पूर्वग्रह संचालित समाज:क्या हम एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं!

पूर्वग्रह संचालित समाज:
क्या हम एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं! 
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल जिसे जनता की चित्तवृत्ति कहते हैं वह असल में पूर्वग्रहों के समुच्चय या setसे बनती है। पूर्वग्रह धारणाओं (या perceptions) को बद्धमूल बनाती है और फिर धारणाएं भी पूर्वग्रह बनाती हैं, इनमें प्रतिक्रमिक (या vice-versa) कार्य-कारण (या causative) सापेक्षता संबंध (या relative connectivity) होता है। इसी तरह से प्रतिबद्धताओं और जड़ीभूत संवेदनाओं का के समुच्चय भी बनते-बदलते रहते हैं। तात्पर्य यह कि हर युग के अपने पूर्वग्रह, अपनी पूर्वमान्यताएँ (या postulates) विभिन्न अवसरों पर सक्रिय होती रहती हैं। ये सारी प्रक्रियाएँ और परिस्थितियाँ हमारे युग की भी है। ये सारी प्रक्रियाएँ प्राकृतिक क्रम में विकसित होती रहती हैं और समुदायों एवं समाजों पर वर्चस्व की आकांक्षाओं से संपीड़ित समूह भी इसमें सायास और बलपूर्वक शामिल होता है। इस प्राकृतिक-प्रक्रिया को दुष्चक्र से बाहर निकलने, संतुलित करने और सामाजिक सामंजस्य-समरसता बनाये रखने के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप की बौद्धिक जरूरत होती है। इस पूरे चक्र को समझना अपने समय को समझना है तथा इस ब्यूह में अपनी भूमिका को समझना खुद को समझना है। अपने को और अपने समय को समझना हमेशा बड़ी चुनौती होती है। इस चुनौती का मुकाबला पूर्ण सकारात्मकता के साथ करना कठिन तो होता है परंतु, असंभव नहीं। आज खुद से सवाल है, क्या हम एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं!

गुजर जाने के बाद

गुजर जाने के बाद

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गुजर जाने के बाद

अपने बचपन को याद करता हूँ,

जो अब सिर्फ यादों में बचा है थोड़ा-थोड़ा

और जो अब लौटकर फिर नहीं आनेवाला

पिता कभी-कभार बुदबुदाते हुए याद आते हैं,

साँप गुजर गया और हम लकीर पीटते रहे

साँप भी नहीं लौटता अपनी छोड़ी हुई लकीर पर

कटोरा समाने लहराते हुए किसी फिल्म का गीत याद आता है

गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा, गजब की कशिश

कशिश मुहब्बत की भी, यौवन की भी

एक पल, एक दिन में कोई नहीं गुजरता है, कुछ भी नहीं गुजरता है!

पता ही कहाँ चलता है कि कैसे पल-पल हम सभी गुजर रहे होते हैं

गुजर रहे होते हैं, न लौटने, कभी न लौटने की स्थिति सामने है और

हमें खबर ही नहीं कि गुजर रहे होते हम पल-प्रति-पल!

गुजर जाने के बाद सिर्फ गुजरे हुए की याद लौटती है बार-बार लौटती है

गुजरा हुआ कभी किसी रूप में नहीं लौटता है, न उसके इशारे लौटते हैं

वक्त! वक्त  ताकतवर होता है, ताकतवर तो कठोर होता ही है

फिर भी वक्त पर कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता

माँ! माँ तो बहुत ममतामय होती है, ममता तो होती ही है बहुत कोमल

गुजर जाने के बाद,

माँ की भी सिर्फ याद आती है, माँ का कोई इशारा भी कहाँ आता है!   

कोई इशारा नहीं आता माँ का!   

गुजर जाने के बाद

अपने बचपन को याद करता हूँ।

 

और भी मनोरथ हैं, सुंदर सुखद जाल के इतर

 
और भी मनोरथ हैं, सुंदर सुखद जाल के इतर: मतलब हाँ भी ना और ना भी हाँ! 
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कल शाम तक सब कुछ ठीक था। चिड़ियों में बहस बहुत तीखी थी, स्वाभाविक से थोड़ी-सी अधिक तीखी। मुक्ति के मुहानों की तलाश पर बहस हो रही थी। 
मुझे क्या करना था! मैं तो मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण आदि की गूँजों-अनुगूँजों से भरी सभ्यता-संस्कृति की इस धरा-धाम पर इन सबसे निरपेक्ष रहने में अपने भले की राह तलाश चुका हूँ और लगभग संतुष्ट हूँ। लगभग इसलिए कि पूर्ण कुछ नहीं सब लगभग है। यह लगभगाई दौर है। 
मंत्र पुराना है, अर्थात मध्य-वर्ग : मज्झम निकाय! मतलब हाँ भी ना और ना भी हाँ।
सुबह का नजारा काफी उत्तेजनापूर्ण था। शाम को जो बहस जाल और जंजाल से मुक्ति के मुहानों की तलाश पर थी, सुबह तक वह जाल के कलात्मक सौंदर्य के बखान तक पहुँच चुकी है। एक-से-बढ़कर एक बखान! बखान कि कौन-सा जाल कितना मनोरम है और कौन-सा जाल किसके मनोरथ का हिस्सा है। 
निष्कर्ष तक पहुँचने में अभी देर लगेगी। स्वीकार करूँ कि निष्कर्ष में मेरी दिचस्पी बढ़ती जा रही है। दिलचस्पी अपनी जगह, जरूरतें अपनी जगह। वैसे, और भी मनोरथ हैं, सुंदर सुखद जाल के चयन के इतर।


सृजन के संगी

सृजन के संगी

परिवार में शिक्षा की नैसर्गिक आकांक्षा तो थी, लेकिन सायास सचेतनता नहीं थी। पैदल पहुंच में स्कूल (राजेंद्र उच्च विद्यालय, जारंगडीह) कॉलेज (कृष्णवल्श्वलभ महाविद्यालय, बेरमो) थे, सो लोकलाज के अदृश्य दबाव से बीए तक की शिक्षा कोलियरी के बातावरण में बीए तक की शिक्षा मिल गयी। असली चुनौती पीजी पार करने की थी। निजी और पारिवारिक कारणों से तत्काल रोजगार पहली जरूरत थी। राँची विश्वविद्यालय का छात्र था। अपने-अपने अध्ययन अहंग कैलास पर अवस्थित अध्यापकों के नाम याद हैं। लेकिन उनकी चर्चा फिर कभी। निजी जरूरत और अकादमिक अनाकर्षण ने रोजगार की ओर अधिक तेजी से उन्मुख कर दिया। रोजगार मिल गया। अकादमिक दुनिया को अलविदा कहने का मौका मिल गया। अध्यापक बनने का मौका, मोह तो था ही नहीं, छोड़ना अच्छा नहीं रहा। अध्यापक को जीवन में हजारों युवा का साहचर्य मिलता है। अध्ययन उनके लिए धर्म भी होता है और कर्म भी। तात्पर्य पढ़ने पढ़ाने, उसी से रोजगार पाने के लाभ का अवसर मिलता है। सृजनशील अध्यापकों को सृजन के संगी और साक्षी दोनों मिल जाते हैं। अकारण नहीं है कि कम-से-कम हिंदी साहित्य की सृजन भूमि के अधिकांश पर अकादमिक लोगों की दमक और धमक है। 

सृजन और शिक्षण में गहरा संबंध होता है। सृजन करते हुए मनुष्य सीखता है। सीखते हुए मनुष्य सृजन करता चलता है। सृजन और शिक्षण कभी अकेले नहीं होता है। उत्कृष्ट सृजन उत्कृष्ट शिक्षण का और उत्कृष्ट शिक्षण उत्कृष्ट सृजन का अवसर पैदा करता है। रूपक में कहें तो अच्छे छात्रों के बीच शिक्षक की उत्कृष्टता बनती रहती है और अच्छे शिक्षक से शिक्षा पा कर छात्र उत्कृष्ट होते चलते हैं। सह-सृजन और सह-शिक्षण में कार्य-कारण श्रृँखल संबंध होता है। सृजन और शिक्षण  सह-संभवा सामाजिक प्रक्रिया है। यहाँ, समाज और भीड़ के एक अंतर को याद रखना जरूरी है। समाज में व्यक्ति का, या कह लें एक का अनेक से, अभिन्न स्तरों पर दीर्घकालिक और बहुआयामी सचेत संपृक्ति या जुड़ाव होता है। भीड़ में एक का अनेक से एकल स्तर पर अल्पकालिक एक आयामी और अचेत जुड़ाव होता है। समाज से सृजन और भीड़ से संहार का अभिन्न संबंध होता है। समाज-तत्त्व घटता गया तो सृजन की संभावनाएँ भी घटती गई, भीड़-तत्त्व बढ़ता गया तो संहार की आशंकाएँ भी बढ़ती गई। समाज के भीड़ में बदलते जाने की चुष्चक्रीय-प्रक्रिया को सृजन ही थाम सकता है।

एक का किसी दूसरे के संपर्क में आने पर समाज बन जाता है, इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि समाज-तत्त्व ही एक का दूसरे से अभिन्न स्तरों पर दीर्घकालिक और बहुआयामी सचेत जुड़ाव का समवायी या सहकारी अवसर बनाता है। शिक्षण कर्म की ही तरह, साहित्य सृजन भी सह-संभवा सामाजिक प्रक्रिया है। अन्य सृजन की तरह ही, साहित्य भी अकेले-अकेले नहीं सिरजा जा सकता है। सृजन के लिए सर्जक को सक्रिय (Active नहीं, Cre-active) या निष्क्रिय (Inactive नहीं, Passive), गोचर या अगोचर सह-सृजक (Co-creator) जरूरी होता है। सह-सृजक आलोचनात्मक संवाद और संवेद संपन्न दोस्त या प्रेमी-प्रेमिका हो सकता है। बस रूपक के तौर पर, अभिसार में जैसी भूमिका दूती की होती है सृजन में वैसी ही भूमिका सह-सृजक की होती है। संगी न हो तो सृजन कहाँ संभव! वे धन्य थे जिन्हें सृजन-संगी मिले और उनके माध्यम से बेहतर साहित्य संभव हो सका। अब ऐसा धन्य-भाग कहाँ!