिना हुज्जत के पंचायत या प्राथमिक कृषि सहकारी समिति (PACS) के स्तर पर सहकारी अर्थ सहयोग की व्यवस्था  पर सोचा जा सकता है।

कटनी और विपणन एवं दो फसलों के बीच के समय में अर्थोपार्जक क्रिया-कलापों पर स्थानीय माहौल, जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सूक्ष्म एवं सक्षम योजनाओं पर विचार किया सकता है। विकेंद्रित उत्पादन और केंद्रित विपणन का दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है। कुटीर उद्योग, स्थानीय खपत के लिए सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के संस्थापन को प्रोत्साहन दिया जाना जरूरी है। गुणवत्ता, प्रचार और ब्रांड विश्वसनीयता का विशेष ध्यान रखने की व्यवस्था पर विचार किया जा सकता है।

स्वास्थ्य और स्वच्छता का गहरा रिश्ता है। पंचायत स्तर पर स्वच्छता का ध्यान रखे जाने की कुछ व्यवस्था है, निर्मल ग्राम योजना आदि है, पर्याप्त कितनी है यह अलग सवाल है। कहने की जरूरत नहीं है कि गांवों में स्वास्थ्य परिसेवा का बुरा हाल है। इस का एक प्रमुख कारण देश में रोगी डॉक्टर अनुपात में भारी असंतुलन है, ग्रामीण रोगी डॉक्टर के अनुपात का असंतुलन तो और भी भयावह है। दवाइयों की कीमत बिचौलियों की भूमिका और स्वास्थ्य ठगेरियों, पैथो-रेडियोलॉजिकल लैब और प्रशिक्षित तकनीशियनों की समयानुकूल उपलब्धता की समस्या अपनी जगह है। ग्राम स्वास्थ्य सेवा को सुदृढ़ बनाने पर ध्यान दिया जा सकता है।  

अनुपात को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण बच्चों के लिए आवासीय विद्यालयों की व्यवस्था पर विचार किया सकता है। खेल-कूद की व्यवस्था, सभ्य और बेहतर जीवन के अवसरों की उपलबध्ता और ललक दोनों में संतुलन और समायोजन के लिए नीतिगत रूप से प्राथमिकताएँ एवं प्रतिबद्धताएँ  तय करना आवश्यक है।   

राज्य और केंद्र स्तर पर कृषि सेवा की व्यवस्था  की जा सकती है। ग्राम रक्षा दल की तरह, ग्राम कृषि दल के गठन पर भी ध्यान दिया जा सकता है। किसानी की समस्याओं पर बात करने और अनुवर्ती कार्य पर नजर रखने के लिए प्रखंड स्तर पर तैनात कृषि अधिकारी को अधिक सक्रिय किया जाना चाहिए। कृषि  प्रशासनिक अधिकारियों की नियमित बैठक, अनुभव साझाकरण के अवसरों का निर्माण और सरकारी या गैरसरकारी स्तर पर कृषि क्षेत्र में योगदान करनेवाले लोगों या वर्ष विशेष में अच्छे शैक्षणिक परिणाम को आधार बनाकर उनके नाम पर प्रयोजनमूलक ग्रामीण मेलों का आयोजन किया जा सकता है। लिये गये कृषि, गैरकृषि, ग्रामीण कारोबारी के द्वारा ससमय ऋण वापसी करनेवाले मॉडल ग्राहकों की उन्नति कथा (Success Story) के प्रचार-प्रसार से सकारात्मक माहौलबंदी की जा सकती है।

इन में से बहुत कुछ कागज पर हो भी रहा होगा। इसे जमीन पर उतारने के लिए नीति प्रवणता को जनोन्मुखी बनाने की जरूरत है। हमारी कई समस्याओं में से एक बड़ी समस्या सुसंगत और स्थिर नीति (Policy Consistency) के अभाव से भी जुड़ा है। व्यवस्था  है, लेकिन सुचारू नहीं है। जो व्यवस्थाएं  हैं, उन में से अधिकतर प्रायोगिक स्तर पर ही रुक जाती है। 

सरकारी गैरसरकारी संगठनों विशेष रूप से प्रशिक्षित राजनीतिक कार्यकर्ताओं की असली परीक्षा भूमि यही है। राजनीतिक नेताओं के प्रोत्साही नेतृत्व की क्षमता की भी यही परीक्षा भूमि है। नई सरकार उद्यमशील लोगों को जोड़कर अगले पाँच साल में विराट के दबाव और मोह से बाहर निकलकर सूक्ष्म स्तर पर कुछ करने के प्रति सम्मान और समर्पण दिखाती है तो अगले पांच साल में बेहतर जीवन की लालिमा छिटकने लगेगी। ध्यान रहे, सद्भावी उद्यमशीलता से प्रभावी प्रगतिशीलता का स्वाभाविक संबंध होता है। 

सभ्य और बेहतर जीवन पर सब का हक है। शहरीकरण और ग्राम नवीकरण के दोहरा दायित्व की गंभीरता को बहुत दिन तक लटकाये नहीं रखा जा सकता है। गांव बदल रहा है। यह बदलाव कैसा है इस पर विचार किया सकता है। कई बार ऐसा लगता है कि शहर की अच्छाइयां कम, और बुराइयां अधिक तेजी से गांव में पसर रही है। यह का और माना जाता रहा है कि भारत गांवों का देश है। इसकी लोकतांत्रिक समस्याओं की जड़ें भी गांव में हैं और निदान भी वहीं है। गांव की समृद्धि में ही भारत की समृद्धि का रहस्य है।        

जिस तरह का उत्तेजक और सामाजिक दुराव का वातावरण देश भर में बन गया है, उसे ध्यान में रखते हुए कहना मुश्किल नहीं है कि देश में विश्वास का माहौल बहाल करना बहुत कठिन कार्य है। कठिन है, लेकिन असंभव नहीं। असंभव लगनेवाली बात को संभव कर दिखाना ही तो पराक्रम है। जब तक राजनीतिक और सामाजिक पराक्रम अपना लोकतांत्रिक कमाल दिखाये हमें इंतजार करना होगा। अभी कई पड़ाव पार करने हैं। अभी तो लोकतंत्र को बचा लें भारत के नागरिक, तब तक धीरज! हर नागरिक को सोचा चाहिए कि वह कैसा लोकतंत्र चाहता है यह भी कि वह खुद लोकतंत्र से क्या चाहता है! और हां, अभी तो लोकतंत्र खुद अपनी रक्षा के लिए नागरिकों से गुहार लगा रही है। लोकतंत्र की ही चिंता है, जाने क्या होगा। आशा की किरण झिलमिलाती तो है, एक नई हवा इधर आती तो है। फिलहाल अमर कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की याद आ रही है।

फणीश्वरनाथ रेणु की एक कहानी है, 1957 की — “ठेस”। उसका एक अंश पढ़िये। सोचिए की ‘सिरचन’ जैसी कारीगरी गांव से क्यों गायब हो गई ? क्यों उसे ठेस लगी ? अधिकार-संपन्न लोगों की तरफ से निरंतर जारी भावनात्मक हिंसा की आत्मसिद्ध साक्ष्य है यह कहानी! ‘सिरचनों’ के लिए ‘निधि सम्मान’ से अधिक जरूरी है ‘विधि सम्मान’! शायद समझ और सहानुभूति अधिक संवेदनशील और विकसित हो कि क्यों जरूरी है, जाति-गणना और सर्वेक्षण  आर्थिक सर्वेक्षण। पूरी कहानी मिले तो पढ़िये पूरी, तब तक साभार उसका एक अंश — 

“मोथी घास और पटरे की रंगीन शीतलपाटी, बांस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढ़े, भूसी–चुन्नी रखने के लिए मूंज की रस्सी के बड़े–बड़े जाले, हलवाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी–टोपी तथा इसी तरह के बहुत–से काम हैं, जिन्हें सिरचन के सिवा गाँव में और कोई नहीं जानता। यह दूसरी बात है कि अब गाँव में ऐसे कामों को बेकाम का काम समझते हैं लोग–बेकाम का काम, जिसकी मजदूरी में अनाज या पैसे देने की कोई ज़रूरत नहीं। पेट–भर खिला दो, काम पूरा होने पर एकाध पुराना–धुराना कपड़ा देकर विदा करो। वह कुछ भी नहीं बोलेगा।...”

 (प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

               

तेरी बातों में अब ओ दम नहीं

तेरी बातों में अब ओ दम नहीं

न मानेगा अब भी कि हम नहीं

लाख करे फूलों से बात दम नहीं

मान हकीकत कि वह वहम नहीं

आते जाने के वास्ते रुकने का दम

नहीं, कि कहे कोई वह नहीं हम

गहरा है नहीं, कोई दोस्त मरहम

न कोई बात और न ही वह कसम

तेरी बातों में अब ओ दम नहीं

न मानेगा अब भी कि हम नहीं

आक्रमण और अतिक्रमण के बीच लोकतंत्र का संक्रमण

आक्रमण और अतिक्रमण के बीच लोकतंत्र का संक्रमण

 

प्रफुल्ल कोलख्यान

 

शुभकरण सिंह की शहादत और सौ-दो-सौ अधिक आंदोलनकारियों के आहत होने के बाद परेशान किसान आंदोलन अपना अगला कार्य-क्रम बना रहा है। मुआवजा, हर्जाना, घेराव, प्रदर्शन आदि के अलावा लोकतंत्र में और क्या उपाय होता है! किसान आंदोलन अहिंसा और शांति के साथ अपना कदम बढ़ाने और आंदोलन  में अहिंसा के प्रति वचनबद्ध है। दुखद है कि किसान आंदोलन की माँग को समझने और रोकने के लिए सरकार के मन में न कोई सम्मान दिखता है और न ही कोई निष्कपट समझदारी दिखती है। हो सकता है सरकार किसी अंतर्राष्ट्रीय करार से बंधी हो, या कोई अन्य बाध्यता हो। सरकार को अपनी स्थिति और अपना पक्ष साफ लहजे में सार्वजनिक करना चाहिए। जो लोग सीधे और सक्रिय रूप से किसान आंदोलन में शामिल हैं, उनके अलावा भी देश के लोगों का गहरा सरोकार किसान आंदोलन से जुड़ा हुआ है।

असल में यह उत्पादन की समस्या और व्यवसाय की जटिलता से जुड़ा मामला है। खेतीबारी आजीविका का साधन होती है। खेतीबारी को रोजगार से जुड़ने के कारण भी एक समस्या है। आजीविका और रोजगार में अंतर है। आजीविका मूलतः जीने के लिए किए गये उपायों से संबंधित होती है, इस में धन का आदान-प्रदान न के बराबर होता है। आजीविका केंद्रित उत्पादनों में वस्तु-विनिमय या लेन-देन का प्रचलन था। वस्तु से वस्तु का अदल-बदल होता था, वस्तु को धन और फिर धन को वस्तु में बदलने का चलन कम था। यह विनिमय या लेन-देन परिभाषित नहीं था। सभ्यता के विकास के साथ लेन-देन की लगभग सभी गतिविधियों में धन की अनिवार्य मध्यस्थता बन गई। आरंभ में धन की मध्यस्थता से लेन-देन में बहुत सुविधा हो गई। लेन-देन के परिभाषित हो जाने के कारण आर्थिक व्यवहार में कई तरह की स्पष्टता आ गई। स्पष्टता आ तो गई, लेकिन इस के साथ ही कई समस्याएँ भी खड़ी हो गई। जीवन के लिए मनुष्यों के द्वारा किये गये उत्पादनों में अन्न का मौलिक महत्व है। आदमी बिना सोना-चाँदी, शाही सवारी के जी सकता है, अन्न के बिना नहीं जी सकता है। पहले अन्न-धन का मुहावरा चलता था। अन्न ही धन था। बदली हुई परिस्थिति में वस्तु (सोना) धन का मानक हो गया, फिर लेन-देन के लिए वस्तु (सोना) को विस्थापित किये बिना मुद्रा (पाउंड, डॉलर आदि) धन का अंतर्राष्ट्रीय मानक हो गया। कृषि की तुलना में उद्योग अधिक संगठित होता है। औद्योगिक उत्पादों का प्रबंधन भी कृषि उत्पादों की तुलना में अधिक संगठित, सुरक्षित, संरक्षित और आसानी से व्यापारिक काबू में रखे जाने के अनुकूल होता है।

कृषि उत्पादों की तुलना में औद्योगिक उत्पादों का विपणन भी आसान और मुनाफे की संभावनाओं से भरा होता है। यह मुनाफा सभी लेन-देन और व्यापार का ब्रह्म है। निराकार, अदृश्य और सर्वशक्तिमान ब्रह्म। मुनाफे के लिए औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि (ज्यामितिक अनुक्रम से) और कृषि उत्पादों में कीमतों में धीमी वृद्धि (समांतर क्रम से) होती रही है। इस बीच अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार को नियंत्रित करने के लिए विवस (विश्व व्यापार संगठन-WTO) की नीतियाँ भी औद्योगिक उत्पादों के व्यापार में मुनाफे पर केंद्रित रहते हुए कृषि उत्पादों को भी व्यापारिक मुनाफे से जोड़ने में जोरदार दिलचस्पी लेने लगी। विवस (विश्व व्यापार संगठन-WTO) ने किसानों को बहुत विवश कर दिया।

इस विवशता के दो कारण प्रमुख हैं। पहला स्वाभाविक कारणों से ग्रामीण और शहरी लोगों की जीवनशैली में फर्क मिट-सा गया है, बहुत कम हो गया है। किसानों की खपत (अधिक कीमती) का दायरा उसके उत्पादों (कम लाभकर) से कहीं अधिक बड़ा हो गया है। दूसरा यह कि खेतीबारी में लगनेवाले औद्योगिक उत्पादों (INPUT) की कीमतों में भी बहुत वृद्धि हो गई है। किसान बढ़ी हुई लागत और खपत की दोहरी मार से विवश होता चला गया है। इसलिए किसान आंदोलन बीच-बीच में विवस (विश्व व्यापार संगठन-WTO) से बाहर निकल आने की माँग सरकार के सामने रखता है। लेकिन सरकार इससे बंधी है। इससे बाहर नहीं निकल सकती है तो उसे खेतीबारी को लाभकर बनाने के लिए अन्य उपाय करना चाहिए।

खेतीबारी को लाभकर बनाने का एक उपाय स्वामीनाथन के प्रस्तावित सूत्र, C2+50% (कंप्रिहेंसिव कॉस्ट+50%) है, लेकिन सरकार इसे मानने के लिए तैयार नहीं है। सरकार के पास स्वीकारने योग्य कोई वैकल्पिक प्रस्ताव भी नहीं है। वैकल्पिक प्रस्ताव न बन पाने में सबसे बड़ी बाधा मित्र कारोबारी के लाभ में सरकार की वर्द्धित दिलचस्पी है। इस संबंध में कम-से-कम, दो बातों को ध्यान में रखना जरूरी है। पहली बात यह कि किसान आंदोलन की माँग का संबंध संपूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था से है। दूसरी यह है कि बहुत मुश्किल से भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो पाया है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस में किसानों की भूमिका सर्वोपरि रही है।

आम नागरिकों और सरकार को सर्वाधिक चिंता इस बात की करनी चाहिए कि कृषि उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भरता का किसी भी तरह से खंडित होना देश के लिए और इस आत्मनिर्भरता को मुनाफा लोभी कारोबारियों के हवाले कर देना जनता के लिए, बहुत घातक होगा। देश को इस बात की सुस्पष्ट समझ होनी चाहिए कि किसान समेत,  ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े लोगों को भी सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन का हक है। इस स्पष्ट समझदारी की बहुआयामी सक्रियता लोकतंत्र की निःशर्त प्राथमिकता और बुनियादी प्रतिबद्धता है। सभ्य और बेहतर जीवन का हर नागरिक को है, चाहे वह किसी संवर्ग में आता हो। युवाओं, महिलाओं, सभी नागरिकों को सभ्य और बेहतर जीवन का हक है।  विडंबना है कि हर वर्ग कहीं-न-कहीं आंदोलन में लगा हुआ है। मुश्किल यह है कि देश का हर राजनीतिक अभियान युद्ध की भाषा में उपस्थित हो रहा है।  ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जैसे देश नागरिक युद्ध के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे में जरूरी है लोकतंत्र। मुश्किल यह है कि लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता पर आये दल और उस के सहयोगी ही माहौलबंदी के लिए बयानबाजी करते रहते हैं। ऐसे में, लोकतंत्र! 

इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र पर संकट है। लोकतंत्र के संकट का असर जीवनयापन पर साफ-साफ दिखता है। अपनी हालत को समझने के लिए गरीब लोगों को किसी बहुआयामी गरीबी सूचकांक (Multidimensional Poverty Index)  के विश्लेषणों और निष्कर्षों का इंतजार नहीं करना पड़ता है। जैसे रात में सोये थे, वैसे ही सुबह उठते हैं, पता चलता है अब वे गरीब नहीं रहे। जैसे थे, वैसे ही हैं – सरकारी कागज बताता है, अब वे और उनका परिवार गरीब न रहे। आजादी के समय देश के भौगोलिक विभाजन के बाद आबादी की अदला-बदली में पागलों की अदला-बदली की खबर पगलखाने पहुँची तो पागल लोग बड़ी उलझन में पड़ गये, जैसा कि सआदत हसन मंटो ने अपनी कहानी “टोबा टेक”  में दर्ज किया है – “वो पाकिस्तान में हैं या हिंदोस्तान में… अगर हिंदोस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहाँ है! अगर वो पाकिस्तान में हैं तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अर्से पहले यहीं रहते हुए भी हिंदोस्तान में थे!” देश के आर्थिक विभाजन के दौर में गरीबों को यह पता नहीं चलता कि कल तर वे गरीबी रेखा के नीचे थे तो कैसे, और अब ऊपर हैं तो कैसे जबकि स्थिति जस-की-तस बनी हुई है।

संसदीय कार्रवाई में संख्याबल से बार-बार हस्तक्षेप करना, मणिपुर जैसे उपद्रवग्रस्त इलाकों पर भी खामोश रहना,  संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से मनमाना और लक्षित कार्रवाई, कांग्रेस के बैंक खाते से रकम निकासी, असहमतों, विपक्षियों, आंदोलनकारियों, सोशल मीडिया सहित ट्विटर खाता पर रोक लगाने के लिए  सरकारी पहल, जब-न-तब नेट सेवा रोक देना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए उत्कट रहना आदि लोकतंत्र के संकट का लक्षण नहीं है तो, फिर क्या है?

सामने 2024 का आम चुनाव है। बहेलियों का झुंड तैयार है। जाल की डोरी साफ-साफ दिख रही है। अस्त्र-शस्त्र दिख रहे हैं। लोगबाग दहशत में हैं। कब किस पर क्या कार्रवाई हो जाये, कहना मुश्किल है। अँधेरा और गहन होता जा रहा है। अधिकतर लोग ऐसी बात को दिल पर लेते ही नहीं हैं। चाहे उस बात का संबंध उनके निजी हित के सार्वजनिक प्रसंग से ही क्यों न हो। बस एक ही जीवन मंत्र है, जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जायेंगे। लोकतंत्र के संकट के कई कारणों और लक्षणों में एक कारण और लक्षण यह भी है। यह संकट कोई एक दिन में पैदा नहीं हुआ है। संवैधानिक आश्वासन और लोकतांत्रिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं रह गया है। स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं का साहस चुक गया है। क्या सचमुच  हम गुलाम बनने को तैयार हैं! नहीं ऐसा नहीं है। भारत के नागरिक में इस संकट का मुकाबला करने का हौसला बचा हुआ है।

 

जरा पीछे चलते हैं, यह कोई बिल्कुल नई स्थिति नहीं है। इसकी नोक नई है। इस नोक को समझने के लिए मानव विकास रिपोर्ट-2002 के कुछ निष्कर्षों के आशयों का उल्लेख आवश्यक है। इस रिपोर्ट की चिंता का केंद्रीय विषय था, आत्म-विभक्त दुनिया में लोकतंत्र की दुरवस्था। इस रिपोर्ट के एक निष्कर्ष का आशय था –  आर्थिक, राजनीतिक और तकनीक ज्ञान के परिणाम के मुद्दे पर दुनिया कभी भी इतनी आजाद नहीं थी और न इतनी अन्यायपूर्ण थी। कितना खतरनाक था यह संकेत। क्या इस निष्कर्ष का संकेत यह था कि आर्थिक, राजनीतिक और तकनीक ज्ञान की वर्तमान प्रक्रिया के माध्यम से दुनिया अधिक आजाद और  अन्यायपूर्ण होती जायेगी! क्या आजादी अन्याय का पोषक हुआ करती है? क्या अन्यायपूर्ण दुनिया को एक ही साँस में आजाद भी कहा जा सकता है? इस निष्कर्ष  में एक विरोधाभास भी झलकता था। दुनिया के आत्म-विभक्त होने के सच को ध्यान में रखने से इस निष्कर्ष के आशय में कहीं कोई विरोध नहीं मिलता था विरोध का आभास भले ही दिखता हो। इस बँटी हुई दुनिया के ‘थोड़े-से लोगों’ के पास ‘बहुत कुछ’ सिमट रहा था। ‘बहुत से लोगों’ के हाथ से ‘सब कुछ’ छिनता जा रहा था।  इन थोड़े-से लोगों’ के लिए दुनिया अधिक आजाद होती गई है, ‘बहुत से लोगों’ के लिए दुनिया अन्यायपूर्ण होती जा रही थी। उच्चतर शिक्षण संस्थान के छात्र जब ‘भारत में आजादी’ की बात कह रहे थे या ज भी कहते हैं तो उसे ‘भारत से आजादी’ बताने की बार-बार कोशिश की जाती है। आर्थिक, राजनीतिक और तकनीक ज्ञान ‘बहुत से लोगों’ की आजादी और न्याय के लिए न्यूनतम मानवीय सम्मान भी नहीं रखता है।

यह कहना जरूरी है कि भारत के लोकतंत्र का संकट सिर्फ सत्ताधारी नेताओं की तरफ से ही नहीं, बल्कि किसी समय ‘स्टील फ्रेम’ कही, मानी गई और अब तैतत साधना (तैनाती-तबादला-तरक्की) में लगी नौकरशाही की तरफ से भी कम नहीं आया है। नौकरशाही इस कलंक से बच नहीं सकती है। आम आदमी ‘गोदान’ के होरी की तरह यही कहने पर मजबूर है कि हमारी गर्दन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है, अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता। आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह दूसरा कौन है?

विकास की चालू प्रक्रिया के जारी रहने से दुनिया को बाँटनेवाली यह खाई बढ़ती ही चली गई है। न्याय और बराबरी की मौलिक मानवीय आकांक्षा को सब दिन फुसलाया, बहलाया नहीं जा सकता है। ध्यान रहे, बर्बरता का प्रति-उत्पाद बर्बरता ही होता है। युद्ध और खासकर, नागरिक युद्ध का परिणाम बहुत घातक होता है। यह सच है कि लोभ और भय के इस द्वंद्व में फिलहाल लोभ का पलड़ा भारी है। दुनिया हो या देश हित-हरण का केंद्र एक होने के कारण सताये हुए लोगों में एक तरह की एकता बनने लगती है। यही कारण है कि राजनीतिक स्तर पर भारत में इं.ड.इ.आ (I.N.D.I.A - इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) बार-बार बिखरकर सँवर जाता है। इससे लगता है कि चहुमुखी आक्रमण और अतिक्रमण के इस दौर में संक्रमण की पीड़कताओं और उत्पीड़कताओं को झेलते हुए भारत के लोकतंत्र को भारत का नागरिक अंततः बचा लेगा।

 

किसान आंदोलन दुनिया के कई देशों में इस समय चल रहे हैं। उनकी कोई खबर मुख्यधारा के मीडिया में दिखाई नहीं जाती है, इसका मतलब यह नहीं कि कहीं कुछ हो ही नहीं रहा है। मुख्यधारा के मीडिया नहीं दिखाने से आम नागरिकों की जानकारी में वह तत्काल नहीं आ पाता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह पर्यावरण की समस्याओं का दुष्प्रभाव हमारे जाने बिना, हमें अपनी चपेट लेता है उसी तरह चेतना का वैश्विक प्रवाह भी अपना कमाल दिखाता रहता है। दुनिया के उन देशों का लोकतांत्रिक अनुभव वहाँ के नागरिक के लोकतांत्रिक संघर्ष से समृद्ध है, इसलिए वहाँ के किसान आंदोलन पर वैसे जुल्म नहीं ढाये जाते है, कील-काँटे नहीं लगाये जाता हैं, ड्रॉन से उन पर ‘कृपा’ नहीं बरसाई जाती है, किसी ‘शुभ करण’ को कोई ‘अशुभ करण’ इस तरह शहीद नहीं कर देता है।

यह सच है कि हमारे देश भारत में राजनीतिक प्रक्रिया और सामाजिक प्रक्रिया का सचेत विकास सहमेल में नहीं हुआ। सामाजिक आंदोलनों के गर्भ से टिकाऊ राजनीतिक आंदोलन  विकसित नहीं हुआ, बल्कि अपरिपक्व सामाजिक आंदोलन  खुद ही राजनीतिक आंदोलनों में बदलकर अपने सामाजिक सरोकार के विघटन का जवाबदेह बन गया। वोटाकर्षी कपट, जिसे ‘हिंदी का डंका पीटनेवालों’ ने अंग्रेजी में ‘सोशल इंजिनियरिंग’ (Social Engineering) कहा, के चलते ऐसी विषाक्त हवा चली कि ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ भी किसी-न-किसी  साँठ-गाँठ में फँस गया और ‘तिलक तराजू और तलवार’ का भी हौसला पस्त हो गया।

लगभग सभी राजनीतिक दल राजसत्ता और शासन पर पकड़ बनाये रखने की आकांक्षा से ही नियमित और सीमित होता रह गया। ऐसे में, `हम भारत के लोग' के जिस ‘हम’ ने संविधान को आत्मार्पित किया था वह ‘हम’ खंडित का खंडित ही रह गया। इस ‘हम’ को हासिल करने के लिए  हमारा देश स्वतंत्रता की अधूरी परियोजनाओं को पूरी करने के लिए नये परिप्रेक्ष्य में नये आक्रमण, अतिक्रमण, संक्रमण की पीड़कता और उत्पीड़कता के  दलन और दोलन के सम्मुख आज खड़ा है। इस दलन और दोलन के गर्भ से राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत के युवाओं का एक नया आंदोलन जन्म ले रहा है। जिन्हें संवाद से समाधान पर यकीन है, उन्हें अपने समय से संवाद करने के लिए इस आंदोलन के आगमन की पगध्वनि को कान धरकर ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। क्या पता कोई राह निकल ही जाये! उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या सुन पा रहे हैं हम?

 

 हमारा लोकतांत्रिक अनुभव बताता है कि लोक को पराभूत कर तंत्र को मजबूत करनेवाले कभी कामयाब नहीं हो सकते हैं। लोकतंत्र से प्राप्त शक्ति का प्रयोग लोकतंत्र के विरुद्ध बहुत दिन और एक हद के बाद नहीं किया जा सकता है। ऐसे में,आज पूरा भारतीय राष्ट्र आत्ममंथन की तीव्र प्रक्रिया के सम्मुख खड़ा है। पुराणों के तहखानों से हथियारों को निकालकर दुरुस्त किया जा रहा है। आज-कल संस्कृति की चर्चा राजनीतिक लोग अधिक कर रहे हैं। राजनीतिक विकास और सांस्कृतिक विकास में एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह भी है कि राजनीतिक विकास की दिशा बाहर से भीतर की ओर अंतरित होती है जब कि सांस्कृतिक विकास की दिशा भीतर से बाहर की ओर उन्मुख होती है। भीतर और बाहर का यह द्वंद्व मानव मन में हमेशा सक्रिय रहा करता है। भीतर का उछाल बाहर को बदलता है तो बाहर का दबाव भी भीतर को बदल देता है। कहने की जरूरत नहीं है कि आज बाहर का दबाव अधिक है। 

राजनीति के राम लोगों को भयभीत करते हैं। धर्म के राम लोगों को भयमुक्त करते हैं। संस्कृति-चक्र की गतिशीलता को ध्यान में लाने से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि सभ्यता के त्रास से बाहर निकलने के लिए ही सामान्यजन अपने धराधाम पर ईश्वर का आह्वान करता रहा है। सामान्यजन की आस्था के ऐसे राम का आचरण मानवोचित होता है। धर्म के राम किसी अतिरेकी विराटता के नहीं, समवायी लघुता के सम्मान का विवेक बन जाते हैं। नल, नील के हाथो डाला गया रामांकित पत्थर पानी पर तैरता है, खुद राम का डाला पत्थर नहीं तैरता है! हाँ, समकालीन राजनीति के ‘राम भक्त’ जरूर खुद ईश्वर या उससे भी बड़े बनने  की कोशिश में लगे हुए दिख जाते हैं। संदर्भ प्रेमचंद के ‘गोदान’ से लें तो, होरी के राम और राय साहब के राम एक ही नहीं हो सकते हैं।

सामाजिकता की गत्यात्मकाता में सुस्पष्ट आदर्श और दृश्य नायक के होने से जन की आत्मीयता प्रसंग जुड़ता है। आदर्श और नायक से ही लोगों के मनोजगत का तादात्मीयकरण संभव होता है। पिछले दशकों में छलनायकों की बाढ-सी आ गई। इस बीच कुछ नायक भी उभर रहे हैं। इन नये नायकों पर भ्रष्टाचार का बोझ नहीं है, हालाँकि अपने को स्वयं-प्रमाण माननेवालों की तरफ से ऐसा झलकाने की पुरजोर कोशिश निरंतर की जाती है। यह सच है कि आक्रमण, अतिक्रमण, संक्रमण की पीड़कता और उत्पीड़कताओं का अँधेरा बहुत घना है। आशा की किरण  भी तो है! जोरावरों के जोर से जितना भी अँधेरा फैलाया जाये, भारत में लोकतंत्र की प्रकाश  यात्रा जारी रहेगी।

यात्रा जारी है, तब तक साभार, पढ़िये जनकवि बाबा नागार्जुन की एक कविता –

 

“हिटलर के तंबू में

 

अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून

संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्‍त रहे थे भून

छांट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े कानून

नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्त्र पर खून

अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून

संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्‍त रहे थे भून

मायावी हैं, बड़े घाघ हैं,उन्हें न समझो मंद

तक्षक ने सिखलाये उनको ‘सर्प-नृत्‍य’ के छंद

अजी, समझ लो उनका अपना नेता था जयचंद

हिटलर के तंबू में अब वे लगा रहे पैबंद

मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्हें न समझो मंद”

 

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)  

लोकतंत्र के चित्त में चौसर की बिसात

लोकतंत्र के चित्त में चौसर की बिसात बिछ गई है! हम एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं! 


पूरे देश में अभाव और अकाल का कोलाहल है। आंदोलन  है। हाहाकार है। मोटरी-गठरी संभालते हुए, जनता बेजार है। एक बार नहीं, बार-बार दुहराया जा रहा है – अब की बार, चार सौ पार! दुहराव की शैली नीलामी की बोली जैसी लगती है। अब की बार, चार सौ पार! कोई तो पूछे – हे सरकार, लोकतंत्र है या, है व्यापार! भारत के लोकतंत्र को ठेले पर लादकर ‘चौसरिया बाजार’ में घुमाया जा रहा है। भारत के लोकतंत्र में संस्कृति और संविधान की शब्दावली को बाजार की शब्दावली ने धर-दबोचा है।  

राजनीतिक दलों में गारंटी की राजनीति चल रही है। सवाल यह है कि आम नागरिकों के लिए इन गारंटियों का मोल क्या है? गारंटी बाजार की शब्दावली है। किसी कंपनी का उत्पाद बेचने के इरादे से उपभोक्ताओं को भरोसे में लेने के लिए गारंटी दी जाती है। गारंटी में सबसे आकर्षक प्रस्ताव होता है, गुणवत्ता से संबंधित असंतोष को दूर करने के लिए हर संभव उपाय किये जाने का। इस हर संभव उपाय में अदल-बदल का भी प्रावधान होता है। कहने की जरूरत नहीं है कि, गारंटी के प्रस्ताव को व्यवहार में लाना मुश्किल होता है, बहुत मुश्किल होता है। जिन गरीबों के पैर में गारंटी की बिवाई फटती है, वे जानते हैं गारंटी की उत्पीड़कताओं को। बार-बार दुहराई जा रही राजनीतिक या चुनावी गारंटी का क्या मतलब है? असंतुष्ट नागरिकों के पास गारंटी को भुनाने के लिए क्या विकल्प बचता है? इस संबंध में कोई संवैधानिक या कानूनी प्रावधान है? नहीं है तो यह झूठ के पुलिंदा के अलावा और क्या हो सकता है? नीयत में ही खोट हो तो, हर बात पर कोर्ट का चक्कर लगाना बहुत महँगा और मुश्किल होता है।

ग्रामीण इलाका में रहनेवाले नागरिकों में से अधिकतर लोग किसी-न-किसी  तरह से दान-अनुदान और अनुकंपा के सहारे घिसटते रहने पर मजबूर हैं। उनका सशक्तिकरण तो दूर, उन्हें तो बे-चारा बना दिया गया है। उन्हें तो अपने अधिकारों  की ताकत का पता है, न धिक्कारों के असर का पता है। हाँ, मताधिकार का पता है, मताधिकार की ताकत के बारे में ठीक-ठीक  पता नहीं है। पता हो भी तो वे बेचारे क्या कर सकते हैं! ठोक-ठाक तो कर नहीं सकते। बस माई-बाप बने अपने नेताओं की तरफदारी ओर टुकुर-टुकुर ताकने के अलावा क्या कर सकते हैं? बहुत हुआ तो इस नेता की शिकायत लेकर, उस नेता के पास जा सकते हैं, इसके आगे उनकी कोई गति नहीं होती है। पंचायत स्तर से लेकर ऊपर के स्तर तक एक ही कहानी का भिन्न-भिन्न पाठ चलता रहता है। इसके आगे सोचने को भी बेमानी बनाकर रख दिया गया है। ऐसे में क्या करेगा कोई आपकी गारंटी को लेकर!

भले ही बेमानी बनाकर रख दिया गया हो, लेकिन हताश या उदास होने की स्थिति से उबरना ही होगा। आम चुनाव में ईवीएम (EVM) के इस्तेमाल का जो भी फैसला हो, लोकतंत्र में चुनाव ही नाव है। कहने की जरूरत नहीं है कि संक्रमण की पीड़कता और उत्पीड़कता के बाहर लोकतंत्र की सूखती हुई नदी बहार के आने के इंतजार में है। नाव पानी में चले तो शुभ, नाव में पानी चले तो अशुभ! भारत के लोकतंत्र की विडंबना है कि एक नाव रेत पर पानी के इंतजार में, गति पाने के लिए जूझ रही है, तो एक नाव अपने भीतर पानी के विपथित तेज प्रवाह में डूब जाने के कगार पर है। रम भक्त कबीर के कहे को आराम से याद करते हुए आगे बढ़ना चाहिए ——— ‘जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम। दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम।’

फिलहाल यह कि गारंटी मूलतः बाजार की शब्दावली है जिसका बेधड़क इस्तेमाल राजनीतिक दल कर रहे हैं। गारंटी की राजनीति पर सचमुच भरोसा दिलाना हो तो गारंटी को हलफनामा के रूप में प्रस्तुत करने के प्रावधानों का प्रस्ताव किया जाना चाहिए। हमारे यहाँ तो चुनाव घोषणापत्र में लिखित वायदों  (मेनिफेस्टो या संकल्पों) को नागरिकों के प्राप्तव्यपत्र (Citizen’s Charter) का या वैधानिक दर्जा हासिल नहीं है। न इस में अधिकार-पृच्छा (Quo Warranto) का कोई प्रसंग है न परमादेश (Mandamus) का।  ऐसे में गारंटी का मोल, माहौलबंदी के लिए हवावाजी के अलावा क्या हो सकता है! कुछ भी नहीं। बाद में बिना किसी लोक-लाज के बेझिझक के ‘जुमला’ कह दिये जाने पर कोई क्या कर सकता है! याद कीजिए, पिछली बार कही हुई चुनावी बातों को जब जुमला बताकर हवा में उड़ा दिया गया तो ठगा-सा मतदाता झिझकते हुए कंधा-कमर झुकाकर पीछे हट जाने के अलावा क्या कर पाया! गारंटी की राजनीतिक पैंतरेबाजी से नेता को तो सत्ता मिल जाती है, जनता को लोकतंत्र नहीं मिलता है। हाँ, कुछ लोगों को लोकतंत्र मिलता है, मिलता ही नहीं है, ‘टू मच’ मिल जाता है। आत्म-संयम और सह-अस्तित्व लोकतंत्र के बेबदल (Inconvertible) और अकाट्य मूल्य हैं। दोनों तहस-नहस  हो गये हैं। 

चुनावों में गारंटी बाँटनेवाला कोई राजनीतिक दल चुनाव घोषणापत्र में लिखित वायदों  (मेनिफेस्टो या संकल्पों) को नागरिकों के प्राप्तव्यपत्र (Citizen’s Charter) का दर्जा दिलाने या उसके साथ परमादेश (Mandamus) के प्रसंग को जोड़ने की पहल करेगा! इसकी उम्मीद की जा सकती है क्या! जयप्रकाश नारायण जैसे महत्वपूर्ण और आदरणीय समाजवादी नेता जन प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार (राइट टू रिकॉल) की बात करते थे। गारंटी की राजनीति में खराब गुणवत्तावाले जन प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार (राइट टू रिकॉल) को शामिल किया जा सकता है क्या! आज वापस बुलाने के अधिकार (राइट टू रिकॉल) को राजनीतिक प्रसंगों  के संदर्भों का लगभग क्या, पूरा-पूरी भुला ही दिया गया है।

बाजार में लेन-देन होता है। बाजार के दो परिभाषित पक्ष होते हैं। ‘लेनेवाला और देनेवाला’। लेनेवाला भी देता है और देनेवाला भी लेता है। कौन किस को क्या देकर, क्या लेता है, यह है बाजार का रहस्य, माया! बात राजनीतिक बाजार की करें तो, जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आनंद और सुविधा हासिल करना नागरिक का लक्ष्य होता है। प्रभाव विस्तार के लिए समर्थन और सहयोग हासिल करना नेता का लक्ष्य होता है। नागरिक लोकतंत्र चाहता है। नेता सत्ता चाहता है। लोकतंत्र और सत्ता की रस्साकशी चलती रहती है। इस रस्साकशी में कहीं रस्सा ही न टूट जाये इसके लिए लोकतंत्र के चारो स्तंभ विधायिका-कार्यपालिका-न्याय पालिका और मीडिया का प्रबंधन चौकस रहता है। इधर हुआ यह है कि  लोकतंत्र के दो स्तंभ विधायिका-कार्यपालिका संविधान में निहित शक्ति पृथक्करण (Separation of Power)  की मूल भावनाओं का पूर्ण निरादर करते हुए गडमड हो गये हैं, सरकार पर संसद की कोई पकड़ बची नहीं है। स्थिति पलट गई है। सरकार संसद के प्रति जवाबदेह रहने के बजाये, संसद ही सरकार के प्रति जवाबदेह होकर रह गई है। मीडिया का हाल यह है कि जब वह दूसरों के बारे में कुछ बताता है, तो वह अपनी ही पोल खोलने लगता है। यह मीडिया की उलटबाँसी नहीं है। उलटबाँसी का तो भारत की संस्कृति में बड़ा मोल  रहा है।

विपक्ष कमजोर हो या हो ही नहीं तो क्या सरकार कुछ भी करने पर आमादा बनी रहेगी। ‘हुजूर’ की इच्छा का सम्मान करते हुए जनता सचमुच देश को कांग्रेस मुक्त कर देती, लेकिन इस में दो प्रमुख बाधाएँ हैं।  पहली, ‘हुजूर’ खुद कांग्रेस युक्त नहीं भी तो, ‘कांग्रेसी’ युक्त जरूर हुए जा रहे हैं। दूसरी  यह कि उनके बड़े-से-बड़े कद्दावर साथी सदस्यों में जनहित के किसी भी मुद्दे पर मुहँ खोलने का साहस नहीं है। वे जनता के प्रतिनिधि न होकर आत्म-हीन और  विवेक-विहीन  अनुयायी होकर रह गये हैं। हुजूर की इच्छा का सम्मान करके जनता का जो हाल हुआ है, वह जनता ही जानती है। मन की बात सुनते-सुनते उसका तो मन ही खो गया है। हाल यह है कि जबरा मारे भी और रोने भी न दे। मन-ही-मन  बिसूरते रहिए।

बाजार के बारे में पहले कहा जाता था बाजार में माँग बढ़ने से आपूर्ति बढ़ती है, अब आपूर्ति बढ़ने से भी माँग बढ़ती है। राजनीतिक बाजार पर वर्चस्व को बनाये या बढ़ाये रखने के लिए एक तरीका जमाखोरी का अपनाया जाता है। कानून जमाखोरी है भी और नहीं भी है, जमाखोरी की कथा अनंत है। बाजार का मंत्र एक है, बाजार की माया अनेक है। लोकतंत्र में राजनीतिक जमाखोरी लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं होता, राजनीतिक लोगों के लाभ की बात और है। जनता का पक्ष शुभ है, नेता का पक्ष लाभ है। लाभ-आग्रही नेता जनता के शुभ को खंडित कर उसे लाभार्थी में बदल देती है। 

राजनीतिक नेताओं के चाल-चरित्र-चेहरा को हिमाद्रि-तुंग-श्रृंग से निकसी प्रबुद्ध-शुद्ध गांगेय नैतिकता के उत्कृष्ट आलोक की स्वयं-प्रभा-समुज्ज्वलता में समझने का यह अवसर नहीं है। बल्कि, ब्रांड वैल्यु से उदीप्त इंद्रमाया के विभ्रमी आलोक में उनके स्वागत के भव्य-दिव्य   आयोजनों से उत्पन्न मति-विभ्रम से अपने बचाव का यह अवसर है। अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा या राजनीतिक आँधी में एकांत स्वार्थ के नाश से कोई कैसे बचेगा, यह पूछें जयशंकर प्रसाद या पूछ ले कामायनी ही तो हम क्या कहेंगे! हम भले कंठ-रोध से ग्रस्त हों, फैज कह देंगे, अब कहाँ रस्म घर लुटाने की!

कहने-सुनने में अच्छा नहीं लगता, लेकिन जब हालात इतने खराब हैं कि देश की राजनीति बाजार की शब्दावली में बात कर रही है, तो रास्ता क्या  बचता है, ‘महाजनो येन गतः स पंथाः’। इस पंथ के अंतर्निहित पक्ष को समझने की सुविधा के लिए राजनीति को वोटबाजार और लोकतंत्र को उत्पाद कहना बेहतर होगा। विभिन्न राजनीतिक दलों के पास लोकतंत्र के अपने-अपने ब्रांड हैं। अधिकतर नागरिक राजनीतिक बाजार में ग्राहक की नहीं, याचक की ही हैसियत रखते हैं। क्षमता के अभाव में जो हक से ग्रहण ही नहीं कर सकते, वे कहाँ के ग्राहक! वे तो याचक हैं, याचक, जिन्हें बतर्ज विद्यार्थी, लाभार्थी कहा जाता है! यह कहना कुछ ज्यादती नहीं होगी कि लोकतंत्र ‘वोटकैचर’ का है, ‘वोटर’ का नहीं। लोकतंत्र नागरिकों का नहीं, राजनेताओं का होकर रह गया है! राजनीतिक दल के नेता बखूबी जानते हैं, ये याचक, ना-हक गारंटी का क्या करेंगे! बाजार सेठ जी का है। लोकतंत्र नेता जी का है। दोनों में साँठ-गाँठ है। नगरी-नगरी, दुआरे-दुआरे ढूंढते रहिए, टूटे चश्मे को या फिर गाते रहिए, उठ जाग मुसाफिर गठरी संभाल आदि!     

 गारंटी की राजनीति  को थोड़ी गहराई से समझना जरूरी है। आखिर, राजनीतिक दल बाजार की शब्दावली में क्यों बात करने लगे हैं? न ठेका खराब, न ठेला खराब। धर्मवीर भारती बताते, कैसे लोकतंत्र सच में हिमालय से बहुत बड़ा है। त्रिलोचन की मानें तो, अटके-भटके मंगल-मंत्र जपते हुए भी, ताप के ताए दिन में दरकते दोनों हैं, लोकतंत्र हो या हिमालय। रोजगार के विलुप्त होते अवसर और उग्रतर होती महँगाई के इस भयानक दौर में बाजार के तिलस्म को समझने, खोलने की, नाकाम ही सही, कोशिशें करनी ही पड़ती है। हम बार-बार कबीर को याद करते हैं। मुश्किल यह है कि कबीर बाजार में अपना घर जलाने के जोखिम के साथ जलती लुकाठी लिए खड़े थे और हम खाली झोला लिए खड़े हैं!

ऐसा लगता भारत के लोकतंत्र के चित्त में ही चौसर बिछ गया है। बाजी चली जा रही है।  जीत-हार का खेल चल रहा है। खेल जिस में जीत मिथ्या और हार! हार सच! आदमी युद्ध और संघर्ष, जीत-हार, द्वंद्व और दुविधा से कभी बाहर निकल ही नहीं पाता है। द्वंद्व और दुविधा से बाहर हासिल होनेवाली सुख और सुविधा बहुत थोड़े समय में ही , पुनः किसी द्वंद्व और दुविधा में फँस जाती है। द्वंद्व और दुविधा चित्त का स्थाई भाव है, इसकी स्थिति बनी रहती है। सुख और सुविधा संचारी भाव है, इसकी गति में कोई रोक नहीं लगती है। 

खेल जारी है। नतीजा का इंतजार कीजिए और तब तक साभार पढ़िये, मोतीहारी में जून 1903 में पैदा हुए जॉर्ज ऑरवेल (असली नाम एरिक ऑर्थर ब्लेयर) के व्यंजनापूर्ण उपन्यास, ‘एनिमल फार्म’ (1945) का एक अंश –

“मनुष्य एकमात्र जीव है, जो उत्पादन के बिना खपत करता है। वह दूध नहीं देता, वह अंडे नहीं देता, वह हल खींचने के लिए बहुत कमजोर है, वह खरगोश को पकड़ने के लिए पर्याप्त तेजी से नहीं दौड़ सकता। फिर भी, वह सभी जानवरों का स्वामी है। वह उन्हें काम पर लगाता है और उसके बाद उन्हें कम-से-कम न्यूनतम खाना देता है, जो उन्हें जिंदा रखे और शेष वह खुद के लिए रखता है। हमारा श्रम मिट्टी को जोतता है, हमारा गोबर इसे उपजाऊ करता है और फिर भी हम में से कोई भी ऐसा नहीं है, जिसके पास हमारी त्वचा से अधिक कुछ है। गायों को मैं देखता हूँ कि पिछले साल के दौरान आपने कितने हजारों गैलन दूध दिया है, और आपके बछड़ों के साथ क्या हुआ है, जिन्हें आपका दूध मिलना चाहिए था? इसकी हर एक बूँद हमारे दुश्मनों के गले से नीचे उतरती है और आप मुरगियाँ?”

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)