देशज पर कमल

कमल की कहानी--- प्रोजेक्ट ऑक्सिजन की पठनीयता निश्चित ही प्रवाहपूर्ण है। इस कहानी की पारिस्थितिकी भी प्रतीकात्मक रूप से भी महत्त्वपूर्ण है। 90 के आसपास एक कविता लिखी थी; जब व्यवस्था बाजार के हवाले हो जाये और बाजार बाजीगर का अखाड़ा तो बाघ और बानर के अश्लील विकल्पों के बीच आदमी औंधे मुँह गिरा होता है। कमल जी की कहानी में व्यवस्था और व्यापार का जो रिश्ता खिला है उस में मुनाफा सर्वभक्षक की तरह कायम है। पैकेजिंग और प्रोपगैंडा का असर यह कि जनहित और जनसुरक्षा के नाम पर जन को भयाक्रांत कर लूट मचाना इनका किरदार बन गया है। सौंदर्य और शील का होना जीवन की नैसर्गिकता का मनोरम पक्ष है। इस मनोरम पक्ष की रक्षा शक्ति करती है, रक्षा तभी तक जब तक सौंदर्य और शील मिलकर शक्ति का नियंत्रण और नियमन करते हैं। हादसा यह कि सर्वभक्षी शक्ति के दुर्दांत ने सफलतापूर्वक शील और सौंदर्य को अपना दास बना लिया है। शील और सौंदर्य का इतने बड़े पैमाने पर तथा इतना और ऐसा कुत्सित इस्तेमाल सभ्यता ने इसके पहले कभी नहीं देखा।
व्यवस्था में रहकर व्यवस्था के माध्यम से न्याय सुनिश्चित करने के विश्वासवाले नौजवान अधिकारी अपने दुःस्वप्न में उभरनेवाले व्यवस्था के चरित पर अंगुली उठानेवाले नौजवान के सामने खुद को कितना लाचार पाता है! दुर्विपाक यह कि इसकी लाचारी को सौंदर्य अपने गार्हस्थिक शील से और बढ़ा देती है, यह कहते हुए कि खुद को इतना इन्वॉल्व न करो।
पूरे कथा प्रसंग में ये जो कनेक्टिविज्म का सवाल है कहानी की रूह है। मुझे संजीव की कहानी अपराध और ऑपरेशन जोनॉकी की भी बहुत याद आ रही है। यह कहानी एक बड़ी कहानी कि क्राउनिंग है! पूरी कहानी का जन्म होना बाकी है। हाँ, यह कहानी इतने पर भी अपने मुकम्मल होने का भ्रम रचने में सक्षम है। इस भ्रम को भेद कर उस कहानी को पाना रचनात्मक चुनौती भी है और चाहत भी। इस चुनौती को रचनाकार कैसे आत्मसात (इंटरनेलाइजेशन ऑफ रियलाइजेशन के अर्थ में) करता है और समय की चाहत को कैसे पूरा करता है यह तो बाद की बात है, फिलहाल तो देशज के प्रति आभार और कमल को बधाई। अभी तो इतना ही...

क्या करे कोई

इस गूंगी मुस्कान का क्या करे कोई
और कटी जुबान का क्या करे कोई

लटपटाते बयान का क्या करे कोई
मचलते हिंदुस्तान का क्या करे कोई

ढहते हुए मकान का क्या करे कोई
जी गुर्राते संविधान का क्या करे कोई

दिल-ए-नाबदान का क्या करे कोई
प्रफुल्ल कोलख्यान का क्या करे कोई

क्या निदान है

दुख-दर्द के सताये लोगों का हुजूम फिर पूछता आखिर क्या निदान है
ख्वाब के खलिहान में कोहराम है हर बात पर इशारा संविधान है

दुनिया में बहुत दुनिया है

दुनिया में बहुत समृद्धि है।
मेरे लिए नहीं है।
दुनिया में बहुत सौंदर्य है।
मेरे लिए नहीं है।
दुनिया में बहुत उदारता है।
मेरे लिए नहीं है।
दुनिया में बहुत भद्रता है।
मेरे लिए नहीं है।
दुनिया में बहुत कविता है।
मेरे लिए नहीं है।
दुनिया में बहुत सख्य है।
मेरे लिए नहीं है।

हे सखी!
दुनिया में बहुत दुनिया है।
यह मेरे लिए है।

फिलहाल शुक्रिया

फिलहाल शुक्रिया
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मैं जिंदगी को फूलों से सजाने के ख्वाब के हिफाजत में मशगूल
जिंदगी भर काँटे चुनता रहा,
मुगालता यह कि मैं कामयाबी की ओर बढ़ रहा हूँ
यह जानते हुए कि फूल चुनना
हिंदी का एक खतरनाक मुहावरा है
मैं जिंदगी भर काँटे चुनता रहा

और अब अपनी जिंदगी के उस मुकाम पर हूँ जहाँ
मुझे मुस्कान के बीच से झुर्रियों को एक-एक कर चुनना है
यह जानते हुए कि मुस्कान के बीच से झुर्रियों को चुनना
फूल चुनने से भी खतरनाक मुहावरा हो सकता है
मैं भीतर से सिहर जाता हूँ
सिहर जाता हूँ कि हमारे समय में
बना हुआ मुहावरा जितना भी खतरनाक क्यों न हो
बनते हुए मुहावरे के साथ जीना बहुत जोखिम भरा है

तय कर पाना मुश्किल है कि
फूल चुनना अधिक खतरनाक मुहावरा है या फिर
मुहावरों में काँटा या झुर्रियों को चुनने की कोशिश
मैं जानता हूँ कि कुछ लोगों को लिए यह बहुत आसान है
फिर भी बात यह ठहर जाती है कि
आसानी से हो जानेवाले काम में शुमार की गई बातें
हमारे समय के सब से कठिन प्रसंग हैं ▬▬
जैसे कि तुम्हारी मुस्कान जोखिम से भरा एक अंदाज,
हाँ, फिलहाल शुक्रिया

हिंदी अध्ययन-अध्यापन और तकनीक

साहित्य कला मंच हिंदी अध्ययन-अध्यापन और तकनीक
व्यक्तिगत तौर पर अध्ययन-अध्यापन से प्रत्यक्षतः जुड़ा नहीं हूँ
तकनीक की भी जानकारी नहीं है
हिंदी अध्ययन-अध्यापन का आशय हिंदी साहित्य के अध्ययन अध्ययन-अध्यापन से है
हिंदी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का विशिष्ट पक्ष तो है लेकिन असल आशय साहित्य के अध्ययन-अध्यापन से है

अध्ययन-अध्यापन का मकसद
1. मनुष्य में ज्ञान को अंतरित (आयातित/ निर्यातित) करने की क्षमता होती है
2. ज्ञान को अंतरित करना अध्ययन-अध्यापन का मकसद होता है
3. अनुभव और अनुभूति या संवेदना का सीधा अंतरण संभव नहीं है
4. अनुभव और अनुभूति या संवेदना के अंतरण की दो पद्धति होती है
क. रसोद्रेक या रसानुभूति
ख. अनुभव और अनुभूति या संवेदना का ज्ञान में परावर्त्नन और फिर ज्ञान का अंतरण
रसोद्रेक या रसानुभूति सभ्यता और संस्कृति का अंतर साहित्य संस्कृति और सभ्यता के पुल के रूप में अध्येय है

सामान्य पाठक का जुड़ाव पाठ के आनंद के कारण होता है
रसोद्रेक या रसानुभूति पाठ के आनंद के प्राप्त होने की प्रविधि है
रसोद्रेक या रसानुभूति से आनंद की उपलब्धि मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है
नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ बिना किसी बाहरी प्रशिक्षण के स्वतः सक्रिय रहती हैं
नैसर्गिक प्रवृत्तियों की संतुष्टि से सीमित रहकर स्वतः बोध का उदात्त होते जाना सामान्य पाठक का सहज प्राप्य है
1. साहित्य का अध्ययन-अध्यापन
रसानुभूति या रसोद्रेक की नैसर्गिक प्रक्रिया के पूरी होने के बाद :
पहला मकसद है अनुभव और अनुभूति या संवेदना का ज्ञान में परावर्त्नन और फिर ज्ञान का अंतरण
उदाहरण : प्रेमचंद के उपन्यास गोदान को पढ़ने के बाद
उस समाज की तत्कालीन आर्थिक व्यवहार, जातिगत प्रथा, लैंगिक आचरण सहित समस्त संरचना का अध्ययन
इस समय समाज में प्रभावी आर्थिक व्यवहार, जातिगत प्रथा, लैंगिक आचरण सहित समस्त संरचना का अध्ययन

दूसरा मकसद है किसी भी स्रोत से प्राप्त ज्ञान का फिर से उन्नत और बौद्धक संवेदना में अंतरण

संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना : मुक्तिबोध कर्म का भोग और भोग का कर्म : गीता
टेक्नोलॉजी और टेकनिक का अंतर
टेक्नोलॉजी मुख्यतः हासिल औजारों को एक दूसरे को जोड़कर बांछित परिणाम पाने के लिए सहज व्यवहार के योग्य बनाती है, इसलिए प्रयुक्ति कहलाती है
टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने की बुद्धि टेकनिक है जिसे हम तकनीक कहते हैं और पारंपरिक शब्द में तरकीब कह सकते हैं
साहित्य के अध्ययन-अध्यापन में टेक्नोलॉजी का अधिक-से-अधिक इस्तेमाल किये जाने की जरूरत है
नये तरकीब या तकनीक का अपनाव भी जरूरी है
ज्ञान की अन्य शाखाओं से जोड़ने की तरकीब
इतिहास समाजशास्त्र भूगोल आर्थिकी दर्शन धर्म समाजिकी समुदायिकी व्यक्तिगत और समाज मनोविज्ञान
सभ्यता और संस्कृति का अंतर साहित्य संस्कृति और सभ्यता के पुल के रूप में अध्येय है

मुझे मालूम है कि

मैं उनके निहितार्थों में जरूर होता हूँ
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हे प्रिय! मुझे मालूम है
जितनी भी अच्छी बातें हैं
वे अक्सर मुझे संबोधित नहीं होती हैं
फिर भी मैं उनके निहितार्थों में
खुद को तलाश रहा होता हूँ
मुझे पता भी नहीं होता कि
कितने सारे वनकटैया से
मेरा वजूद इन दिनों घिर रहा होता है

हे प्रिय! मुझे मालूम है
जितनी भी अच्छी बातें हैं
वे अक्सर तुम से संबोधित होती है
लेकिन वे बातें तुम तक पहुँच नहीं पाती है
और हवा में टँगा इंद्र धनु उदास हो जाता है

हे प्रिय! देखो न कि कैसे
वनकटैया और इंद्र धनु आपस में उलझ रहे हैं
और कितना क्रूर हो गया है आसमान इन दिनों
हे प्रिय! देखो न
जीवन अट्ठारह सौ सत्तावन हो रहा है इन दिनों

हे प्रिय! मुझे मालूम है
जितनी भी अच्छी बातें हैं
वे अक्सर मुझे संबोधित नहीं होती हैं
फिर भी मैं उनके निहितार्थों में जरूर होता हूँ

जादू टोना न आया

तू जो मुझ से करीब है, तेरी बात पे रोना आया
तू आया, तुझको बस मेरी आँख भिगोना आया

डूबता रहा, बहती गंगा में हाथ धोना न आया
मिहनत में कसर नहीं, फसल बोना ही न आया

मैं ने रिश्तों को जीना सीखा उसे ढोना न आया
खेलना जानता नहीं, न मेरे हाथ खिलौना आया

था तो माथे पर ही, मेरे काम डिठोना न आया
कोशिश की तो बहुत, मुझे तेरा होना न आया

थी कशिश बहुत, खुद को मुझे डुबोना न आया
आया कुछ-कुछ लेकिन मुझे जादू टोना न आया

तेरा कोई काबू नहीं

क्या गजब मेरे हिस्से में तेरी खामोशियाँ ही सही
जानता हूँ बोलती आँखों पर तेरा कोई काबू नहीं

ये जो सियासी बाँकपन है बाकी जम्हूरियत सही
है तभी तक महफूज आवाम जब तक बेकाबू नहीं

मुफीद नहीं वज्म में आकर तेरा कहना, नहीं नहीं
जनतंत्र में होता कोई चौधरी नहीं कोई साबू नहीं

यह फलसफा विकास है कोई जूआ नहीं जादू नहीं
उम्मीद थी जरूर पर तेरा, तुझ पर ही काबू नहीं

मेरे हिस्से टूटे ख्वाबों की तीखी किर्चियाँ ही सही
शीशे के टुकड़े को चुन लेता इस के आगे काबू नहीं

लो चाँद भी अब ढल गया

लो चाँद भी ढल गया, इस रात की अब कोई सुबह नही
दिल को बहलाया बहुत, दिल का आसरा अब कोई नहीं

वायदा, भरोसा मुकम्मलअपनी जगह उम्मीद कोई नहीं 
मकान कैसे ढह गया जो रिहाइश में जलजला कोई नहीं

हर तरफ काँटों में बहार फूलों का सिलसिला कोई नहीं
सारे ख्यलात स्याह और उजाले का अब मंजर कोई नहीं

आसमान से नहीं शिकायत जमीन से भी गिला कोई नहीं
अपने वजूद में ही कोई खामख्याली हिलामिला कोई नहीं

सुकून जो नहीं भी अगर तो बेचैनियों का असर कोई नहीं
चलो कहीं और अदब में अब रूह का है हौसला कोई नहीं

अपना कद इतना न बढ़ा

अपना कद इतना न बढ़ा
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अपने कद को इतना न बढ़ा कि अपना वजूद अपने पैरों तले ही कुचला जाये
दिल दिमाग है काबू से बाहर इस कदर, डर है मुस्कान न कुम्हला जाये

बेरुखी हवा की क्या कहिये, मुश्किल है जो किस कदर अब सम्हला जाये
हवा हुए वे दिन तो कब के, जो तेरी त्यौरियों पर भी थोड़ा मचला जाये

कसूर तेरा नहीं इस मौसम में तो कोई भी, कातिल हँसी पर पगला जाये
कातिलों के जश्न में मकतूल भी शामिल किस कदर, मन कोई बहला जाये

हादसे होने को अभी और भी हैं ऐ दिल, सम्हल अभी से क्यों दहला जाये
शैतान है दिल दिमाग जुबान पर सवार, क्या पता कब क्या कहला जाये

नदियों में सूखता पानी आँखों में भी, कैसे कोई आँसुओं से नहला जाये
अपने कद को इतना न बढ़ा कि अपना वजूद अपने पैरों तले ही कुचला जाये

बुद्ध ठहरे थे जरूर रुके नहीं थे

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan


मिली जनतंत्र के जागीर में
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अपनी ओर से क्या कहूँ, अब बात के आखिर में
दर्द है कि हरर्र कर उठता है, दिल-ए-काफिर में

बेकसी, मुफलिसी ही मिली जनतंत्र के जागीर में
रहा नदारद है तो वही अव्वल हुजूर-ए-हाजिर में

सुना है बुद्ध ठहरे थे जरूर रुके नहीं थे राजगीर में
फिक्र! थोड़ी सलाहियत है बची फन के माहिर में

मेरे वजूद का क्या यह गिरवी है दस्त-ए-जाकिर में
ढूढ़ते सबूत बातों में देखते नहीं नजर-ए-हाजिर में

मैं खोया रहा हुस्न के सितम और पनाह के तासीर में
मेरे जिक्र की वजह है कोई नहीं, जिक्र-ए-नासिर में

अपनी ओर से क्या कहूँ, अब साल के आखिर में
दर्द है कि हरर्र कर उठता है, दिल-ए-काफिर में

इश्क का मौसम

मौसम
धरती और सूरज के बीच का संवाद है
धरती और सूरज के बीच
संवाद का तेवर बदल रहा है
मौसम बदल रहा है
मैं बदल रहा हूँ
मैं मौसम हूँ
मौसम इश्क का
मैं बदल रहा हूँ
इश्क का मौसम बदल रहा है

समझ और ना-समझ

जिसने यह समझ लिया कि कुछ समझ नहीं आया उसके पास समझने की असीम संभावनाएं बची रहती है। जो समझे सब कुछ समझ में आ गया उस के पास समझने की संभावना नहीं बचती है। संभावनाओं का बचा रहना ही ज्ञान को अंधत्व की चपेट से बचाता और उसे नवजीवन प्रदान करता है।

वस्तुनिष्ठता बनाम आत्मनिष्ठता

वैज्ञानिक मूल्यांकन में वस्तुनिष्ठता (objectivity) का जो भी महत्व हो एक मनुष्य और लेखक के रूप में आत्मनिष्ठता(subjectivity) मेरे लिए अधिक स्वीकार्य है।
आत्मनिष्ठता सत्य असत्य की द्विपाशीय बाइनरी से बाहर ग्रे एरिया में कहीं रहती है अर्थात न सच न झूठ और इसलिए सत्यापन के ममेतर मानदंडों पर खुद के कसे जाने की वैधता को मानने से इंकार करती है।

देश भक्ति है कि महज फुटानी

देश भक्ति है कि महज फुटानी है
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जी हाँ, मछली की आँख को ठीक-ठीक पता है
जिस में उसको छोड़ा गया तेल है कि पानी है

मुस्कान में नाचती आँख को ठीक-ठीक पता है
अदा तेरी कोई शरारत है या महज नादानी है

अपठित किताब के पन्नों को ठीक-ठीक पता है
इस आँख में उबलती तलाश कितनी रुहानी है

पूनम रात की खामोशी को ठीक-ठीक पता है
पोर-पोर में दहाड़ता दर्द कितना जिस्मानी है

लचकते फूलों की खुशबू को ठीक-ठीक पता है
ये उड़ा ले जाती है हवा जो कितनी तूफानी है

भूख से मरियल जिंदगी को ठीक-ठीक पता है
दहाड़ती हुई देश भक्ति है कि महज फुटानी है

जी हाँ, मछली की आँख को ठीक-ठीक पता है
जिस में उसको छोड़ा गया तेल है कि पानी है

बाजार तो मुझे देखकर ही गुर्राता है

बाजार तो मुझे देखकर ही गुर्राता है
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बाहर के कोलाहल हलाहल से ऊब कर मन जब थक जाता है
तो अपने सरीखे किसी और से बात करने के लिए अकुलाता है
मुश्किल मगर यह कि अपने सरीखा जो कोई मिलता मिलाता है
वह भी अपनी जगह थका, माँदा बस रहरहकर सिर हिलाता है
आह! मन का गह्वर एक खतरानक घाटी में कैसे बदल जाता है
सरल भाषा में कैसे कहूँ कि इंसान कैसे, कैसे अकेला हो जाता है
खुद को ही रुँधे गले से पुकारता, जी भर खुद से ही बतियाता है
शाम को जब लौटता है घर, बाजार तो उसे देखकर ही गुर्राता है
हमारे समय का अर्थशास्त्री तो ना जाने क्या-क्या भुनभुनाता है
कल क्या होगा, क्या-क्या! यह कहना बहुत मुश्किल हो जाता है
संसद से निकलकर, जनतंत्र अब खाप पंचायत में गिरगिराता है
मैं सियासी बातें कर रहा, कह मेरा युवा साथी मुँह बिचकाता है
क्या कहूँ उसको भी जो घर में ही बैठकर चौक्का-छक्का लगाता है
मुहल्ला के रहनुमा से बात की, वह इसे मेरा मनोरोग बताता है
आप ही बताइये क्यों जब भी मेरा दुखियारा मन कौर उठाता है
थाली में बाजार का अदृश्य अगला पंजा यों तैरता नजर आता है
मनोरोग या सियासी बात कहकर विशेषज्ञ हमें रोज भरमाता है
जी बाहर के कोलाहल हलाहल से मेरा मन बहुत ही थक जाता है

इंतजार कभी मुर्दा नहीं होता!


मुर्दा कभी फूल में नहीं बदलता, अगरचे माना कि यह हुआ होगा।
फुलदस्ता आप को मुबारक, जी हाँ ये फूल कभी जिंदा रहा होगा।
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इंतजार कभी मुर्दा नहीं होता!
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हजार बार कवियों के मन को इस सवाल ने मथा है
सत्ता के तिलस्म को न टूटता देख,
रघुवीर सहाय की हाँ में हाँ मिलाया है कि
नहीं टूटता है सत्ता का तिलस्म तो न सही
अपने अंदर का कायर तो टूटेगा
सत्ता से भी कहीं अधिक तिलस्मी मेरे अंदर का कायर है
एक बार फटकारो तो हजार वेष धर लेता है
इतना धूर्त्त है कि हर समय
स्वतःस्फूर्त्त कविता को बताता है
याद है शैलेंद्र के गीत की वह शर्त्त कि
जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर
जिंदगी की जीत में यकीन नहीं मगर खुद को
जिंदा कवि बताता है, चालाक इतना कि
खुद को भी बड़े आराम से छल जाता है
अब कोई नागार्जुन से नहीं पूछता कि
काव्य संकलनों को दीमक कब चाट जाता है
कब आम्र मंजरियों को पाला मार जाता है
निदा फाजली ही क्या बतायेंगे कि
क्यों जिंदगी के दिन रैन का मिलता नहीं हिसाब
क्यों दीमक के घर बैठकर लेखक लिखता नई किताब
न आँखिन देखी, न कागद लेखी ▬ हम कबीर के वंशज
ना जाने किस राग में गाते रहते हैं मंगलचार
हम कौन, हम किस के
कभी इधर तो कभी उधर खिसके
धिक-धिक-धिक धिक्कार
दोनों साथ खड़े हैं देखो कवि और मक्कार
समय का अदभुत चमत्कार, चमक कि
अब न कोई कवि अँधेरे में
किसी असाध्य वीणा से मुखातिब
न मगध में विचारों की कमी से घबराता है
जिस बात पर छूटनी चाहिए रुलाई
उस बात पर इतनी सारी बधाई!
किस मुँह से क्या कहूँ कि लिखने से क्या होगा!
जो होगा, सो होगा ▬ कुछ होने का इंतजार रहेगा!
सच है कि मुर्दा को इंतजार नहीं होता है
लेकिन यह भी कि इंतजार कभी मुर्दा नहीं होता है!

शोधांत समारोह में अध्यक्षीय भाषण


हमने सुना, हाथी पागल हो गया था
अपनी ही सेना को कुचलने लगा
कोहराम मच गया
सैनिक अपने ही हाथी से कुचले जाने लगे
असल में हाथी को कुछ नहीं हुआ था
महावत के दिमाग में ही खलल था
महावत भी क्या करता अपने दिमाग से कुछ करने की
इजाजत कभी नहीं होती खासकर युद्ध में
तो राजा का ही करिश्मा था
लगातार की हार से राजा को परेशान था
कारण राज ज्योतिषी को पता था
पूछे जाने पर उसने बताया
महराज आपकी सेना में कुछ अशुभ सैनिक हैं
उन्हें मारना ही होगा आपको हार से बचने के लिए
ज्योतिषी भी क्या करता, ऐसा ही कहने की हिदायत थी
दुश्मन हार हाल में जीतना चाहता था

करुण होकर पूछा था महराज ने राज ज्योतिषी से
बहुत भरोसा था उसे राज ज्योतिषी पर
पूछा कि अशुभ सैनिक की पहचान कैसे होगी!
यह बताना एक मुश्किल काम था राज ज्योतिषी के लिए भी
अंत में फैसला हुआ इसे हाथी पर छोड़ दिया जाये
अब हाथी को क्या पता कि पाँव के नीचे कौन है
जो भी है पाँव के नीचे वह अशुभ ही है
तय करना बहुत मुश्किल था
मुश्किल हो तो फिर जो भी आ जाये पाँव के नीचे
उसका कुचला जाना तो तय होता ही है

शोधांत समारोह में अध्यक्षीय भाषण
एक भावुक मोड़ पर था और निष्कर्ष चू रहा था
निष्कर्ष चू रहा था टप टप टप!
निष्कर्ष कि पाँव में पहचान की क्षमता न होने पर
दोष दिमाग पर डाल दिये जाने का रिवाज है
पाँव यानी पद। जन पद!
बहुत कुछ बाकी है शोधांत समारोह के अध्यक्षीय भाषण में

सच जिनका दावा है कभी

सच, जिनका दावा है कि कभी नजदीक हुए नहीं उनके
मैं उनके ही दूर हो जाने के दुख का इकबालिया बयान हूँ

सदियों से जारी इस सफर में सभ्यता के हर मुकाम पर
मैं मंजिल नहीं, आकुल-व्याकुल, थके प्राण का प्रस्थान हूँ

वह मुहब्बत एक शब्द है उम्दा किताबों का बड़ा प्यारा
उन उम्दा किताबों के पन्नों का दुख पगा छोटा गान हूँ

सच तू न माने या न माने, दुनिया को कोई खबर नहीं
और बाकी बातों का क्या, अभी बंद कोयला खदान हूँ

सारी जिंदगी पहाड़ों में गुजरी हो जिसकी, मैं उसकी
आँखों में ठिठकी-सी खामोशी की हाँफती हुई ढलान हूँ

अपनी झुर्रियों से कोई शिकायत क्या करे जो कोई अब
मैं तो, उन हजारों रुसवाइयों का, ढह चुका दालान हूँ

सच, जिनका दावा है कि कभी नजदीक हुए नहीं उनके
मैं उनके ही दूर हो जाने के दुख का इकबालिया बयान हूँ

अख़बारों में सुर्खियां

अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए लेखक और क्या-क्या करते रहे हैं!!!
गहन है यह आत्मनिरीक्षण की कठिन घड़ी!
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डॉ. नामवर सिंह का यह कहना विचारणीय है कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि लेखक क्यों पुरस्कार लौट रहे हैं। अगर उन्हें सत्ता से विरोध है तो साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिए, क्योंकि अकादमी तो स्वायत संस्था है और इसका अध्यक्ष निर्वाचित होता है। डॉ. नामवर सिंह हिंदी आलोचना के जीवित शिखर पुरुष हैं। उनके औपचारिक-अनौपचारिक विद्यार्थियों से हिंदी संसार समृद्ध और आत्म-सम्मानित है। वे वृद्ध हैं, भोले तो नहीं हैं कि पुरस्कार लौटाने को लेकर जो हो रहा है वे इसके कारण को समझ न पा रहे हों। तो क्या डॉ. नामवर सिंह जानबूझकर अर्द्ध-सत्य कह रहे हैं? यह सवाल तो है, हालाँकि, उनकी व्यथा जायज है। पुरस्कार लौटानेवाले लेखक, मैं हिंदी लेखक की बात कर रहा, को चाहिए कि पुरस्कार पाने की प्रक्रिया और पद्धति का भी खुलासा करें। डॉ. नामवर सिंह से बेहतर किसे मालूम है कि कैसे पुरस्कार लिये-दिये जाते रहे हैं। इन पुरस्कारों के चक्कर में हिंदी साहित्य का बड़ा अहित हुआ है। पुरस्कार लौटानेवाले हिंदी लेखकों को चाहिए कि कुछ खुलासा भी करें। इसी पुरस्कार ने साहित्य को कला से क्रीड़ा में बदल दिया। रही अकादमी के स्वायत संस्था होने और इसके अध्यक्ष के निर्वाचित होने की बात तो इस पर क्या कहा जाये! देश की जनता और हिंदी का पाठक अब तक 'निर्वाचन की प्रक्रिया की पवित्रता' से अच्छी तरह न सिर्फ अवगत है बल्कि शिकार भी है। और 'स्वायत'! स्वायत की समझ ने तो बहुत गड़बड़झाला किया है। प्रेमचंद की कहानी ‘मुक्ति-मार्ग’ से एक संदर्भ :
बुद्धू ने कहा - ‘‘तुम्हारी ऊख में आग मैंने लगायी थी।’’
झींगुर ने विनोद के भाव से कहा - ‘‘जानता हूँ।’’
थोड़ी देर के बाद झींगुर बोला - ‘‘बछिया मैंने ही बाँधी थी, और हरिहर ने उसे कुछ खिला दिया था।’’
बुद्धू ने भी वैसे ही भाव से कहा - ‘‘जानता हूँ।’’
फिर दोनों सो गए।

अभी भी वक्त है,  झींगुर और बुद्धू की तरह साहित्यकार साहित्यिक लाभ के लिए किये गये अपनी गैर साहित्यिक गतिविधियों का खुलासा करें। इस से बहुत भला होगा और पुरस्कार लौटाने की बात समझ में आये या न आये यह जरूर समझ में आ सकता है कि क्यों प्रगतिशील साहित्यिक सृजनशीलता सत्ता से समर्थित और पुरस्कृत होती रही लेकिन समाज में सम्मानित और स्वीकृत नहीं हो पाई; समाज से वे मूल्य भी तेजी से असम्मानित और अस्वीकृत होते गये जिसके लिए साहित्य संघर्षशील था। आखिर क्यों और कैसे विद्यालय / विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से बाहर पाठकों का इतना बड़ा अभाव हो गया। बहुत कठिन दौर है! आत्मस्वीकार का साहस भी कोई कम बड़ा साहस नहीं होता है। लेकिन उन से क्या उम्मीद करें जिनका आलोचनात्मक विवेक अब यह कहता है कि लेखक अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए इस तरह पुरस्कार लौटा रहे हैं। कुछ लोग इस से सहमत भी होंगे लेकिन इसका जवाब तो फिर भी उन्हें देना ही होगा कि तब क्या लेखक अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए इस पुरस्कार के पीछे तबाह होते रहे हैं! अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए लेखक और क्या-क्या करते रहे हैं!!! गहन है यह आत्मनिरीक्षण की कठिन घड़ी!

लौटाने वाले को पाने की प्रक्रिया की भीतरी बात खोलनी चाहिए। मन सच्चा है तो प्रपंच से मुक्त होने के लिए एक कन्फेशन मददगार साबित हो सकता है। इस प्रपंच ने हिंदी साहित्य का बड़ा अहित किया है। इसलिए, इसे सिर्फ हिंदी के संदर्भ में पढ़ा जाये।

सलाम लेकिन जिसे पाने के लिए इतना परेशान था कि हवा ही बिगाड़ दी
पूछूँ कि उसे लौटाकर कितना सुकून मिल रहा विवेक कि क्यों हवा बिगाड़ दी

गुलामी और आजादी

गुलामी और संबंध का अंतर
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बँधे होने और जुड़े होने में अंतर है। यह अंतर बहुत आसानी से दिखता नहीं है। बल्कि इनमें अंतर ही नहीं विरोध भी होता है। पूरी प्रकृति, सृष्टि एक अपर से जुड़ी हुई है या फिर जुड़ने का विकास है। इसे हम अक्सर गलती से इस तरह समझने लगते हैं कि पूरी प्रकृति, सृष्टि एक दूसरे से बँधी हुई है या फिर बँधने का विकास है। प्रेम में हम जुड़ते हैं, बँधते नहीं हैं! जुड़ाव जब बंधन में बदलने लगता है तब मन में बहुत उपद्रव मचता है। अपर्याप्त किंतु उपयुक्त उदाहरण! प्रेम जुड़ाव है, विवाह बंधन। इसलिए प्रेम जब विवाह में बदलता है तो जो असुविधा उत्पन्न होती है वह असल में, जुड़ाव के बंधन में बदलते जाने से पैदा होती है। जो लोग जुड़ाव को बंधन में बदलने को रोकने में जाने-अनजाने जितना कामयाब रहते हैं, वे प्रेम को बचाने में उतना ही कामयाब होते हैं। बंधन स्थिति है, जुड़ाव गति है! जीवन स्थिति में गति और गति में स्थिति से संभव होता है। पूरी प्रकृति गतिशील भी है और स्थितिशील भी; चर (variables) और (constants), जड़ और जंगम से समृद्ध है। बँधे होने और जुड़े होने का अंतर साफ न हो तो गुलामी और संबंध का अंतर साफ नहीं रहता है, हम भयानक मानसिक उपद्रव के शिकार होते रहते हैं।

पशु होने का लक्षण
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हम अपनी भाषा को कितना कम जानते हैं! पशु का अर्थ क्या होता है! हम किसी के गलत व्यवहार को पाश्विक कहते हैं। समझदार आदमी तुरत आपत्ति करता है। पशु ऐसा आचरण नहीं करता, फिर इसे पाश्विक क्यों कह रहे हैं? हम शर्मिंदा होते हैं, कम-से-कम निरुत्तर, कि सही तो कह रहा है! इस तरह से हमारा शर्मिंदा और निरुत्तर होना हमारे अज्ञान से जुड़ा होता है। हम नहीं जानते कि प्राथमिक रूप में पशु किसे कहते हैं! हम मनुष्येतर बड़े प्राणी को पशु समझते हैं! पाश का अर्थ होता है, बंधन। जो बंधन को बिना किसी प्रतिवाद के सहज भाव से स्वीकार और अंगीकार कर लेने का अभ्यासी है, वही पशु है। खूँटा से बँधा! बँधा यानी आगे बढ़ने से रुका हुआ ▬ बद्ध। पशु की तरह का आचरण का अर्थ, मनुष्येतर बड़े प्राणी की तरह का आचरण नहीं होता है। पशु की तरह का आचरण अर्थात ऐसा आचरण जो व्यक्ति, समुदाय, समाज और मानवीय सभ्यता को आगे बढ़ने से रोकता है, गुलामी में डालनेवाला होता है। गुलामी में आनंद खोजना पशु होने का लक्षण है।

चपेट और लपेट से मुक्त
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औपनिवेशिकता के प्रभाव बहुत सूक्ष्म होते हैं, खास कर भाषा के मामले में। भारत में एक स्तर के लोग जो अंगरेजी में कही बात को अंगरेजी में समझ लेते हैं वे औपनिवेशिक होते हैं। वे लोग जो अपनी भाषा में कही बात को सिर्फ अपनी भाषा में समझते हैं वे औपनिवेशिकता से परे (beyond) होते हैं। वे लोग जो अपनी भाषा  वे सभी जो अपनी भाषा में कही बात को अंगरेजी में और अंगरेजी में कही बात को अपनी भाषा में समझते हैं, औपनिवेशिक मानसिकता की गहरी चपेट में होते हैं। देखिये न मुझे परे के साथ ही beyond कहना पड़ा, समझ सकते हैं कि मैं औपनिवेशिकता की कितनी गहरी चपेट में हूँ! जिन्हें इस तरह का प्रसंग नहीं व्यापता है, वे औपनिवेशिक मानसिकता की चपेट में ही नहीं, लपेट में भी होते हैं! विकास का मतलब औपनिवेशिक मानसिकता की चपेट और लपेट से मुक्त होना है!