स्थिति भयावह

स्थिति भयावह है
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जब इतने बड़े-बड़े लोगों, मैडल अलंकृत लोगों की यह स्थिति है तो यह पुरस्कार वह पुरस्कार, यह सम्मान वह सम्मान के बल पर अपने विशिष्ट होने के बोझ से लदे-फदे लोगों का क्या होगा। अमर्त्य सेन जैसे लोगों की रहवास की स्थिति से अवगत ही होंगे, नहीं है तो यह मसला आप के लिए विचारणीय नहीं भी हो सकता है। अभी Hitendra Patel जी की पोस्ट से पता चला कि राहुल सांकृत्यायन के पुत्र भी अपने फ्लैट के मामले में परेशानी में है। वे वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में आते होंगे। वरिष्ठ नागरिकों की कानूनी सहूलियतों की इस मामले में क्या उपलब्धता है, पता नहीं। अदालत से राहत मिल सकती है, पता नहीं। एक पर कोई अन्याय होता है अन्य खामोश रहता है। सभी अकेले हो गए हैं। असंगठित जनता संगठित शक्ति के सामने लाचार। संगठनों की एक अन्य दिक्कत भी है। जहाँ संगठन है, वहाँ शक्ति है और जहाँ शक्ति है वहाँ अन्याय पक्षपात है। आदमी क्या करे। हमारे नागरिक बोध की हालत यह है कि हम अत्याचार को नागरिक पर हुए अत्याचार के रूप में नहीं पढ़ते बल्कि जाति समुदाय धर्म लिंग वर्ग राज्य क्षेत्र हैसियत से जोड़कर पढ़ते हैं। कहाँ है नागरिक जमात! अन्ना आंदोलन के समय ही मैंने लिखा था कि यह आंदोलन राजनीतिक दल के रूप में बदल जायेगा। बुरी बात यह कि नागरिक जमात पब्लिक स्फियर में पब्लिक स्टंट के लिए जगह बन जायेगी। नागरिक जमात अपनी विश्वसनीयता और उद्देश्य से अंतहीन भटकाव में पड़ जायेगा। नागरिक जमात के नाम पर खाप पंचायतों की सक्रियता देखी जा सकेगी। खाप रहित नागरिकों का क्या होगा! खाप जैसे भी हों, दिख तो वही रहे हैं। एक पोस्ट लिखकर मैं भी अपने नागरिक दायित्व के पूरा होने के आनंद में डूब जाऊँगा, एक लाइक देकर या दिये बिना आप भी नागरिक कर्तव्य के सर्वोच्च निर्वाह के सुखसागर में ऊबडूब की मानसिक सुविधा का भोग करने में व्यस्त हो जायेंगे। क्या यही सच है कि कोई एक डूबेगा तो अन्य व्यस्त रहेंगे। पता नहीं कैसे कुमति लग गई....

पछतावा 3

#पछतावाकोलख्यान
आछे दिन पाछे गये, हरि सो किया ना हेत।
अब पछितावा क्या करै, चिड़िया चुगि गयी खेत।।
(साभार : कबीरदास)
हरि से हेत न करने के मामले पर फिर कभी। अभी चिड़िया के खेत चुगने पर। चिड़िया खेत कब चुगती है! चिड़िया के खेत चुगने का पता कब चलता है!
किसान बीज बोता है। बीज बोकर किसान निश्चिंत हो जाता है, रखवारी नहीं करता है। इस अवसर का लाभ उठाकर चिड़िया बीज चुग लेती है। किसान बीज के पौधा बनने और फलप्रसू होने का इंतजार करता है। चुग लिये गये बीज पौधे में विकसित नहीं होता है, फलप्रसू होने की तो बात ही क्या! फल नहीं मिलता है। पछतावा बचता है। हरि का खेत हरि की चिड़िया। किसान हरि से हेत कर बोये गये सारे बीज को बचा ले जाए भला यह कैसे संभव है।
बोये गये कुछ बीज को चिड़िया चुगेगी ही। अछताने-पछताने के बाद संतोष की बारी आती है। मलूकदास तो कह गये हैं अजगर चाकरी नहीं करता, चिड़िया पंछी भी काम नहीं करती है लेकिन राम तो सब के दाता हैं। इसलिए संतोष धन। तुलसीदास तो कह गये हैं  —
गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान।
जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥
जब सब धन धूरि समान हो जाए तो फिर कहाँ पछतावा! संतोष धन यों ही हाथ नहीं आता है। पछतावा की लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसलिए पछतावा जरूरी है!

पछतावा 2

#पछतावाकोलख्यान
आछे दिन पाछे गये, हरि सो किया ना हेत।
अब पछितावा क्या करै, चिड़िया चुगि गयी खेत।।
(साभार : कबीरदास)
हरि से हेत न करने के मामले पर फिर कभी। अभी चिड़िया के खेत चुगने पर। चिड़िया खेत कब चुगती है! चिड़िया के खेत चुगने का पता कब चलता है!
किसान बीज बोता है। बीज बोकर किसान निश्चिंत हो जाता है, रखवारी नहीं करता है। इस अवसर का लाभ उठाकर चिड़िया बीज चुग लेती है। किसान बीज के पौधा बनने और फलप्रसू होने का इंतजार करता है। चुग लिये गये बीज पौधे में विकसित नहीं होता है, फलप्रसू होने की तो बात ही क्या! फल नहीं मिलता है। पछतावा बचता है। हरि का खेत हरि की चिड़िया। किसान हरि से हेत कर बोये गये सारे बीज को बचा ले जाए भला यह कैसे संभव है।
बोये गये कुछ बीज को चिड़िया चुगेगी ही। अछताने-पछताने के बाद संतोष की बारी आती है। मलूकदास तो कह गये हैं अजगर चाकरी नहीं करता, चिड़िया पंछी भी काम नहीं करती है लेकिन राम तो सब के दाता हैं। इसलिए संतोष धन। तुलसीदास तो कह गये हैं  —
गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान।
जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥
जब सब धन धूरि समान हो जाए तो फिर कहाँ पछतावा! संतोष धन यों ही हाथ नहीं आता है। पछतावा की लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसलिए पछतावा जरूरी है!

फेसबुक जवाब मुक्तिबोध

Sheshnath Prasad
आप मेरी पोस्ट पर कुछ भी, हाँ कुछ भी लिखकर कोई गलती नहीं करते हैं। मुझे यह अच्छा लगता है। और आप से अनुरोध है कि आप जरूर लिखें। खेद व्यक्त करने का तो कोई सवाल ही नहीं है। और हाँ, यदि आप का मन मेरे जवाब या मेरी टिप्पणी से खिन्न होता है तो मुझे इसके लिए खेद होना चाहिए और है।
आप ने कई सवाल उठाये हैं और वे महत्वपूर्ण हैं। सभी सवालों का जवाब यहाँ संभव नहीं है, कुछ का जवाब देना जरूरी है। मैं भले ही जवाब की तरह लिखूं, आप से अनुरोध है कि इन सवालों पर मेरे जवाबों को मेरे पक्ष की तरह पढ़ने की कृपा करें, सिर्फ अपने सवालों के जवाब की तरह नहीं। संभव होगा तो इन सवालों को स्वतंत्र पोस्ट के रूप में डालने की कोशिश करूंगा।
जो बात वर्ग या समूह के लिए कही जाती है वह उस वर्ग या समूह के किसी सदस्य के ऊपर तत्काल लागू नहीं होती है। वर्ग या समूह पर कही गई बात उस वर्ग या समूह की प्रजाति पर लागू होती है। जैसे, सफेद शेर विलुप्त हो रहे हैं यह किसी व्यक्ति शेर पर लागू नहीं हो सकती है। किसी एक शेर को सामने खड़ा कर उसके विलुप्त होने की परीक्षा नहीं की जा सकती है और न इस आधार पर कोई निर्णय किया जा सकता है। उसी तरह व्यक्ति पर कही गई बात को उसके पूरे वर्ग पर लागू किया जा सकता है। जैसे, यह या कुछ शेर लंगड़ा है तो यह नहीं कहा जा सकता कि शेर लंगड़ा होता है। अधिक के लिए इंपरेटिव नॉरमेटिव या आगमन निगमन पद्धतियों का संदर्भ आप ग्रहण कर सकते हैं। 
बौद्धिक वर्ग को बौद्धिक वर्ग के सदस्यों पर लागू करना ठीक है या नहीं, निर्णय आप करें।
बौद्धिक वर्ग कैसे बनता है या किन से बनता है! क्या इसमें सिर्फ भौतिक धरातल पर जीवित लोग ही शामिल होते हैं यह एग्रीगेट होता है या एवरेज अर्थात सकल या औसत होता है यह एक जटिल प्रक्रिया है। इस पर यहाँ अभी लिखना संभव नहीं है मेरे लिए। बौद्धिक कौन होता है! सभ्यता का मूल संघर्ष सत्ता संघर्ष होता है। मनुष्य के मनुष्य बनने में अन्य मनोभावों के इतर, बुद्धि का बड़ा और प्राथमिक योगदान है। बुद्धि के अनुपात में सत्ता का संदर्भ समझा जा सकता है। आत्म आकलित बुद्धि के अनुपात में अपेक्षित और अर्जित सत्ता का असंतुलन सत्ता संघर्ष के पहले पायदान यानी बौद्धिक संघर्ष से जोड़ देता है। संक्षेप में, प्रसंगतः, यह कहना जरूरी है कि बौद्धिक वर्ग का कोई नेता नहीं होता या बौद्धिक वर्ग का सदस्य किसी का अनुयायी नहीं होता है। बौद्धिक संघर्ष का एक रास्ता राजनीतिक संघर्ष की तरफ जाता है और राजनीतिक संघर्ष में बदल जाता है। इसी तरह से और तरह के संघर्षों में भी बौद्धिक संघर्ष बदलता रहता है।
गाँधी या कृपलानी नेहरु आदि राजनीतिक वर्ग में माने जाने चाहिए, बौद्धिक वर्ग में नहीं। उन्हें कौन फीडबैक देता था, नहीं देता था कि मुझे नहीं मालूम, लेकिन वे क्रीत दास नहीं थे।
कविता क्या है? यह कैसे बनती है? इसे किस तरह पढ़ना चाहिए? यह अलग से विवेचनीय है। इसका कोई अंतिम उत्तर नहीं हो सकता, मेरे पास तो नहीं हो सकता। कविता किसी व्यक्ति पाठक के द्वारा पढ़ भले ली जाती हो, कुछ सीमित समय में, उतरती है व्यापक समय के फलक से गुजरते हुए। कवि होना और बात है वचन प्रवीण होना और बात है, तुलसीदास कह गये हैं। बहुत लंबा हो गया। वेतनभोगी भी बौद्धिक वर्ग में शामिल हो और अपने वेतनभोग के अवसरों को बचाते हुए ही उसकी बुद्धि खिले तो क्या कहेंगे। आज के बौद्धिक परिसर को देखते हुए ही इन पंक्तियों को मैं ने यहाँ साभार डाला है। मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक का स्मरण कराता हूँ। एक बात और जबलपुर से एक स्तर पर ओशो का भी जुड़ाव था और मुक्तिबोध का भी। भाई, बाकी अन्यत्र।

पछतावा 1

अंत तो प्रारंभ का उपहार है। अब अंत का प्रारंभ हो चुका है। अंत के पहले जीवन को समझने की कोशिश करना जरूरी लगता है। लाखों साल के मानव काल खंड के ऐसे समय में सौभाग्य से मेरे जीवन का दौर तब शुरू हुआ, शायद अंत भी, जब मानव बुद्धिमत्ता अपने चरम पर है। हालांकि इस दौर में भी व्यक्ति स्तर पर हर किसी की बुद्धिमत्ता समान नहीं है। इसके बाद लगता है मानव बुद्धिमत्ता का दौर ढलान पर होगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता का दौर शुरू होगा। शुभ होगा! अशुभ होगा! कहना मुश्किल है। मनुष्य की आबादी के छोटे हिस्से की बुद्धिमत्ता बनी रहेगी। धीरे-धीरे आबादी का यह छोटा-सा हिस्सा छोटा, और छोटा, और छोटा होता जायेगा। कितना छोटा! मेरे लिए कहना मुश्किल है। 
बेहतर है, जीवन को विभिन्न दौरों में समझने की कोशिश की जाए। पहला दौर सहज बुद्धि और स्वप्न का होता है।
 अगला दौर स्वप्न को वास्तविक करने की योजनाओं की रूपरेखा बनाने और शक्ति संयोजन का होता है। न तो शक्ति संयोजन की योजना इच्छित तरीके से पूरी तरह से कामयाब होती है, न तो अंततः बनाई गई रूपरेखा के अनुसार जीवनयापन होता है।
अगला दौर सपनों के बाहर जीवन के वास्तविक आधार को समझने और तदनुरूप खुद को बदलने या समायोजित करने का होता है। पंख समेटने का दौर!
पंखों का समेटा जाना और पंखों का झड़ना अपने साथ पछतावा का दौर लेकर आता है। 
जिसके सामान्य जीवन में पछतावा का कोई कारण नहीं होता है वह, विरल अपवाद को छोड़ दें तो, बहुत बड़ा झुठ्ठा होता है। इतना बड़ा झुठ्ठा कि अपनी आत्मा को भी, अपने झूठ को सच मानने के लिए राजी कर लेता है। अपनी आत्मा के सच को अपने दिमाग के झूठ में फाँस लेना क्या संभव हो सकता है? पता नहीं। मुझ जैसे लोगों के लिए यह संभव नहीं है। इसलिए, मैं अपवाद नहीं हूँ। विस्तार से लिखने और समय-समय पर साझा करने का मन है। डर बस इतना ही है कि कभी तो मन की कर नहीं पाया। 

खराऊँ

चित्त चंचल क्यों
जो नहीं रहा खराऊँ
——–
पहले उदास फिर उतप्त मन
पूछा माहौल बड़ा भरकाऊ है
हमें शीघ्र अब यह बतलाओ
मेरा कहाँ खराऊँ है!

किस अजायबघर में रखा
किस को बेचा
वह तो नहीं बिकाऊ है!

सब चुप
बोले अति गंभीर सभासद
शांत क्रोधं शांत क्षोभं
शांत शांत शांत
सब सांतम!

वक्त बदल गया
स्वर्ण दंड में बदल खराऊँ
वह देखो जो दमक रहा है
बदलना बिकना नहीं है!

धीर ललित उदात्त!
चित्त चंचल क्यों! 
जो नहीं रहा खराऊँ!

घोर दरवाजा

चोर दरबाजा
—––
पैंट सिलवाने दरजी के पास गया
पहली बार पता चला
होता है पैंट में एक चोर पॉकेट
मैं चोर नहीं था
फिर भी मन में
रहता था ग्लानि बोध कि
लिये फिरता हूँ चोर पॉकेट। 

दरजी ने बताया था
चोरों से बचाव करता है —
चोर पॉकेट।

शुरू में मन नहीं मानता था
फिर धीरे धीरे सहज हो गया।

होता है एक चोर दरवाजा
घर में भी बचाव के लिए ही।

होता है इतिहास में भी
चोर दरबाजा
अपने ही कारणों से।

चोर दरवाजा का इस्तेमाल
 करने लगे जब मालिक बार-बार
तोरण द्वार बन जाता है
चोर दरबाजा।

तोरण द्वार पर खुदा रहता है
कोई मनजीत आदर्श वाक्य
जैसे......!

जानकार

जानकार
🙏🙏🙏
जानकार जानता है
बाकी कोई कुछ नहीं जानता है

अधकचरा जाननेवाले
सब जानते हैं
जानकारी का काम
इससे चल जाता है

विद्यालय विश्वविद्यालय
की अवमानना नहीं होती है
वे जानकारी बांटते रहते हैं

अदालतें
जानकारी खोलती रहती है
समाज में जानकारी
खौलती रहती है

यों ही नहीं चलती रहती है
यों ही नहीं गुजरती रहती है
पवित्र व्यवस्था

यों ही नहीं होते हैं
पावन कार्य

जानकार जानता है
जानकारी
किस दरवाजे से
आती है और जाती है

आप से है प्रार्थना, बस आप से है प्रार्थना

आप से है प्रार्थना, बस आप से है प्रार्थना

 

इसलिए तो हे महामहिम

इसीलिए हे महामहिम

 

पता नहीं किस चीज पर टिकी हुई है पृथ्वी

इस सवाल पर तरह-तरह की कहानी है

न पृथ्वी का मतलब मालूम है मुझे

न टिके होने के बारे में ठीक-ठीक कुछ पता है

मालूम इतना भर है कि कहानी है कई

 

कोई आँख नचाकर कहता है

कोई तर्जनी तानकर कहता है

कोई अंगूठा दिखाकर कहता है

कोई छाती फुलाकर कहता है

कोई भिंची हुई मुट्ठी उछाल कहता है

कोई कहकर कंधा झुका लेता है

कोई खुशामद में कहता है

कोई आमद की उम्मीद में कहता है

कोई एक बाँह उठा कर कहता है

कोई दोनों बाँह उठकर कहता है

कोई झंडा लहराकर कहता है

कोई डंडा हिलाकर कहता है

 

कहाँ तक कहूँ, मुख्तसर यह कि

कहने की जितनी वजहें

उतनी तरह से कहता है, कहानी

मेरी समझ में कुछ नहीं आता है

 

इसलिए तो हे महामहिम

इसीलिए हे महामहिम

 

है जो भी शक्ति-पीठ

उन्हें होना ही चाहिए न्याय-पीठ

मगर ऐसा होता नहीं है

 

इसलिए तो हे महामहिम

इसीलिए हे महामहिम

न्याय-पीठ तो है ही न्याय-पीठ

होनी चाहिए आपके पास भी कोई कहानी

काठुआए हुए काठघर की काठ-हथौड़ी के पास

 

कहानी कि किस चीज पर टिकी हुई है पृथ्वी

यह भी कि क्या है पृथ्वी और क्या है टिकना

इसलिए तो हे महामहिम

इसीलिए हे महामहिम

आप से है प्रार्थना, बस आप से है प्रार्थना

नवाक/ न्यू-स्पीक

नवाक / न्यू-स्पीक

जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास 1984 (NINETY EIGHTYFOUR) 1949 में प्रकाशित हुआ। राजकमल गौरवग्रंथ माला: कालजयी साहित्य की विशिष्ट प्रस्तुति के अंतर्गत इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। अभिषेक श्रीवास्तव ने इसका हिंदी अनुवाद किया है। हिंदी भाषा समाज की खासियत को ध्यान में रखते हुए बहुत बढ़िया अनुवाद संभव किया है अभिषेक श्रीवास्तव ने। इसमें न्यू-स्पीक के बारे में, उसकी विकासमान वैयाकरणिक कोटियों के बारे में बताया गया है।

यह माना गया है कि 2050 तक अंग्रेजी भाषा पूरी तरह बदल जायेगी, न्यू-स्पीक में। इतनी बदल जायेगी कि पुराने सारे पाठ समझ एवं प्रयोग से बाहर हो जायेंगे। क्या इस तरह सिर्फ अंग्रेजी भाषा बदलेगी! मेरी उत्सुकता भारतीय भाषाओं को लेकर है। हिंदी के लिए खासकर। हिंदी के लिए खासकर इसलिए कि हिंदी मेरे सर्वाधिक इस्तेमाल की भाषा है। क्या हिंदी (अन्य भी) नवाक (नव वाक) में बदल जायेगी!

टू द प्वाइंट होने की माँग बढ़ रही है। पावर प्वाइंट्स, कथ्य के बुलेट फॉर्म्स अधिक सहजता से स्वीकार्य हो रहे हैं। संवाद का कारगर माध्यम शब्द से अधिक चित्र बन रहे हैं। बाइनरी युग आ गया है या तेजी से आता जा रहा है। ग्रे एरियातेजी से छोटा होता जा रहा है। हाँ या ना, दोस्त या दुश्मन, बीच की कोई स्थिति नहीं।

सप्रसंग व्याख्या और विस्तृत विवरण, गये जमाने की चीज है। आज दृश्य का विस्तार हो रहा है। श्रव्य तेजी से संकुचित हो रहा है। टेक्स्ट जितनी पढ़ी जा रही है, उससे कई गुणा चित्र पढ़े जा रहे हैं। दर्शक की क्षमता एवं सुविधा के आधार पर चित्र मनोबांछित टेक्स्ट बनकर हासिल हो रहा है। सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो संज्ञा का (डिजिटेलेजाइशन) संख्या में बदलना शुरू हो गया है। कुछ मामले में पहचान नाम से नहीं नंबर से हो रहा है। संज्ञा के साथ पहचान के बहुत सारे संदर्भ लिपटे रहते हैं, जैसे जाति, धर्म, लिंग आदि। विशिष्ट संख्या (युनिक नंबर) नाम का स्थान बड़ी आसानी और अधिक विश्वसनीयता से ले रही है। आगे क्या होनेवाला है!

-       जारी.....  

पुतला और उसकी हँसी

पुतला और उसकी हँसी

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एक कमरा है। हर तरफ से बंद। हर तरफ से खुला। यह समझना मुश्किल है। हर तरफ से बंद और हर तरफ से खुला, एक साथ कैसे संभव है! यह आधुनिक तकनीक है। महाभारत में इसकी चर्चा मिलती है। आधुनिक तकनीक से हमारे समय में यह संभव हुआ है। द्वार और दीवार का फर्क मिट गया है। दूर से देखने पर द्वार ही द्वार नजर आते हैं। कहीं कोई दीवार नहीं। पास आने पर पता चलता है, दीवार ही दीवार है। कहीं कोई द्वार नहीं। तो असल में, यह क्या है! यह दीवार भी है। यह द्वार भी है। बस पता नहीं चलता कहाँ दीवार है, कहाँ द्वार है। एक आदमी को पता है। वह आगंतुक है। आगंतुक कमरा में घुस जाता है। उसके पीछे आनेवाले को पता ही नहीं चलता, वह आदमी गया कहाँ। वह आदमी कैसे आगंतुक में बदल गया! बाकी कैसे नागंतुक बनकर बाहर रह गये! नागंतुक कमरे के अंदर जा नहीं सकते। बाहर आगंतुक दिखाई नहीं देता।

कमरा सजा-धजा है। एक आदमी दिखाई देता है। पुतला भी हो सकता है। वह आदमी है या पुतला, पता नहीं चलता है। हर चीज आँख के इशारे पर। हाथ की पहुँच में। उसकी पीठ दिखाई देती है। पीठ पर अंकित बड़ी-सी शक्ति-मुद्रा साफ-साफ दिखती है। आगंतुक न समझ आनेवाली मुख ध्वनि से शक्ति-मुद्रा को संबोधित करता है। कमरा में बहुत सारे पुतले प्रकट होते हैं। पुतला में कोई हलचल नहीं। आगंतुक फिर कुछ बुदबुदाता है। इस बार शक्ति-मुद्रा पीछे और मुख-मुद्रा सामने। साफ होता है। वह आदमी है। कमराधिपति है। आगंतुक कमराधिपति को अपनी भाषा में संबोधित करता है। कमराधिपति सुनकर मुसकुराता है। कमरे के सारे पुतले में जान आ जाती है। हरकतें होने लगती हैं। कमराधिपति अट्टहास करता है। पुतलों का दिव्य चक्षु-नृत्य आरंभ हो जाता है। अब कमराधिपति की मुख-मुद्रा पीछे, शक्ति-मुद्रा आगंतुक के सामने।

बाहर खड़े लोग चकित। कुलिश-दृष्टि। धुआँ। लपट। चीख। पुकार। हाहाकार। दलन-वृष्टि।

कृपा-दृष्टि। पुष्प-वृष्टि। अन्न-वृष्टि। धन-वृष्टि। मदन-वृष्टि।

आगंतुक कमरा से बाहर आ गया है। बाहर का दृश्य देख वह जरा भी चकित नहीं है। भ्रमित नहीं है। नागंतुकों की ओर बढ़ता है। वह अपनी अंगुली नागंतुकों की ठोंठ पर रखता है। इशारा! निर्देश! आदेश! चुप रहो। सब चुप रहो।

आगंतुक शंकित है। कमराधिपति कितने दिन तक हँसते रहेंगे। कितने दिन तक अट्टहास लगाते रहेंगे। कमराधिपति के चेहरे पर थकान छा रही है। कमराधिपति की थकान रोनी-मुद्रा में आ गयी तो क्या होगा? मुस्कान सिसकियों में बदल सकती है क्या? अट्टहास रुलाई में बदल सकती है क्या? कृपा-दृष्टि जाये भाँड़ में।   ऐसे में प्रकट-अप्रकट पुतलों का क्या होगा? दिव्य चक्षु-नृत्य का क्या होगा? कुलिश-दृष्टि का क्या होगा?