सवाल न्याय का है तो नूह की नौका में विचार और विवेक को बचाने का भी है

सवाल न्याय का है तो नूह की नौका में विचार और विवेक को बचाने का भी है

प्रफुल्ल कोलख्यान

सभ्यता की शुरुआत से ही अनवरत आवाज गूंजती रही है, ‘न्याय चाहिए, न्याय चाहिए’!  कानून का राज बहाल रहने की स्थिति में जब नीति-नैतिकता सिर उठाती है, तो इस आवाज की अनुगूंज धीमी हो जाती है। कानून का राज न रहे तो नीति-नैतिकता की बात निरर्थक जुमलेबाजी से अधिक कुछ नहीं होती है। दुनिया के ‘एक ध्रुवीय’ होने के कोलाहल और कलह के बीच नये सिरे से मनुष्य की नैतिक-विच्छिन्नता का वातावरण बनने लगा।  नई अर्थ-नीति के लागू होने के साथ ही नव-नैतिकता का नया आयाम खुलने लगा था। इस आयाम में सम्यक रोजगार के अभाव में होनेवाली नैतिक-विच्छिन्नता से उत्पन्न परिस्थिति का प्रभाव प्रमुखता से शामिल था। सम्यक रोजगार का अभाव समाज व्यवस्था में अन्याय के असंख्य और अगणित विषाणु घुस जाते हैं। इस समय सम्यक रोजगार के अभाव की आंधी चल रही है। सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन असंभव हो जाने की परिस्थिति में नैतिक-विच्छिन्नता की आंधी का मुकाबला कभी संभव नहीं हो सकता है। नैतिक-संलग्नता के अलावा अन्याय को रोकने और कानून के राज को सुनिश्चित करने का कोई अन्य मानवीय उपाय नहीं है।

नैतिक-संलग्नता की जीवंतता के लिए जरूरी है सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन की संभावनाओं सम्यक रोजगार के समुचित अवसर को जीवंत और भरोसेमंद बनाये रखना। यह काम चुनावी रस्म और रीति से सीमित ‘लोकतंत्र’ से संभव नहीं होता है। यह ठीक है कि अपराध के बीज मनुष्य के मन में जन्म-जात होते हैं। इसलिए आपाद-मस्तक अपराध मुक्त समाज व्यवस्था असंभव है। इतना मान लेने के बाद यह सवाल उठाया ही जा सकता है कि मनुष्य के मन में उपस्थित अपराध के मानसिक बीज के सामाजिक विषवृक्ष बनने की जमीन, खाद-पानी समाज व्यवस्था से ही मिलते हैं। निश्चित ही अपराधी को देश के कानून के अनुसार दंडित किया ही जाना चाहिए। लेकिन याद यह भी रखना चाहिए कि अपराधी को दंडित करने से समाज व्यवस्था में अपराध और अपराध की प्रवृत्ति में कमी नहीं आती है, खासकर तब जबकि खुद कानून का राज गहरे संदेह के घेरे में हो। नागरिक समाज विश्वास कर सकता है कि हाल के अपराधियों के पहले अपराध के समय की आर्थिक पृष्ठ-भूमि और रोजगार की स्थिति की खोजबीन से अधिकतर मामलों में ‘कुछ’ सामान्य चौंकाऊ तथ्य सामने आ सकते हैं। अन्याय और अपराध एक ही सिक्का का दूसरा पहलू होता है। यह हो नहीं सकता है कि सिक्का के किसी एक पहलू के रहते, दूसरे पहलू को अनुपस्थित कर दिया जाये। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कानून के राज का परिप्रेक्ष्य तिरछा होता जा रहा है, जल-जमीन-जंगल-जीवन आक्रांताओं से घिरता जा रहा है और चारो  तरफ बेलगाम अन्याय का माहौल गाढ़ा होता जा रहा है। ‘जीत का जश्न’ माननेवालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जंगल छिन जाने से जंगल के पशु हिंसक हो जाते हैं उसी तरह कानून का राज छिन जाने और समाज में मनमर्जी का अ-न्यायी राज चलाने से समाज में हिंसा-प्रतिहिंसा और अ-नैतिकता का वातावरण बन जाता है। जिस को ‘मशाल’ से करना असंभव कर दिया गया है, उसे ‘मोमबत्ती’ से संभव कर लेने की नागर मासूमियत को सलाम करने के अलावा क्या किया जा सकता है! न माने कोई, मगर यह सच है कि फूंक मारने से न भूत भागता है न दर्द दूर होता है।  

चारो तरफ से ‘न्याय चाहिए, न्याय चाहिए’ की गुहार सुनाई दे रही है। याद रखना जरूरी है कि यह ‘गुहार’ है, ‘शोर’ नहीं! यह भी याद रखना जरूरी है कि हमारे समय में ‘गुहार’ को ‘शोर’ से ढक लेने की शासकीय नीति और प्रवृत्ति भी बहुत सक्रिय है। यह ठीक है कि सभी को समान रूप से संतुष्ट करनेवाली न्याय-निष्ठ समाज व्यवस्था दुनिया में कहीं भी संभव नहीं हो पाई है। भविष्य में कभी संभव हो पायेगी या नहीं, कुछ भी कहना मुश्किल है। लेकिन पूर्ण न्याय-निष्ठ समाज व्यवस्था का सपना मनुष्य की अनंत यात्रा का अनमोल रतन है। इस विश्वास के साथ इतना जरूर कहा जा सकता है कि न्याय-निष्ठ समाज व्यवस्था का संतुलन हासिल करने के लिए मनुष्य का संघर्ष हमेशा जारी रहेगा।

आंदोलन होते हैं, क्रांतियां होती है न्याय के परिप्रेक्ष्य को सही करने की कोशिशें होती रहती हैं। कुछ देर के लिए लगता है कि सवाल का हल मिल गया। शांति का वातावरण तैयार हो गया है। यह सब कुछ दिनों के लिए ही होता है। अधिक-से-अधिक एक पीढ़ी, दो पीढ़ी, तीन पीढ़ी बस! इस के बाद फिर संघर्ष, फिर कोलाहल, फिर कलह! बस कुछ दिनों के लिए शांति! भारतीय संस्कृति स्वतः स्पष्ट संदेश है, “मनुज बलि नहीं होत है, होत समय बलवान! भिल्लन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बाण!” जिस मुल्क के बादशाह को ‘एक मुश्त-ए-ग़ुबार’ में बलते हुए लोगों ने देखा हो उस मुल्क के लोकतांत्रिक ‘सिंहासन’ पर विराजने का मौका शासक के मन में उस के ईश्वर होने का भ्रम पैदा कर दे तो उस मुल्क के लिए इस से बड़े दुख का मौका और क्या हो सकता है।   

‘बुलडोजर न्याय’ अतिक्रमण और प्रति-अतिक्रमण दोनों का ही प्रतीक है। ‘बुलडोजर न्याय’ का प्रतीकार्थ बहुत ही डरावना है। वर्चस्व में अतिक्रमण की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। जीवन के भिन्न इलाकों और संदर्भों में अतिक्रमण की प्रक्रिया चलती रहती है। अतिक्रमण से अन्याय का गहरा रिश्ता होता है। लोकतांत्रिक शासन में अतिक्रमण का उत्साह लोकतंत्र को तहस-नहस कर देता है। इतिहास गवाह है, पूरे नागरिक समाज में तो नहीं, लेकिन कुछ लोगों में अन्याय से लड़ने का जज्बा जरूर पैदा हो जाता है। इतिहास गवाह है, हमेशा कुछ लोग अन्याय से लड़ने के लिए अपने एकांत और शांत जीवन के कोने से उठकर मोर्चा संभालने आ जाते हैं। अन्याय से लड़ने के लिए जैसे कुछ लोग आते रहे हैं, वैसे आगे भी आते रहेंगे। जाहिर है कि अतिक्रमण और प्रति-अतिक्रमण के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया भी जारी रहती है।

कभी-कभी संक्रमण का दौर बहुत तीखा और लंबा होता है। हर तीसरी-चौथी पीढ़ी को संक्रमण की तीखी और लंबी प्रक्रिया की पीड़ा झेलनी पड़ती है। मोटे तौर पर डॉ मनमोहन सिंह के दूसरे शासन-काल में संक्रमण के दौर के लक्षण दिखने लग गये थे। संक्रमण के दौर में ‘काबा और कलीसा’, पुराने और नये का द्वंद्व तेज हो जाता है, कभी-कभी उग्र भी। संक्रमण की प्रक्रिया को ठीक से समझना बहुत आसान नहीं होता है। लोकतांत्रिक सत्ता, इस में पक्ष और प्रति-पक्ष दोनों शामिल रहते हैं, की समझ और राजनीतिक व्यावहारिकता में संक्रमण की पीड़ा के लक्षण सही संदर्भ में नहीं झलकते हैं तो संक्रमण की पीड़ा अधिक लंबी और तीखी हो जाती है।

डॉ मनमोहन सिंह के शासन के उस दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसी मुहिम चली कि लगा व्यवस्था को पूरी तरह से न्याय-निष्ठ बनाने की दिशा में कुछ लोगों ने संघर्ष का मोर्चा संभाल लिया है। महात्मा गांधी नीति और शैली से दूर-दूर रहनेवालों की मति-गति में ऐसा बदलाव कि आनन-फानन में एक ‘नये गांधी’ की तलाश पूरी कर ली गई। ‘नये गांधी’ की भूमिका में किसन बाबूराव हजारे यानी अण्णा हजारे  गये। अब अण्णा हजारे के आंदोलन का दौर था। इस आंदोलन के वास्तुकारों में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, किरण वेदी, आशुतोष आदि प्रमुख थे। परदे के पीछे राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और समर्थक शक्तियों की सक्रिय भूमिका थी। इसी दौर में एक नये राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ। वैसे यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था, लेकिन इतिहास ने साबित किया कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं कांग्रेस के खिलाफ था। इस नजरिये से देखा जाये तो यह आंदोलन सफल हुआ। कांग्रेस की सरकार चली गई। आज किसन बाबूराव हजारे कहां हैं! क्या पता! जबरदस्त चुनावी जीत के बाद इन में से कुछ प्रमुख लोग पार्टी से बाहर निकल गये या निकाल दिये गये। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी को जनता का अपराजेय समर्थन मिला। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री पद पर बने रहकर अरविंद केजरीवाल अब भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरकर हिरासत में हैं। कुछ दिन पहले आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह और मनीष सिसोदिया जमानत पर हिरासत से निकले हैं। सत्येंद्र जैन तो बहुत दिन से हिरासत में हैं। कांग्रेस के विरुद्ध ‘इंडिया अगेनस्ट करपशन’ का दौर कब का समाप्त हो गया और अब कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया अलायंस का दौर है। ‘इंडिया अगेनस्ट करपशन’ से बाहर अब आम आदमी पार्टी इंडिया अलायंस के आस-पास है। अण्णा हजारे को अच्छा तो नहीं लग रहा होगा, लेकिन यह ऐतिहासिक सच है कि अरविंद केजरीवाल सहित उन के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सारे ‘सिपाही’ कांग्रेस के प्रति परहेज से मुक्त हैं।

इस संक्रमण के प्रारंभिक दौर में सत्ता परिवर्तन हो गया। कांग्रेस की सत्ता गई। कानून के राज का अर्थ पूरी तरह से बदल गया। अच्छे-अच्छे लोग ‘अच्छे दिन’ की धुन का पीछा करते हुए 2014 से 2024 तक पहुंच गये। ‘अच्छे दिन’ हाथ नहीं आया सो नहीं आया! ऊपर से ‘बुरे दिन’ के फिर से लौट आने का बेसब्र इंतजार शुरू हो गया। संक्रमण की प्रक्रिया में अतिक्रमण की प्रवृत्ति ने कोहराम मचा दिया।  बुलडोजर ‘शासकीय न्याय’ का प्रतीक बन गया प्रतीत होने लगा। कानून के राज के बदले हुए अर्थ में कानून ‘अपना काम’ छोड़कर ‘उन का काम’ करने लगा। इस काम में संविधान रोड़ा अटका देता था। इस संविधान के बारे में वर्तमान शासक दल से जुड़े पुराने लोगों की धारणा थी कि उस में कुछ भी भारतीय नहीं है। अब शासकीय उत्साह के साथ संविधान में परिवर्तन का नहीं बल्कि अंदर-ही अंदर संविधान के परिवर्तन का मनोरथ आकार लेने लगा। अंदर-ही-अंदर पल रहे मनोरथ की ध्वनियां लीक होकर बाहर आने लगी जो ‘चार सौ पार’ की मुनादी की संगत में फिट हो गई। ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ करनेवाले ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी के राजनीतिक कान खड़े हो गये। फिर क्या था, इंडिया अलायंस और राहुल गांधी ने संविधान परिवर्तन के मनोरथ के मुकाबला में आरक्षण विरोध की मंशा को जोड़कर सामाजिक और आर्थिक अन्याय को जारी रखने के सत्ताधारी दल के इरादा को भी नत्थी कर दिया। नतीजा, ‘चार सौ पार’ की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की दहाड़ दूर-दृष्टि संपन्न पक्के इरादा की ‘पॉलिटिकल इंजीनियरिंग’ के प्रभाव में ‘दो सौ चालीस’ में सिमट कर रह गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार के समर्थन से सरकार गठित हो जाने के बाद ऐसा लग रहा है कि राजनीतिक जमीन पर न्याय का सवाल, कम-से-कम कुछ देर के लिए स्थगित-सा हो गया है! ऐसा लग जरूर रहा है, मगर ऐसा है नहीं शायद। किसी भी इरादा से बहुत जल्द जनगणना और जातिवार जनगणना की कवायद शुरू हो सकती है। किसी भी इरादा से कहना इसलिए जरूरी है कि जनगणना और जातिवार जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल अलग-अलग और भिन्न-भिन्न इरादा से किया जा सकता है। इन भिन्न-भिन्न इरादों में न्याय शामिल होगा तो अन्याय के लिए भी जगह निकालने के इरादे से इनकार नहीं किया जा सकता है, यह बात साफ-साफ समझ में आती है।

इस अतिक्रमण-संक्रमण के दौर में न्याय के सवाल का बहुत दिनों तक स्थगित रह पाना मुमकिन नहीं दिखता है। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि पूर्ण न्याय-निष्ठ व्यवस्था को हासिल करने की तरफ बढ़ने के लिए जन-आक्रोश में किसी बड़े जन-आंदोलन के लक्षण दिख रहे हैं। एक अन्य बात की ओर भी ध्यान देना जरूरी है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में ‘सब के लिए न्याय’ सुनिश्चित करने की लड़ाई की तैयारी नहीं है। बल्कि लड़ाई तो ‘अपने लिए’ न्याय में हिस्सेदारी की है। दोहराव के जोखिम पर भी कहना जरूरी है कि लड़ाई की तैयारी पूर्ण न्याय-निष्ठ व्यवस्था के लिए तो नहीं ही है, ‘अन्यों’ को अन्याय से बचाने के लिए भी नहीं है। एक उदाहरण क्रीमी-लेयर पर माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला देखा जा सकता है। यह सच है कि क्रीमी-लेयर में आनेवाला उस वंचना के व्यूह से पूरी तरह से बाहर नहीं आया है, जिस वंचना से बचाव के लिए आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है। लेकिन यह भी सच है कि क्रीमी-लेयर कुछ लोगों के जीवन में उस दंश का असर उल्लेखनीय ढंग से कम जरूर हुआ है, जिस दंश से बचाना आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था का लक्ष्य रहा है।

क्रीमी-लेयर के कुछ लोग अपने समुदाय या अपने समान-समुदाय के पीछे रह गये लोगों के पक्ष में आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था का लाभ उठाना छोड़ देते हैं तो इस से आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था में अधिक धार आ सकती है। सच पूछा जाये तो यह मामला इतना सरल भी नहीं है। असल में क्रीमी-लेयर बहुत पतला है। क्रीमी-लेयर के लोगों को ‘सवर्ण समूह’ में सम्मानजनक स्थान सुनिश्चित नहीं किया जा सका है। उन की सामाजिक स्थिति सचमुच ध्यान देने लायक है। एक बात यह भी समझना जरूरी है कि भारत में जाति ही समाज है, लेकिन समाज जाति नहीं है।  इसी अर्थ में भारत का जीवंत समाज खंडित (fragmented) स्वरूप में उपलब्ध होता है। समझ में आने लायक बात यह है कि क्रीमी-लेयर के लोग अपनी मौलिक सामाजिक जमीन से कट गये हैं और नई जमीन पर उनका गोड़ ठीक से जम नहीं पाया है।

सच यह भी है कि अपनी ‘जागरूकता’ में वे इतने आगे हैं कि अपने ही समुदाय पर वर्चस्व जमाने की प्रवृत्ति पर लगाम कसने की मानसिकता विकसित करने में कोई रुचि नहीं लेते हैं। एक और बहुत खतरनाक प्रवृत्ति भी क्रीमी-लेयर के जागरूक लोगों में दिखती है, वे समुदाय के बाहर के लोगों का इन मुद्दों पर मुंह खोलना पसंद नहीं करते और कभी-कभी विरोध भी करते हैं। अन्याय के खिलाफ छोटी-छोटी लड़ाइयां ऊपर से जरूर न्याय की नहीं न्याय में हिस्सेदारी कि दिखती हो, लेकिन यह अंततः वे अन्याय के खिलाफ बड़ी लड़ाई की मजबूत पृष्ठ-भूमि भी बनाती हैं। न्याय की बड़ी लड़ाई के दो लक्षण महत्वपूर्ण हैं, पहला ‘अपने हों या पराये, सब के लिए हो न्याय’ और दूसरा, ‘न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है’। ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी के लिए न्याय की बड़ी लड़ाई की असली और गंभीर  चुनौती है।

दक्षिणा में अंगूठा काट लेनेवाली मानसिकता की दिलचस्पी अपने पराये, सब के लिए न्याय सुनिश्चित करने में या न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देने में नहीं होती है। प्रसंगवश, एकलव्य का अंगूठा द्रोणाचार्य ने इसलिए नहीं काट लिया था कि महाभारत की लड़ाई में कौरवों के विरुद्ध अर्जुन का कोई प्रति-द्वंद्वी न हो! बल्कि एकलव्य का अंगूठा इसलिए काट लिया होगा कि द्रुपद से प्रतिशोध लेने की लड़ाई में वचनबद्ध अर्जुन के खिलाफ एकलव्य जैसे धनुर्धर का इस्तेमाल किये जाने की आशंका को समाप्त किया जा सके। बड़ी-बड़ी लड़ाइयों के बीच और समानांतर छोटी-छोटी लड़ाइयां भी चलती रहती है।

‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी और इंडिया अलायंस के सामने अपने पराये, सब के लिए न्याय सुनिश्चित करने की राह में न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना शामिल है। वोट की राजनीति से ऊपर उठकर ही इस चुनौती का मुकाबला किया जा सकता है। संसद में बहुमत के नाम पर बहुसंख्यकवाद के खतरे को देश झेल चुका है। सब के लिए न्याय सुनिश्चित करने की दूर-दृष्टि से ‘बहुवोट के लालच’ में पड़ने के खतरे से लोकतांत्रिक राजनीति को बचाना भी बड़ी राजनीतिक चुनौती है। ध्यान रहे, सामाजिक संकट के समाधान का प्रस्ताव सड़क से संसद को जाये तो शुभ; संसद का संकट समाज में पसरने लगे तो अ-शुभ! प्रसिद्ध समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि अगर सड़कें खामोश हो जायें तो संसद आवारा हो जाएगी। डॉ राममनोहर लोहिया ने ठीक ही कहा था, लेकिन उन्हें क्या पता था कि भारत के लोकतंत्र में एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब सड़क की खामोशी को संसद की आवारगी तोड़ने लगेगी। आवारगी! विचारहीनता ही आवारगी की जननी है। संसद में विचारहीनता की जो स्थिति है, वह सड़क पर भी पसर जाती है। जन-आक्रोश में लंबे समय की विचारहीनता अंततः सड़क को भी आवारा बना देती है। तोड़-फोड़ क्या किया जाये? ‘नूह की नौका’ में विचार को बचाया जाये, विवेक को बचा लिया जाये। जी, सवाल न्याय का है तो नूह की नौका में विचार और विवेक को बचाने का भी है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)     

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