बेड़ियाँ

#वंचित_प्रताड़ित_जीवन
बेड़ियों के बारे में क्या कहूँ! कहूँ। बेड़ियाँ चाहे जितनी चमकदार हों खूबसूरत कला की अन्यतम नमूना हों, हम उनकी चाहे जितनी प्रशंसा करें उन से खुद के जकड़े जाने को अच्छा तो नहीं मान सकते हैं न, नहीं मानते हैं न। तो फिर दूसरों की बेड़ियों की खूबसूरती का बखान क्यों। किसी का जख्म चाहे जितनी पवित्र छवियों से मिलता हो, इससे उसका दुख कम नहीं होता पगले! बढ़ जाता है दुख, कब समझेगा, वह भी जो दिल का सच्चा है!
हम व्याख्या में व्यस्त रहे और उसने बखिया उधेड़ दी! है न कमाल! 

एक ख्वाहिश

एक ख्वाहिश
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सरकार में लोकतंत्र। समाज में बंधुत्व। अधिकार और सुविधा में समानता। सार्वभौम शिक्षा। बुद्धिमत्ता और ज्ञान की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही उच्चतर समाजिक अवस्था का आभास।
(साभार :The Origin of the Family, Private Property and the State — Friedrich Engels, Ernest Untermann)

बोलना, लिखना और पढ़ना

 बोलना और लिखना———बोलना और लिखना मनुष्य की बड़ी ताकत है। समझना भी। भवानी प्रसाद मिश्र का आग्रह और एक तरह से उनकी काव्य चुनौती होती थी, जिस तरह बोलता है उस तरह लिख। आदमी जिस तरह बोलता है, उस तरह लिखना कठिन है और उस तरह दिखना तो और भी कठिन है —लगभग नामुमकिन।तुलना कठिन है, फिर भी समझने के लिए —बोलना नाटक खेलने की तरह है। लिखना फिल्म की तरह। बोले का संपादन (या सुधार) नहीं हो सकता है। लिखे का (छपे का नहीं)  संपादन नहीं हो सकता है। हिंदी के एक प्रसिद्ध और आदरणीय प्रोफेसर और उससे भी अधिक प्रभावी लेखक, जो बोलने के लिए भी प्रसिद्ध थे कहा करते थे लिखने से हाथ कट जाता है, बोलने से जुबान नहीं कटती है।अब संपादक और संपादन (खुद को सुधार) का काम बचा नहीं। रही-सही कसर सोशल मीडिया की तकनीकी सुविधा ने निकाल दी। अपवाद को छोड़ दें तो, पहले के लेखक अपने लिखे को बार-बार सुधारते थे, अगला काम संपादक करता था। अब स्थिति यह है कि न खुद से सुधार का अवसर है, न संपादन की कोई गुंजाइश! कहाँ वे दिन जब संपादकों को भी संपादक की जरूरत होती थी, कहाँ आज का समय!भाषा का नैसर्गिक रूप बोलना है। लिखना साभ्यतिक रूप है। बोलना नैसर्गिक कला है और लिखना साभ्यतिक कला — पढ़ना भी कला है। तीनों भिन्न कलाएँ हैं। बोलने की शैली में लिखने से बहुत सारी बातें गडमड हो जाती है, बेतरतीब और अस्त-व्यस्त। महत्वपूर्ण विचार की भाषिक अस्त-व्यस्तता वैचारिक अराजकता में बदल जाती है। मेरे जैसा पाठक वैसे ही व्यस्त कम और अस्त-व्यस्त अधिक रहा करता है। फिर भी, ऐसे पाठ को निरा देने के बदले, संपादन और वैचारिक अराजकताओं से खुद को मुक्त करने की जवाबदेही भी पाठक को खुद ही उठानी होगी।प्रसंगवश, तकनीकी सुविधाओं का भरपूर लाभ अन्य कला क्षेत्र, फिल्म, संगीत, चित्रांकन, विज्ञापन आदि के संपादन कार्य में उठाया जा रहा है। तकनीकी सुविधाओं की बढ़त का लाभ लेखन को भी कैसे मिले इस पर सोचना चाहिए। कौन सोचेगा! लेखक और लेखक बनने की कोशिश में लगे लोग ही सोच सकते हैं।

एकला चलो रे

झारखंड के गिरीडीह शहर में लिखा गया गीत
— एकला चलो
(साभार : रवीन्द्रनाथ टैगोर) 
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तेरी गुहार पर कोई कान न धरे तो!
अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो रे।

अरे ओ अभागा
तुम से कोई बात न करे
सभी मुँह मोड़ लें
सभी भयभीत हों
तब तुम प्राण-पण से
मुँह खोलकर अकेले बोलो रे।  

दुर्गम पथ पर सभी लौट जायें
लौटकर कोई न आये
तब रास्ते के काँटों को
रक्तरंजित पाँव से
अकेले कुचलो रे!

यदि कहीं रौशनी न मिले
झंझावात बादल अँधेरी रात हो सामने
तो कड़कती बिजली की आग से
अपनी पसलियों को सूलगाकर
अकेले जलो, अकेले जलो रे!

कवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस लोक प्रसिद्ध ऐतिहासिक गीत को यथासंभव हिंदी के अनुरूप प्रस्तुत करने की कोशिश की है। प्रामाणिकता के लिए, कृपया, मूल पाठ देखें।
1905 में लिखा गया यह गीत बंग-भंग विरोधी आंदोलन के गीतों में से एक था। यह गीत झारखंड के गिरिडीह शहर में लिखा गया था। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस गीत की गूँज और अनुगूँज सुनाई पड़ती रही। अकेले पड़ जाने के जोखिम उठाने के साहस, स्वतंत्रता के संकल्प और संघर्ष की प्रेरणा से भरे इस गीत को उसी संदर्भ में देखा जाता है। संदर्भ से अनजान होने के कारण कई बार इसका महत्व और प्रभाव समझ में नहीं आता है। यह अकेलेपन या अकेले हो जाने का नहीं बल्कि संघर्षशीलता के साथ एकाकार हो जाने का गीत है। इसे आत्म संबोधन के रूप में भी देखा जा सकता है! 
(चित्र साभार)

उत्प्रेक्षा काल में तानाबाना पर कफन

उत्प्रेक्षा काल में 
तानाबाना पर कफन की चर्चा
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सत्य हिंदी के तानाबाना पर डॉ मुकेश कुमार के संयोजन प्रेमचंद की कहानी कफन पर चर्चा का संदर्भ है। मैत्रेयी पुष्पा, वीरेंद्र यादव, अजय नवारिया की भागीदारी से चर्चा महत्वपूर्ण बन गयी।
सच दोनों तरफ था, खंडित सच। यह उत्प्रेक्षा काल है, इसमें अपेक्षा रखना ठीक नहीं है कि प्रेमचंद ने बिल्कुल आज के विमर्श के अनुकूल ही सबकुछ लिखा है। यह तथ्य भी खोजना देखना चाहिए कि उस समय हिंदी की रचनाओं में समकालीन विमर्श के इन मुद्दों पर साहित्य में, खासकर हिंदी साहित्य में, क्या रुख उभरकर सामने आ रहा था। प्रेमचंद अपना काम कर गये। अब यश-अपयश से परे हैं। आलोचना तो जरूरी है। वे विचार के केंद्र में हैं, यही बड़ी बात है। अब न तो ईमान की बात के प्रहार से उनका कुछ बिगाड़ होगा और न ईमान की बात से उनके बचाव की कोशिश से बनाव होगा। 
मुझे पूरी परिचर्चा में एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ-सूत्र मिला। कहा गया कि जिन जातियों के अपमानजनक संदर्भ कफन में वर्णित हैं, उस जाति का सदस्य (काल्पनिक ही सही) बनकर  पढ़े जाने पर ही पता चलेगा कि कितना अपमानजनक है। मैंने नोट किया कि न तो निर्विशिष्ट पाठक की कोई स्थिति होती है और न निर्विशिष्ट पाठ की। पाठ और पाठक दोनों को उनके जाति, क्षेत्र, धर्म, जेंडर आदि के विशेषण के साथ ही स्वीकार किया जा सकता है। किसी जाति के लेखक के लिए इतर जाति के पाठक की पाठ-प्रक्रिया संदिग्ध होने के लिए अभिशप्त है। राजनीतिक क्षेत्र में तो यह अब लगभग सहज स्वीकृत हो गया है कि अच्छा करे, बुरा करे, जैसा भी हो नेता अपनी जाति का हो — जाति के बाहर वोट न जाये। लगभग सारे चुनावी विश्लेषण इस सहजता को स्वीकार करते हुए ही जटिलताओं को सुलझाने में लगे रहते हैं। इसका प्रसार चिकित्सा, अध्ययन-अध्यापन, वकील जैसे जीवन-क्षेत्र में भी हो रहा है, हालांकि विभिन्न कारणों से अभी यह सार्वजनिक चर्चा में नहीं दिख रहा है। हा हंत! यह हाल हुआ हमारा।
जो भी हो पता नहीं मेरी इस पोस्ट को कोई इसे किस तरह पढ़े! कोलख्यान से कुछ पता नहीं चलता। मुझे यहाँ साफ कर देना चाहिए। मेरा उपनाम झा है, यानी मैथिल ब्राह्मण। अब धारणा है कि ब्राह्मणेतर लोग प्रसंगतः ब्राह्मणवादी हो सकते हैं, लेकिन ब्राह्मण लोग अनिवार्यतः ब्राह्मणवादी होते हैं। 
मेरी मैथिली-हिंदी भाषा जहाँ समझ में न आये वहाँ उसे भाषा की ब्राह्मणी वक्रता मानकर उसकी उपेक्षा करें। जरूरी हो, होनी चाहिए नहीं, तो अपनी स्थिति के अनुसार इसका अपने उपयुक्त पाठ बना लें। यह विचार का उत्प्रेक्षा काल है। 

सुरक्षा और सम्मान : जेहि विधि राखे राम, रहिए

जेहि विधि राखे राम
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ब्रेट वुड्स, वाशिंगटन आम सहमति और सिक्युरिटी एजेंडा को एक साथ देखने पर विश्व प्रभुओं के मिजाज, इनके विश्व दर्शन और इनकी विश्व दृष्टि का कुछ अंदाजा हो जाता है सकता है।
अब सुरक्षा एक बहुप्रयुक्त विशेष्य है —
खाद्य सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा आदि। सुरक्षा का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है और उतना ही अबूझ भी। सुरक्षा के नाम पर हर तरह के नागरिक अधिकार या सिविल लिबर्टी, सम्मान आदि को भिन्न तरह से, अबांछित तरीके से, सीमित किया जाता है। सुरक्षा चाहिए! सुरक्षा चाहिए तो अधिकार, सम्मान आदि की संवेदनशीलता से मुक्त होना होगा। अब भला सुरक्षा किसे नहीं चाहिए। भय को मनोरम बनाने के लिए अंतर्मन में बात जमती गयी — बचानेवाला ही मारेगा —मारनेवाला ही बचाएगा। कुल जमा — जेहि विधि राखे राम, रहिए! 

निराला की साहित्य साधना से साभार

‘विशाल भारत’ में इलाहाबाद युनिवर्सिटी के तरुण ग्रेजुएट शिवदानसिंह चौहान का लेख छपा–‘भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता’। इसमें इन्होंने हिन्दी ही नहीं समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य पर यह राय ज़ाहिर की कि उसने कभी भी किसी तत्कालीन प्रचलित सामाजिक यथार्थवादी विचारधारा का दामन नहीं पकड़ा। उन्होंने भारत से बाहर विश्व की भाषाओं और उनके साहित्य पर विहंगम दृष्टि डालते हुए बताया कि साहित्यकारों में दो श्रेणियाँ हो गई हैं प्रगतिशीलों में ‘हेनरी बारबूज’, ‘एन्ड्री जीड’, ‘मेलराक्स’ वगैरह हैं। भारतीय लेखकों में केवल एक लेखक इनकी श्रेणी में आता है–मुल्कराज आनन्द। हिन्दी लेखक सुदर्शन और कौशिक का दृष्टिकोण प्रेमचन्द से भी ज्यादा सुधारवादी है। ‘भारत- भारती’ लिखने के बाद, मैथिलीशरण गुप्त की विचारधारा पतनोन्मुख होकर रामायण तथा महाभारत के कुछ प्राचीन युगों तक सीमित रह गई। हिन्दी-साहित्यकार हिटलर पर गर्व करते हैं, साम्यवादी रूस से घृणा करते हैं। इन्हें फटकारते हुए चौहान ने लिखा—“वे अभी इतने नादान हैं कि प्रगतिशील और प्रगतिविरोधी शक्तियों में भेद नहीं कर सकते, हालाँकि विश्व-साहित्य के कर्णधार बनने का ताव वे मूँछों पर रोज दिया करते हैं। एक छोटा-सा ज़रा रोचक उपन्यास लिख लिया, तो उसे वे टाल्सटाय की कब्र पर और रोमाँरोलाँ के सर पर पटक देते हैं, और कहते हैं, लो, देख लो, तुमसे अच्छा है।” जवाहरलाल नेहरू जिस ऊँचाई से हिन्दी साहित्य को देखते थे, शिवदानसिंह चौहान उससे कुछ और ऊँचे उठकर हिन्दी के पिद्दी लेखकों पर दृष्टिपात कर रहे थे। रहस्मवाद के बारे में विशेष रूप से उन्होंने लिखा कि साहित्य में इसका जन्म पूँजीवादी समाज की गिरती पतितावस्था का द्योतक है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद यह धारा प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, तथा अनेक छोटे-मोटे कवियों के मुख से नि:वृत हो उठी। और आज इसका कोई ठिकाना नहीं। इसके बाद चौहान ने रहस्यवादियों पर एक अनमोल वाक्य लिखा: “इनमें से कुछ स्वभावत: प्रगतिशील भी हैं; लेकिन उनकी कविताएँ प्रगतिशील न होकर प्रतिक्रियावादी होती हैं।” निष्कर्ष यह: “इस छायावाद की धारा ने हिन्दी के साहित्य को जितना धक्का पहुँचाया, उतना शायद ही हिन्दू-महासभा या मुस्लिम लीग ने भारत को पहुँचाया हो।” ब्रिटिश उपनिवेश भारत के साहित्यकारों से साम्यवादी यथार्थवाद की राह पर चलने का आग्रह करते हुए चौहान ने लिखा कि यह एक युद्धात्मक, असहनशील क्रान्तिकारी धारा है। आरंभ में उन्होंने लेनिन के कुछ वाक्य उद्दत किये थे जिनका सारांश यह है कि मनुष्य ने अपने सम्पूर्ण विकास में जो संस्कृति अर्जित की है, उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना सर्वहारा संस्कृति की समस्या हल नहीं की जा सकती; पूँजीवादी समाज में मनुष्य ने जो ज्ञान संचित किया है, उसका तर्कसंगत विकास ही सर्वहारा संस्कृति है। चौहान भारतीय साहित्य के समस्त विकास को अस्वीकार करके नये साम्यवादी यथार्थवाद की स्थापना का स्वप्न देख रहे थे और समझ रहे थे कि साहित्य में लेनिनवादी विचारधारा को लागू करने का यही तरीका है। एक दिन सबेरे आकर किसी भूमिका के बिना निराला ने कहा–इसे ठीक करना है। मैंने पूछा–किसे? उन्होंने कहा–वही, तुम्हारा मित्र मुखव्यादानसिंह। इस पर भी मैं कुछ न समझकर उनका मुँह देखता रहा तो वह बोले–वही जिसने ‘विशाल भारत’ में प्रगतिशील साहित्य पर लेख लिखा है। निराला ने हिसाब लगाया कि भुवनेश्वर, शिवदानसिंह चौहान वगैरह का प्रगतिशील दल उनके पुराने हितैषी बनारसीदास चतुर्वेदी के साथ मिलकर उन पर हमला कर रहा है। इसी वर्ष ‘विश्वभारती क्वार्टरली’ में ‘माँडर्न (पोस्टवार) हिन्दी पोएट्री’ पर लेख छपा। लेखक ऐस ० ऐच ० वात्स्यायन। इस लेख में वात्स्यायन ने सौंन्दर्यवादियों के आत्मकेन्द्रित व्यक्तित्व पर तीव्र आक्रमण किया। इस तरह के लोग नार्किसिस्ट होते है, अपनी ही छवि पर मुग्ध रहते हैं। पंत की ‘वीणा’ में इसके अनेक प्रमाण हैं। सौन्दर्यवादियों की मनोदशा के बारे में जो बातें कही गई हैं, वे सब सूर्यकान्त त्रिणठी निराला पर भी लागू होती हैं। सौन्दर्यवादी में जो खामियाँ होती हैं, वे निराला में और भी उभरकर दिखाई देती हैं। अहंकार की अतिशयता से उनकी कलात्मक क्षमता पथ-भ्रष्ट हो गई है। जानबूझ कर मौलिक बनने के प्रयत्न में उन्होंने कविता की बलि दे दी है। उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ अक्सर अच्छी होती थीं लेकिन बाद को उन्हें ज़िद हो गई कि मुख्य काव्य-परम्परा जड़ हो गई है। उन्होंने रूढ़ियाँ तोड़ीं, यह श्रेय देने के बाद और कुछ कहना आवश्यक नहीं। “निल निसी बोनम–ऐंड ऐज़ ए लिटररी फोर्स, ऐट ऐनी रेट, निराला इज़ आलरेडी डेड।”
(साभार : रामविलास शर्मा : निराला की साहित्य साधना) 

कवित्त विवेक

रचनात्मक प्रतिबद्धता के साथ सलूक के सवाल
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वचन प्रवीण होने और कवि होने के फर्क को तुलसीदास जानते थे। तभी तो कह सके —
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। 
सकल कला सब बिद्या हीनू।।
(रामचरितमानस) 
अपनी रचना अच्छी हो, न हो लेकिन अच्छी लगती हर किसी को। तभी तो कह सके —
निज कवित केहि लाग न नीका। 
सरस होउ अथवा अति फीका।। 
(रामचरितमानस) 
बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें दूसरे की भनिति यानी कविता (पढ़ें रचना) सुहाती हैं। तभी तो कहा —
जे पर भनिति सुनत हरषाही। 
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।
(रामचरितमानस)
अपनी प्रतिबद्धता की समझ बहुत साफ और सुदृढ़ थी, तभी तो विनय पत्रिका में कह गये —
जाके प्रिय न राम-बदैही। 
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, 
जद्यपि परम सनेही॥
अब, हमें अपने कवि होने या वचन प्रवीण होने, वाहवाही मिलने या न मिलने की जैसी भी स्थिति हो अपनी रचनात्मक प्रतिबद्धता (Creative commitment) के साथ अपने सलूक के सवाल को कैसे हल करना है। 

प्रेम रिश्ता टूटन जुड़न

प्रेम रिश्ता टूटन जुड़न
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रिश्ता कोई हो, रिश्तों का मूल आधार होता है प्रेम। प्रेम के कई प्रकार होते हैं, कई स्तर होते हैं। कोई ऐसा रिश्ता नहीं होता है जिसमें टूटन की हद तक का तनाव न आता हो, कई बार तो टूट भी जाते हैं। फिर जुड़ जाते हैं। इस टूटन से बचने और फिर जुड़ने की प्रक्रिया के बारे में संतभाव कवियों ने सहज ममता से हिदायत दी है। ये हिदायतें प्रेम के प्रकार और स्तर पर भी बहुत कुछ निर्भर और कारगर होता है। चूँकि सहज है, इसलिए बस याद दिलाने के लिए –
रहिमन धागा प्रेम का , मत तोरो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे , जुरे गाँठ परी जाय।
और आगे —
रूठे सुजन मनाइए , जो रूठे सौ बार। रहिमन फिरि-फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार।
कबीर तो कहते हैं —
सोना सज्जन साधु जन, टूटि जुरै सौ बार।
अब हमारे लिए यह कितना व्यावहारिक है, यह तो बहुत हद तक हम पर निर्भर है। 

साहित्य में बड़ा होना

साहित्य में बड़ा होना
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मनुष्य प्रजाति को जीवन यापन की आज की स्थिति में पहुँचने में लाखों वर्ष लगे हैं। यहाँ प्रजाति की नहीं व्यक्ति की बात की बात करना चाहता हूँ। किसी व्यक्ति मनुष्य का बड़ा होना क्या होता है? बड़ा वैज्ञानिक, बड़ा विद्वान आदि होना क्या होता है? ये बड़े सवाल हैं। 
फिलहाल, साहित्य में बड़ा होना क्या होता है! बात हिंदी साहित्य के संदर्भ में कर रहा हूँ, वैसे यह लागू अन्य भाषा के साहित्य के संदर्भ में भी हो सकते हैं।
बड़ा होने और महान होने में भी अंतर है। बड़ा साहित्यकार वह होता है जिसकी रचना की मूल संवेदना का कारगर प्रभाव लोकचित्त में संस्थापित होने और लोक व्यवहार को मनुष्य जाति के जीवन यापन को अधिक समावेशी, अधिक स्वीकार्य और अधिक मनोरम, अधिक पर दुख कातर आदि बनाने में सक्षम हो। इस तरह से सक्षम साहित्यिक रचना लोक चित्त में इस तरह संस्थापित होने में सफल होने पर महान होने और कहलाने की स्थिति में पहुँचती है। रचनाकर विस्मृत हो जाता है। रचना विस्मृत हो जाती है। उस रचना की शैली (संरचना या फॉर्म से भिन्न) और संवेदना का प्रवाह और प्रयोग जीवन दुख का तात्रा बनकर मनुष्य जाति की जीवन यात्रा में शामिल रहता है। विस्मृत रचना या रचनाकर की मूल संवेदना का प्रवाह और प्रयोग जारी रहती है, यानी चेतन मस्तिष्क से निकलकर भी अचेतन, अवचेतन मस्तिष्क में उपस्थित और सक्रिय रहा करती है। भिन्न-भिन्न हित समूह इस प्रवाह को अपचालित करने की प्रक्रिया में भी लगे रहते हैं। कुछ अवधि के लिए कामयाब भी होते हैं। फिर कोई दूसरा साहित्यकार उस विस्मृत मूल संवेदना और शैली को भिन्न-भिन्न फॉर्म या संरचना में लोकचित्त में पुनर्संयोजित कहां तक पहुंचे ते हैं। इसे भारतीय संदर्भ में पुनर्नवा और पश्चिम के संदर्भ में संस्कृति चक्र की प्रक्रिया से भी समझा जा सकता है। सभ्यता में समन्वय, समावेश और संतुलन की प्रक्रिया चलती रहती है। 
महफिलबाजी से जो बड़ा, बड़ी या महान होने में लगे हुए हैं, संतुष्ट हैं वे प्रणम्य हैं।