वह मेरा नहीं है

वह मेरा नहीं है!
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सपने में ही मिल लेता था, ख्वाब जो षडयंत्र वह मेरा नहीं है
तकनीकी सलाम आदमी बेदखल जिससे वह यंत्र मेरा नहीं है
चुनाव दर चुनाव जो भटकता रहा, वह जनतंत्र मेरा नही है
जो देवता को ही विदा कर दे ऐसा तो कोई मंत्र मेरा नहीं है

बेहतर है, बहुत नींद में ख्वाब का जग जाना

बेहतर है, बहुत
नींद में ख्वाब का जग जाना
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जो हासिल न हुआ
सो न हुआ
कुछ होना तो बेहतर है कुछ न होने से,
कुछ तो बेहतर है
नींद में सही, किसी
ख्वाब के जग जाने से

जी! बेहतर है,
बहुत नींद में
ख्वाब का जग जाना
अफसोस, लेकिन कि
ऐसी नींद
उधार नहीं मिलती है।

जी बेहतर है बहुत,
नींद में ख्वाब का
जग जाना!

भाषा का भिखारी

भाषा का भिखारी!
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तू कैसा है रे! परफूल!
भाषा का भिखारी!
न तेरा कोई
अपना जनपद है!
न कोई जमीन है!
जमीर?
चल! उस पर
फिर बात कर लेंगे।

कविता के साथ क्या हुआ!

कविता कोई बौद्धिक कार्रवाई तो है नहीं सो लिखी जाती है अचेत मन से। कविता पढ़ना लेकिन बौद्धिक कार्रवाई है सो, पढ़ी जाती है सचेत मन से।  कोई भी कविता जब हमारे अनुभव का हिस्सा बनती है तो उसकी अनुभूतियाँ हमारे मन को नये सिरे से सरियाती और सँवारती है, रिएलाइन करने की कोशिश करती है। अगर अपने अंदर के कोलाहल को स्थगित कर हम कविताओं पर कान धरने में कामयाब हो सकें। आज लिखी जा रही अधिकतर कविताओं के संदर्भ में यह कहना प्रयोजनीय है, कि भाषा एक सार्वजनिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक औजार है। इस औजार को साधना पड़ता है। फिर कहें, कविता लिख ली जाती है अचेतन मन से, लेकिन पढ़ी जाती है सचेत हो कर। समाज, भाषा और कविता के अंतस्संबंध पर गौर करें तो, भाषा कविता को काबू करे यह अच्छी स्थिति नहीं है, बल्कि चाहिए यह कि कविता भाषा को काबू करे। शायद सब से अधिक संख्या में कविता लिखी जाती है, और सब से कम संख्या में पढ़ी जाती है! तो कविता के साथ क्या हुआ!
कविता के साथ क्या हुआ! जी हिंदी कविता के साथ! अन्य भाषा की कविताओं के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा।
हिंदी में हिंदी कविता लिखना मुश्किल होता गया। हिंदी में हिंदी कविता लिखना मुश्किल होता गया! क्या मतलब? जब हिंदी में मैथिली, भोजपुरी, ब्रज, अवधी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, उर्दू आदि कविता का लिखा जाना मुश्किल होता गया तो हिंदी में हिंदी कविता का लिखा जाना मुश्किल हो गया। नागार्जुन हिंदी में मैथिली कविता लिखते थे, इसलिए जनकवि हो सके। बिना जनपद के जनकवि नहीं हुआ जाता है। धीरे-धीरे कवियों में यह कहने का साहस खोता गया कि ‘उस जनपद का कवि’ हूँ। जब साहस ही खो गया तो शब्द को मरना ही था, सो मर गया। क्योंकि सहमत न होने का सवाल ही नहीं उठता केदारनाथ सिंह की बात से कि ‘शब्द मरते हैं, साहस की कमी से’। भारतेंदु हरिश्चंद्र और अयोध्या प्रसाद खत्री के पत्राचार की याद है न! तो फिर हिंदी में मैथिली आदि की कविता का लिखना क्यों बंद हो गया? इसलिए कि मैथिली आदि में ही मैथिली आदि की कविता लिखना लगभग असंभव हो गया! इस हादसा से निबटने के लिए हिंदी आदि के कवियों ने भारतीय कविता की बात शुरू कर दी। स्थानिकता, कह लें आंचलिकता, को दबाने में राष्ट्रीयता से बड़ा  चिक (बाँस की कमानियों से बना पर्दा) और क्या हो सकता था। तो हिंदी कवि हिंदी कविता की जगह भारतीय कविता की और बढ़ गये। इधर स्थानीय कवि भी लपककर भारतीय कविता बनाने की दौड़ में शामिल हो गये तो अगला विश्व-कविता लिखने लगा। जो इशारा न समझे उसे आगे कुछ भी कहना बेकार है। इसलिए, अब आगे कहना जरूरी नहीं कि हिंदी कविता के साथ क्या हुआ।