भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा और शिव

ऊँ नमः शिवाय  : महाशिवरात्रि की शुभकामनाएँ
➖➖➖
आज महाशिवरात्रि है। पूजा, अर्चना, आराधना, प्रार्थना, भजन और भक्ति का माहौल है। हालाँकि, पूजा, अर्चना, आराधना, प्रार्थना, भजन और भक्ति में अंतर भी है, लेकिन ये परस्पर घुलमिल गये हैं। राम और कृष्ण के साथ भक्ति का संबंध तो विकसित हुआ, लेकिन भक्ति और शिव का क्या संबंध रहा है? राम और कृष्ण विष्णु के अवतार हैं। शिव या रुद्र का अवतार? 
रुद्र का हथियार त्रिशूल है। रुद्र इसका इस्तेमाल शिव को सुनिश्चित करने के लिए करते हैं। यह बात तब और महत्त्वपूर्ण लगने लगती है जब हमारा ध्यान इस तरफ जाता है कि शिव आर्येतर परंपरा से आते हैं। यहाँ के शिव के आर्य या अनार्य परंपरा के होने के उल्लेख की बस इतनी ही प्रासंगिकता है कि रुद्र अपने समाज की मुख्य-धारा की परंपरा से नहीं, बल्कि मुख्य-धारा के समांतर किंतु भिन्न परंपरा से संबद्ध रहे हैं। भारतीय संस्कृति की मुख्य-धारा की इस खासियत को समझने में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सहायक और साक्षी हो सकते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद और ब्राह्मण-धर्म की पुन:स्थापना से भारत की धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों में जो अभूतपूर्व क्रांति’ उत्पन्न हुई! अब यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के बाद बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया या ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के लिए बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया?
‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के बाद बुद्ध को विष्णु का अवतार माने जाने की ‘उदारता’ का कोई कारण नहीं दिखता है। ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के लिए बुद्ध को विष्णु का अवतार माने जाने का संकेत मिलता है, वह यह कि बुद्ध को विष्णु का अवतार मान लिया गया, लेकिन, ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद और ब्राह्मण-धर्म की पुन:स्थापना’ के बाद बौद्धों को वैष्णव नहीं माना गया। उच्छेद में निहित उत्पीड़न को समझा जाये तो संस्कृति की मुख्य-धारा की खासियत पर थोड़ी रौशनी पड़ सकती है; कैसे ‘बौद्ध-धर्म’ अपने उच्छेद के बावजूद अपने अस्तित्व को भारत में बचा सका। निश्चित रूप से इस बचने में इस्लाम के आगमन के महत्त्व को भी समझना जरूरी होगा। यह सच है कि इस्लाम के साथ भी बौद्ध का द्वंद्वात्मक संबंध ही था, लेकिन ब्राह्मण-विरोधी के रूप में इस्लाम की उपस्थिति ने पहले से सक्रिय ब्राह्मण-विरोधी संप्रदायों में एक नये प्रकार की पारस्परिकता को विकसित किया, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘मुसलमानों के आने के पहले इस देश में कई ब्राह्मण-विरोधी संप्रदाय थे। बौद्ध और जैन तो प्रसिद्ध ही हैं। कापालिकों, लाकुलपाशुपतों, वामाचारियों आदि का बड़ा जोर था। नाथों और निरंजनियों की अत्यधिक प्रबलता थी। बाद के साहित्य में इन मतों का बहुत थोड़ा उल्लेख मिलता है। दक्षिण से भक्ति की जो प्रचंड आँधी आई, उसमें ये सब मत बह गए। पर क्या एकदम मिट गए? लोकचित्त पर से क्या वे एकदम झड़ गए? हिंदी, बँगला, मराठी, उड़िया आदि साहित्यों के आरंभिक काल के अध्ययन से इनके बारे में बहुत-कुछ जाना जा सकता है।’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘बौद्ध धर्म का इस देश से जो निर्वासन हुआ उसके प्रधान कारण शंकर, कुमारिल और उदयन आदि वैदांतिक और मीमांसक आचार्य माने जाते हैं। .....पर उन्होंने निचले स्तर के आदमियों में जो प्रभाव छोड़ा था, उसमें नाम-रूप का परिवर्त्तन हुआ, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शंकराचार्य के तत्त्ववाद की पृष्ठ-भूमि में बौद्ध तत्त्ववाद अपना रूप बदलकर रह गया।
बड़े-बड़े बौद्ध मठों ने शैव मठों का रूप लिया और करोड़ों की संख्या में जनता आज भी उन मठों के महंतों की पूजा करती आ रही है।’ शैवों-कापालिकों-लाकुलपाशुपतों के बारे में मुख्य-धारा की क्या धारणा रही है, यहाँ बस इतना ही स्पष्ट करना था। साथ ही यह ध्यान दिलाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि विद्यापति की भक्ति का प्रसंग राम से नहीं, शिव-पार्वती और राधा-कृष्ण से जुड़ता है, लेकिन मुख्य-धारा को शिव-पार्वती प्रसंग उतना नहीं सुहाया जितना कि राधा-कृष्ण प्रसंग। अकारण नहीं है कि विद्यापति का प्रसार ‘मुख्य-धारा’ की ‘मुख्य-भूमि’ की ओर न हुआ, बल्कि बंगाल, उड़ीसा, असम, नेपाल आदि की ओर हुआ। भूलना न होगा कि विद्यापति का प्रसार उन्हीं सरणियों में हुआ जिन सरणियों में उनके पहले बुद्ध और उनके बाद कबीर का प्रसार हुआ था।

हाथ उठा दो!

भाइयो!
क्या तुमने
किसी को
खाते हुए देखा है?

यदि हाँ, तो!
क्या तुम
खा जानेवाली
नजर की
खौफनाक चमक
पहचानते हो?

यदि हाँ, तो!
क्या तुम
उस चमक से
इतनी दूर हो कि
अपनी पूरी उम्र
जी सको?

यदि नहीं, तो!
पेट के धँसान में
लिखे जा रहे
नये संविधान के
समर्थन में
हाथ उठा दो!

साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन


साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन
मनुष्य के आचरण की एकात्मकता के मूलाधार की तलाश
प्रफुल्ल कोलख्यान

जड़-चेतन गुण-दोष मय विश्वकीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार।

  (यह तुलना बोध से संचालित मंतव्य है)

संवाद, तुलना, आलोचना, मूल्यांकन, अनुकरण और सतत सृजन जारी रहनेवाली मानसिक प्रक्रिया है। हम जाने-अनजाने अपने संपर्क में आनेवाले सभी पद और पदार्थ से संवाद कर रहे होते हैं। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तुलना कर रहे होते हैं। सुंदर-असुंदर, बड़ा-छोटा आदि कहते हैं तो यहाँ तुलना ही काम कर रही होती है। तुलना की सक्रियता से आलोचना सक्रिय हो जाती है और हम मूल्याँकन की प्रक्रिया से जुड़ जाते हैं। फिर, अनुकरण और सृजन भी स्वतः आरंभ हो जाता है जो निरंतरता और अभ्यास के माध्यम से उच्चतर गुणवत्ता हासिल कर लेता है। यह उतनी सरल प्रक्रिया नहीं है, जितनी सरलता से में कह रहा हूँ। यह एक व्यापक और जटिल प्रक्रिया है।
भक्ति आंदोलन, सच कहिये तो भक्त और संत कवियों के संदर्भ में मुक्तिबोध ने कुछ सवाल उठाया था। ये सवाल, वैसे भी महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन तुलनात्मक साहित्य पर बता करने के लिए तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। मुक्तिबोध ने कहा, ‘मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि कबीर और निर्गुण पंथ के अन्य कवि दक्षिण के कुछ महाराष्ट्रीय संत तुलसीदास जी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं? क्या कारण है कि हिंदी क्षेत्र में जो सबसे अधिक धार्मिक रूप से कट्टर वर्ग है, उन में भी तुलसीदास इतने लोकप्रिय हैं कि उनकी भावनाओं और वैचारिक अस्त्रों द्वारा, वह वर्ग आज भी आधुनिक दृष्टि और भावनाओं से संघर्ष करता है? समाज के पारिवारिक क्षेत्र में इस कट्टरपंथ के अब नये पंख फूटने लगे हैं। खैर, लेकिन यह इतिहास दूसरा है। मूल प्रश्न जो मैंने उठाया है उसका कुछ-न-कुछ मूल उत्तर तो है ही। ... मैं समझता हूँ कि किसी भी साहित्य का ठीक-ठीक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें। .... मुश्किल यह है कि भारत के सामाजिक आर्थिक विकास के सुसंबद्ध इतिहास के लिए आवश्यक सामग्री का बड़ा अभाव है। हिंदू इतिहास लिखते नहीं थे, मुस्लिम लेखक घटनाओं का ही वर्णन करते थे। इतिहास-लेखन पर्याप्त आधुनिक है।’ ध्यान दीजिये कि साहित्य का ठीक-ठीक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें। मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों की पहचान और उसका साहित्य के मान निर्धारण में तुलनात्मक अध्ययन की जरूरत के बीज देखे जा सकते हैं। मैं ध्यान में रखने की बात है कि, बीज में वृक्ष का दर्शन कर लेना संज्ञानिक अर्थात, cognitive महत्त्व का तो हो सकता है लेकिन यह दर्शन सत्यापन किये जाने लायक अर्थात, empirical महत्त्व का नहीं हो सकता। हालाँकि, अध्ययन और समझ के लिए दोनों का अपना महत्त्व है। साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन की जरूरत तो विभिन्न संदर्भों में सामने आ रही थी लेकिन साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन की विधिवत पद्धति हिंदी में कब शुरू हुई, यह एक स्वतंत्र विषय है। 
साहित्य के  तुलनात्मक अध्ययन का प्रारंभ
अंगरेजी के कवि मैथ्यू आर्नोल्ड ने 1848 में साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के महत्त्व का संकेत किया था। 1848 के परिप्रेक्ष्य को ध्यान से समझना होगा। माइक रेपोट (1848: Year of Revolution. By Mike Rapport. New York: Basic Books, 2009.) ने रेखांकित किया है कि 19वीं सदी में हुई युरोप की दो बड़ी क्रांतियों, औद्योगिक क्रांति और फ्राँसिसी क्रांति का, सूत्र 1848 से जुड़ता है। इन क्रांतियों से ऊपजी परिस्थितियों ने युरोप के लोगों को दो बुनियादी चुनौती को समझने तथा बरतने के लिए अनुप्रेरित किया। एक चुनौती थी समानता और राष्ट्रवाद की अवधारणा से परिचिति से उत्पन्न मूल्यबोध से संपन्न नागरिक जमात से शासन का सलूक और इसी से जुड़ी दूसरी चुनौती यह कि तेजी से घटित हो रहे औद्योगिकीकरण के साथ उतनी ही तेजी से बढ़ती हुई असमानता के दुष्प्रभाव से समाज को कैसे बचाया जाये। हालाँकि 1848 के आंदोलनों और नई हलचलों का कोई बहुत अधिक तात्कालिक प्रभाव न पड़ा तथापि मध्यवर्ग और मेहनतकश जनता का सार्वजनिक जीवन की राजनीतिक-सामाजिक भागीदारी में महत्त्व जरूर बढ़ गया। कम्युनिस्ट लीग के राजनीतिक कार्यक्रम के संदर्भ में कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल्स ने मूलतः जर्मन भाषा में कम्युनिस्ट घोषणा पत्र जारी किया। 1848 में प्रस्तुत कम्युनिस्ट घोषणा पत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दस्तावेज माना जाता है। यही वह समय था जब, भारत समेत पूरी दुनिया में यह औपनिवेशिक शक्ति के चंगुल से मुक्ति के लिए कसमसाहट बढ़ रही थी। भारतीय उपमहाद्वीप में 1857 के गदर का महत्त्व है। एसियाटिक सोसाइटी के अध्ययनों की मूल प्रेरणा के रूप में भी इस समय के हलचलों के महत्त्व को ध्यान में रखा जा सकता है। फ्राँसिसी क्रांति के लक्ष्यों में शामिल समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व समेत जेंडर प्रसंग को ध्यान में रखा जा सकता है। रूसी क्रांति के विश्व-व्यापी प्रभाव को समझा जा सकता है। 1857 की क्रांति के संदर्भ को जानने के क्रम में एक निष्कर्ष यह निकाला गया कि भारत को समझ नहीं पाने के कारण वह घटित हुआ। तात्पर्य यह कि भिन्न परिप्रेक्ष्य को समझे जाने की जरूरत महसूस हुई। आज सभ्यताओं के संघात का सवाल पूरी दुनिया में नये सिरे से उठ खड़ा हुआ है। इस माहौल में, जरूरी है कि भिन्न सभ्यताओं को एक दूसरे के परिप्रेक्ष्य से जानने की सतर्क कोशिश की जाये। ऐसे में, अंगरेजी के कवि मैथ्यू आर्नोल्ड ने 1848 में साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के जिस महत्त्व का संकेत किया था, वह पहले से भी अधिक प्रासंगिक हो गया है।

साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का तात्पर्य
मनुष्य के व्यवहार का अधिकांश उसके संवेगों पर निर्भर करता है। संवेगों का गहरा संबंध उपलब्ध सार्वजनिक भौतिक परिस्थितियों में वैयक्तिक स्थितियों से होता है। कहना न होगा कि सार्वजनिक भौतिक परिस्थितियों में व्यापक रूप से पर्यावरण का मिजाज वैयक्तिक स्थितियों में रोजी-रोजगार की उपलब्धता, आर्थिकी, वैज्ञानिक-तकनीकी संसाधनों तक पहुँच एवं उनके व्यवहार की क्षमता और अंतर्वैयक्तिक संबंधों, सामाजिक अवसरों, परंपराओं एवं प्रचलनों में भागीदारी से तय होता है। साहित्य में विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य के संवेग जन्य व्यवहार के अधिकांश का संयोजन होता है। भिन्न सभ्यताओं को एक दूसरे के परिप्रेक्ष्य से जानने की सतर्क कोशिश के संदर्भ में साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भाव-साक्षी के रूप में अति महत्त्वपूर्ण उपादान हो सकता है। मनुष्य समुदाय में रहता है, समाज में विचरता है और राष्ट्र में जीता है। समुदाय, समाज और राष्ट्र के अंतस्संबंधों की बारीकियाँ अपनी जगह यह भी याद रखना जरूरी है कि वैश्विक परिस्थितियाँ, पहले की तुलना में आज कहीं अधिक हमें प्रभावित करती हैं। पिर कहें कि संवाद और तुलना सतत जारी रहनेवाली मानसिक प्रक्रिया है। हम जाने-अनजाने अपने संपर्क में आनेवाले सभी पद और पदार्थ से संवाद कर रहे होते हैं। इस संवाद में प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से तुलना भी शामिल रहती है। कहना न होगा कि समुदाय, समाज और राष्ट्र के अंतस्संबंधों की बारीकियों के साथ वैश्विक परिस्थितियों की समझ भी जरूरी है, हाँ यह स्वीकार करना ही होगा कि इस परिस्थिति में, हमारे सहजीवन के लिए राष्ट्रबोध भी नये सिरे से जरूरी हो गया है। अपने एक राष्ट्र होने के भावुक भ्रम (Emotional Illusion) से बाहर निकलने का साहस करते हुए सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक राष्ट्र बनने के लिए साहित्य के समाजशास्त्र के विकास की संभावनाएँ तलाशी जा सकती हैं। इसके लिए साहित्य के समाजशास्त्र में संवेदनात्मक प्रज्ञा (Emotional Intelligence) और संवेदनात्मक दक्षता (Emotional Competence) को प्रभावी ढंग से समायोजित करने की प्रविधि विकसित की जा सकती है। साहित्य में इनकी खोज नये सिरे से की जा सकती है। समायोजन की यह प्रविधि राष्ट्रबोध से संपन्न और वैश्विक परिस्थितियों से संयुक्त करने के लिए जरूरी है। तो संक्षेप में, साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का तात्पर्य है मनुष्य के मूलतः एक होने और विभिन्न परिस्थियों में मनुष्य के आचरण की एकात्मकता के मूलाधार की तलाश।

साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का सलीका

साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन में यह जानना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि तुल्यों के बीच जो महत्त्वपूर्ण है वह कैसे महत्त्वपूर्ण है, न कि यह जानना कि क्या महत्त्वपूर्ण है। दुहराव के जोखिम पर भी यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन मूलतः महत्त्वपूर्ण का नहीं महत्त्वपूर्णता के कारणों की तलाश के नजरिये से संचालित होता है। इसके लिए, संस्कृति, राजनीति, समाज, भिन्न चित्र, फिल्म, संगीत आदि कला माध्यमों के साथ-साथ अभिव्यक्ति के विशिष्ट रूपों की अभिव्यक्ति-प्रक्रियाओं की समझ और विभिन्न ज्ञान शाखाओं से अंतर-अनुशासनिक (Inter Disciplinary) और अंतरानुशासनिक (Intra Disciplinary) संवाद और संतुलन जरूरी होता है। सामाजिक संघात से बचाव के लिए संतुलन के साथ मध्यम-मार्ग पर चलना, सहअस्त्वि के लिए सहिष्णुता को निरंतर अर्जित करते रहना और हर हाल में उदात्त-दृष्टिकोण को कारगर बनाये रखना भारतीयता का सारभूत लक्षण है। यह मध्यम-मार्ग, यह संतुलन क्या होता है? इसे कई प्रकार से समझा जा सकता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का ‘समीक्षा में संतुलित दृष्टि’पर एक लेख है जो उनके ‘विचार और वितर्क’ नामक संग्रह में संकलित है। इस लेख में वे कहते हैं ▬▬▬ ‘मेरा मत है कि संतुलित दृष्टि वह नहीं है जो अतिवादिताओं के बीच मध्य मार्ग खोजती फिरती है, बल्कि वह है जो अतिवादियों की आवेग-तरल विचारधारा का शिकार नहीं हो जाती और किसी पक्ष के उस मूल तथ्य को पकड़ सकती है जिस पर बहुत बल देने और अन्य पक्षों की उपेक्षा करने के कारण उक्त अतिवादी दृष्टि का प्रभाव बढ़ा है। संतुलित दृष्टि सत्यानवेषी दृष्टि है। एक ओर जहाँ वह सत्य की समग्र मूर्त्ति को देखने का प्रयास करती है, वहीं दूसरी ओर वह सदा अपने को सुधारने और शुद्ध करने को प्रस्तुत रहती है। वह सभी प्रकार के दुराग्रह और पूर्वग्रह से मुक्त रहने की और सब तरह के सही विचारों को ग्रहण करने की दृष्टि है।’

तुल्यों के बीच परिप्रेक्ष्य के साझेपन की तलाश

हिंदी के महत्त्वपूर्ण कवि रहीम ने लक्षित किया था ▬▬ कदली सीप भुजंग मुख, स्‍वाति एक गुन तीन। जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन। संगति की महिमा को तुलसीदास ने भी लक्षित किया था ▬▬ मज्जन फल पेखिय ततकाला काक होहिं पिक बकौ मराला। सुनि आचरज करे जनि कोई सत संगति महिमा नहीं गोई। साहित्य के तुलनात्मक अध्यय्न के लिए जरूरी है परिप्रेक्ष्य अर्थात भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में साहित्य के थीम के बनने और भिन्न-भिन्न साहित्य में व्यवहृत उस थीम में साझेपन की तलाश। थीम के बनाव पर ध्यान दें तो, धर्म, ईश्वर, सेक्स, प्रेम, समाज, आर्थिकी, व्यक्ति, षड़यंत्र, साहित्य, संस्कृति, मुक्ति साहित्य के स्थाई थीम रहे हैं। इनका विकास समय-समय पर विभिन्न रूप में प्रकट होता रहा है। जैसे, भक्ति आंदोलन, प्रगतिशील आंदोलन, छयावाद की थीम पर विचार किया जा सकता है। नाना निगमागम, बौद्ध प्रसंग, गाँधीवाद, मर्क्सवाद, देशविभाजन, औपनिवेशिक वातावरण, जनतंत्र, रष्ट्रवाद, भूमंडलीकरण और स्थानीयकरण, आबादी की गत्यात्मकता, आब्रजनन, प्रव्रजनन, पुनर्वास, रोजी-रोजगार, विभिन्न अवसर, जीवन के जो चार पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण तथा ऋणबोध आदि की आनुपातिक भिन्नता के सहज स्वाभाविक से नाना थीम बनते रहते हैं। साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन साहित्य के थीम निर्माण और उसके विनियोग की प्रक्रिया के नैपथ्य का गहराई से अध्ययन करता है; संवेदना की बहुस्तरीयताओं की समझ हासिल करते हुए, फिर कहें तो, मनुष्य के मूलतः एक होने और विभिन्न परिस्थियों में मनुष्य के आचरण की एकात्मकता के मूलाधार की तलाश करता है।

जाहिर है, साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के लिए एक से अधिक भाषा, भाषिक सामाजिकता, सामाजिक प्रचलनों, सांस्कृतिक भाव प्रवाहों की ऐतिहासिकताओं के विभिन्न चरणों, राज्य संरचनाओं आदि का गहन ज्ञान जरूरी होता है। स्वभावतः यह अध्ययन स्वायत्त सांस्थानिक सहयोग और दीर्घकालिक समर्थन की अपेक्षा रखता है। साथ ही इस अध्ययन के लिए व्यापक तौर पर एक ऐसी भाषा की स्वीकृति की भी जरूरत होती है जिसमें किये गये तुलनात्मक अध्ययन को व्यक्त किया जा सके ताकि दो तुल्यों के संदर्भ को उन से जुड़े लोग समझ सकें। उदाहरण के लिए तमिल और हिंदी साहित्य के किसी संदर्भ का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो यह तय करना महत्त्वपूर्ण होगा कि उस अध्ययन को किस भाषा में प्रस्तुत किया जाये? यदि इसे हिंदी में रखा जाता है तो बहुत संभव है कि तमिल से जुड़े लोग की पहुँच इस तक न बने या तमिल में रखें तो हिंदी से जुड़े लोग की पहुँच से यह बाहर रह जाये, अंगरेजी में रखें तो हो सकता है कि हिंदी और तमिल दोनों से जुड़े लोग की पहुँच से यह बाहर रहे और अंगरेजी से जुड़े लोग जो इस अध्ययन तक आसानी से पहुँच बना सकते हैं उन्हें हिंदी और तमिल संदर्भों का ज्ञान ही न हो! तात्पर्य यह कि साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के लिए भाषा का सवाल बहुत महत्तवपूर्ण और संवेदनशील है, खासकर तब जब ऐसे अध्ययन के अकादमिक दुनिया से बाहर पहुँचने की जरूरत को ध्यान में रखा जाये। ऐसे में अनुवाद का महत्त्व समझ में आता है। तुल्यों के अनुवाद के एक भाषा में उपलब्ध होने तथा उनके तुलनात्मक अध्ययन के अनुवाद का दोनों भाषा में उपलब्ध होने की आवश्यकता समझ में आती है। अनुवाद की प्रामाणिकता और गुणवत्ता पर अलग से कुछ कहे बिना भी उसके महत्त्व को समझा जा सकता है।


आज के समय में साहित्य के तुलनात्मक अद्ययन का महत्त्व पहले से कहीं अधिक है। क्योंकि यह सभ्यता और इस सभ्यता की नाना अभिव्यक्तियाँ मनुष्य और मनुष्य की एकता का ही प्रसंग रचते हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच के संघात को कम करने, रोकने और एक बेहतर तथा अधिक जीवंत साझी संस्कृति के लिए साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन की प्रासंगिकता न सिर्फ महत्त्वपूर्ण है, बल्कि अपरिहार्य भी है। तुलनात्मक साहित्य के अध्येता को हंस गुण से समृद्ध होना चाहिए, इतना कुशल कि वह दूध और पानी में न सिर्फ अंतर कर सके बल्कि उनमें निहित गुणों की एकता का महत्त्व भी स्थापित कर सकें।


साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का लक्ष्य
हिंदी साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के लक्ष्य और प्रविधि को बिंदुबार रूप से रखें तो, 
1. क्या महत्त्वपूर्ण है से अधिक प्रासंगिक है जानना कि कैसे महत्त्वपूर्ण है।
2. संस्कृति, राजनीति, समाज और विभिन्न ज्ञान शाखाओं से संवाद।
3. एक से अधिक भाषाओं तथा ज्ञान शाखाओं का ज्ञान
4. भिन्न चित्र, फिल्म, संगीत आदि कला माध्यमों के साथ-साथ अभिव्यक्ति के विशिष्ट रूपों की समझ
5. एक ऐसी भाषा की स्वीकृति जिसमें किये गये तुलनात्मक अध्ययन को व्यक्त किया जा सके ताकि दो तुलनीयों के संदर्भ को वे समझ सकें
6. तुलनीयों के परिप्रेक्ष्य की तलाश जरूरी है
7. तुलनीयों की विचारधारा का परिप्रेक्ष्य
8. छाता की तरह
9. धर्म, ईश्वर, सेक्स, प्रेम, समाज, आर्थिकी, व्यक्ति, षड़यंत्र, साहित्य, संस्कृति, मुक्ति के स्थाई थीम रहे हैं। इनका विकास समय-समय पर विभिन्न रूप में प्रकट होता रहा है। जैसे, भक्ति आंदोलन, प्रगतिशील आंदोलन, छयावाद की थीम पर विचार किया जा सकता है। भारत के संदर्भ में गाँधीवाद, देशविभाजन, औपनिवेशिक वातावरण, जनतंत्र, रष्ट्रवाद, भूमंडलीकरण और स्थानीयकरण आदि। जीवन के जो चार पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा ऋणबोध हैं▬▬ पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण इनकी आनुपातिक भिन्नता से नाना थीम बनते रहते हैं।
10. संवेदना की बहुस्तरीयताओं की समझ

हिंदी साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के लक्ष्य और प्रविधि को बिंदुबार रूप में उदाहरण की तरह रखा गया है।