चेहरे के अलावे सब कुछ बेनकाब

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

यहाँ तक की तुम से भी कोई शिकायत नहीं
चलन ही कुछ ऐसा है,
जो कह रहा हूँ वह वक्त की बात है
और वक्त की भी क्या है, अपनी ही शिकायत है
शिकायत अपनी, इसलिए सहम-सहम कर कह रहा हूँ
अब चेहरा कोई दिखता नहीं
बस नकाब ही नकाब दिखता है
हद यह कि नकाब भी नकाब पहनकर ही निकलता है
जो चल रहा है, वह नकाब से नकाब का संवाद है
कहीं धनबाद है तो कहीं इलाहाबाद है
कहीं समाजवाद, कहीं संप्रदायवाद और कहीं जनवाद है
असल में जो चल रहा है, वह नकाब से नकाब का संवाद है

आनेवाले दिनों में
हमारे दौर को इस तरह याद किया जायेगा कि
यह एक ऐसा दौर गुजरा है जब
चेहरे के अलावे सब कुछ बेनकाब था

किसी नकाब को बुरा लगे तो शर्मसार मेरा नकाब ही होगा
और नकाब के शर्मसार होने का बेहतर अर्थ नकाब को मालूम होगा।

मैं भी मिलना चाहता हूँ जैसे क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

झूठ न कहूँगा मैं भी मिलना चाहता हूँ
बल्कि यूँ कहा जाना अधिक ठीक है कि मिल जाना चाहता हूँ
मिल जाना चाहता हूँ, जैसे दूध में मिस्री, जैसे काजल में आँसू
जैसे अँधेरे से रौशनी, जैसे धरती से आसमान,
बल्कि जैसे क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर
जैसे मिले निराला से मुक्तिबोध
या जैसे मिल सकते थे तुलसी को कबीर
जैसे मिला करते थे सुकरात से प्लेटो, प्लेटो से अरस्तू
जैसे मिल गये थे बुद्ध से आनंद या फिर फूले से बाबा साहेब
राहुल से नागार्जुन, या जैसे मिल लेते थे गाँधी और रवीन्द्र

झूठ न कहूँगा मैं भी मिलना चाहता हूँ
मगर वैसे नहीं जैसे दूध से मक्खी या मलाई से कंकड़
वैसे नहीं जैसे आँख से किरकिरी या क्रेडिट से डेबिट
उस तरह से तो बिल्कुल ही नहीं जैसे वकील से मिलता है एफीडेविट

झूठ न कहूँगा मैं भी मिलना चाहता हूँ
मगर जैसे अनेक से एक और एक से अनेक
मैं मिलना चाहता हूँ तुम से, हे मेरे देश
जैसे मिलता है चुनाव से जनादेश
जैसे राष्ट्र से मिलता है नागरिक या संविधान से अधिकार
जैसे होली में मेरे महबूब के रुखसार से मिल लेता है अबीर
जैसे, जैसे, जैसे कि जैसे क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर

झूठ न कहूँगा मैं भी मिलना चाहता हूँ
यह जानते हुए कि मिलना मिटना नहीं है
झूठ न कहूँगा, मैं मिल जाना चाहता हूँ

एक मुल्क, कंधों पर जिसे ढोता हूँ

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

मैं सिरहाने से, लिपटकर रोता हूँ
अपने पैर, अपने आँसू से धोता हूँ

अपने जागरण में, बेहिस सोता हूँ
तेरे साथ पाता, सपनों में खोता हूँ

चैत पूनो रात, दिन का अजोता हूँ
शामिल हूँ, हाँ सच पर अनोता हूँ

एक मुल्क, कंधों पर जिसे ढोता हूँ
रे सम किधर, बस महज झौता हूँ

अपने पैर, अपने आँसू से धोता हूँ
एक मुल्क, कंधों पर जिसे ढोता हूँ

सब कुछ सही सलामत है, एक मुहब्बत है, जो उजड़ी है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

जो गुजर रही है, पहली बार किसी पर नहीं गुजरी है
आँखों में पतंगों की तस्वीरें, पहली बार नहीं उतरी है

सब कुछ सही सलामत है, एक मुहब्बत है जो उजड़ी है
कहकर गया अलविदा, न जाने आँख में क्या उमड़ी है

जिंदगी इस बार कुछ इस तरह कि ख्वाब में फुगड़ी है
देवता वसंत के नाचते हैं, मैदान जंग की नहीं, जुबड़ी है

यकीनन, गुनाह आँखों का नहीं है जो रुखसार धुबरी है
छिपाये छिपता नहीं हकीकत, यह उधार की लुगड़ी है

टूट कर मिट्टी चमकती है कोडरमा की, तलैया झुमरी है
सब कुछ सही सलामत है, एक मुहब्बत है, जो उजड़ी है 

मजबूरी में हँस लेते, रोया नहीं करते हैं

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

हम खत पढ़ने में, वक्त जाया नहीं करते
हुनर है कि सीधे जवाब दे लिया करते हैं

तुम्हारे इंतजार का हिसाब नहीं करते हैं
तस्वीर से, हम कलाम कर लिया करते हैं

मजबूरी में हँस लेते, रोया नहीं करते हैं
अपने गम में, खुशी का इजहार करते हैं

हाँ किसी गुनाह को गुनाह नहीं कहते हैं
बस गुफ्तगू में शरीक हो लिया करते हैं

दिन में आसमान के, तारे गिना करते हैं
चुभे काँटे की गिनती नहीं किया करते हैं

मजबूरी में हँस लेते, रोया नहीं करते हैं
जिंदगी हासिल नहीं, जी लिया करते है

हुनर है कि सीधे जवाब दे लिया करते हैं

जैसा हूँ, वैसा दिख नहीं सकता

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

मैं दुखी हूँ पर वैसा दिख नहीं सकता क्योंकि
आधा पेट खाकर सोया बच्चा अपनी हँसी खो देगा


मैं अकेला हूँ पर पर वैसा दिख नहीं सकता क्योंकि
इससे आप सभी और आप जैसे भी असहमत हो जायेंगे


मैं उदास हूँ पर वैसा दिख नहीं सकता क्योंकि
यह मेरी जिंदगी, हाँ जिंदगी समझते हैं न, की तौहीन होगी


मैं आजाद हूँ पर वैसा दिख नहीं सकता क्योंकि
मेरे तमाम तरह के आका एक साथ मुझ पर टूट पड़ेंगे


मैं शरीफ हूँ, पर वैसा दिख नहीं सकता क्योंकि
मुझे लगता है, मैं इस तरह से जरूर ही लुट जाऊँगा

औरों की नहीं जानता पर मैं जैसा हूँ, वैसा दिख नहीं सकता क्योंकि
हमारे सभ्य समाज में उससे असुविधा होती है, भ्रम होता है


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Praphull Jha, Vinita Parate, Martin John और 40 अन्य को यह पसंद है.


Ashok Jha Sach kahe na sir to kya aap kehte haina wo mai bayan nahi kar sakta lekin lazawab.
16 अगस्त पर 10:37 अपराह्न · नापसंद · 1


Radheyshyam Singh हाँ प्रामाणिक और भोगी जाती अवस्था का चित्रण है।बधाई एक अच्छी कविता के लिए।
16 अगस्त पर 10:45 अपराह्न · नापसंद · 2


Kunika Banderwal Bht hi achi line likhi h sir bht hi achi trha se smaj or bharat ki vyavstha ka varnan kiya h bht khub
16 अगस्त पर 11:02 अपराह्न · नापसंद · 2


Pushpendra Singh bhut hi umda pktiyan..... duhre chritra walon pr.... jo ki aj k smy pe hr vykit ka h

16 अगस्त पर 11:14 अपराह्न · संपादित · नापसंद · 1


Rajeev Ranjan Mishra behtareen….lajawaab achhi srimaan!!
17 अगस्त पर 01:06 पूर्वाह्न · नापसंद · 1


Javed Usmani लाजवाब
17 अगस्त पर 10:55 पूर्वाह्न · नापसंद · 1


Chaturved Arvind BAHUT ACHCHHI KAVITA HAI, PRAFULL JI.
17 अगस्त पर 03:07 अपराह्न · नापसंद · 1

चीख की चादर बदलता रहा

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

वह एक मजेदार दिन था
मेरी आँख धीरे-धीरे खुल रही थी
इंद्रियाँ धीरे-धीरे सक्रिय हो रही थीं
मैं शहर की तरफ बढ़ रहा था

मैंने देखा, सुना पर समझा नहीं
देखा कि कुछ लोग हैं जो
पहले फुसफुसाते हैं, फिर जोर से
बहुत जोर से चीखने-चिल्लाने लग जाते हैं

मैं ने सुना कुछ लोग
बात-बात पर कलम निकाल लेते हैं

मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर क्या था वह सब

समझता भी कैसे ▬▬
सुनने की चीज को देख रहा था
देखने की चीज को सुन रहा था

मेरा कसूर यह कि मुझे ऐसा ही पढ़ाया गया था

मैंने पता लगाया कि
आखिर उस जमात के लोग कर क्या रहे थे
समझ में आया कि वे वक्त को बदल रहे थे

वक्त को बदलना
अच्छा मुहावरा था, मुझे पसंद आ गया
मैं भी जमात में घुसने की जुगत में लग गया

पर यह आसान काम नहीं साबित हुआ मेरे लिए
मैंने बहुत गौर करने पर पाया कि
मैं वक्त को नहीं, वक्त मुझे बदल रहा है

मैं बाहर से चिल्लाता रहा
लेकिन जमात ने इशारा किया ▬▬
हम वक्त को बदलने में कामयाब हो रहे हैं
बस तुम खुद को सम्हालो, बुजदिल!

मुझे बुजदिल शब्द पर ऐतराज था हालाँकि मैं वही हूँ,
बस शब्द बदलने की बात मैंने जमात से की

जमात को इस बात पर ऐतराज था
उनका कहना भी सही था कि
वे वक्त को बदलने के लिए प्रतिबद्ध हैं शब्द बदलने के लिए नहीं

मैं अब क्या करता
जमात के बाहर शब्द बदलता रहा
चीख की चादर बदलता रहा
क्या! आप नहीं समझ रहे!
आप क्या उम्मीद करते हैं!

मैं क्या कर सकता हूँ?
आप नहीं समझ रहे, मैं ही कहाँ समझ रहा!



उदासी खारे पानी की मरी मछली है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

उदासी को आँसू से धो डालो और
मुस्कान के नर्म तौलिये से चेहरे को पोछ लो...
हल्की-सी गर्म हवा का एहसास होगा
जो तुम्हारी अपनी, हाँ
बिल्कुल अपनी ही और अपनी-सी साँस होगी

उदासी खारे पानी की मरी मछली है
उदासी को आँसू की नदी से बाहर निकालो

मेरी बात मानो, एक बाँकी-सी मुस्कान हवा में उछालो
यह जो ठहरी-ठहरी-सी हवा है,
मचल उठेगी अपने खोई तरंगों को पाकर
डाल आयेगी फूल के कान में वह बात
जो खूशबू बनकर पूरी सृष्टि में व्याप जायेगी
हर कोई थोड़ा-थोड़ा बनाता है, थोड़ा-थोड़ा बदलता है
ऐसे ही बनती और बचती है दुनिया, शर्त्त यह कि
▬▬ उदासी को आँसू से धो डालो