स्वागत है 2018 हम अकेले हैं!



स्वागत है 2018 हम अकेले हैं!
==================
आना-जाना तो लगा रहता है। यह साल 2017 अतीत और इतिहास में समा जाने के कगार पर है। नया साल 2018 हमारी जिंदगी में बस शामिल होने ही वाला है। जिंदगी वक्त का हम सफर है। वक्त के साथ बहुत सारे हमसफर मिलते और बिछड़ते चलते हैं। जिंदगी चलती रहती है। जिंदगी के सफर में हम ढेर सारी चीजों, प्रसंगों, व्यक्तियों, संदर्भों आदि को हम साथ लिये चलते हैं। जिन्हें साथ लिए चलते हैं उनका साल भर फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं। मैं कुछ गलत कह गया। इसे इस तरह से कहना मुनासिब होगा कि जिनका हम साल भर फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं, लगता है कि हम उन्हें साथ लिये चल रहे हैं। ओह शायद फिर गलत कह गया। सच तो यह है कि साल भर हम जिन्हें फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं, उन्हें बस वहीं छोड़ देते हैं कि कोई उन्हें साथ ले जाना चाहो तो ले जाये या जो हो मैं तो चला। शायद मैं कह नहीं पा रहा और आप तय नहीं कर पा रहे हैं कि मेरी बात से इत्तिफाक रखें या फिर न रखें! उदाहरण के लिये, अगर हम गाँधी या भगत सिंह, दोनों को दो ध्रुव जैसा माना जाता है, इसलिए या कहा, नहीं कहना चाहिए। गाँधी और भगत सिंह कहना चाहिए। अपने आप से ही हमें पूछना चाहिए कि यदि गाँधी और भगत सिंह को अपने सफर में हम साथ रखते हैं तो किसी व्यक्ति या समुदाय को अत्याचारित या अपमानित होते हुए देखकर हमें यह क्यों याद नहीं आता है कि यह भी उन्हीं लोगों में से एक है जिनके मान-सम्मान और हितों की हिफाजत के लिए गाँधी और भगत सिंह ने अपनी जान तक की परवाह नहीं की। जिन गाँधी और भगत सिंह को हम अपने साथ लिए चल रहे हैं, क्या उन्हें हमने अभिव्यक्ति की आजादी नहीं दे रखी है! वे हमें कभी टोकते हैं या हम उन से, कभी-कभी ही सही, बातचीत भी करते हैं! नहीं करते हैं। आजकल तो तस्वीरें भी बोलती हैं! शायद हम उन्हें अपने साथ नहीं रखते।
क्षमा करें विद्यापति ठाकुर, सहज सुमति पाने की आपकी ललक हमारे दिल कभी पैदा ही नहीं हो पाई! क्षमा करें कबीर, हरि को भजनेवाले जातपात पूछने में किसी से पीछे नहीं रहे, हरि को भजनेवाले हरि के नहीं रहे। क्षमा करें तुलसीदास, अब छोटन नहीं करते अपराध, बड़न करते हैं दिन रात। क्षमा करें प्रेमचंद, हमें धनिया का दुख नहीं दिखता, न अमीना का दुख दिखता है न खाला का। क्षमा करें गालिब, किसी के वायदे पर यकीन नहीं था, इतनी खुशी नहीं मिली कि खुशी से मर जाता, इसलिए, हाँ इसलिए जिंदा हूँ। क्षमा करें कविगुरु रवि ठाकुर, चित्त भय शून्य और माथा ऊँचा नहीं है। क्षमा करें भिखारी ठाकुर, हम बेटबेचबा समाज में खुश हैं। क्षमा करें निराला, है जिधर अन्याय है उधर शक्ति और हमें शक्ति से कोई गुरेज नहीं। क्षमा करें जयशंकर प्रसाद, अब अपने में ही सब कुछ भर, व्यक्ति विकास करेगा। क्षमा करें बाबा नागार्जुन, हम न तो बादल को घिरते देखते हैं और न कोई धुआँ खोजते हैं। क्षमा करें दिनकर, जनता सिंहासन को खाली करने की बात नहीं सोचती, अपनी थाली के खाली होते चले जाने को रोती है। यह साल 2017 भी नया बनकर ही आया था, अब पुराना बनकर जा रहा है। नया साल 2018 आ रहा है। स्वागत है 2018 हम अकेले हैं। क्षमा करें अज्ञेय, यह सच है कि भोर का बावरा अहेरी, पहले बिछाता है आलोक की, लाल-लाल कनियाँ, पर जब खींचता है जाल को, बाँध लेता है सभी को साथः

भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथः
छोटी-छोटी चिड़ियाँ
मँझोले परेवे
बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले
डौल के बैडौल
उड़ने जहाज़
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली
उपयोग-सुंदरी
बेपनाह कायों कोः
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि
रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को
हरा देगी !

बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखे आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे
बावरे अहेरी

छंद! छंद क्या ? छंद क्यों?

छंद! छंद क्या ? छंद क्यों?
================
छंद को लेकर बहुत सारे भ्रम हैं। छंद क्या है और क्यों जरूरी है! इस पर सोचने की जरूरत है, हर किसी को। हर किसी को माने सिर्फ उसके लिए जरूरी नहीं जो कविता रचने के काम से जुड़ा हुआ है या जो कविता लिखता है। तो पहले समझते हैं कि छंद है क्या।

छंद के साथ एक और शब्द का प्रयोग होता है, छल का। छल-छंद! छंद का मूल अर्थ होता है, बंधन। दूहने के समय गाय लथार न मारने लगे, यानी पैर से चोट न पहुँचा दे इसलिए दूहने के पहले गाय की पिछली दोनों टाँगों को बाँध दिया जाता है। इसे छानना कहते हैं। यह छानना छंद से ही विकसित रूप-ध्वनि है। गाय से हम छल करते हैं। छल यह कि गाय को विश्वास दिलाते हैं कि उसका दूध उसका बच्चा पी रहा है। इस छल का एहसास होने पर गाय पैर चला सकती है। इस पैर चला देने के आशंकित आघात से बचने के लिए छानना जरूरी होता है। संक्षेप में, समझा जा सकता है कि छल के लिए छंद क्यों जरूरी है! कविता भी एक तरह से छल रचती है। सकारात्मक छल। अब अगर बिल्क्ल ही द्विपाशिक (BINARY) सोच के नहीं हैं तो नकार में छिपे सकार तथा सकार में छिपे नकार को आसानी से पहचान सकते हैं। तात्पर्य यह कि सारे छल नकारात्मक नहीं होते हैं, सकारात्मक भी होते हैं। तो यह कि कविता वाक के ढाँचागत रूप (STRUCTURAL FORM) के माध्यम से संवेगों के संचलन के साथ भावात्मक संप्रेषण के लिए सकारात्मक छल रचती है।

छंद में कविता का होना जरूरी नहीं है। कविता में छंद का होना जरूरी है। दिखनेवाले बंधन के साथ यानी छंद में बहुत सारी बातें कही जाती हैं, लेकिन वे कविता नहीं होती हैं। न दिखनेवाले बंधन के साथ यानी बिना छंद के बहुत सारी बातें होती हैं, लेकिन उनमें कविता होती है! बिना छंद के! बिना बंधन के! हर बंधन दिखे ही जाये जरूरी तो नहीं। जैसे गाय का रस्सी से बँधी होती है, यह दिखता है। हम जो गाय से बिना रस्सी के बंधे होते हैं, यह नहीं दिखता है।

काव्याभास और कविता में अंतर है। छंद कविता का आभास यानी काव्याभास रचने में सहायक होता है। आपका छंद एक बार काव्य का आभास रचने में सफल हो जाता है तो फिर उसमें कविता के लिए भी जगह बनने लगती है और पाठक को पीड़ाहीन (पीड़ा हीन, पीड़ारहित नहीं) प्रतीक्षा के लिए एक सहार (सहारा नहीं, सहार) मिल जाता है। याद करें, कबीर को तो सहार समझ में आता है—
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

कविता में छंद का होना जरूरी है, कविता में दिखे यह जरूरी नहीं है। छंद को संप्रेषण कौशल के औजार (TOOLS OF COMMUNICATION SKILLS)की तरह समझना चाहिए। छंद जीवन और जागतिक व्यवहार में भी जरूरी होता है, हम बहुत कोशिश करते हैं। यह कोशिश कविता में भी हो तो बेहतर! अन्य बातों के अलावा प्रेमचंद के गोदान का छंद भी बहुत उच्च-स्तरीय है। पढ़कर देख लीजिये न!

भाषा के मानकीकरण से भाषा की छंदस् योग्यता और आकांक्षा पर क्या असर पड़ता है और लोक में जहाँ भाषा के मानक दबाव का असर कम होता है, वहाँ कथ्य में छंद की अधिक उपस्थिति और व्याप्ति पर फिर कभी। अभी यो कबीर याद आ गये फिर, वे गुरु हैं--
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

कोई-न-कोई राय होनी चाहिए

कोई-न-कोई राय होनी चाहिए
===========

आज की दुनिया में
दूरियाँ बढ़ गई है कि नजदीकियाँ
कहना मुश्किल है
मेरे दोस्तों की इस पर दिलचस्प राय है
आप की भी कोई-न-कोई राय होनी चाहिए, खैर

हम एक दूसरे को जानते हैं!
हम एक दूसरे के दुख को नहीं जानते।

ऐसा क्यों होता है मेरे साथ
कह नहीं सकता
यकीन करता हूँ कि
आप के साथ यह सब नहीं होता होगा
क्या पता होता भी हो,
कुछ कह नहीं सकता

जब भी किसी से मिलता हूँ
मैं नहीं मेरा झूठ
लपककर हाथ मिलाता है,
कभी-कभी गले भी मिल लेता है
सामनेवाले के झूठ से

हमारे सुख आपस में बात करने लगते हैं
इस कदर बात करने लगते हैं कि
वक्त का कोई एहसास ही नहीं रह जाता है

आज तो गजब ही हो गया
मेरे झूठ ने सच को बहुत दुत्कारा
क्या-क्या न कहा, मसलन मुहँचोर

यह सच है कि मेरा दुख भी

मुँह चोर है और सच भी
मैं बहुत परेशान-सा हूँ कि
मेरा झूठ भी मुहँजोर है
मेरा सुख भी मुँहजोर है

आप मेरे दोस्त हैं तो बुरा न मानें
मेरा झूठ और मेरा सुख
इस समय समाचार चैनलों में टहल रहा है
और इस बीच मेरा दुख चुपके से
आप के कान में यह डाल रहा कि
हम एक दूसरे को जानते हैं!
हम एक दूसरे के दुख को नहीं जानते।

मैं लौट रहा हूँ मिथिला

मैं लौट रहा हूँ मिथिला
मिथिला को बताने
बताने कि मगध जिंदा है!
-------------------------------
इन दिनों खास मगध में हूँ
पूछता हूँ मगध से बार-बार
मैं कब नहीं था मगध में!

झकझोरता हूँ खुद को
मगध की बैखरी छायाओं को
झकझोरता हूँ परा को, 
पश्यंती को भी
पूछता हूँ मगध से बार-बार--
मैं कब नहीं था मगध में!

मगध कोई उत्तर नहीं देता
पूछता है सवाल
और मुँह फेर लेता है तत्काल
पूछता है कि उलाहनाओं को छोड़ो
मिथिला, मैथिली का हाल बताओ!

मैं एकदम भीतर से डर जाता हूँ 
डर  जाता हूँँ भारतवासी की तरह
डर  जाता हूँँ  कि मैं वह नहीं हूँ
जिस होने के भ्रम में जीता हूँ!

डर  जाता है मेरा भारतवासी मन कि
मगध सिर्फ छाया नहीं है
है उसमें प्राण बाकी
रिसता है उसके भी अंदर दर्द
जैसे दर्द मिथिला का, 
मैथीली का

मगध के प्राण में दर्द है
दर्द है तो विचार भी होगा!

दर्द और विचार तो वैसे ही होते हैं साथ
जैसे होते हैं साथ आग और धुआँ
मिथिला में हो, चाहे हो नालंदा में धुआँ

मिथिला का प्राण मिथ में बसा है अब तक
मगध जानता है कि कैसे और किस तरह
रौंदे हुए इतिहास में बचा है प्राण अब तक

हिलते हुए मगध ने कहा श्रीकांत!
जो अब तक कोई समझ नहीं पाया
भारतवासी की छाया 
हैसियत से बहुत लंबी हो गई है
उदयाचल! अस्ताचल!
जानती है पैर के नीचे दबाई गई जमीन है!
जानती है पैर के नीचे जमीन दबाई गई है!

तुम विचार की चिंता करते रहे!
विचार क्या करे कोई जब सवाल सामने हो
सवाल तो रोम-रोम में है श्रीकांत।

सवाल भारत जीता रहा
मिथ में, इतिहास में, मिथहास में
तो क्यों कुचला गया मगध या मिथिला!

तख्त हो या सलतनत पलटता जरूर है
सवाल हो या विचार उठता जरूर है श्रीकांत

मगध जिंदा है, और पूछ रहा है
मिथिला, मैथिली का हाल
मैं भारतवासी
मगध की जमीन पर
मगध को क्या जवाब दूँ!
क्या हाल बताऊँ मिथिला का!

मैं लौट रहा हूँ मिथिला
मिथिला को बताने
बताने कि मगध जिंदा है!
मगध जिंदा है अपने सवालों के साथ।

रिश्तों की रवायत

ये दूरियां
ये मजबूरियां
थथमार देती है
रिश्ते की नजाकत को
मार देती हैं!

अपना कौन, पराया क्या!
अपनों से अधिक पराया कोई क्या खाक होगा!

कभी-कभी अच्छा लगता है अपनों का परायापन
एवजी जिसके
परायों का अपनापन
ये कश्मकश ही शायद
रिश्तों की रवायत है!

ये दूरियां
ये मजबूरियां
थथमार देती है
रिश्ते की नजाकत को
मार देती हैं!

न बताना बहुत ही खतरनाक, इसलिए बता रहा हूँ

न बताना बहुत ही खतरनाक, इसलिए बता रहा हूँ
==============================
मैं आप से बात करना चाहता हूँ
जानता हूँ, फिलहाल वक्त नहीं है आपके पास
इसलिए बात करना तो बहुत ही मुश्किल है इन दिनों
मुश्किल है बात करना इसलिए बता भर देना चाहता हूँ


मेरे मन में भयानक सिकोड़ हो रहा है
इस सिकोड़ का रिश्ता मेरे इलाके में
रह रह कर पेट में उठनेवाले ममोड़ से कितना और कैसा है
कह नहीं सकता लेकिन, मेरे मन में भयानक सिकोड़ हो रहा है

इंटरनेशनल या ग्लोबल या ऐसे ही किसी विस्तार से
डर लगने लगा है मन, मन बहुत डर लगने लगा है

मेरा मन तो अब मिथिला तक सिमटकर रह जा रहा है
बहुत जोर मारकर भी बस बचे हुए बिहार तक पहुँच पा रहा है
उससे आगे नहीं जा पा रहा है, बहुत पुचकारने के बावजूद

इसे कविता न समझें, आप के पास बेहतरीन कविताएं हैं
इसे बस एक गृहस्थ की हताशा और अनास्था समझ लें
जानता हूँ, आप के पास आशा और आस्था के बेहतरीन काऱण हैं
जानता हूँ, बेहतरीन काऱण हैं कि फिलहाल वक्त नहीं है आपके पास
मेरे मन में भयानक सिकोड़ हो रहा है

बहुत ही भयानक होता है मन का सिकोड़
और दर्दनाक भी इस पर बात करना
न बताना बहुत ही खतरनाक, इसलिए बता रहा हूँ
मेरे मन में भयानक सिकोड़ हो रहा है।

बस्ता पर पकड़

बस्ता पर पकड़!
========
ओ जब एक से बढ़कर सब बन गई
लगातार उनकी आवाज गूँज रही थी
मैं इस दौरान लगातार सफर में रहा!


सफर में रहा नदियों की तरह
बहती विभिन्न भाषाओं बोलियों की
भंगिमाओं से रू-ब-रू होता रहा

कोई यकीन करे, तो कर ले!
मैं मातृभाषाओं की
विभिन्न भंगिमाओं में
उन उसटी अनुगूँजों का सीधा तर्जुमा
सुनता रहा, सफर में।

कितनी फीकी हो गई
अनुगूँजों के इन मातृभाषायी
तर्जुमाओं के सामने सदियों से
दुहरायी जा रही वाणी --- या देवी सर्वभू....
कितनी फीकी हो गई!

मैं मातृभाषाओं में
हो रही इन अनुगूँजों की
तर्जुमाओं को
अपनी मातृभाषा
मैथिली में
आप तक पहुँचाना चाहता हूँ - -
बस्ता पर गाम क बेटी क
पकड़ आर बढ़ि गेल छै मालिक
आब एकरा अपने
जेना बूझियै वा
नै बूझियै सरकार!

उधर बनारस
इधर मगध मिथिला
मैं इस दौरान लगातार सफर में रहा!
सफर में रहा बिहारी नदियों की तरह।

साबूत अंगूठा दिखा दिया

साबूत अंगूठा दिखा दिया
----------------------------
कसूर, इतना कि आँसू को पोछ लिया
डर अपने अक्स, से डर न जाओ प्रिया

रस्म नहीं मुनासिब भी नहीं जो किया
समझो, यह सब है अपना किया धिया

मुल्कियों की बात तो है खुद यही जीया
मुसीबत से खुश होकर तू ने राहत दिया

मेरे जज्वात का क्या जो दिया सो लिया
दिन थोड़े बचे हैं जो दिया सो कह दिया

आया था हाकिम कटी तर्जनी दिखा दिया
तो उसने अपना साबूत अंगूठा दिखा दिया

एक अनावश्यक स्पष्टीकरण, नहीं तो!

एक अनावश्यक स्पष्टीकरण, नहीं तो!
-----------------------------------------
मैं जानता हूँ कि इधर मेरी कुछ मैथिली पोस्ट का अर्थ लगाने में कठिनाई महसूस कर रहेंगे। थोड़ी-बहुत कठिनाई तो वे भी महसूस कर रहे होंगे जो मैथिली बोलते लिखते पढ़ते समझते रहे हैं। तो फिर, यह जानते हुए भी मैं इस तरह की शैतानी क्यों कर रहा हूँ! असल में, मैं मैथिली का अपना जातीय ठाठ तलाश रहा हूँ। ठाठ माने रिदम। पुरुष वर्चस्व व्यवस्था में भाषा में पुंसकोड यानी मर्दाना रोआब बहुत तीखा होता है। मर्दाना रोआब से मुक्ति थोड़ा नहीं, बहुत कठिन है। हाल के दिनों में तो भाषा में खासकर राजनीतिक भाषा के रूप में बहु व्यवहृत हिंदी में तो यह मर्दाना रोआब बहुत तेजी से बढ़ा है। हिंदी में लिखते रहने की लगातार कोशिश करते हुए मैंने हिंदी में मर्दाना रोआब की बे-अदबी को न सिर्फ अपने तरीका से समझा है, बल्कि अपने स्तर पर महसूस भी किया है। मेरा थोड़ा बहुत परिचय बांग्ला भाषा से भी रहा है। बांग्ला भाषा में इस मर्दाना रोआब का असर कम है। अभी भी, अपने खून में हुगली के पानी की खनक सुनाई देती है मुझे। 
अभी मिथिलांचल में बाढ़ आई थी। बाढ़ में सबसे ज्यादा तकलीफ जिन चीजों के अभाव से ऊपजती है उन में पानी अहम है! चारो तरफ पानी। पानी से घिरे लोगों के पास पानी नहीं है। पीने-पचाने लायक पानी को बचाना जैसे बड़ा काम है वैसे ही भाषा के बढ़ते प्रवाह में बोलने-सुनने लायक भाषा को बचाना भी बड़ा काम है। मर्दाना रोआब के खतरे भोजपुरी में भी कम नहीं है, ऐसा मुझे लगता है, इसकी पुष्टि या इसका खंडन तो भोजपुरी को अधिक गहराई से जाननेवाले लोग ही प्रामाणिक ढंग से कर पायेंगे। अपेक्षाकृत मगही भाषा पर मर्दाना रोआब का असर कम है। मैथिली में भी इस मर्दाना रोआब का असर उतना नहीं है। हाँ तो, इस तरह समझा जा सकता है कि मैं मैथिली का अपना जातीय ठाठ तलाशते हुए उस के अंदर किंचित सक्रिय मर्दाना रोआब को निष्क्रिय deactivate करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैंने तो जो भी सीखा है, दोस्तों से ही सीखा है। आप से अनुरोध है कि इस में मेरी मदद करें। मैथिली के संदर्भ में इस मर्दाना रोआब निष्क्रिय deactivate करने की कोशिश का नतीजा उत्साहबर्द्धक रहा तो फिर इसका लाभ अपनी हिंदी में भी मुझे मिलेगा। बस इतना ध्यान रहे, आपका, यानी प्राइमरी जनता विद्यालय का अल्प बुद्धि छात्र और आपके स्नेह का स्वाभाविक हकदार भी हूँ।

हरामी उजाले में मटकते भटकते हुए 'अँधेरे में' का पाठ संभव नहीं होता

हरामी उजाले में मटकते भटकते हुए 
'अँधेरे में' का पाठ संभव नहीं होता
------------------------------------
आज ये सवाल ‘अग्निवर्षी लेखकों’ से ही नहीं ‘तुषराद्रि-संकाश-गौर-गंभीर लेखकों’ से भी है और खुद से भी है, कि क्या हमारा लेखन साहित्य की किसी भी तरह की सामाजिक सार्थकता को बचा पाने में सक्षम हुआ है? जवाब...! जवाब तो उजाले के चराऊर पर निकला है!


तब याद आते हैं मुक्तिबोध आशंकाओं के अंधेरे में विचरते मुक्तिबोध

‘….... ….......
…..............
इसीलिए मैं हर गली में 
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा।' –----- मुक्तिबोध
निश्च्त रूप से मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' बहु अर्थ संभवा ऐसी कविता है जिसमें सभ्यता की काव्य चेतना के सारे संदर्भ मुखर हैं। यह रहस्य और अस्मिता की कविता न होकर सभ्यता के मुख्य अंश में सक्रिय शंकाओं और समय की छलनाओं से टकराते हुए अनावरण और संभावनाओं को भाषा में हासिल करने की बहुआयामी द्वंद्वात्मकताओँ की कविता है। यह वह कविता है जिसे बाहर से पढ़ा ही नहीं जा सकता है। एक स्थिति के संदर्भ से शायद बात साफ हो। रौशनी में खड़ा व्यक्ति अँधेरे में खड़े व्यक्ति की स्थिति को नहीं देख सकता है लेकिन अँधेरे में खड़ा व्यक्ति रौशनी में खड़े व्यक्ति की स्थिति को देख सकता है। मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' का पाठ तभी संभव हो पाता है जब हमारी पाठचेतना के अंदर उस अँधेरे के वृत्त में प्रवेश करने का व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता परस्पर संवादी और सहयोजी मुद्रा में हों। व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता परस्पर संवादी और सहयोजी मुद्रा की कमतरी 'अँधेरे में' की पाठ-प्रक्रिया को क्षतिग्रस्त कर देती है। मुश्किल यह कि व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता को परस्पर संवादी और सहयोजी बनाये रखने के लिए जिस सांस्कृतिक धैर्य की जरूरत होती है हम उस पर टिकने के बजाये किसी तात्कालिक निष्कर्ष की हड़बड़ी के शिकार हो जाते हैं। अभी तो इतना ही..

तो वह ख्वाब क्या था



क्या कहती हो मेरी जान मैंने तुम से बता नहीं की बरसो
तो वह ख्वाब क्या था जो बड़बड़ता रहा है मुझ में बरसो

तुम हुश्न-ए-आजादी थी ये मुल्क तुम्हें सजाता रहा बरसो
बात दीगर है कि भूत को पनाह देनेवाला निकला सरसो


सच जो चीज हमारे पास है उसके लिए हम तरसे बरसो
इंसानियत ये जम्हूरियत बड़ी बात बस इसके लिए तरसो

बस ये सियासत है कि आवाम ने कैसे सम्हाला इसे बरसो
क्या कहती हो मेरी जान मैंने तुम से बता नहीं की बरसो

ओ और था ये और है!

ओ और था ये और है!
-------------------
ओ दौर-ए-मुहब्बत और था ये दौर-ए-तिजारत और है
ओ दौर-ए-जियारत और था ये दौर-ए-लियाकत और है

ओ दौर-ए- हुकूमत और था ये दौर-ए-सियासत और है
ओ दौर-ए-मसरत और था ये दौर-ए- फिराकत और है

ओ दौर-ए- जम्हूरियत और था ये दौर-ए-जमूरात और है
ओ दौर-ए-अल्फाज और था ये दौर-ए-किताबत और है

ओ दौर-ए-मिलावट और था ये दौर-ए-अदावत और है
ओ दौर-ए-मजम्मत और था ये दौर-ए-हिकारत और है

ओ दौर-ए-गुफ्तगू और था ये दौर-ए-कहावत और है
ओ दौर-ए-रहमत और था ये दौर-ए-रियायत और है

ओ दौर-ए-हिफाजत और था ये दौर-ए-कयामत और है
ओ आब-ए-हयात और था ये ये दौर-ए-करामात और है

बड़पन्न साहस हर लेता है! बड़पन्न हर लेता है साहस।

बड़पन्न साहस हर लेता है!
बड़पन्न हर लेता है साहस।
-------------------------
पीपल और बट वृक्ष
कितने बड़े-बड़े होते हैं, न!
दूर से भी दिख जाते हैं।
पूजे भी जाते हैं।
ताप के ताये को पनाह देते हैं।
पर्यावरण देते हैं।
देते हैं, और भी बहुत कुछ।
यह बड़प्पन है।


देते हैं बहुत कुछ
देते नहीं हैं कोई फूल
फूल जिसे तुम जूड़े में लगा सको
फूल जिसे किसी देवता पर चढ़ा सको
फल जिसे खिल-खिला उठे सहज
कोई हबक्का मार कर खा सके कोई

बड़पन्न ऐसा कुछ नहीं देता
बड़पन्न और उसकी तमन्नाओं
में बिला जाता है साहस

ऐसा है बड़पन्न!
बड़पन्न ऐसा कुछ नहीं देता है
बड़पन्न साहस हर लेता है!
बड़पन्न हर लेता है साहस।

बे-हिस सपने का मारा नहीं था


सुनो, मैं उधर जा नहीं रहा था
बस, हवा का रुख बता रहा था

किसी डूबते का सहारा नहीं था
बे-हिस सपने का मारा नहीं था

दोष था बसा कि नारा नहीं था
थी नजर मगर नजारा नहीं था

जनतंत्र में कोई चारा नहीं था
बल-बुतरू हैं, बेचारा नहीं था

मजबूरी में कोई चारा नहीं था
न समझो, कि गुजारा नहीं था

ठीक से कोई ललकारा नहीं था
बे-हिस सपने का मारा नहीं था

जी, दूनू पानि मारै छी!

मारै छी दूनू पानि। बाँतर नै ई आ नै ओ। मुदा नै त ई अरघैत अछि आ ने ओ! रद दस्त होइत रहत। मंथन हैत की नै, नहिं जानि मुदा मरोर त उठिये गेल अछि।
------------------------------------------
आरणीय गोविंद झा हमर एक टा मैथिली पोस्ट पर कहलैन :
'अपन बाड़ीक पटुओ मीठ लगै छै। बहुत कें दूरैक ढोल सोाओन नगैछनि। हमरा जनैत अहाँ दूनू पानि मरैछी।'
हम कहलियेन :

'सत गप... मुदा किये... !'

एहि मुदा किये  क की जवाब भ सकैत छै! जवाब नै भ सकैत छै वा बहुत चलताऊ ढंग स किछ कहि देल जा सकैत छै जवाब ज नहियो होई तो लेस जरूर द सकैत छै। एहि मुदा किये  क जवाब गहन सामाजिक मंथन क माँग करैत छै। ई हम गहन सामाजिक मंथन लेल तैयार छी! मिथिला मैथिली पर गप कर लेल जे उत्सुक वा उताहुल छैथ हुनका व्यक्तिगत स्तर पर आ सामाजिक स्तर पर सेहो अपना स पूछबाक चाही, जे की हम गहन सामाजिक मंथन लेल तैयार छी! तैयार होई वा नै होई, आइ नै त काल्हि ई सामाजिक मंथन शुरू हेबे करतै। हम एहि पर सोचि रह छी, से सूचना मात्र बूझल जाए! सोचबा आ लिखबा मे अंतर छै, तखन देखल जाए!
त्रासद स्थित ई जे, हिंदी मे जखन हम मैथिली, भोजपुरी आदिक मार्यादा कि महत्तव क गप रखैत छी त हिंदी क किछ गोटे हमरा हिंदी लेखक होइतो हिंदी द्रोही मान आ कनफुसकी कर लगैत छैथ। कर्णपिशाची आ कनफसादी स हमरा मे कोनो विचलन आबि जाइत अछि ई गप नै, मुदा घुसपेठिया हेबाक दुख त होिते अछि! मैथिली मे जखन हिंदी क महत्त्व क गप रखैत छी त एलौ पहुनमा लुत्ती लगो सन माहौल बुझना जाइत अछि! स्थिति ई जे गाम मे कलकतिया आ कलकता मे हिंदुस्तानी, ने एम्हरे आ ने ओम्हरे। आहि रे बा कतौ के नै! 'एम्हरे आ ने ओम्हरे' पर एडवर्ड सईद, वी एस नॉयपाल आदि लिखने छैथ। मुदा हुनकर गप्प अपन जगह, ओहि स किछ संकेत त ल सकैत छी, मुदा एहि दर्हुद क होमियोपैथी हुनका सभ लग नै। तांइ हुनकर  सभ क अनुसरण केनाइ उचित नै, शरणागत भेनाइ त कथमपि नै। हमर मुश्किल ई जे मारै छी दूनू पानि। बाँतर नै ई आ नै ओ। मुदा नै त ई अरघैत अछि आ ने ओ! रद दस्त होइत रहत। मंथन हैत की नै, नहिं जानि मुदा मरोर त उठिये गेल अछि।


बैरी हमारी नादानी हुजूर

 बैरी हमारी नादानी हुजूर
=====
अब हैरान क्या देखते हैं, पानी हुजूर
जब बचा ही नहीं कहीं, पानी हुजूर
बाढ़ है या है ये कोई करिश्मा हुजूर
कब जो उठ जाये दाना-पानी हुजूर
नहीं सिर्फ आपकी कारस्तानी हुजूर
कायम न हो सकी निगहबानी हुजूर
दरिया नहीं, बैरी हमारी नादानी हुजूर
अब हैरान क्या देखते हैं, पानी हुजूर

वे मार दिये गये

बहुत ही दुखद और शर्मनाक है। कहीं भी किसी की भी हो हत्या कभी भी कोई भी करे हत्या। यह दुखद और शर्मनाक है। कलंक है। शासन-प्रशासन की जबानी जमा-खर्च से यह कलंक धुल नहीं जाता है। साधारण आदमी की स्थिति तो यह है कि वह समझ ही नहीं पाता कि उसे किस ने मारा। सच और झूठ का चेहरा कैसा है यह नहीं मालूम होता है। वे जो उस वक्त अपने जीवन की सर्वाधिक निर्दोष स्थिति में थे, इस तरह से मार दिये गये! वे तीर्थ यात्रा पर थे। वे ईश्वर और शांति की तलाश में थे! वे ठीक उस वक्त किसी बदले की कार्रवाई में शामिल नहीं थे। वे अपने हक पर थे। वे मार दिये गये। इस की कोई भरपाई नहीं। ना जाने आनेवाला दिन कैसा है। मुझे पता नहीं इस समय किस से क्या माँग की जाये। मार कर किसी को किसी अन्य को जिलाया नहीं जा सकता। नफरत की लपट और उठेगी। मनुष्यता और झुलसेगी! ऐसे में क्या बात करूं! लेकिन बात तो करनी होगी क्योंकि ऐसे में, खामोशी का हर लम्हा हत्यारों के लश्कर में शामिल हो जाता है। ऊफ बहुत शर्मसार और लाचार हूँ।

इंतज़ार बचा रहे

यही तो है जिंदगी
▬▬▬▬
चाहे जितना भी
खतरनाक हो मौसम
फूल के खिलने,
मुस्कुराने पर ऐतबार बचा रहे

चाहे जैसा भी हो
आसमान का तेवर
पंछियों में उड़ान के
हौसले पर यकीन बना रहे

नमक से दाल की हो
जितनी भी दूरी
पसीने को नमक की ताकत पर
अंत तक भरोसा कायम रहे

भाषा में हो जितना भी
अर्थ संकोच
कविता में
संभावनाओं का आँचल
प्यार से पसरा रहे

चाहे जैसी भी हो जिंदगी
पर रौनक की राह रहे
बस यही तो है,
यही तो है जिंदगी, 

यही है जिंदगी
यह मौसम मुहब्बत का नहीं है
चाहे जितनी बार कहे कोई

तेरी निगाह में में
मेरे इंतजार का घर बसा रहे!

श्वेत सदन में जमकर जिम रहे थे स्वयं श्री भगवान

उत श्वेत सदन में जमकर जिम रहे थे स्वयं श्री भगवान
इत एक-एक दाना के लिए तरस रहे हैं किसान
इत-उत डोल रहे पुरोहित करते हुए बड़े बखान
मुहँ बिधुआ कर फिर भी मुरझाया रहा  जजमान
चोर लुटेरों से पटा हुआ है ये धरती और आसमान
दौड़ रहा ऊमंग में गली-गली स्वच्छता अभियान
लोक अकिंचन तंत्र तो सचमुच है बहुत महान
कामकाज का नहीं ठिकाना कोई नहीं निदान
सूरज तो उग कर डूब जाता आता नहीं बिहान
श्वेत सदन में जमकर जिम रहे थे स्वयं श्री भगवान

तुम फूल लेकर मत आना

तुम फूल लेकर मत आना
———
मुझे पत्थरों से
बहुत डर लगता है,
वह किसी की मुट्ठी में हो,
आस्था या अक्ल में हो,
मन में हो या फिर वतन में हो।

मुझे पत्थरों से
बहुत डर लगता है
और इसलिए लिखता हूँ।

मैं पत्थरों पर तुम्हारा नाम
नहीं लिख सकता
अब इसका चाहे जो मतलब हो
मैं पत्थरों पर तुम्हारा नाम
नहीं लिख सकता
जैसे कि कविता! 

मुझे पत्थरों से
बहुत डर लगता है
पत्थर की लकीर हो
या हो पत्थर का फकीर।
तुम फूल लेकर मत आना।

खून मेरे जिस्म का

यह सब देखकर भी मुझ को कोई परेशानी नहीं है।
कैसे कह दूँ कि खून मेरे जिस्म का अब पानी नहीं है!

चलता हूँ सम्हलकर कौन कहता निगहबानी नहीं है!
फिर भी सफर जारी है कि कैसे कह दूँ मेहरबानी नहीं है!

मुफलिसी में भी तेरी ये हँसी तेरा भी कोई सानी नहीं है।
ये शरारत है दिल कहता है कि ये तेरी कोई नादानी नहीं है।

तेरी आवाज में है जादू कायम नहीं अब कोई रवानी नहीं है।
सब सह लेता है ये इसके हिस्से में कोई जवानी नहीं है।

करिश्मा रोज मिलता हूँ पर सूरत कोई पहचानी नहीं है।
हर कदम पर पहरेदारी कौन कहता कि निगरानी नहीं है।

ये रवैया ये फैसला देख कह दे अदालत कोई दीवानी नहीं है!
जो न मुतासिर खुलकर कह दे वह कोई हिंदुस्तानी नहीं है।

सच, उस तरह से नहीं

सच, उस तरह से नहीं
🔰🔰➖➖🔰🔰
उस तरह से
मेरे ख्यालों में नहीं
उभरती हो तुम
जिस तरह से
आसमान में
उगा करता है चाँद
मैं तो समझता रहा सदा कि
जिस कठौते में होती है गंगा
सब से पहले उसमें
उगता है चाँद
उगता है और
आसमान में छा जाता है चाँद
फिर भी उस तरह से
मेरे खयालों में नहीं
उभरती हो तुम

किसी सुंदरता को तुम में नहीं
सुंदरता में तुम्हें तलाशता हूँ

असल में इस दरम्यान मैं
कठौते चाँद गंगा सुंदरता
और तुम में खुद को तलाशता हूँ
और इस तरह से
मन गंगा तन कठौता
खयाल आसमान हो जाता है
और तुम बुझे हुए मन को
हुलसा जाती हो
और बस यही कि
तुम मेरे ख्यालों से
बाहर मचल जाती हो

सच, उस तरह से
मेरे ख्यालों में नहीं
उभरती हो तुम
जिस तरह से
आसमान में
उगा करता है चाँद

शुक्रिया वृक्ष

मकान की नींव और घर की जड़
 
एक मकान बन रहा था
एक वृक्ष था बिल्कुल पास
वृक्ष की एक डाल से रुकावट थी
डाल को काटे बिना
कोई उपाय न था
सो काट दी गयी डाल अंततः

लगभग नौ महीने बाद
प्रकृति की माया
कटी डाल पर वृक्ष का दुलार
शेष वृक्ष में नहीं,
कटी डाल पर दिखा
नव पल्लव से
आच्छादित दिखी कटी डाल

वृक्ष की जड़ है
मकान की है नींव
नींव चाहे जितनी गहरी हो
नींव जड़ नहीं होती

वृक्ष ने मुझे पास बुलाया 
वृक्ष ने मुझे
अपनी करुणा से समझाया ➖
मकान की नींव होती है जड़ नहीं
जड़ घर की होती है
मकान बनता है घर बसता है
घड़ बसता है अपनी जड़ पर

मुझे बेहद खुशी है
वृक्ष ने मुझ से बात की।

शुक्रिया वृक्ष! शुक्रिया!!

चीख ➖ ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है!

चीख ➖
ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है!

———

मैं ने चीख सुनी करुण और क्रूर
मैं भीतर तक हिल गया
कुछ करना चाहिए!

फ्रीज से ठंढा पानी निकाल लाया
शुद्ध ठंढा सीलबंद पानी
पानी की तासीर
या कि शुद्ध ठंढा सीलबंद होने का
मैं ने सोचा कि क्या कर सकता हूँ!
यह दुनिया की पहली चीख नहीं है
यह चीख आखिरी भी नहीं है!
न मैं पहला आदमी हूँ, न आखिरी
जिसने सुनी हो चीख!

तो चीख फिर क्या है, मैं ने सोचा
यह जानते हुए भी कि
सोचना न हक है न मुनासिब
मैं ने सोचा आदतन कि
चीख ➖
ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है!
चीख पर बहुत अच्छी कविता
लिखी जा सकती है
ढेर सारी
बधाई और
तारीफ बटोरी जा सकती है!

शुद्ध ठंढा सीलबंद पानी
पानी की तासीर और चीख!
यह शीर्षक कैसा रहेगा!

वह मेरा नहीं है

वह मेरा नहीं है!
➖➖➖
सपने में ही मिल लेता था, ख्वाब जो षडयंत्र वह मेरा नहीं है
तकनीकी सलाम आदमी बेदखल जिससे वह यंत्र मेरा नहीं है
चुनाव दर चुनाव जो भटकता रहा, वह जनतंत्र मेरा नही है
जो देवता को ही विदा कर दे ऐसा तो कोई मंत्र मेरा नहीं है

बेहतर है, बहुत नींद में ख्वाब का जग जाना

बेहतर है, बहुत
नींद में ख्वाब का जग जाना
➖ ➖ ➖
जो हासिल न हुआ
सो न हुआ
कुछ होना तो बेहतर है कुछ न होने से,
कुछ तो बेहतर है
नींद में सही, किसी
ख्वाब के जग जाने से

जी! बेहतर है,
बहुत नींद में
ख्वाब का जग जाना
अफसोस, लेकिन कि
ऐसी नींद
उधार नहीं मिलती है।

जी बेहतर है बहुत,
नींद में ख्वाब का
जग जाना!

भाषा का भिखारी

भाषा का भिखारी!
➖ ➖ ➖
तू कैसा है रे! परफूल!
भाषा का भिखारी!
न तेरा कोई
अपना जनपद है!
न कोई जमीन है!
जमीर?
चल! उस पर
फिर बात कर लेंगे।

कविता के साथ क्या हुआ!

कविता कोई बौद्धिक कार्रवाई तो है नहीं सो लिखी जाती है अचेत मन से। कविता पढ़ना लेकिन बौद्धिक कार्रवाई है सो, पढ़ी जाती है सचेत मन से।  कोई भी कविता जब हमारे अनुभव का हिस्सा बनती है तो उसकी अनुभूतियाँ हमारे मन को नये सिरे से सरियाती और सँवारती है, रिएलाइन करने की कोशिश करती है। अगर अपने अंदर के कोलाहल को स्थगित कर हम कविताओं पर कान धरने में कामयाब हो सकें। आज लिखी जा रही अधिकतर कविताओं के संदर्भ में यह कहना प्रयोजनीय है, कि भाषा एक सार्वजनिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक औजार है। इस औजार को साधना पड़ता है। फिर कहें, कविता लिख ली जाती है अचेतन मन से, लेकिन पढ़ी जाती है सचेत हो कर। समाज, भाषा और कविता के अंतस्संबंध पर गौर करें तो, भाषा कविता को काबू करे यह अच्छी स्थिति नहीं है, बल्कि चाहिए यह कि कविता भाषा को काबू करे। शायद सब से अधिक संख्या में कविता लिखी जाती है, और सब से कम संख्या में पढ़ी जाती है! तो कविता के साथ क्या हुआ!
कविता के साथ क्या हुआ! जी हिंदी कविता के साथ! अन्य भाषा की कविताओं के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा।
हिंदी में हिंदी कविता लिखना मुश्किल होता गया। हिंदी में हिंदी कविता लिखना मुश्किल होता गया! क्या मतलब? जब हिंदी में मैथिली, भोजपुरी, ब्रज, अवधी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, उर्दू आदि कविता का लिखा जाना मुश्किल होता गया तो हिंदी में हिंदी कविता का लिखा जाना मुश्किल हो गया। नागार्जुन हिंदी में मैथिली कविता लिखते थे, इसलिए जनकवि हो सके। बिना जनपद के जनकवि नहीं हुआ जाता है। धीरे-धीरे कवियों में यह कहने का साहस खोता गया कि ‘उस जनपद का कवि’ हूँ। जब साहस ही खो गया तो शब्द को मरना ही था, सो मर गया। क्योंकि सहमत न होने का सवाल ही नहीं उठता केदारनाथ सिंह की बात से कि ‘शब्द मरते हैं, साहस की कमी से’। भारतेंदु हरिश्चंद्र और अयोध्या प्रसाद खत्री के पत्राचार की याद है न! तो फिर हिंदी में मैथिली आदि की कविता का लिखना क्यों बंद हो गया? इसलिए कि मैथिली आदि में ही मैथिली आदि की कविता लिखना लगभग असंभव हो गया! इस हादसा से निबटने के लिए हिंदी आदि के कवियों ने भारतीय कविता की बात शुरू कर दी। स्थानिकता, कह लें आंचलिकता, को दबाने में राष्ट्रीयता से बड़ा  चिक (बाँस की कमानियों से बना पर्दा) और क्या हो सकता था। तो हिंदी कवि हिंदी कविता की जगह भारतीय कविता की और बढ़ गये। इधर स्थानीय कवि भी लपककर भारतीय कविता बनाने की दौड़ में शामिल हो गये तो अगला विश्व-कविता लिखने लगा। जो इशारा न समझे उसे आगे कुछ भी कहना बेकार है। इसलिए, अब आगे कहना जरूरी नहीं कि हिंदी कविता के साथ क्या हुआ। 

भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा और शिव

ऊँ नमः शिवाय  : महाशिवरात्रि की शुभकामनाएँ
➖➖➖
आज महाशिवरात्रि है। पूजा, अर्चना, आराधना, प्रार्थना, भजन और भक्ति का माहौल है। हालाँकि, पूजा, अर्चना, आराधना, प्रार्थना, भजन और भक्ति में अंतर भी है, लेकिन ये परस्पर घुलमिल गये हैं। राम और कृष्ण के साथ भक्ति का संबंध तो विकसित हुआ, लेकिन भक्ति और शिव का क्या संबंध रहा है? राम और कृष्ण विष्णु के अवतार हैं। शिव या रुद्र का अवतार? 
रुद्र का हथियार त्रिशूल है। रुद्र इसका इस्तेमाल शिव को सुनिश्चित करने के लिए करते हैं। यह बात तब और महत्त्वपूर्ण लगने लगती है जब हमारा ध्यान इस तरफ जाता है कि शिव आर्येतर परंपरा से आते हैं। यहाँ के शिव के आर्य या अनार्य परंपरा के होने के उल्लेख की बस इतनी ही प्रासंगिकता है कि रुद्र अपने समाज की मुख्य-धारा की परंपरा से नहीं, बल्कि मुख्य-धारा के समांतर किंतु भिन्न परंपरा से संबद्ध रहे हैं। भारतीय संस्कृति की मुख्य-धारा की इस खासियत को समझने में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सहायक और साक्षी हो सकते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद और ब्राह्मण-धर्म की पुन:स्थापना से भारत की धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों में जो अभूतपूर्व क्रांति’ उत्पन्न हुई! अब यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के बाद बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया या ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के लिए बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया?
‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के बाद बुद्ध को विष्णु का अवतार माने जाने की ‘उदारता’ का कोई कारण नहीं दिखता है। ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के लिए बुद्ध को विष्णु का अवतार माने जाने का संकेत मिलता है, वह यह कि बुद्ध को विष्णु का अवतार मान लिया गया, लेकिन, ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद और ब्राह्मण-धर्म की पुन:स्थापना’ के बाद बौद्धों को वैष्णव नहीं माना गया। उच्छेद में निहित उत्पीड़न को समझा जाये तो संस्कृति की मुख्य-धारा की खासियत पर थोड़ी रौशनी पड़ सकती है; कैसे ‘बौद्ध-धर्म’ अपने उच्छेद के बावजूद अपने अस्तित्व को भारत में बचा सका। निश्चित रूप से इस बचने में इस्लाम के आगमन के महत्त्व को भी समझना जरूरी होगा। यह सच है कि इस्लाम के साथ भी बौद्ध का द्वंद्वात्मक संबंध ही था, लेकिन ब्राह्मण-विरोधी के रूप में इस्लाम की उपस्थिति ने पहले से सक्रिय ब्राह्मण-विरोधी संप्रदायों में एक नये प्रकार की पारस्परिकता को विकसित किया, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘मुसलमानों के आने के पहले इस देश में कई ब्राह्मण-विरोधी संप्रदाय थे। बौद्ध और जैन तो प्रसिद्ध ही हैं। कापालिकों, लाकुलपाशुपतों, वामाचारियों आदि का बड़ा जोर था। नाथों और निरंजनियों की अत्यधिक प्रबलता थी। बाद के साहित्य में इन मतों का बहुत थोड़ा उल्लेख मिलता है। दक्षिण से भक्ति की जो प्रचंड आँधी आई, उसमें ये सब मत बह गए। पर क्या एकदम मिट गए? लोकचित्त पर से क्या वे एकदम झड़ गए? हिंदी, बँगला, मराठी, उड़िया आदि साहित्यों के आरंभिक काल के अध्ययन से इनके बारे में बहुत-कुछ जाना जा सकता है।’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘बौद्ध धर्म का इस देश से जो निर्वासन हुआ उसके प्रधान कारण शंकर, कुमारिल और उदयन आदि वैदांतिक और मीमांसक आचार्य माने जाते हैं। .....पर उन्होंने निचले स्तर के आदमियों में जो प्रभाव छोड़ा था, उसमें नाम-रूप का परिवर्त्तन हुआ, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शंकराचार्य के तत्त्ववाद की पृष्ठ-भूमि में बौद्ध तत्त्ववाद अपना रूप बदलकर रह गया।
बड़े-बड़े बौद्ध मठों ने शैव मठों का रूप लिया और करोड़ों की संख्या में जनता आज भी उन मठों के महंतों की पूजा करती आ रही है।’ शैवों-कापालिकों-लाकुलपाशुपतों के बारे में मुख्य-धारा की क्या धारणा रही है, यहाँ बस इतना ही स्पष्ट करना था। साथ ही यह ध्यान दिलाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि विद्यापति की भक्ति का प्रसंग राम से नहीं, शिव-पार्वती और राधा-कृष्ण से जुड़ता है, लेकिन मुख्य-धारा को शिव-पार्वती प्रसंग उतना नहीं सुहाया जितना कि राधा-कृष्ण प्रसंग। अकारण नहीं है कि विद्यापति का प्रसार ‘मुख्य-धारा’ की ‘मुख्य-भूमि’ की ओर न हुआ, बल्कि बंगाल, उड़ीसा, असम, नेपाल आदि की ओर हुआ। भूलना न होगा कि विद्यापति का प्रसार उन्हीं सरणियों में हुआ जिन सरणियों में उनके पहले बुद्ध और उनके बाद कबीर का प्रसार हुआ था।