लोकतांत्रिक सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल

लोकतांत्रिक सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल

प्रफुल्ल कोलख्यान

पिछले बीस-तीस साल में समय बहुत बदल गया है। न तो ऐसा अंधेरा सभ्यता ने पहले कभी देखा था और न ऐसा उजाला ही पहले कभी देखा था; न कभी देखी थी अंधेरा और उजाला की ऐसी जिगरी दोस्ती। जी, समय बदल गया है!

समय का मौलिक स्वभाव बहाव है। बहाव का मतलब गति है। गति के लिए दिशा अनिवार्य है। दिशाएं कई हैं और हो सकती हैं। जीवन व्यवहार में समय की गति की दिशा रैखिक होती है। भले ही समय सीमा मुक्त हो और धरती भी बहुत बड़ी हो; मनुष्य के पास समय सीमित ही होता है और धरती भी बहुत थोड़ी ही होती है। इसलिए जीवन व्यवहार में नाप-तौल का बड़ा महत्व होता है। आदमी ने समय के नाप-तौल को धरती की गति से और समय के महत्व को अपनी क्रियाशीलता से जोड़ दिया। क्रिया कोई भी हो समय में संपन्न होती है और समय में ही रहती है। समय की गति ही परिवर्तन का कारण होती है।

यथास्थिति परिवर्तन रोधी होती है और समय को बांधने का प्रयास करती है। समय के साथ-साथ सभ्यता में सत्ता के विभिन्न स्वरूप बनते-बदलते रहते हैं। सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी, भागीदारी के सवाल उठते रहते हैं। इन सवालों को सामाजिक समझदारी से हल न किये जाने से सामाजिक टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। चाहे जितनी भी सामाजिक समझदारी से सामाजिक सवालों को हल किया जाये सभी लोगों को संतुष्ट करना असंभव होता है। इसलिए छोटे-छोटे टकराव चलते रहते हैं, इसी तरह से सभ्यता आगे बढ़ती आई है। मुश्किल तब होती है जब ये छोटे-छोटे टकराव बड़े-बड़े सामाजिक हितों के टकराव में बदलकर सभ्यता के आगे बढ़ने का रास्ता अवरुद्ध कर देते हैं। इस समय हितों में टकराव की जो मति-गति है वह सभ्यता विकास के रास्ता को अवरुद्ध करने की तरफ तेजी से बढ़ रही है, यह चिंता की बात है। विषमता की खाई में सभ्यता किस असमंजस में है, कुछ भी कहना मुश्किल है, लेकिन कहना तो होगा ही।

सभ्यता के विकास में उत्पादन, मूल्य-वर्द्धन और सम्यक वितरण का महत्व है। मोटे  तौर पर सामाजिक हितों में टकराव से बचने के लिए सम्यक वितरण के तीन सूत्र हैं। योग्यता के अनुसार सभ्यता और समाज के हासिल में योग करना और व्यक्ति की जरूरत के अनुसार समाज के हासिल से व्यक्ति का प्राप्त करना सभ्यता विकास में सामाजिकता और सामूहिकता का पहला और मौलिक सूत्र है। दूसरा सूत्र है, योग्यता के अनुसार व्यक्ति का योग करना और किये गये योग के अनुसार समाज के हासिल से व्यक्ति का अपना-अपना हिस्सा प्राप्त कर लेना। तीसरा सूत्र है, व्यक्ति का योग्यता के अनुसार हासिल करना और अधिक-से-अधिक का व्यक्ति के अपने पास रखना बाकी बचे को समाज के हासिल में योग करना और फिर समाज के हासिल से शक्ति के अनुसार खींच लेना। इन सूत्रों पर आज फिर गहराई में जाकर कई तरह से गौर किया जाना चाहिए।    

पहले सूत्र के आधार पर घर परिवार चलता है। परिवार के सदस्य अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार करते हैं और परिवार के मुखिया जरूरत के अनुसार परिवार के अन्य सदस्यों में परिवार की आमदनी का सम्यक वितरण करते हैं। कमाकर लेनेवाला बेटा, पिता, पति, भाई यह नहीं कहता कि चूंकि मैं ने कमाकर लाया है, इसलिए ‘च्यवनप्राश मेरा, बाकी लोगों का घास!’ ‘च्यवनप्राश और घास’ के वितरण में जब तक व्यक्ति की ‘जरूरत के अनुसार’ का सूत्र जीवंत रहता है, तब तक परिवार में संबंध के सारे सूत्र जीवंत रहते हैं। सच पूछा जाये तो घर परिवार संयुक्त हो, एकल हो, बिना इस सूत्र के चल ही नहीं सकता है। सामाजिक समरसता और संसाधनिक वितरण में संतुलन की दृष्टि से यह सूत्र बहुत उपयोगी है। विकास के आरंभिक दौर में यही वह जीवंत सूत्र था जिस के अनुपालन से मनुष्य ‘सभ्य’ बनता गया। सभ्यता के विकास के साथ-साथ अर्जन, योग और वितरण का यह सूत्र उदास होता चला गया। धीरे-धीरे यह सूत्र क्यों उदास होता चला गया? कैसी भी व्यवस्था हो ‘व्यक्ति की योग्यता’ का संदर्भ हर जगह लागू होता है। समाज और व्यक्ति की योग्यता पर हर-बार गौर करना जरूरी है। योग्यता का मामला व्यक्ति, समाज और सभ्यता में तनाव का नाभिकीय बिंदु है।   

विवाद ‘योग्यता’ को ले कर शुरू हो गया। विवाद क्या है! विवाद का पहला द्वंद्व यह है कि योग्यता व्यक्तिगत होती है या सामाजिक होती है! योग्यता के बीज व्यक्ति में होता है। बीज के विकास का वातावरण सामाजिक होता है। इस निष्कर्ष तक पहुंचना और इसे मान लेना बहुत आसान नहीं साबित हुआ। इस निष्कर्ष को मानने में व्यक्ति स्वार्थ सब से बड़ी बाधा बना। धीरे-धीरे आबादी आंकड़े में बदलने लगी। गणित और गणना के बड़े-बड़े सूत्र काम में लगाये जाने लगे। हिसाब लगाकर बताया जाने लगा कि सब ‘हिसाब’ ठीक है। भीतर के लोगों को भीतर-भीतर से पता चल गया ‘हिसाब’ तो ठीक नहीं है! फिर क्या था!

‘हिसाब’ ठीक करने या अपने-अपनों के पक्ष में करने के लिए राजनीति सामने आई। वृहत्तर परिवार में टूट होने लगी। किसी तरह से बात संयुक्त परिवार पर आ कर टिकी।  फिर संयुक्त परिवार संकुचित परिवार में बदल गया। संयुक्त परिवार में दादा-दादी और उनके सभी बच्चे और बच्चों की पत्नी और बच्चे साथ-साथ रहते अपने-अपने हित साधते रहे, सुख-दुख में साथ निभाते रहे। कुछ दिनों तक संयुक्त परिवार चला और फिर संयुक्त परिवार संकुचित परिवार में बदलने लगा। संकुचित परिवार में पति-पत्नी और बच्चे साथ-साथ रहने लगे। बच्चे मां-बाप के प्यार के छांव में पलने लगे। फिर वह दिन भी आ गया जब संकुचित परिवार सूक्ष्म परिवार में बदल गया। अब, बच्चों के लिए मां और बाप का नहीं मां या बाप का ही प्यार उपलब्ध रह गया। अंततः बच्चों के लिए बोर्डिंग-स्कूल  और बूढ़ों के लिए वृद्धाश्रम ही उपयुक्त स्थल बचा।

जरा गौर से देखने से मोटे  तौर पर ही सही, कम-से-कम एक बात तुरत समझ में आ सकती है। विकास के सब से निचले पायदान पर टिकी आबादी के लिए वृहत्तर परिवार के रूप में जाति-समाज और संयुक्त परिवार जैसे-तैसे चरमराते हुए चल रहा है। उस से ऊपर के पायदान पर पहुंच गई आबादी जाति-समाज के साथ संकुचित परिवार रोते-बिसूरते चल रहा है। उस से भी ऊपर के पायदान पर पहुंच गई आबादी के लिए जाति-समाज सिर्फ स्मृति में बचा है और सूक्ष्म परिवार चल रहा है। ‘समाज शास्त्रियों’ की रुचि हो तो वे सभ्यता विकास में वर्ग-वर्ण-व्यवस्था के जीवन-स्तर के संदर्भ से जोड़कर देख सकते हैं। इस समय तो मेरी रुचि यहां सिर्फ यह संकेतित करने की है कि सभ्यता विकास के साथ-साथ व्यक्ति अकेला होता चला गया।

सामाजिक समझदारी और एकता में सब से बड़ा बाधक समाज-व्यवस्था के अनुसार शक्ति-प्राप्त व्यक्ति में ‘एक अकेले के भारी पड़ने’ की भ्रामक समझ। मोटी बात यह है कि समाज की योग्यता व्यक्ति की योग्यता के रूप में परिलक्षित होती है। यह मशीन-युग है। मशीन के उदाहरण से बात अधिक स्पष्ट हो सकती है। जो छोटे-छोटे पुर्जे बड़ी-बड़ी मशीनों में लग जाते हैं, उन्हीं पुर्जों से मशीन की ताकत बनती है। मशीन में लगे पुर्जे को ही अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलता है। मशीन में लगने का मौका ही पुर्जे को महत्वपूर्ण और ‘योग्य’ बनाता है। यहां समझा जा सकता है कि ‘योग्यता’ का वास्तविक संदर्भ ‘मौका’ मिलने से बनता है। योग्य बनने का ‘मौका’ समाज देता है, सरकार देती है।  जिन तत्वों से पुर्जा बनता है, उन तत्वों के बड़े अंश को पुर्जा बनने का ही मौका नहीं मिलता है, पुर्जा बन गये तो मशीन में लगने का मौका नहीं मिलता है। मशीन में पुर्जा के लगने का संदर्भ व्यक्ति के रोजगार में लगने की प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से यहां महत्वपूर्ण हो सकता है।

भारत में रोजगार का सामान्य परिदृश्य क्या है! यहां ऐसी प्रक्रिया बनाने में सरकार लग गई है कि पुर्जा बनने का मौका पुर्जी से मिलने लगा है। पुर्जी-नियुक्तियों को ‘लेटरल एंट्री’ के नाम से लागू किया गया है, किया जा रहा है। एक तरफ पेपरलीक को देखा जाये और दूसरी तरफ पुर्जी-नियुक्तियों, ‘लेटरल एंट्री’ को तो आंख फटी-की-फटी रह जायेगी! यह तो साफ-साफ दिखेगा कि पुर्जी-नियुक्तियां रोजगार में आरक्षण की स्पष्ट संवैधानिक व्यवस्था को तो ठग ही रही हैं, सामान्य संवर्ग के साधारण युवाओं को भी ठग रही है, सभी सामाजिक संवर्ग के आगे बढ़ने का रास्ता बाधित कर रही है। पुर्जी-नियुक्तियां सभी सामाजिक संवर्ग  की योग्यता को निर्योग्य बना देती है।

इतना ही नहीं, ध्यान देने की बात यह भी है कि पुर्जी-नियुक्तियों की जड़ में पक्षपात तो होता ही है, कहना जरूरी है कि यह पक्षपात विचारधारा के आधार पर होता है। पिछले दिनों सरकार की आधिकारिक घोषणा हुई जिस के अनुसार सरकार के कर्मचारी राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ में जा सकते हैं। जा सकते हैं तो आ भी सकते हैं। यह बहुत गड़बड़ मामला है। इंडिया अलायंस के ही नहीं बल्कि सरकार के सहयोगी घटक दल के नेताओं ने पुर्जी-नियुक्तियों की सरकारी नीति से असहमति जाहिर की है। विरोध! असहमत होना भिन्न बात है और विरोध या विद्रोह करना भिन्न बात है। बात किसी एक नीति की ही नहीं बल्कि समग्र राजनीतिक दृष्टि की है। राजनीतिक दृष्टि ही दुष्ट हो, तो सरकार की नीति में न्याय की गुंजाइश खोजने या उस पर बात करने का कोई मतलब ही नहीं बनता है। क्रीमी-लेयर और ‘उपयुक्त नहीं पाया गया – NFS’  के साथ-साथ ‘लेटरल एंट्री’ और ‘अग्निवीर’ को तुलनात्मक नजर से देखने पर कुछ ही नहीं ‘बहुत कुछ’ दिख सकता है। दिख सकता है कि किस तरह पुर्जा में ऊर्जा न आने देने के लिए पुर्जी का कैसा इस्तेमाल ‘लोकतांत्रिक सत्ता’ कर रही है!      

राजनीतिक दुष्टताओं को रोकने के पर्याप्त प्रावधान भारत के संविधान में है। मुश्किल तो यह है कि जिन के हाथ में संविधान और प्रावधान को लागू करने की शक्ति और जिन के माथे पर लागू करने की जवाबदेही है उन के दिमाग में न तो संविधान के प्रति सम्मान है, न प्रावधान की कोई परवाह है! उदाहरण के लिए अभी कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में 9 अगस्त 2024 को लेडी डॉक्टर के रेप और खून की भयावह घटना और घटना पर सामने आ रही राजनीतिक नेताओं की प्रतिक्रियाओं को देखा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सत्ता में है। अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस की ‘सुप्रीमो’ ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं। मानकर चला जा सकता है कि अखिल भारतीय तृण मूल कांग्रेस इंडिया अलायंस में ही है। ममता बनर्जी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के मुख्य घटक दल भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ हैं। ममता बनर्जी मुख्यमंत्री तो हैं ही, वे राज्य के स्वास्थ्य और गृह मंत्रालयों काम भी खुद ही देखती हैं। आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना की जांच-पड़ताल को लेकर बने संदेह के घेरे में राज्य के दोनों मंत्रालय हैं। झूठ-सच का पता तो बाद में चलेगा या नहीं चलेगा यह तो बाद की बात है, फिलहाल ऐसी धारणा बन गई है कि सरकार ‘किसी को’ बचाने में लगी है।

नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का इस मामला में खामोशी ओढ़ना निहायत ही अ-नैतिक होता। स्वभावतः इंडिया अलायंस और प्रतिपक्ष की राजनीतिक विश्वसनीयता पर तरह-तरह के सवाल खड़े हो जाते। राहुल गांधी के ट्वीट (X) पर जिस प्रकार की प्रतिक्रियाएं तृणमूल कांग्रेस की तरफ से आई वह अ-प्रत्याशित तो नहीं कही जा सकती है। अभी जो राजनीतिक परिस्थिति है, उस में पारंपरिक राजनीतिक दृष्टि से भले ही तृणमूल कांग्रेस की प्रतिक्रियाएं अ-प्रत्याशित न हों, लेकिन नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी इंडिया अलायंस और कांग्रेस के माध्यम से जिस नई राजनीतिक शैली की शुरुआत के लिए सक्रिय हैं, उस दृष्टि से ये प्रतिक्रियाएं अ-प्रत्याशित और अशुभ जरूर हैं।

उधर, अमेरिका की शॉर्ट सेलिंग कंपनी हिंडनबर्ग की रपट में प्रमुख नियामक संस्थान भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) सेबी की अध्यक्ष माधवी पुरी बुच और उनके पति धवल बुच की  अदानी समूह से जुड़ी ऑफशोर कंपनियों में ‘हिस्सेदारी’ को लेकर कॉरपोरेट के इतिहास में इतने बड़े घोटाले बात कही गई है। सरकार पर अदानी के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया गया है। इस मुद्दे को मजबूती से उठाकर सरकार को सड़क से संसद तक घेरने की तैयारी में इंडिया अलायंस और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लगे हुए हैं। जांच-पड़ताल से जो भी बात निकले लेकिन धारणा तो यही है कि सरकार की मिलीभगत से ही लाखों-करोड़ों की बड़ी-बड़ी आर्थिक अनियमितताएं हो रही हैं। आर्थिक अनियमितताओं और राजनीतिक दुष्टताओं के कारण  देश में लोकतंत्र के रहते लोकतांत्रिक सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल सुरसा का मुंह बन गया है।

आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना राजनीतिक रूप से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अधिक इंडिया अलायंस को प्रभावित करनेवाली लग रही है। इंडिया अलायंस का क्या होगा? यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इंडिया अलायंस बना तो जनता के दबाव में, टिकेगा और सफल भी होगा तो जनता के दबाव से ही। ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी को लेकर सत्ता-पक्ष के ही नहीं प्रतिपक्ष के भी कई नेता राजनीतिक असहजता की गिरफ्त में दिखते रहे हैं।

राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक राहुल गांधी के बहुत नजदीक एक राजनीतिक चक्रव्यूह देख रहे हैं। राहुल गांधी, ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी क्या देख रहे हैं? राहुल गांधी देश के आम लोगों के कई-कई चक्रव्यूहों में फंसे होने और उन चक्रव्यूहों को भेदने का रास्ता देख रहे हैं। देख रहे हैं कि लोकतंत्र है! लोकतांत्रिक सत्ता में हकदारी, हिस्सेदारी और भागीदारी के सवाल का क्या जवाब है? जवाब कहां है! नेता प्रतिपक्ष इन सवालों को देख रहे हैं कि जवाब कैसे हासिल किये जा सकें।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं) 

           

 

कोई टिप्पणी नहीं: