सृजन के संगी

सृजन के संगी

परिवार में शिक्षा की नैसर्गिक आकांक्षा तो थी, लेकिन सायास सचेतनता नहीं थी। पैदल पहुंच में स्कूल (राजेंद्र उच्च विद्यालय, जारंगडीह) कॉलेज (कृष्णवल्श्वलभ महाविद्यालय, बेरमो) थे, सो लोकलाज के अदृश्य दबाव से बीए तक की शिक्षा कोलियरी के बातावरण में बीए तक की शिक्षा मिल गयी। असली चुनौती पीजी पार करने की थी। निजी और पारिवारिक कारणों से तत्काल रोजगार पहली जरूरत थी। राँची विश्वविद्यालय का छात्र था। अपने-अपने अध्ययन अहंग कैलास पर अवस्थित अध्यापकों के नाम याद हैं। लेकिन उनकी चर्चा फिर कभी। निजी जरूरत और अकादमिक अनाकर्षण ने रोजगार की ओर अधिक तेजी से उन्मुख कर दिया। रोजगार मिल गया। अकादमिक दुनिया को अलविदा कहने का मौका मिल गया। अध्यापक बनने का मौका, मोह तो था ही नहीं, छोड़ना अच्छा नहीं रहा। अध्यापक को जीवन में हजारों युवा का साहचर्य मिलता है। अध्ययन उनके लिए धर्म भी होता है और कर्म भी। तात्पर्य पढ़ने पढ़ाने, उसी से रोजगार पाने के लाभ का अवसर मिलता है। सृजनशील अध्यापकों को सृजन के संगी और साक्षी दोनों मिल जाते हैं। अकारण नहीं है कि कम-से-कम हिंदी साहित्य की सृजन भूमि के अधिकांश पर अकादमिक लोगों की दमक और धमक है। 

सृजन और शिक्षण में गहरा संबंध होता है। सृजन करते हुए मनुष्य सीखता है। सीखते हुए मनुष्य सृजन करता चलता है। सृजन और शिक्षण कभी अकेले नहीं होता है। उत्कृष्ट सृजन उत्कृष्ट शिक्षण का और उत्कृष्ट शिक्षण उत्कृष्ट सृजन का अवसर पैदा करता है। रूपक में कहें तो अच्छे छात्रों के बीच शिक्षक की उत्कृष्टता बनती रहती है और अच्छे शिक्षक से शिक्षा पा कर छात्र उत्कृष्ट होते चलते हैं। सह-सृजन और सह-शिक्षण में कार्य-कारण श्रृँखल संबंध होता है। सृजन और शिक्षण  सह-संभवा सामाजिक प्रक्रिया है। यहाँ, समाज और भीड़ के एक अंतर को याद रखना जरूरी है। समाज में व्यक्ति का, या कह लें एक का अनेक से, अभिन्न स्तरों पर दीर्घकालिक और बहुआयामी सचेत संपृक्ति या जुड़ाव होता है। भीड़ में एक का अनेक से एकल स्तर पर अल्पकालिक एक आयामी और अचेत जुड़ाव होता है। समाज से सृजन और भीड़ से संहार का अभिन्न संबंध होता है। समाज-तत्त्व घटता गया तो सृजन की संभावनाएँ भी घटती गई, भीड़-तत्त्व बढ़ता गया तो संहार की आशंकाएँ भी बढ़ती गई। समाज के भीड़ में बदलते जाने की चुष्चक्रीय-प्रक्रिया को सृजन ही थाम सकता है।

एक का किसी दूसरे के संपर्क में आने पर समाज बन जाता है, इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि समाज-तत्त्व ही एक का दूसरे से अभिन्न स्तरों पर दीर्घकालिक और बहुआयामी सचेत जुड़ाव का समवायी या सहकारी अवसर बनाता है। शिक्षण कर्म की ही तरह, साहित्य सृजन भी सह-संभवा सामाजिक प्रक्रिया है। अन्य सृजन की तरह ही, साहित्य भी अकेले-अकेले नहीं सिरजा जा सकता है। सृजन के लिए सर्जक को सक्रिय (Active नहीं, Cre-active) या निष्क्रिय (Inactive नहीं, Passive), गोचर या अगोचर सह-सृजक (Co-creator) जरूरी होता है। सह-सृजक आलोचनात्मक संवाद और संवेद संपन्न दोस्त या प्रेमी-प्रेमिका हो सकता है। बस रूपक के तौर पर, अभिसार में जैसी भूमिका दूती की होती है सृजन में वैसी ही भूमिका सह-सृजक की होती है। संगी न हो तो सृजन कहाँ संभव! वे धन्य थे जिन्हें सृजन-संगी मिले और उनके माध्यम से बेहतर साहित्य संभव हो सका। अब ऐसा धन्य-भाग कहाँ!  

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